स्याह उजाले के धवल प्रेत - भाग 2 Pradeep Shrivastava द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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स्याह उजाले के धवल प्रेत - भाग 2

भाग -2

लेकिन दया का यह जतन भी सिरे से ख़राब हो गया। वासुदेव शांत होकर बच्चों को बाहर ले जाने की बात पर भड़क कर कहता है, “कैसी मोटी बुद्धि की औरत है रे। तनको दिमाग़ है खोपड़ी में कि ख़ाली गोबर भरा है। जब देखो तब बराबरी करेगी कि हमहू तोहरे तरह पढ़े हैं, बी.ए. पास हई। अरे पढ़-लिख कर परीक्षा दिए रहो या बाप-महतारी पैसा-रुपया देकर कॉपी लिखवा दिए थे, या जैसे हमरे कॉलेज में हम-सब किताबें से छाप के डिग्री ले आए थे वैसे ही पढ़े हो। 

“अरे इतनी मोटी बात समझ में नहीं आ रही है कि एक तो बाहर इतना ठंडा हो रहा है, ऊपर से घंटा-भर से बता रहा हूँ कि दंगा कराने की पूरी तैयारी है। किसी भी समय शुरू हो सकता है। लेकिन बेवक़ूफ़ गोबर-पथनी कुछ समझने के बजाय बाहर भगा रही है कि जाओ घूमो, वह भी बच्चों के साथ। 

“मेरी बातें बहुत बुरी लग रही हों तो वह साफ़-साफ़ बताओ, हम ऐसे ही चले जाएँ वहीं। बिरयानी तो खाने को मिल ही जाएगी, भले ही कुत्ता, कौवा की हो। वहाँ चौबीसों घंटे हज़ारों प्लेट बिरयानी बाँटी जा रही हैं। कइयों को खुसफुसाते हुए सुन चुका हूँ कि नगर-निगम वाले आपस में मज़ाक करते हैं कि आवारा कुत्तों को पकड़ने के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ रही है। सब पता नहीं कहाँ ग़ायब हुए जा रहे हैं। 

“वहाँ इकट्ठे झुण्ड इतने मक्कार फरेबी हैं कि कह रहे हैं कि यह आंदोलन केवल सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम), ऐनआरसी (नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजन), ऐनपीआर (नेशनल पापुलेशन रजिस्टर) के विरुद्ध नहीं बल्कि ग़रीबों, सताए जा रहे लोगों का, उन पर हो रहे ज़ुल्म के ख़िलाफ़ है। 

“अरे कोई इन मक्कारों, गद्दारों से यह क्यों नहीं पूछता कि गद्दारों, सताए हुए लोगों, जब तुम इतने ताक़तवर हो कि रोज़ हज़ारों प्लेट चिकन, मटन बिरयानी, पेटी की पेटी शराब की बोतलें, सिगरेट, पान-मसाला, लाखों रुपया बाँट कर हज़ारों लोगों का झुंड महीनों इकट्ठा कर सकते हो, टेंट, कुर्सियों, तख़तों, दरियों, चादरों, मिनरल वॉटर, माइक, बिजली, चाय-कॉफी, समोसा-पकौड़ी, पर लाखों-लाख रुपए रोज़ ख़र्च कर सकते हो, तो कमज़ोर कहाँ से हो, सताए हुए कहाँ से हो। 

“सता तो तुम रहे हो गद्दारों पाँच करोड़ दिल्ली-वासियों को, काम-धंधा चौपट कर रहे हो, उनका सुख-चैन बर्बाद किए हुए हो, पूरा देश परेशान है, फिर भी देश की भलमनसाहत देखो कि तुम जैसे गद्दारों की खुले-आम गद्दारी को अभी तक बर्दाश्त कर रहा है। 

“और कोई देश होता, तो गद्दारों के ऐसे झुंडों को न जाने कब का कुचल कर, बर्बाद कर, नेस्तनाबूद कर चुका होता, दुनिया को कानों-कान ख़बर तक न होती। तुम्हारी अंधेर-गर्दी यही एक देश है जहाँ चल रही है, मगर ये सोचे रहना कि ज़्यादा बर्दाश्त करने वाला, चुप रहने वाला, जब भड़कता है तो सामने वाले की राख भी ढूँढ़े नहीं मिलती।”

वासुदेव एक स्वर में बोलता ही चला जा रहा है। दया जब समझ गई कि आज यह चुप कराए चुप नहीं होंगे तो वह ख़ुद ही चुप हो गई। उसने सोचा, लगता है कोई बात गहरी चोट कर गई है। गाँव में रहो तो दबंगों की, प्रधान की गुंडई झेलो। शहर में रहो तो यहाँ खद्दर-धारी गुंडों, गद्दारों की गुंडई झेलो। 

इन गुंडों की गुंडई के चलते, चाहे गाँव हो या शहर, कहीं भी चैन से हम जैसों को खाने-पीने, जीने का ठिकाना नहीं है। आग लगे ऐसे लोकतंत्र को। कॉलेज में प्रोफ़ेसर साहब ठीक ही कहती थीं कि ‘भारत का लोक-तंत्र तो भीड़ तंत्र बन चुका है, इससे अच्छा तो हिटलर-तंत्र है।’

बेचारी के अच्छे-ख़ासे इंजीनियर पति की रंगदारी न देने पर गुंडे ने दिन-दहाड़े भरी बाज़ार में गोली मार कर हत्या कर दी और असलहा लहराते हुए आराम से पैदल ही भाग गया था। बेचारे की लाश सड़क पर तीन घंटा पड़ी रही, तमाशा देखने वाले आगे नहीं बढ़े, और पुलिस तीन घंटे बाद आई थी टहलती हुई। 

हत्यारे गुंडे के विरुद्ध नाम-ज़द रिपोर्ट लिखवाने के लिए उन्होंने सारा ज़ोर लगाया, हाथ-पैर तक जोड़े लेकिन कमीने दरोगा ने अकड़ते हुए कहा था, “हम अपना काम अपने हिसाब से करेंगे समझी न। नौकरी कर रही हो, जवान हो। बचाओ अपने आप को, कोई कुछ कर देगा, कहीं उठा-वुठा ले गया तो हमारा काम और बढ़ा दोगी। 

“अरे वह सब ऊपर नेताजी के आदमी हैं। कहीं कुछ होने वाला नहीं है। जाओ अपने को, बच्चों को सँभालो। कॉलेज में भी तुम सब बैठे पंचायत करते रहते हो कि अरे ऐसे मारा थानेदार ने, ऐसा कहा, वैसा कहा। अरे सब इंजीनियर लूटता है। मिल-बाँट कर रहता तो काहे होता यह सब।”

बेचारी अपनी इज़्ज़त, जान, बच्चों को बचाने के लिए नौकरी छोड़-छाड़ कर न जाने कहाँ चली गईं। कॉलेज, मोहल्ले में भी डर के मारे एक आदमी नहीं खड़ा हुआ उनके साथ कि सब इकट्ठा होकर पहुँचते थाने, घेरते गुंडों के दलाल उस थानेदार को। कितनी अकेले पड़ गई थीं बेचारी। 

इनका ग़ुस्सा भी ग़लत नहीं है। वहाँ से ऐसा सोच के चले थे कि चलो देश की राजधानी है। कोई दबंग-गुंडा मारने-पीटने वाला, रंगदारी माँगने वाला नहीं होगा। आराम से कमाएँगे-खाएँगे, बच्चों को पढ़ा-लिखा कर बड़ा आदमी बनाएँगे। मगर यहाँ तो गाँव के दबंगों से भी बड़े-बड़े गुंडे हैं। सफ़ेद कपड़ा पहने यह गाँव के गुंडों से ज़्यादा ख़तरनाक हैं। देखने में साफ़-सुथरा गुंडा हैं बस। गली-गली, एक-एक नुक्कड़ पर बैठे हैं ख़ून चूसने के लिए। 

उसके मन में यह भी आया कि इस समय पति की जगह वह होती, तो वह भी इसी तरह चिल्लाती, जिस तरह वह चिल्ला रहा है, ग़ुस्सा कर रहा है। आज ज़रूर कोई ऐसी बात हुई है इनके साथ जो शायद पहले कभी नहीं हुई होगी। इसीलिए इस तरह आज बहुत दिन बाद फिर बच्चों के सामने गाली-गलौज की है। 

उसने दुध-मुँही बिटिया को बड़े बेटे के पास छोड़ा और रोज़ की तरह खाना बनाने लगी। रोज़ नौ बजे तक सो जाने की परिवार की आदत है। क्योंकि सवेरे बच्चों को स्कूल, वासुदेव को साइट पर जाना होता है, लेकिन बीते काफ़ी दिनों से इन धूर्तों के तथा-कथित आंदोलन के कारण बंद हैं। 

दया पति को चाय-पानी देकर काम में लग गई कि वह शांत हो जाए। वासुदेव ने चाय पी कर ज़मीन पर बैठे-बैठे मुँह में पान-मसाला दबा लिया। और मोबाइल में व्हाट्सएप पर लग गया। उसमें भी उसे शाहीन बाग़ के ही मैसेज ज़्यादा दिख रहे थे, जिन्हें देख-देख कर वह मुँह ऊपर करके अजीब सी आवाज़ में गाली देता। 

बीच-बीच में बाहर जाकर नाली में पीक थूक आता। और कोई दिन होता तो वह अपनी दुध-मुँही बिटिया, बाक़ी बच्चों को लेकर कुछ देर बाहर टहलता, फिर कमरे में उसको लिए हुए खिलाता, बच्चों को पढ़ाता, जिससे दया खाना-पीना, चौका-बर्तन आराम से कर लेती। 

दया काम करती हुई सोच रही थी कि आज यह डेढ़-दो बजे से पहले सोने वाले नहीं हैं। और उससे पहले टीवी भी चलने वाला नहीं है। लेकिन आधे घंटे बाद ही वह आश्चर्य में पड़ गई। व्हाट्सएप मैसेज देखते-देखते वासुदेव ने न जाने ऐसा कौन सा मैसेज देख लिया कि एक झटके में उठ कर, टीवी ऑन करके एक न्यूज़ चैनल लगा दिया। संयोग से वह दया का फ़ेवरेट चैनल था। वह भीतर ही भीतर ख़ुश हो गई। वह काम में लगी रही लेकिन कान उसके टीवी से जुड़े रहे। 

बच्चे कमरे में पड़े एक-मात्र बड़े से तख़्त पर सो गए। सब रजाई में ऐसे दुबके हुए हैं, जैसे चिड़िया के घोंसले में उसके छोटे-छोटे चूजे। वह दोनों पति-पत्नी तख़्त के बाद बची छोटी सी जगह में चटाई के ऊपर एक गद्दा बिछाकर सोते हैं। सर्दी बहुत पड़ रही है, फरवरी का महीना है, पूरी रात क्या दिन में भी काफ़ी समय कोहरे की चादर खिंची रहती है, कड़ाके की पड़ती इस ठंड के बावजूद दोनों चाह कर भी एक रजाई नहीं ले पाए हैं। पुराने से कंबल से काम चला रहे हैं। सोते समय दोनों अपनी-अपनी साल भी उसी पर डाल लेते हैं। 

खाना बनते ही दया ने बच्चों को उठा कर खिलाया, बिटिया को अपना दूध पिला कर सुला दिया। फिर दोनों ने खाया-पिया। सोने का समय हुआ तो वासुदेव एक बार फिर घर से बाहर निकला। बड़ी सावधानी से इधर-उधर देखा, फिर रोज़ की तरह घर के सामने ही कुछ देर टहलने के बजाय पान-मसाला थूक कर अंदर आ गया। 

कुल्ला करके बिस्तर में घुसते हुए कहा, “बहुत गहरी साज़िश हो रही है। सालों ने परसों से स्ट्रीट-लाइट को बंद करना शुरू कर दिया है। पता नहीं कहाँ से नए-नए चेहरे मोहल्ले भर में दिखने लगे हैं। सब चोरों की तरह आते-जाते हैं। सालों के चेहरों पर लकड़बग्घों सी मक्कारी, चालाकी टपकती है।” 

तभी दया का हाथ उससे छू गया तो वह बातों का ट्रैक बदलते हुए बोला, “तुमसे कितनी बार कहा है कि काम करने के बाद दो मिनट हाथ सेंक लिया करो। एकदम बर्फ़ जैसा ठंडा हाथ छुआ के बदन में एकदम छौंका लगा देती हो।” 

दया ने सोचा चलो पाँच घंटे बाद कुछ और बात तो बोले। असल में उसने यह जान-बूझकर किया था। वह जानती है कि उसे ठंड कुछ ज़्यादा ही परेशान करती है। इसलिए वह कई बार सोते समय ऐसे ही उसे छू-छू कर परेशान करती है। जब वह बिदकता है तो बहुत प्यार भरा ताना मारती है कि “कैसे मर्द हो, मेहरिया के हाथ भी नहीं गर्मा सकते।” 

यह ताना सुनते ही वासुदेव हर बार ताव में आ जाता है, और उसका यह ताव ख़त्म तब होता है, जब वह अपने हिसाब, तौर-तरीके से उसके हाथ गर्म करके आख़िर में यह ज़रूर पूछता है कि “क़ायदे से गरमाए गवा हाथ कि नाहीं, कि अउर गरमाई।” 

दया तब भी ताना ही मारती हुई कहती है कि “बस राहे देयो, आज बहुत गरमाए दियो हो। आगे जब ठंडाई तब गर्माना। एकै दिन ज़्यादा गरमईहो तो थक जइहो।” 

लेकिन दया की यह युक्ति आज काम नहीं आई। वासुदेव ने उसकी बात पर ध्यान दिए बिना ही अपनी बात जारी रखी कि “पूरे मोहल्ले में ऐसा सन्नाटा कभी नहीं रहता था। चेहरे उन्हीं के खिले हैं, जो शाहीन बाग़ साज़िश का हिस्सा हैं। 

“वहीं बहुत से विवश हम जैसों के भी चेहरे नज़र आते हैं। जो धरना प्रदर्शन के नाम पर साज़िश, शराब, अय्याशी, हथियारों, ईंट-पत्थरों का पूरा का पूरा इंतज़ाम होते देख रहे हैं, पूरी तैयारी पर मूक-बधिरों की तरह देश की सरकार की तरफ़ टकटकी लगाए देख रहे हैं कि उसकी आँखें खुलें, वह कठोर क़दम उठाए, क्योंकि राज्य सरकार तो उन्हें भरपूर मदद कर रही, आस्तीन के साँपों को दूध पिला रही है।”

वासुदेव आग-बबूला हो रहा है। दया खीझ रही है कि शाम से ही बोले चले जा रहे हैं, अब तो चुप हो जाएँ, कितना बोलेंगे। उसने कहा, “मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि यह सब तुमको, दुनिया को दिख रहा है तो पुलिस, सरकार को क्यों नहीं दिख रहा है, वह उन्हें पकड़ती क्यों नहीं।”

यह कह कर उसने जैसे गर्म तवे पर पानी छिड़क दिया। वह और भड़कता हुआ बोला, “बार-बार कह रहा हूँ कि बड़ी गहरी साज़िश चल रही है। परसों ही व्हाट्सएप पर एक वीडियो में इन्हीं सब के लिए एक आदमी कह रहा था कि देश-वासियों को बहुत सतर्क हो जाना चाहिए, देश के दुश्मन अब छद्म रूप धारण करके देश को आग लगाएँगे। 

“उनके एक हाथ में राष्ट्रीय-ध्वज तिरंगा तो दूसरे में संविधान होगा और उनके कपड़ों में छिपे होंगे देश को आग लगाने वाले हथियार। देशवासियों को इन रंगे हुए गद्दारों पर कड़ी दृष्टि रखनी ही होगी, अन्यथा बड़ा धोखा हो जाएगा। मैं उसकी बात को वहाँ प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। जो कुछ उसने कहा वही सब-कुछ वहाँ हो रहा है।” 

दया को कुछ देर पहले तक जो नींद आ रही थी, वह वासुदेव की बातों से कहीं ठहर गई, उसने पूछा, “लेकिन ये बताओ जब वहाँ इतने लोग बैठे हैं, तो सबके सामने शराब, नशा-खोरी, अय्याशी कैसे हो रही?” 

“हद है, तुझे मेरी बात पर विश्वास क्यों नहीं हो रहा है, अरे मैं भी वहाँ पर दस-बारह घंटे बैठ कर पानी नहीं पीटता रहता। ध्यान से देखता रहता हूँ सब। जब ये अर्बन नक्सली, बड़ी बिंदी गैंग अपनी इन बड़ी पढ़ाकू छात्राओं के साथ आती हैं, ये माइक पकड़ कर बड़ी शेरनी बनती हैं, उल्टी-सीधी बातें बोलकर आग लगाती हैं, कहती हैं हम झुकने वाले नहीं हैं, सरकार की ईंट से ईंट बजा देंगे, हमें आज़ादी चाहिए, हम आज़ादी लेकर रहेंगे। 

“सच यह है कि ये सब सच में पढ़ने-लिखने वाली नहीं, धोखेबाज़, आवारा-बदमाश, नशेड़ी अय्याश लड़कियाँ, औरतें हैं। सच में पढ़ने-लिखने वाली लड़कियों, लड़कों के पास टाइम कहाँ रहता है कि भाड़े के इकट्ठा गुंडों-मवालियों, गद्दारों के झुंड में शामिल होकर देश में आग लगाने बैठें। इन सबको अय्याशी, नशे के लिए जो पैसे चाहिए, उसके इंतज़ाम के लिए यह सब कुछ भी कर सकती हैं। 

“इन्हें पैसे देकर, कोई कहीं भी बुला सकता है, इनसे कुछ भी कहला-करवा सकता है। ये कैसे कहाँ-कहाँ मुँह मारती फिरती हैं, पहले यह सिर्फ़ सुनता था, विश्वास नहीं कर पाता था, लेकिन अब प्रत्यक्ष वहाँ सब देख रहा हूँ। पता तो वहाँ यह भी चला है कि फिल्मी दुनिया के कुछ लुटे-पिटे और वहाँ के माफ़ियाओं से जुड़े चेहरों को इन सब ने अपने पक्ष में बयान दिलवाने, माहौल बनवाने के लिए दसियों लाख रुपए दिए हैं। यह सब देख-सुनकर, उन पर नहीं ख़ुद पर आश्चर्य होता है कि पहले इन बातों विश्वास क्यों नहीं कर पाता था।” 

वासुदेव की ऐसी बातों के बाद भी दया उसकी सारी बातों पर विश्वास नहीं कर पा रही है, उसने कहा, “पता नहीं आज तुम शाम से ही कैसी-कैसी बातें कर रहे हो, कुछ समझ में नहीं आ रहा है। ऐसा नहीं हो सकता। वो भी पढ़ने-लिखने वाली लड़कियाँ हैं, आवारागर्दी करने थोड़ी न निकली हैं। हाँ फिल्मी लोगों के लिए मान सकती हूँ कि जब वो सब पैसों के लिए सारे कपड़े उतार कर दुनिया को अपना बदन दिखाती फिरती हैं, कैमरों के सामने ऐसे सम्बन्ध बनाती हैं, जैसे हम बंद अँधेरे कमरों में, बिस्तरों में छिप कर बनाते हैं, तो चार शब्द बोलने में उन्हें कैसा संकोच होगा।” 

अविश्वास का ढिंढोरा पीटती दया की इन बातों ने वासुदेव का ग़ुस्सा और बढ़ा दिया। उसने कहा, “हद कर दी तुमने, हम वहाँ अपनी इन्हीं आँखों से जो देख रहें हैं, वही सब बता रहे हैं, आँखों देखी बात पर तुमको विश्वास नहीं हो रहा है। वहाँ इधर-उधर बनाए गए चोर कोनों में आदमी छोड़ो, जो बड़ी-बड़ी नेता, कलाकार बनकर पहुँचती है न आग लगाने, उन सब को सिगरेट, शराब, ड्रग्स पीते, लेते मैंने ख़ुद बार-बार देखा है। 

“यह सब खाने-पीने के बाद ढेर सारा सौंफ़, इलायची मुँह में ख़ूब भरकर, कुछ देर चबाने के बाद थूक देती हैं, जिससे शराब की बदबू नहीं आए। इसके बाद च्युंगम भी चबाती रहती हैं, जिससे सचाई कोई जान न सके। वहीं उनको एक-दूसरे को चूमते-चामते, लिपटते, बेहयाई-बेशर्मीं की हद पार करते हुए भी देखता हूँ। 

“वो जो टुकड़े-टुकड़े गैंग का नेता अपने बिहार में आकर लोक-सभा चुनाव लड़ा था, वह यहीं जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ता है। आतंकवादियों के लिए, गद्दारों के साथ मिलकर यहीं दिल्ली में गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रहा था, भारत तेरे टुकड़े होंगे . . . अच्छा हुआ कि अपने बिहार में सारे बिहारियों ने उसको हराकर फिर यहीं भेज दिया, नहीं तो बिहार की बड़ी बदनामी होती कि इसने एक देश-द्रोही गद्दार को चुनाव जितवा दिया। 

“यह सब पढ़ने-लिखने वाले नहीं, देश की जड़ खोदने वाले हैं। इनके गैंग के गैंग हैं। इनको दुश्मन देशों से पैसा मिलता रहता है। उसी से यह ऐशो-आराम से रहते हैं। ये दस-दस, पंद्रह-पंद्रह साल से पढ़ते ही चले आ रहे हैं, आख़िर ये कौन सी पढ़ाई, रिसर्च कर रहे हैं, जो पंद्रह-सोलह सालों में भी पूरी नहीं होती। 

“इन सबके झुण्ड हैं तो कम ही संख्या में, लेकिन जहाँ भी एक आग लगाता है, वहाँ बाक़ी सारे के सारे दौड़ते-हाँफते पहुँच जाते हैं, और इतना आग मूतते हैं, मीडिया इनको इतना हाई-लाइट करती है कि हर जगह यही गद्दार दिखने लगते हैं। पढ़ने-लिखने वाले तो हमेशा अपनी किताब के साथ रहते हैं। यह जानने के बाद भी तुम हमारे ऊपर शक कर रही हो।” 

उसके बढ़े ग़ुस्से से दया थोड़ा सहम गई, उसने बड़ी नम्रता से कहा, “नहीं, मैं कोई शक नहीं कर रही, मैं तो ख़ाली . . .” 

“सुनो, तुम पहले हमारी पूरी बात सुनो, अगर यह सारे दल्ले अय्याशी नहीं करते हैं, तो जब सरदार जी प्रधानमंत्री थे, तो नेहरू विश्व-विद्यालय में कंडोम एटीएम की मशीन क्यों लगवाई थी, कि जब चाहो, तब जितना हो उतना कंडोम निकाल लो। 

“अरे मैंने व्हाट्सएप पर न जाने कितनी बार पढ़ा है कि सफ़ाई करने वाले बताते हैं कि डस्टविन में ढेरों मिलते हैं। तुम्हीं बताओ कि अगर वहाँ अय्याशी नहीं होती है, तो यूज़ किए हुए कंडोम क्यों मिलते हैं? अगर यह सब वहाँ नहीं हो रहा है, तो क्या यह कंडोम प्रेत-प्रेतनी यूज़ करते हैं? जेऐनयू में कोई पति-पत्नी तो रहते नहीं। लेकिन तुमको तो मेरी बात काटने की आदत पड़ गई है न।”

दया को लगा कि कुछ ज़्यादा ग़लत बोल गई है, तो बात को सँभालने की कोशिश करती हुई बोली, “तुम तो बेवजह ग़ुस्सा हो जाते हो, हम कहीं बाहर जाते ही कितना हैं, जो सारी बातें जान जाएँ।” 

लेकिन वासुदेव उसे अब कोई रियायत देने को तैयार नहीं है, उसने कहा, “अब बाहर जाए बिना भी सारी बातें जानी-समझी जा सकती हैं, समझी। दिन-भर टीवी, मोबाइल में घुसी रहती हो, लेकिन उसमें काम की चीज़ें तो देखोगी नहीं। डिबेट के नाम पर समाचार चैनल वाले जो मुर्गे लड़ाते हैं वो देखोगी, या आवारा भाग्य जैसे सीरियल।” 

वासुदेव का सारा ग़ुस्सा पत्नी के सबसे प्रिय सीरियल ‘कुमकुम भाग्य’ पर निकला, तो उसे थोड़ा बुरा लगा। उसने कहा, “जब देखो तब सीरियल के लिए ताना मारते रहते हो। दिन-भर टाइम ही कितना मिलता है? सुबह से लेकर रात तक काम से तो फ़ुर्सत मिलती नहीं। 

“कोई सो रहा है, तो कोई जाग रहा है। किसी को खाना खिलाना है, तो किसी को दूध पिलाना, नहलाना-धुलाना है, किसी का होम-वर्क पूरा कराना है, तो किसी का कुछ। इस बीच साँस लेने के लिए ज़रा सा टीवी क्या देख लेती हूँ, उसमें भी तुमको ग़ुस्सा आता है, बच्चों के कार्टून के चक्कर में तो कभी-कभी वह भी देखने को नहीं मिलता।” 

इसके साथ ही बात कैसे भी जल्दी ख़त्म हो, इसके लिए दया ने दूसरा रास्ता भी अपनाया। अब-तक गर्म हो चुके हाथों से प्यार भरा ग़ुस्सा दिखाती हुई पति को दूर खिसकाने की बनावटी कोशिश की, तो वह बोला, “अच्छा-अच्छा, एक तुम ही तो हो, जो दुनिया में काम करती हो। पहले यह बताओ कि हमें लगता है कि फिर से पेट फुला लिए हो, फिर तो तैयारी नहीं कर लिए हो अपनी माई से आगे निकलने की।” 

यह सुनते ही दया समझ गई कि अब गाड़ी पूरी तरह पटरी पर आ गई है, तो उसने कुछ रोब के साथ कहा, “अच्छा, कुछ नहीं सूझा तो यही सही, हमारी माई को लेते आए बीच में, हम कोई तैयारी-वैयारी नहीं किए हैं समझे। बहुत हो गए बच्चे अब और नहीं। तुम जो करने की तैयारी किए हो, उसे करो, हमें नींद आ रही है, बाद में हमें नींद से जगाना नहीं बता दे रहे हैं।” 

दया की यह कोशिश शत-प्रतिशत सफल रही, वासुदेव ने बड़ी नरमाई से कहा, “ठीक है, जो कह रही हो वही सही, तुम्हारा हाथ भी ख़ूब गरम हो गया है।”

वासुदेव की बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि बिटिया की रोने की आवाज़ आने लगी, और दया हँसती हुई उठकर उसके पास चली गई। वासुदेव उसकी हँसी में छिपे व्यंग्य को समझ कर बोला, “थोड़ी देर हँस लो, उसके बाद तो हम ही हँसेंगे।” 

दया ने भी तुरंत उत्तर दिया, “ठीक है, तुम भी जितना मन आए उतना हँस लेना।” उसने सोचा चलो कम-से-कम छह घंटे बाद मनहूस शाहीन बाग़ से बाहर तो आए। 

वासुदेव सवेरे सो कर उठा ही था कि तभी पार्षद का एक चमचा हाथ में तस्वीह लटकाए आ धमका। मिलते ही बोला, “हाँ भाई-जान मिज़ाज ठीक है, काम-धंधा मज़े में है?” 

वासुदेव ने भीतर ही भीतर कुढ़ते हुए कहा, “हाँ, हाल-चाल ठीक ही है। काम-धंधा का तो रास्ता ही बंद है।” उसने सोचा पहले आते-जाते न जाने कितनी बार मिला, लेकिन कभी एक शब्द नहीं बोला, आज हाल-चाल पूछ रहा है, लगता है दाल में कुछ काला है। 

उसके मन में यह बात चल ही रही थी कि तभी तस्वीह वाले ने दाएँ-बाएँ देखकर पाँच हज़ार रुपए उसके हाथ में पकड़ा कर मुट्ठी बंद करते हुए कहा, “परेशान क्यों होते हो मियाँ, सब चल नहीं दौड़ रहा है। आज अगर हो पाए तो अपने दो-चार और लोगों को भी लेकर पहुँचना। वहाँ बढ़िया बिरयानी, छोला-पूड़ी और हलवे का भी इंतज़ाम है। जो साथ आएँगे उनकी भी दिहाड़ी नहीं मरेगी, वहाँ बैठे-बैठे दिहाड़ी से ज़्यादा ही मिल जाएगा।” 

यह कहते हुए उसने अपनी जालीदार गोल टोपी ठीक की और पहले की ही तरह आराम से चलता हुआ घने कोहरे में ग़ुम हो गया।