भाग -3
वासुदेव उसे बहुत दिन से जानता है, लेकिन यह नहीं जानता है कि वह बिना कोई काम-धंधा किए अपना परिवार कैसे पालता है। ग्यारह बच्चों, तीन बेगमों सहित पंद्रह लोगों का परिवार है, ठीक से खा-पी भी रहा है, तीन कमरों में पता नहीं कैसे रह रहा है।
वह दरवाज़े पर ही खड़ा सोचने लगा कि देखने में कितना भला-मानुष लगता है। मगर शातिर इतना है कि अपने साढू भाई के छोटे भाई की ही बीवी भगा लाया। कितना पुलिस-फाटा सब हुआ, लेकिन छोड़ा नहीं और न ही वह औरत ही अपने शौहर के पास जाने को तैयार हुई।
कैसे बेशर्मों की तरह मोहल्ले वालों के सामने ही पुलिस से भिड़ती रही, ‘मैं अपनी मर्ज़ी से आई हूँ। यही हमारे शौहर हैं, हमें वहाँ वापस नहीं जाना। वह दिन-रात मारता है। खाना नहीं देता। हमें मर्द का प्यार चाहिए, मर्द का।’
उसका शौहर, परिवार के लोग, पुलिस के सामने, दुनिया के सामने प्रमाण देते रहे कि “ये, इस धोखेबाज़ आदमी के बरगलाने में फँस कर झूठ बोल रही है। हम तो इस आदमी की रिश्तेदार होने के नाते मदद करते रहे। इसकी रोज़ी-रोटी का इंतज़ाम कर रहे थे। मगर यह आस्तीन का साँप हमें ही डस कर चला आया। फिर मैंने औरत को तलाक़ दिया ही नहीं है, तो यह किसी और के साथ कैसे जा सकती है। यह नाज़ायज़ है।”
पुलिस, दुनिया उसका सच समझ रही थी, लेकिन क़ानून के आगे विवश थी। क्योंकि यह और वह भगोड़ी औरत दोनों ही कहते रहे कि “हम देश का क़ानून मानते हैं। और वह हमें अपनी मर्ज़ी से किसी के भी साथ रहने का हक़ देता है। ये तलाक़ देने का ड्रामा अपने पास रखें।”
भगोड़ी बीवी तो इसी के सुर में इससे ज़्यादा तेज़ बोल रही थी कि “हमें ज़रूरत नहीं है इनके तलाक़-वलाक की, क़ानून हमें कहता है कि हम चाहे जिसके पास अपनी मर्ज़ी से चले जाएँ।” कितनी बेशर्मी से खुले-आम शौहर को ना-मर्द बताती रही।
आख़िर क़ानून के फंदों में फँसी पुलिस झगड़ा-फ़साद न हो, यह सुनिश्चित करके चली गई। बेचारा शौहर भी अपने परिवार के साथ भरी दुनिया में अपमानित हो, हाथ मलते हुए वापस लौट गया। तमाशा देख रही भीड़ में इसका पड़ोसी बुज़ुर्ग आख़िर बोल ही पड़ा था, ‘वाह भाई, ये अच्छा है, अपने फ़ायदे के हिसाब से जब मन हो देश का क़ानून मानो, जब मन हो इस्लाम का। डरो ऊपर वाले से, इन गुनाहों का क्या जवाब दोगे वहाँ।’
और तब अपनों की ही पीठ में छूरा घोंपने वाला यह विश्वासघाती, मक्कार, धोखेबाज़ पूरे घमंड में ऐसे बार-बार टोपी ठीक कर रहा था, जैसे कोई बहुत बड़ा काम कर लिया हो। तीनों बेगमों के बीच रोज़-रोज़ होने वाली लात-जूता, गंदी-गंदी गलियों, अश्लील बातों से पड़ोसियों की शान्ति, आराम की ऐसी की तैसी अलग किए रहता है।
मोहल्ले-भर में फैली इस अफ़वाह का भी इस निर्लज्ज पर कोई असर नहीं है कि पहली वाली बेगम के आए दिन घर में घुसे रहने वाले अपने ममाज़ात भाई से भी रिश्ते हैं। और क्योंकि भगोड़ी बेगम इस रिश्ते में बाधक भी बन रही है, इसीलिए घर में चीख-चिल्लाहट ज़्यादा बढ़ गई है।
वासुदेव कोहरे में उसके खो जाने के बाद भी उसी ओर बड़ी देर तक ऐसे देखता रहा, जैसे कि वह उसे दिख रहा हो। उसने मन ही मन कहा, ‘मियाँ टोपी मजबूरी में चला आता हूँ, औरों को लाकर देश से गद्दारी करने का अपना अपराध और बड़ा नहीं करूँगा।
‘तुम अभी हमारे दिमाग़ को समझे नहीं हो, कहीं घूम गया तो जो गद्दारी की दूकान वहाँ सजा रखी है, उसे वहीं रखे गैस सिलेंडरों में आग लगा कर सेकेंडों में उड़ा दूँगा, फूँक दूँगा उसे, जो होगा देख लेंगे। कम से कम देश-वासियों, देश की बर्बादी तो रुकेगी।’
वह मन मसोस कर धरना-स्थल जिसे वह गद्दारी स्थल कहता है, वहाँ बारह बजे पहुँचा। उसके पहले महीने भर का राशन घर में भर गया था। दया ने कहा भी कि “अभी डेढ़-दो हफ़्ते का सामान है, काहे सब लेते आ रहे हो, रखने के लिए जगह भी तो चाहिए न।”
तो पहले से ही खीझे परेशान वासुदेव ने दाँत पीसते हुए कहा, “तू अपनी खोपड़ी का कचरा बाहर फेंक कर, अपना दिमाग़ किसी बात को समझने में कब लगाएगी रे। कल से बार-बार कह रहा हूँ कि दंगा ज़रूर होगा।
“जल्दी ही किसी भी समय शुरू हो सकता है। इन सब गद्दारों ने पूरी तैयारी कर रखी है। दंगा होगा तो कर्फ़्यू लगेगा ही लगेगा। ऐसे में बच्चों, तुझको, ख़ुद को भूखा मारेंगे क्या? गद्दारों, दंगाइयों के साथ-साथ भूख की मार से भी बचना है, समझी गोबर-पथनी।”
दया उसे एकटक देखती रह गई थी, वह भावुक हो रही थी कि यह आदमी ऊपर से कितना बात-बात पर ग़ुस्सा होता रहता है, ग़ुस्सा नाक पर बैठा रहता है। लेकिन हमें, बच्चों को अपनी जान से ज़्यादा प्यार करता है।
उस दिन वासुदेव रात को लौटा तो पहले तो घंटा-भर गाँव में माँ-बाप, भाइयों से बात की। उसके बाद काफ़ी देर तक अपने कई साथियों से बतियाता रहा। दया उसकी बातें सुन-सुन कर घबराती परेशान होती रही, खाना-पीना, बच्चों को सँभालती रही।
जब बच्चे सो गए तो देर रात वासुदेव उसको दिन-भर जो देख-सुन कर आया था, वह सब-कुछ उसे बताने लगा कि “वहाँ गुंडई-बदमाशी इतनी बढ़ गई है, मनबढ़ई इतनी हो गई है कि अब पत्रकारों के साथ भी मार-पीट कर रहे हैं।
“जो पत्रकार उनके मुर्गा-दारू के चक्कर में पड़ कर, उनकी गद्दारी को बहादुरी भरा क़दम बता कर, उनकी प्रशंसा के पुल गढ़ते हैं, उन्हें अपने हक़ के लिए संघर्ष करने वाले योद्धा बताते हैं, उन्हें तो कोने में ले जाकर नोटों की गड्डी और किसी महिला के साथ अय्याशी भी करवाते हैं।
“लेकिन जो ईमानदार, देश-भक्त पत्रकार उनके फेंके गए टुकड़ों को लात मार कर, देश के सामने सच लाने लगते हैं, उनकी पोल खोलने लगते हैं, जब वहाँ बैठी औरतों, आदमियों से पूछते हैं कि यहाँ क्यों बैठी हैं? किस बात का विरोध कर रही हैं? तो वो कहतीं हैं कि हमें बैठने के लिए पैसा मिल रहा है, खाना मिल रहा है, इसलिए बैठे हैं, बाक़ी हमें कुछ नहीं पता।
“तो यह सुनते ही वह गद्दार पागलों की तरह बउरा उठते हैं, पूछने वाले पत्रकार को मार-पीट करके, उन्हें भगाने लगते हैं। आज एक टीवी पत्रकार इनकी पोल खोल रहा था तो इन सब ने उसके साथ मारपीट कर ली। दो दिन पहले एक महिला पत्रकार के साथ भी यही किया था।”
यह सुनते ही दया एकदम से बोल पड़ी, “हाँ यह तो हम भी टीवी पर देखे थे। तुम भी वहाँ पर सँभल कर रहा करो। हमें बहुत डर लगता है कि कहीं बहुत ज़्यादा लड़ाई-झगड़ा न हो जाए और पुलिस आ कर सबको पकड़ने लगे, साथ में तुमको भी ले जाए।”
“अरे तुम भी क्या बार-बार पुलिस-पुलिस कर रही हो। वो चाहे तो इन दल्लों, गद्दारों को मिनट भर में लठिया कर जेल में ठूँस दे, फेंक दे इन्हें इनके दड़बों में, मगर उन विचारों की भी मजबूरी है। सरकार उनके हाथ-पाँव बाँधे रहती है। देश की सरकार सही मौक़े का इन्तज़ार कर रही है, क्योंकि उसे न्यायमूर्ति लोग अपना हथौड़ा दिखा-दिखा कर डराते रहते हैं। कुछ करते ही स्वतः संज्ञान लेके सरकार का आदेश ही पलट देते हैं।
“इससे सरकार का अपमान तो होता ही है, वह गद्दारों के सामने कमज़ोर भी पड़ जाती है। गद्दार इससे और भी ज़्यादा मज़बूत हो जाते हैं। इसलिए सरकार ऐसे समय पर अपना हथौड़ा चलाएगी जब किसी के पास संज्ञान लेने का भी समय न रहे। समस्या इतनी ही नहीं और कई गुना ज़्यादा है, क्योंकि लोगों को साफ़-साफ़ दिख रहा है कि यहाँ की राज्य-सरकार ही वोट-बैंक बनाने के लिए इन गद्दारों को ख़ूब खाद-पानी दे रही है।
“ऐसा नहीं है कि थोड़ी सी बिजली-पानी मुफ़्त देने का टुकड़ा फेंक कर, कुछ बे-रीढ़ के मुफ़्त-खोरों के चलते मुख्यमंत्री बन बैठे, गद्दारों से ही मक्कार इस आदमी को कुछ पता नहीं है। वह सब-कुछ जानता है, बल्कि मैं यह भी कहता हूँ कि उसके भी इशारे पर यह सब-कुछ हो रहा है।
“उसको एक-एक पल की ख़बर है कि बहुत भयानक दंगा कराने की ख़ूब ज़ोर-शोर से तैयारी हो रही है। देखती नहीं कि उसके इशारे पर, उसके कई नेता लोगों का ध्यान अपनी ओर से हटाने के लिए, देश की सरकार पर रोज़ आरोप लगाते हुए चिल्लाते हैं कि ‘दंगा हो सकता है, साज़िश हो रही है जी। वो दंगा कराने की तैयारी में लगे हैं जी।’”
यह सब सुन-सुन कर दया की घबराहट और बढ़ जाती है। ऐसे में वह बड़ी बेतुकी सी बात बोल उठती है, “जब उसको सब पता है, यहाँ उसकी सरकार है तो, वह यह सब बंद क्यों नहीं करवाता, रोकता क्यों नहीं इन उत्पातियों को।”
यह सुनते ही वासुदेव खीजता हुआ बोला, “अरे तुम तो बहुत बड़ी बुड़बक हो, बार-बार कह रहा हूँ उसकी भी सह है, वह देश की सरकार को बदनाम करने के लिए ही तो उत्पातियों को सह दे रहा है, बार-बार मनगढ़ंत आरोप लगा रहा है, दंगा हो जाने पर कहेगा, 'देखा जी, मैं तो पहले ही कह रहा था जी, ये लोग तो ऐसा ही करते हैं जी।’
“सोशल-मीडिया पर इसी लिए लोग उसे भारतीय राजनीति के, गंदे कचरे के ढेर का, सबसे घिनौना गंदा कचरा कहते हैं। सत्ता, वोट के लिए सब जितना नीचे गिर सकते हैं, ये उतने नीचे से और नीचे गिरना शुरू करता है। झूठ बोलना, आरोप लगाना, पोल खुलने पर थूका हुआ चाट लेना, उसका प्रिय शौक़ है। दूसरों पर झूठे आरोप लगाने के लिए कोर्ट में एक नहीं कई बार लिखित माफ़ी भी माँग चुका है। उसकी राजनीति थोड़े से मुफ़्तखोरों, गद्दारों पर टिकी है बस।
“मगर अचम्भा तो इसी बात का है कि ईमानदार मीडिया, सोशल-मीडिया पर भी बहुत से लोग सच दिखा रहे हैं, लेकिन फिर भी दुनिया पता नहीं क्यों सब देख कर भी अंधी बनी हुई है, कुछ बोल नहीं रही है। कोई स्वतः संज्ञान भी नहीं ले रहा है।
“मोहल्ले में सबके चेहरों पर ही यह सारी बातें साफ़-साफ़ पढ़ी जा सकती हैं, लेकिन सब चुप हैं। मैंने ख़ुद दो-चार से बात उठाई, मगर वह कुछ बोले बिना ऐसे चल दिए, जैसे मैं वहाँ था ही नहीं।”
पति की बातें सुनकर दया की चिंता एकदम बढ़ गई। उसने कहा, “जब सब चुप हैं, तो तुम भी चुप रहा करो, अकेले कहाँ क्या कर लोगे, बेवजह जान ख़तरे में डालने की ज़रूरत नहीं है। पूरे परिवार की जान पहले ही ख़तरे में है। सुनो गैस भी ख़त्म होने वाली है, कल पहले उसका कुछ इंतज़ाम करो।”
“तुम चिंता न करो, मुझे याद है। पहले ही कह रखा है, कल दोपहर तक मिल जाएगी। ब्लैक में दुगुना दाम दे-दे कर हालत ख़राब हो गई। राशन-कार्ड बन गया होता तो गैस कनेक्शन मिल जाता।
यह साली गद्दारों, टपोरियों की सरकार, देश के दुश्मन घुस-पैठियों के राशन-कार्ड ढूँढ़-ढूँढ़ कर बना रही है, उनको जगह-जगह मकान, प्लॉट देकर बसा रही है। मगर हम जैसे लोग जो इस देश के ही हैं, हमारा कार्ड नहीं बनने दे रही है। चार साल हो गए, मगर न इस सरकार के कर्मचारी सुनते हैं, न ही इसके नेता, दल्ले बनने देते हैं।”
वासुदेव को चिंता के कारण न तो दया के हाथ ठंडे लगे, न ही बाद में गर्म। दोनों ही दाल-रोटी के साथ-साथ अपनी, बच्चों की सुरक्षा की चिंता में सोचते-सोचते बिना ठंडा-गरम की बात किए ही किसी समय सो गए। आज उनकी बिटिया भी नहीं रोई। एक-दो दिन ऐसे ही और बीत गए।
ऐसी ही एक ठंड से ठिठुरती रात को परिवार रजाइयों, कंबलों में दुबका सो रहा था, बारह ही बजे होंगे कि अचानक ही तेज़ धमाके की आवाज़ से पूरा परिवार चिंहुक कर जाग गया। दुध-मुँही बच्ची तेज़-तेज़ रोने लगी, दया जल्दी से बच्ची को गोद में लेकर उसे दूध पिलाने लगी कि वह चुप हो जाए। बाक़ी बच्चे भी मम्मी, पापा बुलाने लगे। वासुदेव ने उन्हें समझाया कुछ नहीं हुआ सो जाओ।
लेकिन तब-तक एक के बाद एक कई धमाकों ने बच्चों ही नहीं दया, वासुदेव को भी हिला कर रख दिया। दया बच्चों के पास उनकी रजाई में जाकर उन्हें चुप कराने लगी। वो सब उससे चिपके हुए काँप रहे थे, लेकिन वह स्वयं नहीं। वह स्थिति को समझने, उससे निपटने की सोचने लगी। धमाकों के बाद कहीं दूर से चीख-पुकार, गोलियों की भी आवाज़ें आने लगीं।
वासुदेव भुनभुनाया, “आख़िर गद्दारों ने अपना असली घिनौना रूप दिखा ही दिया।” वह दरवाज़े से चिपका बाहर की आहट लेने लगा। उसने एक हाथ में किचन वाला चाकू और दूसरे हाथ में तीन फ़िट का एक सरिया पकड़ रखा है। उसने दया से कहा, “चिंता मत कर, बच्चों को सुला दे, मेरे रहते तुम लोगों तक कोई नहीं पहुँच पाएगा।”
उसकी बातों से दया को बड़ी हिम्मत मिली। वह बच्चों को समझा-बुझा कर रजाई में फिर सुलाने का प्रयास करती रही। बच्चे लाइट जलाना चाहते हैं, लेकिन उसने उन्हें समझाकर मना कर दिया। पति-पत्नी सुरक्षा की दृष्टि से अन्धेरा ही रखना चाहते हैं।
कई घंटों तक धमाकों, फ़ायरिंग, चीख-चिल्लाहट की आवाज़ें आती रहीं। दंगाई अपना घिनौना पैशाचिक कुकृत्य करते रहे। जब-जब तक पुलिस पहुँची, दंगाईयों पर नियंत्रण करना शुरू किया तब-तक सवेरा हो चुका था। हर तरफ़ तमाम मकानों से लपटें अभी भी निकल रही थीं, सड़कों, गलियों में तमाम लोगों को बुरी तरह मारा-काटा, जलाया गया था।
जगह-जगह लोगों के क्षत-विक्षत शव पड़े हुए थे। गद्दारों की साज़िश, तैयारी साफ़ दिख रही थी कि हर वह दुकान, मकान बिलकुल सुरक्षित था, नहीं तोड़ा-फोड़ा, जलाया गया था, जिन पर नो सीएए लिखा था। अब-तक कर्फ़्यू लग चुका था।
घर में पूरी तरह से बंद वासुदेव न जाने कितने बरसों बाद, दिन-भर टेलीविजन पर समाचार देखता रहा, व्हाट्सएप पर तरह-तरह के आने वाले मैसेज भी। यह सब देख-देख कर उसका ख़ून खौल उठता है। नसों में जैसे अंगारे भर उठते हैं।
बाँहें फड़कना बंद नहीं हो रहीं। उसका मन कर रहा था कि एक बड़ा सा बाँका ले आए और हर उस दंगाई का हाथ, पैर, सिर काट कर फेंक दे, जिस तरह इन दरिंदों ने निरपराध सोते हुए लोगों को मारा-काटा है, दुकानें, घर जलाई हैं।
टीवी पर उसे पूरी तरह से जली, नष्ट हुई उस लाला की दुकान भी दिखी, जिसके यहाँ से वह सामान लाता है। टीवी रिपोर्टर साज़िश की गहराई बताते हुए दिखा रहा था, कि किराने की दुकान पर नो सीएए नहीं लिखा था, इसलिए लाला की दुकान फूँक दी गई। उससे सटी हुई टायरों-साइकिल की दुकान पर बड़ा-बड़ा लिखा था नो सीएए, वह एकदम सुरक्षित थी। पूरी बाज़ार में यही हाल था।
समाचार देख-देख कर वह आग-बबूला होता हुआ दया से कहता है, “मेरी बात नहीं मान रही थी न, देखो मेरी एक-एक बात सही निकली कि नहीं। मैं कह रहा था कि साज़िश बहुत गहरी हो रही है। टीवी बार-बार कह रहा है कि जिस तरह एक ही समुदाय के लोगों को मारा गया है, उनकी दुकानों, मकानों में आगजनी की गई है, यह एक-दो दिन की नहीं, महीनों की तैयारी के बाद ही हो सकता है। सरकार की नाक के नीचे इतनी बड़ी साज़िश, तैयारी होती रही और सरकार सोती रही।”
वह सरकार को गाली देते हुए बोला, “सच तो यह है कि टपोरियों की राज्य-सरकार सोती नहीं रही, तुष्टिकरण के रास्ते अपना वोट-बैंक बढ़ाने के लिए, दंगाइयों को खुली छूट देकर पूरी तैयारी करवाती रही। जिससे देश की सरकार बदनाम हो, और वो अपनी कमाई, कुर्सी और ज़्यादा मोटी और मज़बूत कर सके।
“आज अमरीका का राष्ट्र-पति डोनॉल्ड ट्रंप आया हुआ है, देश की ज़्यादा बदनामी हो, इसलिए दंगे का टाइम आज ही का चुना गया। अरे मैं कहता हूँ कि ये टीवी वाले पत्रकार भी बऊरहे हैं। इन सबको कुछ भी नहीं मालूम, सच तो दिखा ही नहीं रहे हैं। तैयारी के हिसाब से तो यह अभी शुरूआत है, अभी यह और कई जगहों पर भी फैलेगा, मेन मार्केट में आगजनी, हत्याएँ और ज़्यादा होंगी।”
उसकी इन बातों से दया की धड़कनें और बढ़ गईं। अब उसे पति की एक-एक बात पर विश्वास हो रहा है, अविश्वास करने का कोई रास्ता उसे नहीं दिख रहा है। क्योंकि उसकी हर बात सही निकल रही है। आगे और दंगा होगा यह सुनकर उसने कहा, “सुनो, चाहे जैसे हो बच्चों को लेकर कहीं और चलो। जहाँ पर जान का ख़तरा न हो।”
उसकी बात सुनकर वासुदेव भड़क कर बोला, “दिमाग़ से एकदम ख़ाली हो गई हो क्या? कर्फ़्यू लगा हुआ है, घर से बाहर नहीं निकल सकते, और यह मूढ़मती कह रही है कि घर बदलो। सुनो, अब मेरा भी माथा बहुत ख़राब हो गया है। अब यहाँ से हम कहीं नहीं जाएँगे। कर्फ़्यू हटने के बाद भी नहीं जाएँगे, यहीं रहेंगे।
“यह भी नहीं कि नर-पिशाच दंगाई आएँगे तो हम छिपने की कोशिश करेंगे, मरने के डर से काँपते रहेंगे और वह सूअर हमें आराम से मार-काट कर चले जाएँगे, ख़ुशी से जश्न मनाते हुए, पागलों की तरह शोर मचाते हुए। वो हमें मारेंगे तो हम भी मारेंगे। मार कर ही मरेंगे, ऐसे नहीं।”
दया को उसकी बातें, व्यवहार, बहकी-बहकी सी लगीं। उसने कहा, “कैसी बातें कर रहे हो, अरे तुम यहाँ कौन सी गोली बंदूक धरे हो, जो सैकड़ों राक्षसों से अकेले लड़ सकोगे। यह दिल्ली शहर है, अपना गाँव नहीं, कि लाठी, बल्लम, कांता, अद्धी लेकर निकल पड़े और ‘निकला हो’ आवाज़ देकर दूई-तीन दर्जन लोगों को और बुला लिया। हो गए सब इकट्ठा, जिसको चाहा उसको मार तोड़-कर गिरा दिया। अरे अपनी नहीं तो कम से कम इन बच्चों की तो सोचो, अभी तो यह सब ठीक से आँखें भी नहीं खोले हैं और तुम मरे मारे की सोच रहे हो। कैसे निर्दयी बाप हो।”
दया की यह बात वासुदेव को चुभ गई, उसने कुछ तेज़ आवाज़ में कहा, “मैं कह रहा हूँ न कि तुम्हारे दिमाग़ में भूसा भरा है, भूसा। बार-बार कह रहा हूँ कि कोई मारने आएगा तो हम लड़ेंगे। ये नहीं कि गिड़गिड़ाएँगे। इन बिहारी हाथों में इतना दम है कि मरने से पहले आठ-दस को काट डालेंगे। जब तुम सबको बचाने का कोई रास्ता नहीं बचेगा, तो तुम सबको मार कर ही अपने प्राण निकलने दूँगा, जिससे कोई घिनौना नर-पिशाच हमारे परिवार को छू न सके।”
वासुदेव की आँखें क्रोध, घृणा से रक्ताभ हो रही हैं। लेकिन गोद में बच्ची ली हुई दया ने, इस ओर ध्यान दिए बिना ही कहा, “पता नहीं हमारे दिमाग़ में भूसा भरा है कि तुम्हारे दिमाग़ में। अरे आज-तक मार-काट पर उतारू भीड़ से कोई लड़ पाया है जो तुम लड़ लोगे। जितनी आसानी से तुमने मारने-काटने की बात कह दी, उतनी आसानी से हमको, बच्चों को, ये-ये, इस आठ महीने की बिटिया को अपने हाथों से काट पाओगे, तुम्हारी समझ . . .”
दया की बात पूरी होने से पहले ही वासुदेव और भड़कता हुआ बोला, “ऐ बुड़बक तू एकदम चुप कर, एकदम चुप। अपनी काली ज़ुबान अब हिलाना भी नहीं। अब-तक भीड़ से वही नहीं लड़ पाया है, जिसके दिमाग़ में तुम्हारी तरह भूसा भरा रहता है, मरने से डरता है, डरपोक होता है, वो नहीं लड़ पाता। बाक़ी भीड़ से लड़ते भी हैं, जीतते भी हैं, नहीं जीत पाते हैं, तो मरने से पहले बहुतों को मार देते हैं।
“सारागढ़ी में दस सिखों ने दस हज़ार जिहादियों के झुण्ड को मार-मार कर, काट-काट कर तब-तक अपनी चौकी को बचाए रखा, जब-तक कि उनकी दूसरी फ़ोर्स नहीं आ गई। और तू कहती है कि भीड़ से कौन लड़ पाया है। और सुन, हम भी अकेले नहीं छह जने हैं।
“इसी घर में एक हथियार ऐसा है कि हम सेकेण्ड भर में साठ को मार देंगे। इस पूरे मोहल्ले में हर तरफ़ आग ही आग फैल जाएगी, अपने घर के साथ-साथ आस-पास के कई घर उड़ जाएँगे। और अगर भगवान ने ज़रा भी साथ दिया, तो हम यह सब करके यहाँ से आराम से बचकर निकल भी लेंगे समझी।”
वासुदेव ने अपनी बात इतनी दृढ़ता से कही कि दया की आत्मा काँप उठी। उसकी आँखें फैल कर बड़ी हो गईं, आश्चर्य से मुँह खुला रह गया। वह पति वासुदेव को जितना जानती है, उस हिसाब से उसके मन में अविश्वास की बात आ ही नहीं सकती।
वह आश्चर्य-चकित है, उसके मन में कई प्रश्न ज़ोर-ज़ोर से उठ रहे हैं कि ऐसा कौन सा हथियार है इस घर में, जिसके बारे में हमें पता तक नहीं है, और इन्होंने उसे कब लाकर घर में रखा, हमें बताया क्यों नहीं। उसने अब-तक अपने पति के रौद्र रूप के सामने स्वयं को सँभाल लिया है।
ग़ुस्से से दहकती उसकी आँखों में, बिना किसी डर-संकोच के देखती हुई, उसकी ही तरह दृढ़ता से पूछा, “यह बताओ कि तुम ऐसा कौन-सा हथियार लाए हो जो सेकेंडों में साठ-सत्तर लोगों को मार कर, हम-सबको लेकर यहाँ से बचके निकल लोगे।
“इस एक कमरे के घर में उसे रखे कहाँ हो? और सबसे बड़ी बात कि हमको आज-तक बताया क्यों नहीं? हम जब से दंगा की सुने हैं, तब से यही सोच-सोच कर परेशान हैं कि ज़रूरत पड़ जाए तो घर में एक ढंग का चाकू तक नहीं है कि अपना बचाव भी कर सकें।”
पत्नी की बातों, उसकी दृढ़ता को देख कर वासुदेव की बाँछें खिल गईं। उसने उसकी आँखों में बहुत ही हिंसक दृष्टि से देखते हुए कहा, “चलो तुम्हारे कुछ तो हिम्मत आई। चाकू हथियार के बारे में सोची तो, और जब सोच लियो हो तो ज़रूरत पड़ने पर चला भी लोगी। जैसे ही मौक़ा मिलेगा तो छूरा भी ले आएँगे, उसको तुम्हें चलाना भी सिखाएँगे।”
दया अभी भी उसे आश्चर्य से देख रही है। उसने उसकी आँखों में देखते हुए पूछा, “पहले तुम यह बताओ कि वह हथियार लाकर रखे कहाँ हो, जिससे साठ लोगों को मार दोगे, तमाम मकान उड़ा दोगे।”
रहस्यमई हथियार को लेकर दया की प्रश्नानुकूलता, व्याकुलता अपनी जगह उचित है। उसकी बात सुनते ही वासुदेव ने किचन के लिए प्रयोग होने वाली, कोने में बनी जगह पर रखे गैस सिलेंडर को देखते हुए कहा, “वह रहा हथियार, लाल रंग यह सिलेंडर। जो सेकेण्ड भर में साठ तो क्या पूरे झुण्ड के चिथड़े उड़ा देगा। हमला होने पर दरवाज़े के सामने रखकर इसी में आग लगा दूँगा। फटेगा तो नर-पिशाचों के चिथड़े उड़ा देगा।”
वासुदेव की आँखों में क्रूरता और भयानक हो उठी है। उसकी आँखों में ख़ून उतरा हुआ सा लग रहा है। दया पर भी जैसे उसके ही भाव, मानसिकता हावी होती जा रही है। मगर उसकी प्राथमिकता में पूरे परिवार की सुरक्षा अभी भी बनी हुई है। उसने कहा, “उनके साथ-साथ हमारे भी तो चिथड़े उड़ जाएँगे। उनसे ज़्यादा चिथड़े तो हमारे ही उड़ेंगे, इसके अलावा और कोई रास्ता क्यों नहीं ढूँढ़ते।”
वासुदेव ने कहा, “इस समय बचने का इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है। ऐसी हालत में जो भी हो सकता है, वह सब सोचा है। दरवाज़ा तुरंत तो टूट नहीं जाएगा। दो-चार मिनट तो लगेगा ही। इतनी देर में हम सिलेंडर दरवाज़े पर लगा कर, तख़्त खड़ा करके उसके पीछे आ जाएँगे। तख़त के साथ रजाई-गद्दा, ये बक्सा, सब लगा देंगे। तख़्त गद्दों की आड़ से हो सकता हम-लोग बच जाएँ। थोड़ी-बहुत ही चोट आए बस।
“और तब हम बाहर नर-पिशाचों के बीच मची चीख-पुकार, भगदड़ का फ़ायदा उठाकर उनके बीच से निकल भागेंगे। ऐसे थोड़ी सी हिम्मत, कोशिश करने से कम से कम बचने की कुछ तो उम्मीद रहेगी। और अगर नहीं बचे, तो कम से कम आत्मा को शान्ति तो मिलेगी कि हम डरपोक कायरों की तरह, भेड़ बकरियों सी बदतर हालत में नहीं, बल्कि छह जने मरने से पहले साठ जने को मार कर मरे।”
वासुदेव ने इसके बाद भी बार-बार उसे बहुत कुछ ऐसे समझाया-सिखाया जैसे कि पत्नी बच्चों को रण-क्षेत्र में जाने से पहले आख़िरी प्रशिक्षण दे रहा है। जब एक बार दया ने कहा कि “कोई अलग कमरा नहीं है, इन सबका बच्चों पर ग़लत असर पड़ेगा।”
तो उसने दया की आँखों में देखते हुए कहा, “इन सबको भी अभी से बहादुर बनाना है, इसलिए चिंता की कोई बात नहीं है।”
यह सुनकर दया कुछ सोचती हुई बोली, “यह सब तो ठीक है, लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि अपना गाँव, अपना मकान जैसा कुछ नहीं हो सकता। भले ही एक टाइम खाए, फटा कपड़ा पहने, लेकिन रहे अपने गाँव घर में ही। इससे कम से कम कभी ऐसे घाते में तो जान नहीं पड़ेगी जैसे इस परदेस में आकर पड़ी हुई है।”
कर्फ़्यू के चलते घर में बंद पति-पत्नी जब-तक जागते, तब-तक सुरक्षा की रणनीति पर बातें करते रहते, अपनी तैयारी और मज़बूत करते रहते, लगातार बंद रहने से परेशान बच्चों को समझाते-बुझाते चुप कराते रहते। कोशिश करते कि वो ज़्यादा समय सोते रहें।