स्याह उजाले के धवल प्रेत - भाग 4 Pradeep Shrivastava द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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स्याह उजाले के धवल प्रेत - भाग 4

भाग -4

दूसरी तरफ़ वासुदेव का विश्लेषण, अनुमान शत-प्रतिशत सही होता गया। दंगा और ज़्यादा फैलता चला गया देखते-देखते तीन-चार दिन में क़रीब पाँच दर्जन क्षत-विक्षत लाशें मिलीं। एक आईबी अफ़सर को सूअरों ने धोखे से खींच कर उसे चाकू से छलनी कर दिया। उसके शरीर के अंग-अंग काट दिए, आँखें निकाल लीं। 

चाकुओं के चार सौ घावों से बिंधा उनका शव एक गंदे नाले में फेंक दिया। नीचता की हद यह कि नाले की गाद (सिल्ट) में जितना गहरे हो सकता था, उतना गहरे दबा दिया। यह समाचार देख कर वासुदेव ने बच्चों का भी ध्यान नहीं रखा, भयंकर गालियाँ देता हुआ बोला, “इन आस्तीन के साँपों की गद्दारी देखो, इस परिवार के यहाँ इनका दसियों साल से आना-जाना था। सूअरों ने परिवार को धोखा दिया। धोखे से काट डाला। यह अभी क्या, कभी भी विश्वास करने लायक़ न थे, न रहेंगे। 

“पार्षदी के चुनाव में उस अधिकारी, उसके परिवार से हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाता फिरता था कि आपको बहुत लोग जानते हैं, हमारी इज़्ज़त आपके हाथ में है, आप चाहेंगे तो हम जीत जाएँगे। मक्कार साले ने टोपी उतार कर उनके सामने रख दी थी। जितवा दिया तो सूअर ने इस तरह एहसान चुकता किया। सालों की तैयारी देखो मिठाई वाले के पहाड़ी नौकर का हाथ-पैर काट कर ज़िन्दा आग में झोंक दिया।”

वासुदेव की क्रोधाग्नि अनवरत भड़कती ही जा रही है। वह दया को कुछ बोलने ही नहीं दे रहा है, अपनी बात ही कहता जा रहा है। सारा ग़ुस्सा उसी पर निकालते हुए बोला, “कह रही थी न कि काहे इतना सामान इकट्ठा कर रहे हो, अरे तुम्हारी बात मान लेता तो चार दिन में ही सब भूखों मर जाते।” 

उसकी इस क्रोधाग्नि से दया बेचारी अकारण ही तब-तक झुलसती रही, जब-तक पुलिस प्रशासन की सख़्ती से दंगा ख़त्म नहीं हो गया। उसे बाहर निकलने का अवसर नहीं मिल गया। लेकिन बाहर उसने जो कुछ देखा उससे उसकी क्रोधाग्नि और भड़क उठी। 

वह ऐसे कई लोगों के घर गया, जिन्हें वह जानता था और नर-पिशाचों ने उन्हें धोखे से मार दिया था। उस साथी के परिवार का रुदन देख कर वह आपे से बाहर हो गया जो अपने दुध-मुँहे बच्चे के लिए दूध लेने निकला था, और सूअरों ने उसे चाकूओं से गोदने के बाद ज़िंदा ही जला दिया था। 

उसे और कई लोगों ने पकड़ न लिया होता, तो वह बदला लेने के लिए दो-चार लोगों को मार ही डालता। इससे दंगा बदले की राह पर चल कर और भयावह रूप से फिर भड़क सकता है। सैकड़ों गुना ज़्यादा फैल सकता है। क्योंकि नेता अपनी दुकान चमकाने के लिए घड़ियाली आँसू बहाते चले आ रहे हैं। बयान-बाज़ी कर रहे हैं। 

दया के बार-बार फोन करने के बावजूद वासुदेव क़रीब तीन घंटे बाद घर वापस आया। दंगे के बाद से वासुदेव घर-बाहर जहाँ भी रहता है, ज़रा-ज़रा सी बात पर क्षण-भर में अपना आपा खो बैठता है। उसका क्रोध, आवेश तब कुछ कम हुआ, जब पार्षद को गिरफ़्तार कर लिया गया। सीसीटीवी कैमरों में वह हत्याएँ करता, करवाता, साफ़ दिख रहा था। उसके भाड़े के सैकड़ों सूअर भी पकड़े गए। 

उनमें ज़्यादातर पड़ोसी राज्यों के बड़े शिक्षण-संस्थानों के कारिंदे और धर्मांध छात्र थे। इन गिरफ़्तारियों पर सरकार को कोसते हुए उसने कहा, “मूर्खों यह पहले कर लेते तो इतने निर्दोष लोग न मारे जाते, अरबों रुपये की सम्पति नष्ट न होती, अमरीकी राष्ट्रपति के सामने शर्मिंदगी न झेलनी पड़ती . . .” 

वह और बहुत कुछ कहने जा रहा था लेकिन दया ने उसे रोक दिया। 

दंगा शांत हुआ तो विदेशी टुकड़ों पर पलने वाले संगठनों ने शाहीन बाग़ की आग फिर तेज कर दी। टोपी वाला वासुदेव के पास फिर पहुँचा, तो उसे देखते ही उसका पारा एकदम से सातवें आसमान के पार चला गया। उसने उसे किसी बात की परवाह किए बिना, बेहिचक उल्टे पाँव वापस लौटा दिया। कहा, “हमारा काम-धंधा चौपट हो गया है। हमें तो पाँच सौ देकर वहाँ बैठा देते हो बारह घंटा। ख़ुद मोटी-मोटी रक़म अपनी जेब में भरते रहते हो।”

यह सुनते ही उसने वासुदेव से बहुत ही दोस्ताना अंदाज़ में मुस्कुराते हुए कहा, “अरे भाई-जान ऐसी भी क्या बात है, चलो आज और बढ़वाते हैं . . .” 

उसकी बात पूरी होने से पहले ही वासुदेव ने ग़ुस्सा होते हुए कहा, “ऐसा है, कुछ पैसों के लिए मुझे झूठ, मक्कारी, गद्दारी का साथ देकर अपने देश, अपने लोगों के साथ गद्दारी नहीं करनी है। पाँच सौ क्या लाखों मिले तो भी नहीं चलना है। मुझे अपना काम-धंधा सँभालना है, ईमानदारी से जो मिल जाए, उससे ज़्यादा मुझे कुछ नहीं चाहिए। देश से, अपनों से गद्दारी करके तो एक पैसा भी नहीं।”

वासुदेव के इस व्यवहार से टोपी-वाला उसे कुछ देर भौचक्का देखता ही रह गया। कुछ क्षण पहले तक उसकी जिन आँखों में दोस्ताना भाव का सागर उमड़ रहा था, वहाँ अचानक ही क्रोध का ज्वालामुखी धधक उठा। उन दहकती आँखों से उसने वासुदेव की आँखों में देखा तो वहाँ अनगिनत ज्वालामुखी धधक रहे थे। उसने अपनी नज़रें नीची कीं और पलट कर गली में दूर होता चला गया। उसके आक़ा अगर जेल न भेज दिए गए होते, तो वह यूँ आसानी से नहीं जाता। 

दया दोनों की बातें दरवाज़े की आड़ में खड़ी सुन रही थी। टोपी वाले के जाते ही वासुदेव जैसे ही अंदर आया, वह तुरंत ही उससे भड़कती हुई बोली, “अरे न जाते तो कोई बात नहीं, लेकिन यह सब बोलने की क्या ज़रूरत थी। अब वह गुंडों-हत्यारों को इकट्ठा करके आएगा, मार-पीट करेगा।” 

यह सुनते ही वासुदेव भड़क उठा। उसने कहा, “एकदम बउरही हो का। जो आएगा उसके चिथड़े उड़ा दूँगा यह कितनी बार बोल चुका हूँ, तेरी खोपड़ी में घुसता नहीं क्या? यह साला निकम्मा, धोखेबाज़ हमको लालच देकर हमसे गद्दारी करवाएगा, जो चाहेगा वो करवाएगा। अब हमसे ज़रा भी चूँ-चपड़ की तो मैं इसकी मीडिया के सामने पोल खोल दूँगा, पुलिस को सब बता दूँगा . . .” 

वह आगे कुछ बोले उसके पहले ही दया ने कहा, “अब शांत भी रहो ज़रा, अपना दिमाग़ ठंडा रखो। यहाँ परदेश में कौन पुलिस तुम्हारी बात सुनेगी।” 

“पुलिस मेरी बात नहीं सुनेगी, तो मीडिया पुलिस को मेरी बात सुना-सुना कर उसका कान फोड़ देगी, कार्यवाई करने के लिए उसे थानों से बाहर निकलने के लिए मजबूर कर देगी।”

इसके साथ ही वासुदेव ने जेब में रखे मोबाइल को छूते हुए कहा, “इसमें मैंने पहले ही तमाम वीडियो बनाए हुए हैं। भेज दूँगा मीडिया वालों को, मीडिया नहीं सुनेगी तो सोशल-मीडिया पर डाल दूँगा। जब पूरी दुनिया में फैल जाएगा तो पुलिस की हिम्मत नहीं होगी कि वह मेरी बात पर ध्यान न दे, उस मक्कार टोपी वाले पर हाथ नहीं डाले।” 

उसको ध्यान से सुन रही दया ने कहा, “यह बताओ, तुम्हीं ने बताया था कि इन सबने पुलिस वालों पर, मीडिया वालों पर हाथ उठाया, इसके बाद भी पुलिस ने इनको पकड़ा क्या?” 

यह सुनते ही वासुदेव ने दहकती आँखों से उसे देखते हुए कहा, “घबराओ मत, अपने देश की पुलिस जब ठोंकती है न तो पुश्तों तक को ठोंकती है। अपने बिहार में कभी देखा नहीं क्या?” 

“देखा, देखा भी बहुत है, सुना भी बहुत है। लेकिन यह बिहार नहीं, दिल्ली है।”

“सुन, चाहे बिहार हो या दिल्ली, अपने देश क्या, पूरी दुनिया की पुलिस एक जैसी होती है। जब ठोंकना शुरू करती है तो साँस भी नहीं लेती, बस ठोंकती रहती है।” 

दोनों की ऐसी बहसें रोज़ का क़िस्सा बन गई हैं। वासुदेव टोपी वाले को भगाने के बाद फिर से अपने काम-धंधे की तलाश में निकलने लगा। अब जब कभी-कभार टोपी वाला दिख जाता है, तो ख़ुद ही वासुदेव को सलाम ठोंकता है। हाल-चाल पूछता, मुस्कुराता है। 

उसकी मुस्कुराहट वासुदेव को बहुत कुछ कहती हुई लगती है। वह सोचता इस दोगले चेहरे के पीछे कोई बड़ी साज़िश ज़रूर चल रही है। इस पर कुछ ज़्यादा ही ध्यान देना पड़ेगा। वह रात को दया के ठंडे हाथों को गर्म करने के दौरान उसको सारी बातें बताता रहता है। 

और तब दया बराबर यह महसूस करती है कि अब वासुदेव के हाथ उसके हाथों को पहले जैसी नरमाई से गरमाने के बजाय, जैसे बहुत ग़ुस्से में भरकर, अपनी खीज उसी पर उड़ेल कर, अपना दिन भर का तनाव कम करते हैं। इतने आवेश में आ जाते हैं कि उसे मजबूरन बोलना पड़ता है, “ज़रा सँभाल के, बच्चे जाग जाएँगे।” 

लेकिन स्थितियाँ एक के बाद एक ऐसी बनती जा रही हैं कि उन्हें सँभलने ही नहीं दे रही हैं। एक दिन दया की कुछ ज़्यादा ही ठंडी हथेली को ज़्यादा ज़ोर से गर्माता हुआ वह बोला, “इस साले चीं-चं-चूं ने नई बीमारी कोरोना वायरस हर जगह फैला दी है। यहाँ दिल्ली में भी अब इसके मरीज़ ज़्यादा तेज़ी से बढ़ने लगे हैं। 

“साइट पर इंजीनियर बतिया रहा था कि ‘बहुत जल्दी ही यहाँ की भी सिचुएशन ख़राब होने वाली है। चीन और कई अन्य देशों की तरह यहाँ भी सब बंद हो सकता है। नौकरी छोकरी सब चली जाएगी। जीवन जीना मुश्किल हो जाएगा।’ बड़ी चिंता हो रही है कि कहीं ऐसा न हो कि घर लौट कर फिर से भटकना पड़े, खेतिहर मज़दूर बनकर दबंगों की ग़ुलामी करनी पड़े। इंजीनियर बहुत परेशान था कि गाड़ी की क़िस्त नहीं दे पाएगा तो वह भी छिन जाएगी, क्या मुँह लेकर घर जाएगा कि गाँव से फटीचर निकला था, फटीचर ही वापस पहुँचा।”

“तो क्या सब-कुछ बंद हो जाएगा?” दया ने आश्चर्य से पूछा। 

“हाँ सब-कुछ, जैसे अभी कर्फ़्यू में बंद हुआ था वैसे ही। समझ में नहीं आता कि जब पढ़े-लिखे, बड़ी-बड़ी तनख़्वाह वाले लोग इतना डरे हुए हैं, परेशान हैं, तो हम जैसे किताब से छाप के परीक्षा पास करने वालों, राज-मिस्त्रियों की कऊन हैसियत रह जाएगी।” 

कोरोना वायरस के बारे में वासुदेव से ज़्यादा दया अपडेट है। लेकिन उसकी और बातें करके वह पति की चिंता नहीं बढ़ाना चाहती है इसलिए उसने कहा, “दिमाग़ पर इतना ज़्यादा ज़ोर न दो। जो सबके साथ होगा, वही अपने साथ भी होगा। सरकार कुछ न कुछ तो करेगी ही। हम-लोग भी जितना हो सके, उतना सामान इकट्ठा करके रख लेंगे।”

दया की बात सुनते ही एक पल ठहर कर वासुदेव ने कहा, “चलो तुम्हारी भैंस सी मोटी अक़्ल में ऐसी बातें भी घुसने लगी हैं, अब दिमाग़ का आधा क्या पूरा भार ख़त्म हो गया।”

यह कहते हुए वह कुछ ज़्यादा ही उत्साहित हो उठा कि तभी दया को लगा कि शायद कोई बच्चा जाग गया है। वह उसे किनारे हटाते हुए बच्चों के पास गई, सभी को बहुत ध्यान से देखा, सारे बच्चे बहुत गहरी नींद में सो रहे थे। लौट कर बोली, “कितनी बार कहा कि मनई की तरह रहा करो, छोटा सा कमरा है, कोई बच्चा जाग गया तो अनर्थ हो जाएगा, लेकिन तुम्हारे समझ में कुछ आता ही नहीं।” 

वासुदेव ने उसे फिर दबोचते हुए कहा, “अरे चलो सब ठीक है, वह सब अभी इतने बड़े नहीं हुए हैं कि कुछ समझ भी पाएँ। क्या करूँ, इतनी कमाई हो ही नहीं पा रही है कि दो कमरे का घर ले सकूँ।”

वासुदेव जहाँ कुछ बातें समझ कर भी न समझने की आदत का शिकार है, वहीं दया उसे हर बात समझा-समझा कर, उसके दिमाग़ में अपनी बातें पूरी तरह भर देने का कोई अवसर कभी भी नहीं छोड़ती थी। लॉक-डाउन की आशंका के चलते वह जल्दी-से जल्दी गाँव लौट चलना चाहती है। 

वह शाहीन बाग़ तमाशे के चलते क़रीब तीन महीने से नर्क बनी ज़िन्दगी से ऊब चुकी है, वासुदेव से कहती, “इन कुकर्मियों ने जैसी आग लगा रखी है, उससे अब यहाँ रहने वाला नहीं है, चलो अब गाँव में ही रहो। यहाँ के जितना पैसा वहाँ भले नहीं मिलेगा, लेकिन कुछ भी करोगे तो खाने-पीने की कमी नहीं रहेगी। 

“यहाँ आधी कमाई तो किराया और फ़ालतू के ख़र्चों में निकल जाती है। सबसे बड़ी बात अपना घर-द्वार, परिवार, अपने गाँव के लोगों के साथ रहो, तो लगता है कि दुनिया में अपने भी लोग हैं, जो दुःख-दर्द बाँटेंगे, साथ रहेंगे। यहाँ तो भीड़ में भी अकेले ही हैं, लगता है दुनिया में कोई अपना है ही नहीं।” 

लेकिन वासुदेव उसकी बात को हमेशा की तरह अनसुनी कर साथियों से लॉक-डाउन की बातें करता, अपनी आदत के विपरीत समाचार भी देखता रहता, बीच-बीच में यह भी कहता कि “आज-कल बिना इसके सारी बातें मालूम नहीं हो पातीं।”

यह सुनकर दया बोले बिना नहीं रह पाती है, कहती है कि “पहले तो गाली देते नहीं थकते थे।”

यह सुनकर वासुदेव चुपचाप मुँह दूसरी तरफ़ कर लेता है। समाचारों के आधार पर उसने तय किया कि कम से कम महीना भर का राशन इकट्ठा कर लें, बस इतनी तैयारी काफ़ी है, बाक़ी जो होगा देखा जाएगा। लेकिन लॉक-डाउन उसके अनुमान से पहले ही लग गया। उसकी तैयारियाँ अधूरी रह गईं। 

सब्ज़ी के नाम पर केवल आलू, प्याज़ थे, जो डेढ़-दो हफ़्ते में ही ख़त्म हो गए, और उसके दो हफ़्ते बाद दाल भी। दो-तीन दिन तो चावल उबाल कर नमक तेल से काम चलाया। फिर कुछ मददगार संगठनों की सूचना उसे व्हाट्सएप पर मिली, उसने उन नंबरों पर फोन किया, लेकिन वह सब फ़र्ज़ी निकले। 

सबसे बड़ी मुसीबत तो बच्चों की हो रही है। वासुदेव उनकी परेशानी देखकर व्याकुल हो जा रहा है। उसने अपने सारे साथियों से संपर्क किया। एक जगह से फिर नया नंबर मिला, उसने नोट करने से पहले पूछा, “यह नंबर सही तो है न, पहले वालों की तरह सब गड़बड़झाला तो नहीं है।”

साथी ने कहा, “मुझे भी कहीं से मिला है, बात कर लो, हो सकता है सही हो।”

उसने बड़ी आशंकाओं के साथ फोन किया, अपनी समस्याएँ बताईं तो उस व्यक्ति ने पूरा आश्वासन दिया कि “अगले कुछ घंटों में सामान लेकर आप-तक कोई पहुँचेगा। इस बार उसे कुछ आशा जगी, लेकिन पूरी तरह आश्वस्त फिर भी नहीं था। मगर मुश्किल से डेढ़-दो घंटा बीता होगा कि उसके पास एक कॉल आई, उससे उसका पूरा एड्रेस पूछा गया। 

थोड़ी देर बाद फिर फोन आया कि “दरवाज़ा खोलिए, मैं सामान ले आया हूँ।”

उसने दरवाज़ा खोलकर देखा तो खाकी पैंट, सफ़ेद शर्ट पहने, सफ़ेद टोपी लगाए, मोटर-साइकिल पर दो लोग ढेर सारा सामान लिए खड़े थे। उन्होंने केवल इतना पूछा कि ‘आपने सामान के लिए फोन किया था।’

उसके हाँ करते ही दोनों ने सामान एक कोने में रखते हुए कहा, “कोशिश यही करिएगा कि इनका प्रयोग कल शाम से करिएगा।” इतना कहकर सामान पर सेनिटाइज़र स्प्रे किया और कहा, “जब दो दिन का सामान रह जाए तो फिर फोन कर दीजिएगा।”

वासुदेव ने हाथ जोड़कर दोनों को धन्यवाद कहा। बोला, “आप लोग अपनी जान ख़तरे में डालकर अनजान आदमी की मदद के लिए आए, सच में आप लोग किसी देवता से कम नहीं हैं।”

उनमें से एक व्यक्ति ने कहा, “हमारा संगठन देश-वासियों के प्रति, अपना कर्तव्य निभाने का प्रयास सदैव से ही करता आ रहा है।”

उनके जाने के बाद भावुक वासुदेव ने दया से कहा, “हम बेवजह सुनी-सुनाई बातों पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ वालों की खिल्ली उड़ाया करते थे, लेकिन देश में जब भी कहीं परेशानी आती है तो यही लोग हर जगह दिखाई देते हैं। पहले बहुत बार समाचार में भी इन्हें देखकर, इनकी हम ख़ुद ही खिल्ली उड़ा चुके हैं कि हाफ पैंटिया आ गए।”

लेकिन दया ने उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। वह मन ही मन क्रोधित होती हुई कहती रही कि मेरी बात मान कर, गाँव चले चलते तो आज भूखों मरने, दूसरों से मदद लेने की नौबत नहीं आती। वासुदेव उसके मनोभाव समझ रहा था, और यह भी कि उसकी बात न मान कर उसने वाक़ई बड़ी ग़लती कर दी है। उसने फोन कर के अपने साथियों को भी सारी बातें बताईं। 

दिन पर दिन उन दोनों की चिंता बढ़ती जा रही है कि कब-तक ऐसे ज़िन्दगी चल पाएगी। महामारी भयानक ही होती जा रही है। कहीं कोई बीमार पड़ गया तो क्या होगा। वह गाँव में परिवार के लोगों से बात करता तो वहाँ भी सब डरे सहमें ही लगते। 

दस दिन बीते होंगे कि संघ वालों का फिर फोन आ गया कि सामान की आवश्यकता हो तो बताइएगा। वासुदेव कम से कम सामान में काम चला रहा है। हर समय समाचार पर ध्यान रखता है कि स्थिति बिगड़ रही है या कि सुधर। 

देखते-देखते सर्दी विदा हो गई और मई की तपिश का अहसास कराता अप्रैल बीतने लगा, उससे कहीं ज़्यादा डरावनी स्थिति बनाते हुए कोरोना ने शाहीन बाग़ के गद्दार मक्कारों को दुम दबा कर अपने बिलों में दुबक जाने के लिए विवश कर दिया। 

ऐसे ही एक दिन यह समाचार देख कर वह भड़क उठा कि लॉक-डाउन के सारे नियम-क़ानून तोड़कर हज़ारों की संख्या में लोग एक ही जगह इकट्ठे हो गए हैं। कोरोना-वायरस के लक्षणों के बाद भी अपना इलाज नहीं करा रहे, उल्टा स्वास्थ्य कर्मचारियों पर थूक रहे हैं। 

जिधर से भी निकल रहे हैं, हर तरफ़ थूकते हुए जा रहे हैं। हर सामान यहाँ तक कि नोट, सिक्के पर भी थूक लगाकर दे रहे हैं, जो ज़बरदस्ती पकड़ कर एडमिट कर दिए गए हैं, वो नर्सों, डॉक्टरों पर थूक रहे हैं। नर्सों के सामने निर्वस्त्र होकर अश्लील हरकतें कर रहे हैं। 

एकदम हत्थे से उखड़ा वासुदेव ज़ोर-ज़ोर से कहने लगा, “यह सब तो मूर्ख पागल हैं, दुनिया के दुश्मन हैं, पूरी दुनिया जी-जान से बीमारी ख़त्म करने में लगी है, और यह पागल उसको बढ़ाने में लगे हुए हैं, गँवार कह रहे हैं कि यह ऊपर वाले ने भेजा है। लोगों को उनके गुनाहों की सज़ा दे रहा है। क़यामत आ गई है।”

दया ने उसे तुरंत चुप कराया कि कहीं बातें सुनकर पास-पड़ोस के लोग झगड़ने न आ जाएँ। लेकिन वासुदेव दिन-भर समाचार देखता और ऐसे ही अपनी कोई न कोई प्रतिक्रिया देता रहता है। अचानक एक दिन सीएम का बयान सुनकर आपे से बाहर हो गया, पुरज़ोर आवाज़ में कहने लगा, “आज-तक मेरी नज़र में इससे गंदा कोई नेता नहीं हुआ। 

“सारे नेता मिलकर जितना झूठ बोलते हैं, यह पट्ठा उतना झूठ अकेले ही बोल देता है। झूठ बोल-बोल कर सीएम बन बैठा। सीएम बनते ही हर वादों से मुकर गया और अब झूठ बोल रहा है कि इतने लोगों को रोज़ मुफ़्त खाना खिलाया जा रहा है। अरे झूठे क्या भूत-प्रेतों को खिला रहे हो, जो मीडिया वालों को भी नहीं दिख रहे हैं, या अपने दंगाई रिश्तेदारों को। सारे दंगाई, हत्यारे तेरी ही पार्टी के निकले। 

“पहले शाहीन बाग़ में गद्दारों का दंगल, फिर दंगा, अब देश का और सत्यानाश करने के लिए महामारी को हथियार बना कर लाशें बिछाने में लगा है, लाशों से अपनी गद्दी मज़बूत कर रहा है हत्यारे आदमी।”

वासुदेव की आवाज़ बढ़ती चली जा रही है। बच्चे बाप का भयानक ग़ुस्सा देखकर डर के मारे माँ के पीछे छिपे जा रहे हैं। पड़ोसी कहीं लड़ने ही न आ धमके यह सोचकर दया फिर सामने आई। बहुत क्रोधित होती हुई बोली, “तुम्हारा दिमाग़ ख़राब हो गया है क्या? काहे को बवाल कराने पर तुले हुए हो, हम सबको मरवा कर मानोगे क्या? एक तुम ही बहुत बड़े राजनीतिज्ञ हो गए हो। 

“झूठा, फरेबी, मक्कार जो भी है, वो मुख्यमंत्री है, सही कर रहा है, ग़लत कर रहा है, यहाँ कोठरी में बैठे-बैठे कैसे जान सकते हो। अरे वह हम सब से ज़्यादा जानता है, इसीलिए मुख्यमंत्री बना बैठा है, और हम यहाँ पर मज़दूरी कर रहे हैं, अपना घर-द्वार छोड़ कर यहाँ जानवरों की तरह एक कोठरी में पड़े हैं, जिसमें न धूप मिले, न हवा।”

दया की भी आवाज़ काफ़ी तेज़ थी। लेकिन फिर भी वासुदेव शांत होने के बजाय कुछ क्षण उसे देखने के बाद बोला, “तुम सही कह रही हो, हम उसकी तरह न झूठ बोल पाते हैं, न घड़ियाली आँसू बहा पाते हैं, न मक्कारी कर पाते हैं, न उसकी तरह हत्यारों, दंगाइयों को पाल पाते हैं, न उसकी तरह गोरख-धंधा करवाते हैं, न ख़ुद चोर-बेईमान होते हुए, दूसरे लोगों को चोर-बेईमान कहते हैं। 

“इसीलिए वह मक्कार मुख्यमंत्री बना बैठा है, और हम क्योंकि सच में सच बोलते हैं, ईमानदार हैं, इसलिए घर-परिवार छोड़ कर यहाँ मज़दूरी कर रहे हैं, और इस दो सौ स्क्वॉयर फ़ीट के दड़बे में जानवरों की तरह ठुंसे हुए से रह रहे हैं। जिस दिन हम भी उसकी तरह हो जाएँगे, उस दिन हम भी नेता बन जाएँगे, हम भी मुख्य-मंत्री क्या प्रधान-मंत्री, राष्ट्र-पति बन जाएँगे।”

इसके साथ ही उसने दया को कई सख़्त बातें कह दीं, जिन्हें सुनकर उसका भी पारा चढ़ गया, लेकिन कुछ सोचकर उसने ख़ुद पर नियंत्रण रखा और दाँत पीसती हुई बच्चों के कारण थोड़ी धीमी आवाज़ में बोली, “आना आज हाथ गरमाने तब पूछूँगी ई सब। तब तो आवाज़, बातें कुछ और हो जाती हैं, तुम्हारा भी यह सब धोखा, झूठ-फ़रेब नहीं तो और क्या है।”

इस बग़ावत भरी धमकी को सुनकर, वासुदेव कुछ देर उसे देखने के बाद, उसी की तरह बहुत धीमी आवाज़ में बोला, “ठीक है, घबड़ाओ न, रात होने दो, पता चल जाएगा कौन, क्या, कितना गर्माएगा।”

इसके साथ ही कमरे में भयानक तनावपूर्ण सन्नाटा छा गया है। बच्चे पहले से ही डरे-सहमें दुबके हुए हैं। एक लॉक-डाउन कमरे भी लग चुका है, जो बाहर के तनाव से कहीं ज़्यादा घनीभूत है।