स्याह उजाले के धवल प्रेत - भाग 6 (अंतिम भाग) Pradeep Shrivastava द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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स्याह उजाले के धवल प्रेत - भाग 6 (अंतिम भाग)

भाग -6

हज़ारों लोगों की हैरान-परेशान भीड़ सुलगती सड़क पर रुकने के बजाय आगे बढ़ने लगी है । वासुदेव के पास भी आगे बढ़ने के सिवा और कोई रास्ता नहीं है। रात-भर का थका-माँदा समूह आगे बढ़ता जा रहा है। 

बहुतों के पैरों में छाले पड़ गए हैं। बहुतों के तो वह छाले फूट भी चुके हैं। फूटे छालों के घाव की पीड़ा, चालीस डिग्री की तप्ती गर्मीं में भीतर तक वेध रही है। गर्म हवा के थपेड़े झुलसाए दे रहे हैं। 

सभी के गले सूखी बंजर भूमि से हो रहे हैं। डिहाइड्रेशन के कारण सब की हालत बदतर होती जा रही है। मगर अपने-अपने बच्चों के प्राणों को बचाने के लिए उनके क़दम ठहर नहीं रहे हैं। 

वासुदेव अपने एक बच्चे को गोद में, तो दो बच्चों को कंधों पर बैठाए हुए है। बैग सिर पर रखे है। दया की गोद में सबसे छोटी बच्ची हाँफ रही है। चलते-चलते कई लोग गिर जा रहे थे। पस्त हो कर जलती ज़मीन पर ही पसर जा हैं। 

लेकिन कोई किसी के लिए चाहते हुए भी ठहर नहीं रहा है। समूह को आगे निकलता देख कर, ज़मीन पर गिरा हुआ आदमी सारी ताक़त समेट कर गिरता-पड़ता आगे बढ़ने लगता है। समूह की ज़िद आगे बढ़ते रहने की थी, तो अंततः मंज़िल के शुरूआती पड़ाव को सामने आना ही पड़ा। 

दो घंटे बाद समूह एक क़स्बे में प्रवेश कर ठहरने लगा है। वह क़स्बे की बाज़ार में है, जहाँ लॉक-डाउन के कारण गंभीर शान्ति है। सभी दुकानों के सामने बैठते जा रहे हैं, बैठ क्या रहे हैं, बल्कि एक तरह से वहाँ गिरते जा रहे हैं। दुकानों के आगे इक्का-दुक्का पेड़ भी हैं। उनसे उन्हें कोई छाया तो नहीं, हाँ सीधी पड़ती धूप से राहत ज़रूर मिल रही है। 

मगर एक चीज़, जिसकी उन्हें जान बचाने के लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरत है, वह सिरे से ही नदारद है। दूर-दूर तक पानी का नामोनिशान नहीं है। जैसे वहाँ किसी को पानी की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। समूह के तमाम सदस्यों ने आस-पास का कोना-कोना छान मारा, लेकिन उन्हें हर तरफ़ निराशा ही हाथ लगी। 

भरी दोपहरी में सब भूखे-प्यासे, छालों के दर्द से कराहते पड़े हैं। कई बच्चों क्या, बड़ों की भी जान पर बन आई हैं। मगर तभी समूह के भाग्य ग्रह थोड़ा मंगलकारी स्थिति में प्रवेश कर गए, प्रशासन की दो गाड़ियाँ उनके बीच आकर रुकीं, उसे देखते ही लोग उसकी तरफ़ लपके तो पुलिस की गाड़ी से अनाउंस किया गया, “आप लोग अपनी जगह बैठे रहिए। आपको घर भेजने के लिए गाड़ियों की व्यवस्था की गई है, वह कुछ ही देर में आ रही हैं।” 
तभी समूह से पानी-पानी की आवाज़ उठी तो अब-तक गाड़ी से बाहर आ चुका अधिकारी बोला, “पानी भी आ रहा है, थोड़ा धैर्य रखें। आप लोगों की सुविधा के लिए प्रशासन ने सारी व्यवस्था की है। हम आपकी स्थिति के बारे में पूरी जानकारी ले चुके हैं। आप-लोग निश्चिन्त रहिए, अब आपको कोई कष्ट नहीं होने दिया जाएगा।”

यह सुनकर वासुदेव भुनभुनाया, “बसें तो उस मक्कार ने भी भेजी थीं, आधी रात को हमें धोखे से घर से निकाल कर, अंगार बनी सड़कों पर फिंकवाने के लिए। कहीं तुम भी वही क़िस्सा न दोहराओ। अबकी यह तय मान लो कि धोखाधड़ी हुई तो बसें फूँके बिना नहीं छोड़ेंगे, भले ही जान चली जाए। बस से उतरेंगे तभी जब घर आ जाएगा।”

वह कुछ और भी बोलने जा रहा था, लेकिन तभी दया ने उसे रोक दिया। इस बीच खाने-पीने की चीज़ों से भरी दो गाड़ियाँ आ गईं। जिसे देखते ही समूह में एकदम से हलचल मच गई। इस हलचल को प्रशासन के लोगों ने किसी तरह नियंत्रण में रखते हुए सभी को पानी, बिस्कुट दिया। 

साथ ही यह भी कहा कि सभी अपने चेहरे को अगौंछा, रुमाल या जिसके पास जो भी कपड़ा है, उसी से ढक लें। प्रशासन की इस व्यवस्था ने समूह की जान में जान डाल दी। क‍इयों ने कहा कि यहाँ का सीएम योगी महात्मा है, तभी यह सब हो रहा है। 

एक महात्मा से ज़्यादा कौन समझ सकता है हम ग़रीबों, इंसानों का दर्द। आधा घंटा बीतते-बीतते एक के बाद एक कई बसें आईं, सबको लेकर उनके ज़िलों की तरफ़ बढ़ गईं। बैठते-बैठते लोगों ने, प्रशासन के लोगों से लेकर क्लीनर, ड्राइवर तक, सबसे बार-बार पूछा, “भैया अबकी बीच राहे में तो नहीं छोड़ेंगे न। ज़िले तक तो पहुँचा देंगे न।” सभी के बार-बार हाँ बोलने पर भी लोगों के मन में संशय कुलबुलाता रहा। 

वासुदेव एकदम पीछे वाली सीट पर परिवार सहित बैठा है। उसकी दुध-मुँही बच्ची की तबीयत ख़राब लग रही है। बाक़ी बच्चों की भी पस्त हालत देखकर दया की आँखों से आँसू निकल रहे हैं। वासुदेव की भी चिंता बढ़ रही है। 

उसकी दृष्टि बस में लगी टीवी पर चल रहे समाचार पर बराबर लगी हुई हैं। यह देखकर उसके मुँह से फिर गालियाँ निकलने लगीं कि दिल्ली के मक्कार के द्वारा, आधी रात को धोखे से, घर से निकाल कर, प्रदेश के बार्डर से बाहर फेंकने के कारण भगदड़, परेशानियों के चलते तीन बच्चों सहित पाँच लोग मर गए हैं। 

दया ने फिर उसे किसी तरह चुप कराने का प्रयास किया लेकिन वह चुप नहीं हुआ। दिल्ली सरकार को वह मक्कार सरकार कहके उस पर बरसने में लगा है। उसकी बातों को सुनकर लोग मुड़-मुड़ कर उसकी तरफ़ देखते हैं। कुछ तो उसके सुर में ही सुर मिलाने लगे हैं। जिससे बस बहसबाज़ों का अड्डा लगने लगी है। 

दया इससे बहुत डर गई है, वह बार-बार उसे जितना चुप कराने की कोशिश कर रही है, वह उतना ही ज़्यादा आक्रामक होता जा रहा है। उसने उसे बीमार बिटिया का वास्ता दिया, साफ़-साफ़ कहा कि “काहे बवाल करे पर उतारू हो, कंडक्टर ने कहीं बस से नीचे उतार दिया न, तो सारी नेता-गिरी भूल जाओगे।”

लेकिन वह चुप तब हुआ जब शोर बढ़ने पर क्लीनर ने आकर उसे बहुत हड़काते हुए कहा, “ऐसे शोर मचाएगा तो ड्राइवर साहब गाड़ी कैसे चलाएँगे।” 

उसने दया की बात दोहराई, “ज़्यादा राजनीति करनी है तो नीचे उतर जाओ। तुम लोगों को परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। सरकार अपना काम कर रही है, बसों, पानी, नाश्ते हर चीज़ का तो इंतज़ाम कर दिया है, फिर काहे शोर मचा रहे हो।”

क्लीनर की डाँट से वासुदेव के साथ जो अन्य लोग चालू हो गए थे, वह सब भी शांत हो गए। ड्राइवर बस तो बहुत तेज़ चला रहा है, लेकिन लॉक-डाउन के कारण जगह-जगह बाधाएँ आ रही हैं। 

जिससे सफ़र लंबा खिंचता जा रहा है, लेकिन सबको संतोष है कि चलो चार-छह घंटा लेट ही सही, घर तो पहुँचेंगे। मगर इन भोले-भाले लोगों को यह नहीं मालूम है कि कोरोना से निपटने के लिए जो तैयारियाँ हर जगह की गई हैं, उससे उनके सामने असली संकट तो अब आने वाला है। 

हालाँकि रास्ते में कई जगह उन्हें खाने-पीने की चीज़ें मुहैया कराई गईं, जिससे उन्हें काफ़ी राहत मिली है। मगर लंबे होते जा रहे सफ़र ने उन सब को बुरी तरह थका कर रख दिया है। जब यह लोग बाइस-तेईस घंटे बाद अपने गाँव की सीमा पर पहुँचे, तो वहाँ के प्रशासन ने उन्हें वहीं रोक लिया। सबको उतार कर सड़क किनारे पेड़ों के नीचे बैठा दिया। 

सुबह के ग्यारह बजने वाले हैं, दिल्ली छोड़े इन सब को क़रीब तीस-बत्तीस घंटे हो गए हैं। धूप तेज़ और चमकीली होती जा रही है। घने पेड़ों के बावजूद गर्म हवा के थपेड़े हलकान कर रहे हैं। इसके बावजूद सबके चेहरे पर धूप ही की तरह एक ख़ुशी चमक रही है कि अपने गाँव पहुँच गए हैं। 

थोड़ी देर में अपने घरे-द्वारे, अपने परिवार के सारे लोगों के साथ होंगे। अपना दुख-दर्द बाँटेंगे। क़रीब तीस-बत्तीस घंटे बाद ढंग से खाना-पानी मिलेगा। जी-भर के खाएँगे-पिएँगे और तीन-चार दिन जी-भर के आराम करेंगे। बदन का पोर-पोर क्या रोंया-रोंया थक कर चूर हो गया है। 

मगर उनकी सारी आशाओं पर प्रशासन ने यह कहते हुए पानी फेर दिया कि गाँव के स्कूल, पंचायत भवन में उनके रुकने की व्यवस्था की गई है। अगले दो हफ़्ते सभी लोग वहीं पर क़्वारेन्टाइन रहेंगे, सबकी कोविड-१९ की जाँच भी होगी। 

यह सुनते ही सबके चेहरे की चमक ग़ायब हो गई है। सभी को स्कूल और पंचायत भवन में ठहरा दिया गया है। उनके खाने-पीने की सारी व्यवस्था वहीं की गई। शाम तक सब की जाँच के लिए सैंपल लिए गए, जिसकी रिपोर्ट तीन-चार दिन बाद आनी है। 

सबके घरों तक सूचना पहुँच गई है। मोबाइल फोन एक बार फिर उनका सहारा बना। परिवार के लोगों ने कहा, “चलो, जैसे इतना दिन वैसे ही दो हफ़्ता और सही।” कुछ लोग तो अति उत्साह में क़्वारेन्टाइन सेंटर तक पहुँच गए, लेकिन पुलिस-प्रशासन की सख़्ती के कारण उन्हें अपने घरों में बैरंग वापस जाना पड़ा। 

वासुदेव ने किसी तरह दूर से ही अपने भाई को चिल्ला कर बताया कि “बिटिया की तबीयत अच्छी नहीं है। सारे बच्चे इतना थक गए हैं कि एकदम पस्त पड़े हैं।” वास्तव में वासुदेव ने बिटिया के बारे में जितना सोचा था, तबीयत उसकी, उससे भी कहीं बहुत ज़्यादा ख़राब थी। 

इसके चलते रात क़रीब साढ़े तीन बजे, उसने इस दुनिया से रिश्ता-नाता तोड़ लिया। मानो यह कहते हुए कि नहीं रहना वायरसों, धोखेबाज़ों, मक्कारों से भरी इस दुनिया में, जहाँ न दिखने वाले वायरसों से ज़्यादा ख़तरनाक हैं, दिखने वाले इंसान नाम के वायरस। 

इनसे बड़ा वायरस तो कोई हो ही नहीं सकता। इन सबसे बड़े वायरसों ने धोखा न दिया होता, झूठ फ़रेब करके चिलचिलाती धूप में न धकेला होता, तो मुझे इस दुनिया से मुक्ति न लेनी पड़ती। 

उस बड़े से हॉल में दया की हृदय को झकझोर देने वाली रुलाई बड़ी मर्मान्तक है। वासुदेव एकदम मूर्तिवत बैठा बच्ची को छाती से चिपकाए चीखती-चिल्लाती दया को देख रहा है। उसकी आँखों से आँसू निकल-निकल कर, उसके चेहरे को भिगोते हुए नीचे उसके पैरों के पास गिरते जा रहे हैं। 

हॉल में बाक़ी लोग भी जाग गए हैं, मगर कोरोना-वायरस का भय किसी को पास नहीं आने दे रहा है, बल्कि सब और अपनी-अपनी जगह दुबके जा रहे हैं। इतना ही नहीं किसी अत्यधिक डरे आदमीं ने प्रशासन को फोन कर दिया है। प्रशासन तुरंत सक्रिय हो गया है। 

सुबह दस बजे कोविड-१९ नियमानुसार उस दुध-मुँही बच्ची का अंतिम संस्कार कर दिया गया। उस नन्ही सी जान को धरती-माता के हाथों में सौंप दिया गया। जन्म देने वाले माँ-बाप अपने कलेजे के उस टुकड़े का अंतिम संस्कार तक नहीं कर पाए, जिसे वो प्यार से कभी गुड़िया तो कभी रुद्राणी कहते थे। 

और चाहते थे कि अपनी रुद्राणी को कुछ मिनटों को ही सही अपने घर के आँगन में ज़रूर ले जाएँ, ये कैसी फूटी क़िस्मत है कि जन्मीं परदेश दिल्ली में, और घर पहुँच कर भी घर न पहुँच पाई, कुछ मिनटों की दूरी से चली गई परलोक। अब कम से कम उसकी अंतिम यात्रा तो वहीं से प्रारम्भ हो। 

लेकिन हाय रे उनका दुर्भाग्य, प्रशासन किसी सूरत में इसके लिए तैयार नहीं हुआ, स्पष्ट कह दिया कि कोविड-१९ नियमों के चलते परमिशन नहीं दे सकते। बीमारी से सबको बचाने के लिए क्रूर नियम की भेंट चढ़ गई उनकी यह इच्छा भी। वो क़्वारेन्टाइन सेंटर से ही वीडियो कॉल के ज़रिए, अपनी बच्ची का अंतिम संस्कार होते देखते रहे, जिसे दो सरकारी कर्मचारी अपनी जान जोखिम में डालकर संपन्न कर रहे थे। 

बच्ची के तीनों भाई भी, अपनी नन्ही सी बहन को धरती-माता के हाथों में जाते देखते रहे, रोते-बिलखते माँ-बाप से चिपक कर कहते रहे, “अम्मा गुड़िया को बचा लो, पापा गुड़िया को बचा लो।” परिवार की रुलाई से हॉल का का शायद ही कोई व्यक्ति रहा होगा, जिसकी आँखों में आँसू न आए हों। 

लेकिन भय का साम्राज्य इतना क्रूर था कि कोई हिम्मत नहीं कर सका कि परिवार को सांत्वना देने के लिए उसकी तरफ़ एक क़दम भी बढ़ाता। वासुदेव का परिवार फोन पर सांत्वना देता रहा, मगर घर से निकल कर कोई एक क़दम भी आगे नहीं आया। सब डर गए कि बिटिया कहीं कोरोना संक्रमित तो नहीं थी, यदि वह संक्रमित रही होगी तो पूरा परिवार ज़रूर संक्रमित होगा। इस वज्र-पात का दया वासुदेव ने अकेले ही सामना किया। 

क़्वारेन्टाइन का समय भी तेज़ी से बीत रहा है। हर सदस्य रोज़ दसियों बार बात करता। वासुदेव हर बार यही कहता कि उस जल्लाद, लालची, झूठे, मक्कार ने धोखा देकर दिल्ली से भगाया न होता, तो हमारी बिटिया न मरती। वह मेरी बिटिया का हत्यारा है हत्यारा। मेरी बिटिया का ही नहीं, वह सैकड़ों नहीं, न जाने कितने लोगों का हत्यारा है। 

गद्दी के लिए वह दंगा, बीमारी फैलाने से लेकर हर वह काम कर सकता है, जो कोई जानवर भी अपनों से नहीं करेगा। वासुदेव की बातों से हॉल में उपस्थित हर-कोई सहमत होता है। क्योंकि वह सब भी उसी राह से गुज़रे हैं, उसी हथियार से घायल हुए हैं, जिससे वासुदेव। 

जैसे-तैसे इन क़िस्मत के मारों का क़्वारेन्टाइन टाइम का आख़िरी दिन आ गया, सबके चेहरों पर ख़ुशी थी। अपने घरवालों से बात पर बात कर रहे थे, वासुदेव और दया भी, लेकिन शाम को वासुदेव अपने एक भाई से लंबी बात करने के बाद बहुत उदास हो गया। 

इतना ज़्यादा कि दया ने किसी अनिष्ट की आशंका से घबराते हुए पूछा, “क्या हुआ, कौन-सी बात हो गई जो इतना परेशान हो गए हो।”

कई बार पूछने पर बड़े भारी मन से वासुदेव ने कहा, “क्या बताएँ, चार-पाँच साल हम लोग अपने गाँव-घर से दूर परदेश में का रहे, अपने घर वालों के लिए भी परदेशी हो गए हैं। हमें लगता है, अब आपन दाना-पानी अपने ही गाँव-घर से उठ चुका है। 

“दिल्ली से तुम्हारी ही बात मान कर चला कि चलो अपने गाँव, अपने घर-परिवार में चलते हैं और अब घर-परिवार, गाँव छोड़ कर कभी भी कहीं भी नहीं जाएँगे। मगर परिवार के एक-एक आदमी की बात अब यही कह रही है कि ‘नहीं बाबू, नहीं, अब तुम्हारा दाना-पानी यहाँ से उठ चुका है, अब तुम परदेसी हो गए हो।’ ग़ज़ब हो गई है यह दुनिया, अपने घर में ही हम परदेसी हो गए हैं, और शहर में प्रवासी। 

“वाह रे मेरी क़िस्मत, अपने ही देश, घर में हम-सब, वह क्या कहते हैं, शरणार्थी बनकर रह गए हैं। हालत यह है कि घर पहुँचने से पहले ही सोचना पड़ रहा है कि कोरोना-वायरस से देश को जल्दी मुक्ति मिले, डेरा-डंडा, बीवी, शेष बचे बच्चे लेकर फिर से दिल्ली या शहर-शहर भटकने निकल चलें।” 

यह सुनकर दया घबरा गई, उसने पूछा, “ये क्या कह रहे हो? अपना घर है, अपना भी कुछ अधिकार है।”

“हाँ, अपना भी अधिकार है, लेकिन अब हम परदेसी हो गए हैं, इसलिए उस अधिकार का कोई मतलब नहीं रह गया है। अब ‘सिताब दियारा’ अपना ‘सिताब दियारा’ नहीं रह गया है। बीते बारह-पंद्रह दिन से घर वाले बात-बात में यही समझा रहे हैं।”

दया की घबराहट अब-तक ख़त्म हो चुकी थी, उसने कहा, “तुम सही कह रहे हो। हम तुम से डर के मारे नहीं बताए थे, अम्मा, बहनी, लोगन से जब-जब बात की, तब-तब यही लगा कि अब घर-परिवार से सम्बन्ध की डोर बहुत कमज़ोर हो गई है। अब हम-लोग घर-गाँव वालों के लिए शरणार्थी बन गए हैं। अब हम-लोगों की ज़िन्दगी में दर-दर भटकना ही लिखा है बस।”

बहुत ध्यान से दया की बात सुन रहे वासुदेव ने अचानक ही बहुत ही सख़्त आवाज़ में कहा, “न हम शरणार्थी थे, न बनेंगे। घर उनका है, लेकिन गाँव नहीं, वह अपना घर-द्वार अपने पास रखें। मैं अपना अधिकार भी भूल जाता हूँ, रहें वो लोग निश्चिन्त होकर, हम रह लेंगे कुछ दिन पेड़ के नीचे। बना लेंगे वहीं कहीं अपनी झोपड़ी। कर लेंगे मज़दूरी मगर अब इधर-उधर भटकेंगे नहीं। 

“इस भटकने के चलते ही मेरी बिटिया बे-मौत मर गई। अब मैं किसी को ऐसे मरने नहीं दूँगा। वैसे भी अब गाँव भी बहुत बदल गया है, कुछ न कुछ काम तो यहाँ भी शुरू कर लूँगा। जीने का कोई रास्ता बना ही लूँगा। बस मन होना चाहिए, मन है तो रास्ता बनेगा ही बनेगा।”

यह कहते हुए वासुदेव के चेहरे पर बड़े कठोर भाव उभर आए, जिसे देख कर दया की आँखों से आँसू निकलने लगे। मगर उसके होंठों पर बड़ी प्यारी सी मुस्कान भी उभर आई थी। तभी छाती में हुई सिहरन ने उसे बिटिया रुद्राणी की याद दिला दी। वह बिटिया का नाम लेकर रो पड़ी। 

उसको चुप कराते हुए वासुदेव ने कहा, “रोती क्यों हो, हम पर विश्वास करो, हम जल्दी ही कोई रास्ता बना ही लेंगे।”

वासुदेव यह नहीं समझ पाया कि दया उसकी बातों से रो रही है या कि एक माँ परिस्थितियों की भेंट चढ़ गई अपने कलेजे के टुकड़े के लिए रो रही है, जिसे वह छाती का दूध पिला-पिला कर पाल रही थी। वही दूध मचल रहा था, पीने वाले की प्रतीक्षा कर रहा था और उसकी यह मचलन एक माँ को बेचैन कर रही थी . . .

 

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