बड़ी माँ - भाग 8 Kishore Sharma Saraswat द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बड़ी माँ - भाग 8

8

राम आसरी का समय अब बहुत अच्छी तरह से व्यतीत होने लगा था। सारा दिन घर के कामों में व्यस्त रहती। शाम को मुन्ना के साथ बैठकर बहुत देर तक बतियाती। न खाने की चिंता थी और न पहनने की। रहने के लिए साफ सुथरा मकान था। ऊपर से जो पैसे मिलते थे वो सब बचत के थे। कभी-कभी अकेली बैठकर जब उसे अपने पुराने दिन याद आते तो सिहर उठती। कैसे सुबह जल्दी उठकर और रूखी-सूखी खाकर सारा दिन नदी में रेत और बजरी निकालना, भूखे पेट और बीमारी की हालत में कमर बाँधकर सारा-सारा दिन टोकरी उठाना और ऊपर से बिना बात के मुरली की मार सहना। महीने बाद जब कभी कड़ी मेहनत की कमाई मिलती तो उसे मुरली शराब खरीद कर गटक जाता। अब उन चिंताओं से भी मुक्त थी। केवल फिक्र थी तो मुन्ना की। शहरी सभ्यता में रहकर काफी कुछ सीख चुकी थी। इसलिए उसकी इच्छा थी कि पढ लिखकर उसका मुन्ना एक दिन बहुत बड़ा आदमी बने, ताकि उसे दूसरों के रहमों-करम पर न रहना पड़े।

       एक दिन जब राम आसरी दोपहर का खाना खिलाकर ऊपर  अपने कमरे में जाने लगी तो मालकिन बोली:

       ‘राम आसरी!’

       ‘जी, बीबी जी।’ राम आसरी ने पीछे मुड़कर जवाब दिया। 

       ‘इधर आओ। जरा थोड़ी देर मेरे पास बैठो। पता नहीं आज मेरा मन कुछ अजीब सा हो रहा है। दिल कर रहा है आज तुम्हारे साथ ढेर सारी बातें करूँ।’ मालकिन अपने कुछ नये ही अंदाज में बोली।

       राम आसरी पास पड़े मूढ़े पर बैठने लगी तो पता नहीं मालकिन को क्या सूझा बोली:

       ‘उधर नहीं, इधर मेरे पास बैठो।’ वह कुर्सी की ओर इशारा करती हुई बोली।

       राम आसरी को आज कुछ अजीब सा लग रहा था। इससे पहले वह कभी भी मालकिन के बराबर में कुर्सी पर नहीं बैठी थी।  परन्तु आज वह मालकिन का आदेश ठुकरा न सकी। थोड़ा संकोच करते हुए बैठ गई। मालकिन ने उसकी ओर देखा और बोली:

       ‘राम आसरी, तुम्हारा बेटा बड़ा सुन्दर है।’

       यह सुनकर राम आसरी ने कोई उत्तर नहीं दिया। केवल मुस्कुरा कर मुँह नीचे की ओर कर लिया।

       ‘वह सुन्दर ही नहीं अक्लमंद और होशियार भी है।’ मालकिन फिर बोली। 

       ‘सब उस भगवान की कृपा है।’ राम आसरी धीरे से बोली।

       ‘राम आसरी, उसे खूब पढ़ाना। मेरा दिल कहता है एक दिन वह बहुत बड़ा आदमी बनेगा। तब तुम्हें किसी के घर काम नहीं करना पड़ेगा। तुम घबराना मत, मैं तुम्हारी मद्द करूँगी।’

       मालकिन की यह बातें सुनकर राम आसरी एकटक नज़र  से उसकी ओर देखती रही। सोचने लगी, आज इन्हें क्या हो गया है। पहले तो कभी भी ऐसी बातें नहीं करती थी। थोड़ा सोचकर बोली:

       ‘बीबी जी, पानी लाऊँ।’

       ‘अरे नहीं, मुझे पानी-वानी कुछ नहीं पीना है। मैं बिल्कुल ठीक हूँ। तुम सोचती हो मुझे कुछ हो गया है।’ वह होंठों पर हँसी लाती हुई बोली।

       यह सुनकर राम आसरी शर्मिंदा सी हो गई। कुछ देर दोनों इसी प्रकार इधर-उधर की बातें करती रहीं। जब मुन्ना स्कूल से छुट्टी के बाद घर पहुँचा तो राम आसरी मालकिन से कहकर उसे खाना देने के लिए, उसे साथ लेकर, ऊपर अपने कमरे में चली गई। आज मन में कुछ संदेह के साथ-साथ उसके मन में एक खुशी भी थी कि मालकिन ने उसे नौकरानी न समझकर बराबर में बैठाकर उससे अपने मन की बातें की हैं। पहली बार बराबरी का दर्जा पाकर उसके चेहरे की रंगत ही कुछ और थी। उसे इस प्रकार खुश देखकर मुन्ना बोलाः:   

       ‘बड़ी माँ! तुम हँस क्यों रही हो?’

       ‘कहाँ हँस रही हूँ? कौन कहता है मैं हँस रही हूँ? तू शरारती मत बन।’ वह अपनी खुशी को छुपाती हुई बोली।

       ‘मैं झूठ बोल रहा हूँ क्या? आपके चेहरे पर फिर मुस्कान क्यों है? आप मुझसे छुपा रही हो। बोलो न बड़ी माँ, क्या बात है?’ वह जिद करने लगा ।

       ‘अच्छा बताती हूँ। पहले खाना खाले, फिर बातें करेंगे।’ वह बोली।

       बड़ी माँ की खुशी का राज जानने के लिए वह जल्दी-जल्दी  खाना खाने लगा। ज्योंही खाना समाप्त होने को हुआ उसने रोटी का बाकी बचा टुकड़ा दोनों हाथों से गोल करके अपने मुँह में ठूँस लिया और बोला:

       ‘अब बोलो बड़ी माँ, क्या बात है?’

       ‘शरारती कहीं का, ऐसे भी कोई खाना खाता है। धीरे-धीरे चबा, नहीं तो रोटी गले में अटक जाएगी।’ वह हँसती हुई बोली।

       उसने पानी का गिलास उठाया और पानी की घूँट भर कर रोटी को गले से नीचे उतारने लगा। इस हरकत में उसकी आँखें भी गोल-गोल खुल गई। बच्चे की नादानी को देखकर राम आसरी जोर से हँसने लगी। उसे अपनी ओर देखते हुए इस प्रकार हँसता देखकर वह रोटी को गले से नीचे उतार कर बोला:

       ‘बड़ी माँ, आप फिर हँस रही हो। बताओ न क्या बात है?’

       ‘बेटा, मैं तो मालकिन की बातों पर हँस रही हूँ।’ वह बोली।

       ‘क्या बोलती थी मालकिन?’ वह उत्सुकतावश पूछने लगा।

       ‘बोलती थी तुम्हारा मुन्ना बहुत सुन्दर और अक्लमंद है। और कहने लगी वह एक दिन पढ़-लिखकर बहुत बड़ा आदमी बनेगा। अब बता बेटा यह बात सुनकर मैं खुश नहीं हूँगी तो और क्या करूँगी।’ वह मुस्कुराती हुई बोली।

       ‘बड़ी माँ, क्या मैं सचमुच सुन्दर हूँ?’ वह भोलेपन में पूछने लगा। 

       ‘हाँ बेटा, तू सचमुच में बहुत सुन्दर है।’ वह उसके सिर पर हाथ फेरती हुई बोली।

       ‘पर मास्टर जी तो मुझे देव कुमार कहते हैं। सुन्दर तो दूसरे लड़के का नाम हैै।’

       ‘अरे बुद्धू! ये बात नहीं है।’ यह कहकर वह हँसने लगी

       ‘तो फिर कौन सी बात है?’ उसने प्रश्न किया।     

       ‘बेटा, सुन्दर उसे कहते हैं जो देखने में सबसे अच्छा लगता हो।’ वह अपने दाएं हाथ के अँगूठे और उँगली से उसकी ठुड्डी पकड़कर बोली।

       ‘पर बड़ी माँ वो लड़का तो गंदा है, फिर उसे सुन्दर क्यों कहते हैं?’ उसकी जानने की उत्कंठा बढ़ने लगी।

       ‘बेटा, नाम का शक्ल से कोई मतलब नहीं होता है। क्या करोड़ी मल्ल नाम रखने से कोई करोड़पति हो जाता हैं? नहीं न। बस इसी तरह दोनों में अंतर है।’ वह समझाने लगी।

       ‘मेरी समझ में तो कुछ नहीं आया।’ वह गर्दन हिलाता हुआ बोला।

       ‘आ जाएगा बेटा, समझ में भी आ जाएगा। अभी तू छोटा है। जब बड़ा होगा और खूब पढ़-लिख लेगा तब तुझे ये सब बातें बिल्कुल मामूली लगेंगी।’

       ‘आप ये बातें समझती हो बड़ी माँ?’ वह पूछने लगा।

       ‘हाँ, सब समझती हूँ।’ वह गर्दन हिलाती हुई बोली।

       ‘आप बहुत पढ़ी लिखी हो?’ उसने प्रश्न किया।

       इस प्रश्न का उत्तर राम आसरी के पास नहीं था। वह उसे कैसे बताती कि जीवन में खाई उठा पटक ने उसे भावी जीवन बिताने के लिए काफी शिक्षा दे दी है। इससे पहले कि वह कुछ सोच विचार कर कोई उत्तर देती, वह फिर बोला:

       ‘बताओ न बड़ी माँ, आप कितनी पढ़ी लिखी हो?’

       ‘बेटा, मैं अनपढ़ हूँ। मुझे लिखना-पढ़ना नहीं आता।’

       ‘क्यों, आप स्कूल नहीं गई हो? आपकी मम्मी ने आपको स्कूल नहीं भेजा क्या?’ उसने पूछा।

       ‘नहीं बेटा, मैं स्कूल नहीं गई हूँ।’ वह एक लम्बा साँस छोड़ती हुई बोली। 

       ‘बड़ी माँ, आप फिकर मत करो, मैं पढ़ाऊँगा आपको।’ यह कहकर वह अपनी तीसरी कक्षा की हिन्दी की किताब निकालकर बोला:      ‘लो बड़ी माँ, पहला पाठ पढ़ना शुरू करो।’

       ‘अरे! इतनी बड़ी किताब मैं कैसे पढ़ूँगी? मुझे तो शुरू से पढ़ना होगा। तुम्हारी पहली कक्षा की किताब कहाँ है? उसी से पढ़ना शुरू करूँगी। उसे ढूँढो पहले।’

‘अच्छा, आप ठहरो मैं ढूँढता हूँ।’ यह कहकर वह अलमारी में रखी किताबें देखने लगा। अपनी पहली कक्षा की किताब निकालने में उसे कोई ज्यादा देर नहीं लगी। किताब का पहला पाठ निकालकर वह राम आसरी को पढ़ाने लगा:

‘बड़ी माँ, जैसे मास्टर जी पढ़ाते हैं, मैं वैसे ही आपको पढ़ाऊँगा। आप मेरे साथ-साथ बोलना जैसे मैं बोलूँगा। ठीक है न, बोलूँ?’

‘हाँ बोल।’ राम आसरी ने हामी भरी।

‘अ’ वह ‘अ’ अक्षर पर अँगुली रख कर बोला।

‘अ’ राम आसरी भी उसी आवाज में बोली।

अभी वह पढ़ ही रहे थे कि नीचे से किसी ने जोर से पुकाराः ‘राम आसरी ...........राम आसरी ......।’

       उसने बाहर निकलकर देखा तो नीचे मकान मालिक घबराया  हुआ सा उसे पुकार रहा था।

        ‘जी, बाबू जी। मैं अभी आती हूँ।’ वह पैरों में चप्पल डालती हुई बोली। 

       राम आसरी जल्दी से नीचे पहुँची तो बाबू जी घबराये हुए से बोले:

       ‘राम आसरी, तुम्हारी मालकिन की तबीयत ठीक नहीं है। तुम उसके पास बैठो, मैं डॉक्टर को बुलाकर लाता हूँ।’

       ‘हाँ बाबू जी, जल्दी करो।’ यह कहती हुई राम आसरी लम्बे-लम्बे कदम रखती हुई कमरे के भीतर चली गई। उसने अंदर जाकर देखा मालकिन अर्ध अचेत अवस्था में लेटी हुई थी। राम आसरी ने उसकी ओर देखा और पुकारने लगी:

‘बीबी जी ...... बीबी जी .......।’

       मालकिन ने आँखें खोलकर एक बार राम आसरी की ओर देखा और फिर आँखें बंद करली। राम आसरी की आँखों में आँसू भर आए। वह चारपाई पर बैठकर उसके पाँवों की तलियों को अपने हाथों से मलने लगी। फिर घबराई हुई सी उठी और उसके हाथों को मलने लगी। मलते हुए वह धीमी आवाज में पुकारे जा रही थीः

       ‘बीबी जी ...... बीबी जी .......।’

       ‘परन्तु प्रत्युत्तर न पाकर उसका धैर्य बार-बार उसका साथ छोड़े जा रहा था। वही तो उसकी सब कुछ है। उसके बिना तो वह अनाथ है। वह उसकी मालकिन, माँ, सखी, सहेली सब कुछ वही तो है। जब मालकिन को बुलाने में उसकी कोई पेश नहीं चली तो उसने अपने दोनों हाथों से पकड़कर उसका दाहिना हाथ उठाया और उसे अपने माथे से लगााकर बोली:

       ‘बीबी जी, आप बोलती क्यों नहीं? आपके बिना मैं कहाँ  जाऊँगी? मेरे मुन्ना को कौन पढ़़ाएगा? वह बड़ा आदमी कभी नहीं बन पाएगा। बोलो न बीबी जी, आप चुप क्यों हो? अभी कुछ देर पहले तो आप इतनी खुश थीं। फिर इतनी ही देर में क्या हो गया है आपको?’ 

       राम आसरी उसी अवस्था में उसका हाथ थामे फूट-फूटकर रोने लगी। मुन्ना सीढ़ी पर खड़ा होकर पहले ही सारी बात सुन चुका था। बडी माँ की दर्द भरी आवाज सुनकर वह भी वहाँ पर आ गया। राम आसरी को इस प्रकार रोते हुए देखकर वह भी रोने लगा। इस भय से कहीं उनके रोने की आवाज बाहर मोहल्ले वालों को न सुन जाए राम आसरी उसे चुप कराने लगी। मालकिन ने आँख खोलकर बच्चे की ओर देखा और फिर उसकी आँखों से दो बड़े-बड़े आँसू  निकलकर बिस्तर पर गिर गए। बच्चा सिसकियाँ भरता हुआ बोला:

       ‘दादी जी को क्या हुआ है बड़ी माँ?’

       ‘कुछ नहीं बेटा, इन्हें कुछ नहीं हुआ है।’ वह बोली। 

       ‘फिर ये बोलती क्यों नहीं? और आप क्यों रो रही हो?’

       ‘बेटा, इनके सिर में दर्द है। डॉक्टर ने बोलने को मना कर रखा है। जाओ तुम बाहर खेलो, नहीं तो दादी जी को शोर की वजह से और तकलीफ़ होगी।’

       अभी वे बात कर ही रहे थे कि इतनी देर में बाबू जी डॉक्टर  को लेकर आ गए। उन्हें आते देखकर राम आसरी उठकर एक तरफ खड़ी हो गई। डॉक्टर ने आकर पहले नब्ज देखी और फिर स्टेथोस्कोप लगाकर छाती और पीठ की जाँच की। फिर मुँह खोल कर जीभ और आँखों का निरीक्षण किया। पूरी जाँच करने के बाद जब डॉक्टर अपने दवाईयों के बैग की ओर मुड़े तो बाबू जी पूछने लगे:

       ‘डॉक्टर साहब, क्या हुआ है इन्हें?’

       ‘घबराने की कोई बात नहीं है। ये अब ठीक हैं। इन्हें बहुत हलके अटैक जैसी घबराहट हुई थी। शुक्र्र है भगवान का, इनका जीवन अभी बाकी है। आप घबराइए मत। मैं इन्हें इंजैक्शन दे देता हूँ और दवाईयाँ भी लिख देता हूँ। आप इन्हें कैमिस्ट से ले आइये। और हाँ, जहाँ तक मेरी राय है आप इन्हें जल्दी चण्डीगढ़ के किसी बड़े अस्पताल में चैक-अप करवालें। ऐसे मामलों में एक्सपर्ट की राय जान लेना बहुत जरूरी होता हैं।’

       ‘आप ठीक कहते हैं।’ बाबू जी दबी आवाज में बोले।

       डॉक्टर ने एक कागज पर दवाईयाँ लिखी और पर्ची बाबू जी को पकड़ाते हुए बोले:

       'अच्छा अब मैं चलता हूँ। आप चिंता मत करना। ये अब बिल्कुल ठीक हैं। आराम के लिए कुछ दवाई दी है। थोड़ी देर बाद ये नार्मल हो जाएंगी। और अगर मेरी जरूरत पड़ी तो आप मुझे फोन कर देना। पर्ची देना, मैं उसके पीछे ही फोन नम्बर लिख देता हूँ।’

       डॉक्टर साहब ने पर्ची लेकर उसके पीछे अपने क्लीनिक और घर, दोनों के टेलीफोन नम्बर लिख दिए और अपना बैग उठाकर बाहर निकल गए। बाबू जी डॉक्टर को गेट तक छोड़कर वापस आए और कुर्सी पर बैठकर अपना माथा बाएं हाथ की हथेली पर टिका लिया। फिर अपनी दोनों आँखें बंद करके किसी गहरी सोच में पड़ गए। राम- आसरी भी चारपाई की बगल में बैठकर अपने बाएं हाथ से मालकिन का पाँव उठाकर दाएं हाथ से तलियों की मालिश करने लगी। मुन्ना बेचारा हैरान सा हुआ कभी बाबू जी की तरफ देखता और कभी अपनी बड़ी माँ की ओर। उसे समझ नहीं आ रहा था कि आज ये अचानक क्या हो गया है। काफी देर तक इसी प्रकार सन्नाटा छाया रहा। आधा घंटा बीत चुका होगा जब राम आसरी ने बाबू जी की ओर देखा। वह उसी मुद्रा में बिना हिले-डुले बैठे थे। अब तक सारी जिंदगी उन्होंने खुशियों में काटी थी। बुढ़ापे की दहलीज पर पाँव रखते ही आज जो घटना घट गई उससे वह पूरी तरह टूट गए। जिंदगी की गाड़ी का एक पहिया आज उन्हें साथ छोड़ता नज़र आने लगा। समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें और क्या न करें। राम आसरी तो भला दुः,खों का पिटारा पहले ही ढो चुकी थी। इसलिए दुःख दर्द सहने की काफी अभ्यस्त हो चुकी थी। परन्तु बाबू जी के मर्म में उठी पीड़ा को वह खूब समझती थी। अब वक्त था कि वह अपने फौलादी और दृढ़ निष्चय का उपयोग करती। वह उठी और बाबू जी के पास जाकर बोली:

       ‘बाबू जी क्या सोच रहे हो?’

       ‘कुछ नहीं........कुछ नहीं।’ वह ऐसे बोले मानो नींद से उठे हों।

       ‘लाओ पर्ची दो, मैं बीबी जी की दवाई लेकर आती हूँ।’ वह अपना हाथ उनकी ओर बढ़ाती हुई बोली।

       ‘नहीं राम आसरी, तुम यहीं बैठो। मैं खुद ही दवाई लेकर आता हूँ।’ यह कहकर वे आहिस्ता-आहिस्ता बाहर की ओर चल पड़े। राम आसरी जब मु़ड़कर चारपाई के पास पहुँची तो मालकिन आँखें खोलकर उसकी ओर देख रही थी। राम आसरी की आँखों में चमक आ गई। उसकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। वह एकदम धीमी आवाज में बोली:

       ‘बीबी जी, कैसी हो अब? आप ठीक हो न?’

       ‘हाँ राम आसरी, मैं ठीक हूँ। वो कहाँ गए हैं?’ वह बहुत ही दबी आवाज में बोली।

       ‘बाबू जी दवाई लेने गए हैं। अभी आते ही होंगे।’ राम आसरी ने बाताया।

       ‘अच्छा। जरा मुझे बैठाना।’ राम आसरी ने पीछे की ओर जाकर आहिस्ता से उसके दोनों कंधों को अपने हाथों से सहारा देकर ऊपर उठाया और पीठ के पीछे सिरहाना लगा दिया। फिर उन्हें पकड़कर वहीं खड़ी हो गई।

‘आह! बस, अब ठीक है, मुझे छोड़ दो और तुम मेरे पास यहीं पर बैठ जाओ। मैं अब बिल्कुल ठीक हूँ।’ वह राम आसरी की ओर देखती हुई बोली।

       ‘बीबी जी, ये अचानक आपको क्या हो गया था? दिन में तो आप बिल्कुल ठीक थे। बल्कि इससे पहले मैंने आपको कभी भी इतना खुश नहीं देखा था। सचमुच बीबी जी, मैं तो दिन में आपकी बातें सुन कर घबरा गई थी। ऐसा लग रहा था मानो अपने दिल में छुपी सारी  बातें आज ही कह दोगी। बीबी जी, पता नहीं ऐसा क्यों होता है? मैंने कई बार ऐसा देखा है, जब कुछ होनी होने को होती है तो पता नहीं इंसान अजीब-अजीब सी बातें करने लगता है। पता नहीं बीबी जी, ये मेरे मन की बात है, शायद आपको अच्छी नहीं लगी हो।’ यह कहकर राम आसरी चुप कर गई।

‘अरे नहीं, राम आसरी तुमने कुछ गलत नहीं कहा है। तुम बिल्कुल ठीक कहती हो। मुझे बीमारी का तो कोई आभास ही नहीं था, परन्तु पता नहीं मेरे अंदर से अपने आप ही कुछ विचार ऐसे आ रहे थे जो मुझे स्वयं ही अजीब से लग रहे थे। यह किसी के वश की बात  नहीं है। पता नहीं परमात्मा आने वाले संकट का अलार्म पहले ही बजाना शुरू कर देता है।’ कहते हुए मालकिन के होंठों पर हलकी सी मुस्कान आ गई। उसे देखकर राम आसरी भी अपने आप को रोक नहीं पाई और वह हँसने लगी। जब उसकी हँसी रुकी तो वह बोली:

       ‘बीबी जी, आप सेतु हो। आपने हम सब को उस पार लगाना है। आपका ठीक रहना ही हम सब के लिए जरूरी है। मैं तो भगवान से प्रार्थना करूँगी कि वह आपकी उम्र लम्बी करे, चाहे इसके लिए वो मेरी आधी उम्र ही क्यों न ले ले।’ राम आसरी भावुक हो उठी थी।

       ‘अरे पगली, दिल छोटा नहीं किया करते। मुझे कुछ नहीं होने वाला है। मेरी जन्मकुण्डली देखकर तो पंडित जी कह रहे थे कि सौ साल जिऊँगी। अभी तो काफी उम्र बाकी पड़ी है। भगवान ने चाहा तो मैं तो तुम्हारे मुन्ना की शादी में भी नाचूँगी।’ कहते हुए वह फिर मुस्कुराई। 

       इतने में बाबू जी दवाई लेकर आ गए। पत्नी को बैठे और मुस्कुराते हुए देखकर खुश हो गए। उन्होंने ऊपर की ओर देखा और दोनों हाथ जोड़कर परमात्मा का लाख-लाख शुक्रिया किया। डॉक्टर के बताए अनुसार उन्होंने रिप्पर में से दवाई की गोलियाँ निकाली और पानी का गिलास उठाकर दवाई और पानी अपनी पत्नी को देते हुए बोलेः

       ‘लो, ये लो डॉक्टर ने दिन में तीन बार लेने को कहा है।’

       दवाई खिलाकर वह कुर्सी पर बैठ गए। अपने दाएं हाथ के अँगूठे से अपनी दाईं आँख और तीन अँगुलियों से बाईं आँख दबाकर  कुछ सोचने लगे। थोड़ा सोचकर पूछने लगे:

       ‘बेटों को फोन कर दूँ?’

       ‘नहीं, अभी रहने दो। व्यर्थ में परेशान होंगे। मुझे कुछ नहीं हुआ है, भली-चंगी हो गई हूँ। सुनकर ख्वामखाह भागे आएंगे। मेरी मानों तो अभी चुप ही रहो।’ वह बोली।

       कैसी बात करती हो? उन्हें नहीं बताएंगे तो फिर किसे बताएंगे। बाद में पता चला तो तुम पर ही बरसेंगे। हमारे उनके साथ न रहने पर वे पहले ही खफ़ा हैं और अब तुम्हारी बीमारी का उन्हें कहने को एक बहाना मिल जाएगा।

       पति की बात सुनकर वह चुप कर गई। उसकी ओर से कोई प्रतिक्रिया न पाकर उन्होंने टेलीफोन उठाया और बारी-बारी से दोनों बेटों को माँ की बीमारी के बारे में जानकारी दी। बड़ा बेटा बम्बई में एक नामी अस्पताल में डॉक्टर था और छोटा दिल्ली में इंजीनियर। माँ की बीमारी की खबर पाकर उनका परेशान होना स्वाभाविक था। दोनों बेटों को टेलिफोन करने के बाद उन्होंने रिसीवर नीचे रख दिया और कुर्सी पर आराम से बैठते हुए अपनी पत्नी की ओर एकटक नज़र लगाए देखने लगे मानो उन्हें आगे पूछे जाने वाले प्रश्न का पहले ही इंतजार हो। और उनका यह अंदाजा बिल्कुल सही था। पत्नी पहले ही प्रश्न को लिए तैयार बैठी थी। वह पूछने लगी:

       ‘क्या कहा उन्होंने?’

       ‘कहना क्या था, दोनों आ रहे हैं।’ वह बोले। 

       ‘तभी तो मैं कहती थी रुक जाओ। पर तुम कहाँ मानने वाले थे। अपने दिल की पूरी करके ही माने। अब देखो न कितनी परेशानी होगी उन्हें। खुशी से आते तो और बात थी, परेशानी में एक-एक पल काटना भी मुश्किल होता है।’ कहते हुए उसने अपना माथा अपने बाएँ हाथ की हथेली पर टिका लिया।

       ‘और जो मेरे दिल पर गुजर रही है, उसका आभास है तुझे, नहीं न? तुम क्या जानो, कहना आसान होता है। तुम्हारे साथ रहने से ही मेरी जिंदगी की ये बूढ़ी गाड़ी चल रही है, वरना पता नहीं कब बे्रक डाउन हो जाए। फिर अकेले में धक्का लगाने वाला भी कोई नहीं मिलेगा। ये ठीक है कि भगवान ने हमें अच्छी और नेक औलाद दी है, पर क्या उनके पास इतना समय है कि वह चैबिसों घंटे हमारी  खातिरदारी में ही लगे रहें। उनकी अपनी जिम्मेदारियाँ है, जिनके लिए उन्हें समय चाहिए। इसलिए श्रीमती जी तुम्हारी सेहत और सलामती  मेरे लिए इस दुनिया में सब से बड़ी चीज़ है, जिसे मैं हर कीमत पर कायम रखना चाहता हूँ। अब समझी तुम?’

       उन्होंने अपनी बेबसी का इजहार करते हुए अपनी पत्नी की ओर दाएं हाथ से इशारा किया। पति की अंतरात्मा से निकली आवाज को सुनकर श्रीमती जी अपनी बीमारी को भूलकर मुस्कुराने लगी। उन्हें इस प्रकार खुश देखकर राम आसरी की भी हलके से हँसी निकल गई। थोड़ी देर पहले जो माहौल पलभर में बदल कर चारों ओर सूखा-सूखा लग रहा था अब पुनः हँसी-खुशी भरे बसंत में महक उठा था। राम- आसरी का बुझा मन भी अब खुलकर बोलने को चाह रहा था। उसने मालकिल की ओर देखा और बोली:

       ‘बीबी जी, खाने में क्या बनाऊँ?’

       ‘राम आसरी, मैं क्या बोलूँ? इनसे पूछ लो। मेरा तो कुछ भी खाने को मन नहीं है।’ वह पति की ओर इशारा करती हुई बोली।

       ‘अरे भाग्यवान! दवाई क्या खाली पेट लेओगी? उसके लिए  कुछ न कुछ तो लेना ही पड़ेगा।’ वह पत्नी की ओर मुस्कुराते हुए बोले।

       ‘तुम कहते हो तो हलका सा दलिया ले लूँगी। वैसे मन तो बिल्कुल भी नहीं है कुछ लेने को।’ वह बिस्तर पर लेटती हुई बोली।

       राम आसरी रसोई में जाकर खाना बनाने लग गई और बाबू जी मुन्ना के साथ बतियाने लगे। राम आसरी दलिया लेकर आई तो मालकिन आँखें बंद करके लेटी हुई थी। उसने उन्हें नींद से उठाना ठीक नहीं समझा और बाबू जी की ओर प्रश्नात्मक दृष्टि से देखा। बाबू जी राम आसरी के मन की बात भाँप गए और कहने लगे कि इसे अभी आराम करने दो। जब ये उठेगी तो वह अपने आप उसे खाना खिला देंगे। अपने लिए भी उन्होंने अभी खाना न देने के लिए उसे बोल दिया। राम आसरी ने बाबू जी के लिए खाना अलग से निकालकर रख दिया और अपने मुन्ना के लिए खाना लेकर ऊपर अपने कमरे में चली गई। बाबू जी अपनी आँखें बंद करके चुपचाप आराम कुर्सी पर लेटे रहे। इसी तरह से एक-डेढ़ घंटा बीत गया। जब मुन्ना खाना खाकर सो गया तो राम आसरी ने धीरे से दरवाजा बंद किया और मालकिन को देखने नीचे आई। वह अब भी सोई हुई थी। पैरों की आहट सुनकर बाबू जी की आँख खुल गई। वह राम आसरी से कहने लगे कि वह भी आराम करले। वह खुद ही खाना ले लेंगे। उनके बोलने की आवाज सुनकर मालकिन जाग गई। राम आसरी ने खाना गरम किया और बाबू जी को डालकर दे दिया। मालकिन के बार-बार मना करने पर भी उसने थोड़ा सा दलिया उन्हें भी खिला दिया। बाबू जी, जो पहले दूसरों को जूठन छोड़ने पर खरी-खरी सुनाते थे, आज खुद ही आधा खाना जूठा छोड़ चुके थे। राम आसरी ने बर्तन उठाकर रसोई में साफ किए और फिर ऊपर अपने कमरे में जाने लगी तो मालकिन कहने लगी:

       ‘राम आसरी, आज तुम नीचे ही रहो। यहाँ पास वाले कमरे में बैड लगा है, इसी पर सो जाना। मुझे थोड़ा सहारा रहेगा और इन्हें हौसला। ये तो छोटी सी बात से परेशान हो उठते हैं। तुम मेरे नजदीक रहोगी तो इन्हें थोड़ी तसल्ली रहेगी। बेटे को भी इधर ही ले आओ।’

       राम आसरी ने ‘जी बीबी जी’ कहते हुए अपनी गर्दन ऊपर नीचे की और फिर मुन्ना को लेने के लिए ऊपर कमरे की ओर चली गई। रात बड़े आराम से गुजरी। अभी सुबह हुई ही थी कि उनका दिल्ली वाला बेटा और बहू रात की गाड़ी से आ पहुँचे। दूसरे दिन बम्बई वाला बेटा भी आ गया। घर में काफी चहल-पहल हो गई। राम- आसरी तो सुबह से शाम तक रसोई के काम में ही व्यस्त रहने लगी। दूसरे, बाहर से आए आगंतुकों को घर की नौकरानी के प्रति कोई हमदर्दी नहीं थी। वे हर समय आदेशात्मक लहजे में बात करते। राम- आसरी ऐसे माहौल में रहने की अभ्यस्त नहीं थी। उसे बुरा तो लगता, परन्तु क्या कर सकती थी। मुन्ना नीचे आया तो छोटे बेटे ने उसे लताड़ लगाकर भगा दिया। राम आसरी खून के आँसू पीकर रह गई। उसे कोई कुछ कह लेता तो कोई बात नहीं थी। उसकी जिंदगी तो बीती ही थी दुत्कार सहते हुए। परन्तु उसके मुन्ना को कोई बुरी नज़र से देखे, यह उसे बिल्कुल भी गंवारा नहीं था। देर शाम को जब सोने के लिए बिस्तर पर लेटी तो उसे नींद नहीं आ रही थी। रह-रहकर दिन वाली घटना उसके दिमाग में घूम रही थी। माँ-बाप कितने भले, परन्तु इनकी औलाद को देखो तो एकदम उलट। शायद इसमें माँ-बाप का कोई कसूर न हो, बड़े शहरों के ठाठ-बाठ और रहन-सहन के अंदाज ने इनका स्वभाव बदल दिया हो? और फिर इनके सामने तेरी हैसियत ही क्या है? तू तो केवल एक मामूली नौकरानी है, जो इनके टुकड़ों पर पल रही है। फिर तुझें बराबरी माँगने का क्या हक है? चंद दिनों के व्यवहार से तू अपनी पहचान ही भूल गई है। नहीं-नहीं, तुझे उनकी बातों का बुरा नहीं मानना चाहिए। ये तो तुझ जैसी हर महिला के साथ होता है, होता आया है और होता रहेगा। अब तू दिमाग में भरा फतूर निकाल और आराम की नींद ले। ठीक है, मान लिया मैं नौकरानी हूँ, पर मेरा मुन्ना तो किसी का नौकर नहीं है। इसने किसी का क्या बिगाड़ा है? उन्हें क्या हक था इसे यूँ भगाने का। यह तो बेचारा वक्त का मारा है। अगर अपने माँ-बाप के पास होता तो किसी की हिम्मत थी उसे बुरा-भला कहने की? तो क्या हुआ वो नहीं हैं, तू तो है। तू तो उसकी बड़ी माँ है। तुझे तो माँ और बाप दोनों के फर्ज निभाने हैं। फिर तू अपने फर्ज से क्यों डगमगा रही है? कौन कहता है मैं अपना फर्ज भूल गई हूँ? मैं अपने मुन्ना के लिए कुछ भी कर सकती हूँ। मैं सुबह ही इन लोगों से साफ कह दूँगी कि मैंने अपने मुन्ना को बड़ा आदमी बनाना है और दूसरों की डाँट सुनकर वह कभी बड़ा आदमी नहीं बन सकता। इस प्रकार सोचते हुए रात के ग्यारह-बारह और एक बज गया। दिन की पूरी मेहनत भी उसे एक झपकी लाने में नाकामयाब रही। पीठ में दर्द होने लगा तो कभी इधर और कभी उधर करवटें बदलने लगी। इतने साल इस घर में रहकर जो सुख पाया था वह एक दिन के दुःख से ही विलुप्त हो गया था। आखिर बड़ी मुश्किल से सुबह हुई। उसने उठकर मुँह धोया फिर चारपाई पर बैठ गई। आँखें पूरी तरह से खुल नहीं रही थीं और सिर भारी था। फिर भी उसने पक्का मन बना लिया था कि आज नाश्ते के पश्चात् वह अपने दिल की बात कहकर रहेगी और फिर कोई मकान किराये पर लेकर एक-आध दिन में यहाँ से चली जाएगी। थोड़ी देर इस अवस्था में बैठने के पश्चात् वह उठी और बड़े भारी मन से दरवाजा खोलकर बाहर निकल गई। रसोई में पहुँचकर उसने चाय बनाई और चाय देने के लिए मालकिन और बाबू जी के कमरे में पहुँची। आज उसके चेहरे पर पहले जैसी रंगत नहीं थी। वह मुँह से कुछ नहीं बोली। बाबू जी को चाय देकर चुपचाप ज्योंही बाहर की ओर मुड़ी तो मालकिन बोली:

       ‘राम आसरी, क्या बात है? आज इतनी चुप क्यों हो?’

       ‘कोई बात नहीं है बीबी जी, बस यूँहीं बोलने को कुछ जी नहीं चाह रहा है।’

       ‘नहीं, कोई तो बात है। मुझे मालूम है, तुम्हें हमारे यहाँ से चले जाने का पता चल गया है तभी इतनी उदास हो। अरे पगली! हम तुझे छोड़कर थोड़े न जाएंगे। तुम्हारे बाबू जी ने तो पहले ही मन बना लिया था कि हम तुझे बम्बई साथ लेकर जाएंगे। उन्होंने कल शाम बेटे से भी बात की थी। वह भी मान गया है। आखिर तुम भी तो हमारे परिवार की एक सदस्या हो। हम तुम्हें गैर थोड़े न समझते हंै।’

       मालकिन के इन सांत्वना भरे शब्दों का राम आसरी ने कोई जवाब नहीं दिया। सोचने लगी यदि मैं परिवार का सदस्य हूँ तो मेरा मुन्ना बेटा कौन है? क्या वह परिवार का सदस्य नहीं है? उसे क्यों पराया समझा गया है। क्या मैं उसका तिरस्कार सहन कर पाऊँगी? नहीं, बिल्कुल भी नहीं। मैं किसी भी सूरत में बम्बई नहीं जाऊँगी। चाहे मुझे भूखे पेट क्यों न रहना पड़े। मैं मजदूरी कर लूँगी पर अपने मुन्ना को जलील होता नहीं देख सकती ......मैं जलील होता नहीं देख सकती ..नहीं देख सकती उसे ...। वह अकेली ही बुड़बुड़ाने लगी। उसे इस प्रकार बोलता देखकर मालकिन हैरानी भरे लहजे में दोनों आँखें फाड़ कर उसकी की ओर देखने लगी। यह क्या अचम्भा है। इससे पहले तो इसने कभी भी इस प्रकार की बात नहीं की है। इसे कुछ हो तो नहीं गया है? उसका यह अजीब सा बर्ताव मालकिन की समझ से परे था। कुछ देर तो वह हक्की-बक्की सी रह गई, फिर थोड़ा सम्भल कर बोली:

       ‘राम आसरी, ये तुम्हें क्या हो गया है? तू अपनी शरण में भी है कि नहीं?’

       यह सुनकर तो राम आसरी ऐसी हो गई मानो जलते अंगारों  पर पानी पड़ गया हो। उसे अपनी झुंझलाहट का एहसास हुआ तो शर्म के मारे मुँह नीचा कर लिया। परन्तु जुबान से कुछ नहीं बोली।  उसका उत्तर न पाकर मालकिन फिर बोली:

       ‘राम आसरी, तुम अकेले में क्या बोल रही थी?’

       ‘कुछ नहीं बीबी जी।’ वह गर्दन हिलाती हुई बोली। 

       ‘यह तो कोई जवाब नहीं हुआ। सच-सच बाताओ क्या बात है?’ मालकिन जोर देकर बोली।

       ‘राम आसरी थोड़ी देर के लिए ठिठकी और फिर हिम्मत सी बाँध कर बोली:

       ‘बीबी जी, मैं बम्बई नहीं जाऊँगी।’

       राम आसरी की बात सुनकर एक बार तो मालकिन स्तब्ध रह गई। सोचने लगी ये जो अभी थोड़ी देर पहले अकेले में बुड़बुड़ा रही थी, कहीं सचमुच में इसका दिमाग तो खराब नहीं हो गया हैं? यहाँ पर इसकी इतनी मौज-मस्ती है, पूरी तरह अपना हाथ जगन्नाथ है। कभी किसी ने इसे काम के लिए नहीं टोका, फिर ये क्या समझ कर मुकर रही है? मैंने तो सोचा था कि ये मेरी बात सुनकर खुश होगी। पर यह तो एकदम उलट हुआ। चार दिन शहर में क्या रहली, इसके तो पंख ही लग गए। वह आवाज में थोड़़ा बनावटी रोआब लाकर बोली:

       ‘तेरी मर्जी, नहीं चलना है तो न चल। बम्बई में काम करने वालों की कमी नहीं है। एक बुलाओ तो हजार आते हैं। मैं तो तेरे भले की सोच रही थी। अब तेरी किस्मत साथ नहीं देती तो भला इसमें मेरा क्या दोष है?’

       राम आसरी नें कोई जवाब नहीं दिया और वह चुपचाप रसोई घर की ओर चली गई। परन्तु पीछे मालकिन का बड़ा बेटा माँ को समझाता हुआ बोला:

       ‘माँ! अब बस भी करो। क्यों जिद किए जा रही हो? आपको पता नहीं, गोबर के कीड़ों को गोबर में ही अच्छा लगता है। इसे क्या पता कि बड़े लोगों के घरों में कैसे और किस तहजीब से रहा जाता है? अगर यह नहीं चलना चाहती तो न सही। पहले भी तो काम चलता था, अब उसमें कौन सा फर्क पड़ जाएगा? मुझे छोटे लोगों को इस प्रकार मुंह लगाना अच्छा नहीं लगता।’

       ‘नहीं बेटा, ऐसा नहीं बोलते। हर इंसान की अपनी इज्जत होती है। अगर कोई बड़ा है तो क्या वह दूसरों को कुछ मुफ्त में बांटता फिरता है। हर आदमी अपने हक की कमाई खाता है। इस बेचारी की हमारे दिल में जो इज्जत है वो इसके काम की वजह से है। इसलिए तेरे पिता जी और मैंने इसे कभी भी गैर नहीं समझा है। इसकी कोई मजबूरी ही होगी जो यह हमारे साथ जाना नहीं चाहती है।’ माँ अपने बेटे की ओर देखती हुई अपने होंठों पर अपनी अँगुली रखकर बोली।

       ‘ठीक है माँ, आप जानो आपका काम जाने।’ यह कहते हुए वह अपने बेड रूम में चला गया।

       माँ-बेटे की बात को राम आसरी साफ-साफ सुन रही थी। बेटे द्वारा कहा गया एक-एक शब्द तीर बनकर उसके दुःखी शरीर को भेदे जा रहा था। उसके पुराने जख्म फिर से हरे होने लगे। सोचने लगी पता नहीं पूर्व जन्म के किन कर्मों का फल उसे बार-बार भुगतना पड़ रहा है। नरक से छूट कर बड़ी मुश्किल से कुछ साल सुख से गुजरे थे, परन्तु फिर से यह मेरे कर्मों का फल है। परन्तु उसका भागीदार यह निर्दोष बालक क्यों है? इसने तो कोई बुरा काम नहीं किया है। इसका कसूर तो केवल इतना है कि अब मैं इसकी बड़ी माँ हूँ। इन्हीं ख्यालों में खोई हुई राम आसरी आँखें मूँदे पता नहीं कितनी देर सोचती रही। उसे यह भी मालूम नहीं रहा कि वह रसोई में काम करने के लिए आई है और उसने हाथ में बर्तन पकड़ा हुआ हैं। अचानक हाथ से छूटकर बर्तन फर्श पर पड़ा तो टन् की आवाज से उसकी आँखें खुली। उसने झुककर बर्तन उठाया और अपने काम में लग गईं। बर्तन गिरने की आवाज सुनकर मालकिन बोली:

       ‘राम आसरी क्या हुआ? ये क्या गिरा है?’

       ‘कुछ नहीं बीबी जी, बर्तन हाथ से छूट गया था। कुछ नहीं गिरा है। खाली था।’ राम आसरी ने जवाब दिया।

       ‘अच्छा, जरा सम्भल कर काम किया करो।’ यह कहकर मालकिन चुप हो गई। 

       बाबू जी अब तक सारी बातें चुपचाप सुन रहे थे। उन्हें पूरा आभास था कि राम आसरी का मन आज ठीक नहीं है। उसे उन के चले जाने का बहुत दुःख है। जिसे वह मुँह से न कह कर अंदर ही अंदर पीये जा रही है। वह यह भी जानते थे कि राम आसरी उनके साथ क्यों नहीं जाना चाहती। वह अकेले होते तो वह खुशी से उनके साथ चली जाती। परन्तु आजकल के लड़के किसी के मन की क्या जाने? पैसा जब पास होता है तो वह इंसान से इंसान की दूरी बना देता है। यह बात तो थी नहीं कि उन्हें बचपन में अपने माँ-पिता जी से संस्कार नहीं मिले थे, लेकिन जिस समाज में वह रह रहे थें वहाँ  के माहौल का कुछ न कुछ असर तो पड़ना ही था। यह सब बातें सोचकर बाबू जी उठे और रसोई के दरवाजे के पास खड़े होकर राम- आसरी से कहने लगे:

       ‘देखो राम आसरी, आज हम दोपहर की गाड़ी से दिल्ली जा रहे हैं और फिर वहीं से बम्बई चले जाएंगे। पीछे से मकान सूना रहेगा। इसलिए अगर तुम हमारे साथ नहीं जाना चाहती तो कोई बात नहीं। तुम्हारा यहाँ पर रहना भी उतना ही जरूरी है। तुम जिस कमरे में रह रही हो उसी में आराम से रहो, हम कोई किराया नहीं लेंगे। बस हमारे पीछे से मकान का ख्याल रखना। मैं जाने से पहले तुम्हें दिल्ली और बम्बई, दोनों जगह के पते लिख कर दे दूँगा और साथ में टेलीफोन नम्बर भी। कभी कोई बात हो तो पत्र लिखकर डाल देना या एस. टी डी. बूथ से टेलीफोन कर देना। अब पता नहीं वहाँ पर कितना समय रहते हैं?’

       सुबह का नाश्ता तैयार करने के पश्चात् राम आसरी ने मुन्ना को स्कूल भेजा और फिर से दुपहर का खाना बनाने में लग गई, ताकि वे लोग समय से गाड़ी पकड़ सकें। घर के सभी सदस्य जरूरी सामान बांधने में व्यस्त थे। मालकिन ने कुछ पुराने किस्म के बर्तन तथा स्टोव राम आसरी को उठाकर दे दिए और फिर उसे अपने पास बिठाकर चुपके से कुछ जरूरी बातें समझाने लगी। राम आसरी का मन भारी था, इसलिए मालकिन की प्रत्येक बात का उत्तर मुंह से बोल कर देने की बजाय सिर और गर्दन से ही दे रही थी। खाना खाने के पश्चात् जब सभी लोग पूरी तरह से तैयार हो गए तो छोटा बेटा स्टेशन पर जाने के लिए टेक्सी लेकर आया। बाबू जी, मालकिन और राम आसरी बहुत ही गमगीन थे। तीनों में से कोई भी खुल कर नहीं बोल रहा था। ऐसा लग रहा था मानो उन्हें अपनी सब से प्रिय व बहुमूल्य वस्तु के खो जाने का गम हो। राम आसरी ने पीछे मुड़कर अपनी धोती के पल्लू से अपनी आँखों में आए आँसू पोंछे और उन द्वारा साथ लेकर जाने वाला कुछ सामान उठाकर टैक्सी की ओर चल पड़ी। सभी लोगों को विदा करने के पश्चात् वह बुझे मन से वापस आई और धड़ाम से चारपाई्र पर गिर कर आँखें बंद करके लेट गई। आज उसने सुवह से कुछ खाया-पीया भी नहीं था। मुन्ना स्कूल से घर लौटा तो नीचे वाले कमरे को बंद देखकर भागकर कमरे में पहुँचा। बड़ी माँ आँखों पर धोती का लिपटा हुआ पल्लू डालकर लेटी हुई थी। ऐसा दृष्य उसने पहली बार देखा था। न आवाज, न कोई चहल-पहल, एकदम सन्नाटा। दबे पाँव अंदर जाकर उसने चुपके से बड़ी माँ की आँखों पर रखा धोती का पल्लू ऊपर उठा दिया और हँसने लगा। वह अपने मुन्ना की शरारतों पर खूब खिलखिला कर हँसती थी। आज वह उसकी हँसी में क्यों शरीक नहीं हुई? वह हँसता-हँसता चुप हो गया। फिर थोड़ा गम्भीर होकर पूछने लगा:

       ‘बड़ी माँ, आप बोलती क्यों नहीं? आपके सिर में दर्द है क्या?  मैं दबाऊँ आपका सिर?’

       ‘नही बेटा, मुझे कुछ नहीं हुआ है।’ वह चारपाई पर उठकर बैठते हुए बोली।

       ‘फिर आप बोलती क्यों नहीं? मुझे अच्छा नहीं लग रहा है।’ वह उसका दायाँ हाथ पकड़कर बोला।

       ‘शरारती कहीं का, क्या हुआ है मुझे?’ वह उसका दिल रखने के लिए होंठों पर बनावटी मुस्कुराहट लाती हुई बोली और साथ में अपने बाएं हाथ से उसके गाल पर एक हल्की सी दस्तक दी।

       ‘हीं.........हीं.........हीं.............’ मुन्ना हँसता हुआ उसका हाथ पकड़े इधर-उधर झूलने लगा। हँसते-हँसते उसे कुछ याद आया तो पूछने लगा:

       ‘बड़ी माँ, दादू जी कहाँ गए हैं?’

       ‘बेटा, वो अपने बेटे और बहू के पास बम्बई चले गए हैं।’ वह बोली। 

       ‘वे बम्बई में क्यों रहते हैं?’

       ‘उनका बड़ा बेटा वहाँ पर काम करता है।’

       ‘वो इधर क्यों नहीं करता काम?’

       ‘वहाँ ज्यादा पैसे मिलते होंगे।’

       ‘बम्बई में ज्यादा पैसे होते हैं?’

       ‘पता नहीं, होते होंगे।’

       थोड़ी देर सोचने के बाद वह फिर बोला:

       ‘बड़ी माँ, आपने बम्बई देखी है क्या?’

       ‘नहीं बेटा। मैं कैसे देखती, वह तो बहुत दूर है।’ कहते हुए उसने मुन्ना को उठाकर चारपाई पर बैठा लिया।

       ‘तो बड़ी माँ क्या अब हम अकेले रहेंगे?’

       ‘हाँ बेटा, पर हम अकेले कहाँ हैं, हम दो जने तो हैं।’ कहते हुए राम आसरी ने एक लम्बी साँस लीं।

       ‘वो तो ठीक है बड़ी माँ, पर अब हम खाना कहाँ बनाएंगे? रसोई वाला कमरा तो वो बंद कर गए हैं।’ उसने प्रश्न किया।

       ‘बेटा, यहीं पर अपने कमरे में बनाएंगे और कहाँ?’ वह बोली।

       ‘पर  इसमें रसोई तो है नहीं, फिर कहाँ बनाएंगे?’

       अब इसका जवाब राम आसरी के पास नहीं था और न ही वह बात को आगे बढ़ाना चाहती थीं। ऐसे में तो ये प्रश्न पर प्रश्न किये जाएगा और बातें कभी भी खत्म नहीं होंगी। वह उसका ध्यान हटाने के लिए बोली:

       ‘बेटा, अब ये बातें बंद कर और कुछ खा-पी ले। कितनी देर हो गई है तुझे स्कूल से आए हुए।’

       राम आसरी चारपाई से उठकर मुन्ना के लिए खाना डालने लगी। खाना खाने के पश्चात् वह सो गया। राम आसरी अकेले बैठकर भविष्य के बारे में सोचने लगी। बेटा बड़ा होने लगा है और बातों को समझने भी लगा है। उसकी सबसे बड़ी इच्छा थी कि पढ़-लिखकर वह एक दिन बहुत बड़ा आदमी बने। इसलिए वह कोई ऐसा काम नहीं करना चाहती थी जिससे बच्चे के मन पर हीन भावना आए और उसका मनोबल गिरे। मन में कभी एक विचार आता तो कभी दूसरा। किसी के घर में नौकरानी बनकर काम करना उसे अब बिल्कुल भी पसंद नही था। वह तो अपने बेटे के लिए आत्मसम्मान के साथ जीना चाहती थी। रुपये-पैसे उसके पास थे, पर कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या काम किया जाए। चारपाई के एक कोने पर बैठकर उसने अपनी बाएं बाजू की कुहनी अपने घुटने पर टिकाई और हाथ के अँगूठे और तर्जनी अँगुली से नाक के दोनों ओर से आँखें दबाकर सोचने लगी। सहसा उसे ख्याल आया कि घर में खाने-पीने का तो कुछ भी सामान नहीं है। स्टोव, बर्तन और मिट्टी का तेल तो मालकिन दे गई है, परन्तु बाकी की सारी चीजें तो लानी पड़ेगी। वह धीरे से उठी और कुछ पैसे निकाले और दरवाजे को बाहर से ताला लगा कर मार्किट की ओर निकल गई। आटा, दाल, घी, तेल, नमक, मिर्च व मसाला वगैरह खरीदने के बाद जब वह घर की ओर मुड़ी तो उसकी नज़र सामने बैठी एक बुढ़िया पर पड़ी जो सड़क के किनारे एक कपड़े पर रखी मूंगफली बेच रही थी। वह वहीं पर रुक कर उसे देख्नने लगी। सोचने लगी कि जब यह महिला इतनी उम्र में भी काम कर रही है तो वह क्यों नहीं कर सकती। मन में आ रहा था कि उसके पास जाकर वह पूरी बात मालूम करे, परन्तु पीछे से अगर मुन्ना नींद से जाग गया तो मुश्किल हो जाएगी। इसलिए वह शीघ्र ही घर की ओर चल पड़ी।

       शाम को राम आसरी पानी की एक बाल्टी भरकर नीचे से लेकर आई और कमरे के एक कोने में स्टोव जलाकर उसने खाना बनाया। मुन्ना पास बैठकर उसके हर काम को बड़ी बारीकी से देखता रहा। फिर दोनों ने खाना खाया। खाना खाने के पश्चात् राम आसरी ने बर्तन उठाए और छत के कोने पर जाकर उन्हें साफ करने लगी। मुन्ना अपना स्कूल का काम निपटाने लगा। काम से निपटने के पश्चात् दोनों ने इधर-उधर की बातें की और फिर सो गए। सुबह  मुन्ना को स्कूल भेजने के पश्चात् राम आसरी मूंगफली वाली बुढ़िया के पास गई और उससे उसके काम के बारे में पूरी बात मालूम की। जब काम के बारे में पूरी बात मालूम हो गई तो वह दूकान से एक छोटी तराजू और बाट लेकर आई। एक दिन मंडी जाकर वह रिक्शा पर दो बोरी मूंगफली भी खरीदकर ले आई और इस प्रकार उसने अपने लिए एक नया काम ढूंढ लिया। प्रतिदिन मुन्ना को स्कूल भेजने के पश्चात् वह अपना सामान उठाकर वरिष्ठ माध्यमिक स्कूल के गेट के बाहर जाकर बैठ जाती और छूट्टी होने से पहले वापस घर आ जाती। मौसम के अनुसार वह अपनी बेचने वाली वस्तुएं भी बदलने लगी थी। इस प्रकार गुजर-बसर के लिए पैसे का जुगाड़ होने लगा।

        यह सिलसिला लगभग एक साल तक चला। मुन्ना अब चैथी कक्षा में हो गया था। रोज शाम को अपना स्कूल का काम निपटाने के पश्चात् वह बड़ी माँ को पढ़ना और लिखना सिखाता, जिसकी वजह से वह अब थोड़ा-बहुत पढ़ने-लिखने और हिसाब- किताब करने लग गई थी। पहले वाली राम आसरी और अब वाली राम आसरी में जमीन-आसमान का अंतर नज़र आने लगा था। इस समय के दौरान दो-चार बार बाबू जी का टेलीफोन भी पड़ोसियों के यहाँ आया था। सब कुशल-मंगल थी और समय बहुत अच्छी प्रकार व्यतीत हो रहा था। एक दिन स्कूल के लड़कों को राम आसरी के काम के बारे में पता चल गया। भोजन अवकाश के दौरान बच्चे स्कूल के प्रांगण में खेल रहे थे। एक लड़का कुछ लड़कों को साथ लेकर देव कुमार के पास आकर खड़ा हो गया और बोला:

       ‘तुम इसका नाम जानते हो?’

       ‘नहीं तो।’ वह एक सुर में बोले।

       ‘मैं बताऊँ?’ वह बोला।

       ‘मुन्ना, इसका नाम मुन्ना है।’ वह जुबान को गोल बनाता हुआ बोला।

       यह सुनकर सभी लड़के हीं.......हीं.......हीं ....करके हँसने लगेI उन्हें इस प्रकार हँसता देखकर देव कुमार भी मुस्कुराने लगा। उस लड़के को लगा कि उसकी बात पर देव कुमार को कोई गुस्सा नहीं आया, इसलिए बात बनती न देखकर वह फिर बोला:

       ‘अरे! मेरी बात सुनो। बताओ इसकी माता जी का क्या नाम है?’

       ‘अब हम क्या जाने।’ साथ वाले लड़के बोले।

       ‘मैं बताता हूँ। इसकी माता जी का नाम है श्रीमती मूंगफली जी।’ यह कहकर वह लड़का जोर से हँसा।

       उसकी बात सुनकर दूसरे लड़के भी हँसने लगे। माँ के बारे में अभद्र शब्द सुनकर देव कुमार को गुस्सा आ गया। उसने झुक कर जमीन से मिट्टी उठाई और उस लडके के मुँह पर फेंक दी। बस फिर क्या था, दो-तीन लड़के उस पर टूट पड़े और उन्होंने उसकी कमीज फाड़ डाली। यह हरकत करने के बाद वह वहाँ से भाग गए। उसने अपना स्कूल बैग उठाया और सीधा घर पहुँचा। चार दीवारी का गेट बंद था। किसी तरह वह गेट के ऊपर चढ़ा और अंदर कूद गया। छत पर जाकर वह अपने कमरे की सीढ़ियों से ऊपर चढ़ा और छुपकर बैठ गया। बैठे हुए न जाने उसे कब नींद आ गई और वह वहीं पर सो गया। छुट्टी होने से पहले राम आसरी भागकर घर पहुँची और गेट का दरवाजा खोलकर अपने कमरे में सामान टिकाया और थोड़ा सुस्ताने लगी। जब काफी समय हो जाने पर भी उसका मुन्ना स्कूल से घर नहीं पहुँचा तो वह बाहर निकलकर इधर-उधर देखने लगी। परन्तु वह उसे कहीं भी नज़र नहीं आया। सोचने लगी कि शायद आज स्कूल से छूट्टी देर से होगी। वह वापस कमरे में आकर इंतजार करने लगी। इंतजार करते-करते एक घंटा बीत गया। अब उसका सब्र टूट चुका था। उसने बाहर निकलकर दरवाजा बंद किया और स्कूल पहुँची। परन्तु स्कूल में तो छु्ट्टी हो चुकी थी। स्कूल के दरवाजे बंद देखकर राम- आसरी को चक्कर आ गया। वह गिरते-गिरते सम्भली। उसके लिए तो मानो वज्रपात हो गया हो। मुन्ना के सिवाय उसका इस दुनिया में और कौन था? उसके सहारे तो वह अपने सभी दुःख-दर्द भूल चुकी थी। और आज वही मुन्ना उसके दुःख का कारण बन रहा था। उसने घूमकर इधर-उधर देखा, परन्तु कोई नज़र नहीं आया। अब पूछे तो किससे? भागकर दुबारा अपने कमरे पर आई, परन्तु वहाँ पर तो कोई नहीं था। वह नीचे बैठ गई और माथे पर हाथ रखकर आँखें बंद करके सोचने लगी। मन में न जाने क्या-क्या बुरे ख्याल आने लगे। किसी अनिष्ट के भय से वह काँप उठी। पेट में दर्द किसी चक्रवात की तरह घूमने लगा। उसने बैठे हुए ही अपना पेट दोनों हाथों से दबा लिया। परन्तु बैचेनी रुकने का नाम नहीं ले रही थी। परेशानी में कभी उठकर इघर-उधर देखती और जब कुछ नज़र नहीं आता तो पुनः बैठ जाती। आखिर जब उसकी कोई पेश नहीं चली तो उसने खड़े होकर धोती के एक पल्लू से अपनी कमर जोर से बांधी और नीचे गली में उतर गई। थोड़ी दूर गली में कुछ लड़के क्रिकेट खेल रहे थे। वह लम्बे-लम्बे कदम रखती हुई उनके पास पहुँची और पूछने लगी:

       ‘बच्चों! क्या तुमने मेरा मुन्ना देखा है?’

       ‘नहीं तो।’ एक लड़का बोला।

       अभी वह दो कदम आगे ही निकली थी कि पीछे से एक लड़का बोला:

       ‘ताई! कैसा है तुम्हारा मुन्ना? अभी थोड़ी देर पहले ही यहाँ से तीन-चार मुन्नें उस तरफ गए हैं।’ 

       यह कहते हुए वह थोड़ी दूर जाकर खड़ा हो गया ताकि वह उसके गुस्से की मार से भाग निकले। उसकी इस हरकत पर दूसरे लड़के राम आसरी की ओर देखकर हँसने लगे। राम आसरी ने एक बार पीछे मुड़कर देखा और बिना कुछ कहे आगे निकल गई। बाजार में पहुँच कर वह अजनबियों की तरह हर आने-जाने वाले को देखती हुई चलने लगी। सामने वाली सड़क से एक बुजुर्ग सा दिखाई देने वाला आदमी हाथ में थैला पकडे़ हुए आ रहा था। उसने सफेद धोती और कमीज पहन रखा था और पैरों में काले रंग की चप्पले डाल रखी थी। गले में रूद्राक्ष की माला थी और ललाट पर सिंदूर का टीका लगा रखा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे वह किसी मंदिर में माथा टेक कर सीधा-चला आ रहा हो। गली में खेल रहे बच्चों के कटाक्ष से वह पहले ही आहत थी, इसलिए इस भले आदमी से बात करना उसने ज्यादा मुनासिब समझा। वह उसके नजदीक जाकर हाथ जोड़कर बोली:

       ‘नमस्कार, महात्मा जी।’

       ‘नमस्कार जी।’ उसने जवाब दिया।

       ‘आप किधर से आ रहे हो?’ वह बोली।

       ‘क्यों क्या बात है बहिन?’ उसने प्रश्न किया।

       ‘आपने मेरा मुन्ना तो नहीं देखा है?’ वह बोली।

       ‘सुनकर पहले तो वह स्तब्ध रह गया कि इस सीघी-साधी औरत को वह क्या जवाब दे। यह पहले ही दुःखी है। थोड़ा मन में विचार करने के बाद बोला:

       ‘भई मैं तुम्हारे मुन्ना को तो पहचानता नहीं, परन्तु तीन-चार लड़के उधर माता के मंदिर की ओर तो जरूर जा रहे थे। अब मैं यह तो नहीं कह सकता कि उनमें तुम्हारा बेटा था भी या नहीं। बहिन तुम घबराना मत, आजकल के बच्चे बड़े शरारती होते हैं। उन्हें घर की तनिक भी परवाह नहीं होती। परन्तु मेरा मन कहता है कि माँ भगवती की कृपा से तुम्हारा बेटा यहीं कहीं घर के आस पास ही होगा और वह तुम्हें जल्दी मिल जाएगा।’

       यह कहकर वह अजनबी आगे की ओर निकल गया। उसके चले जाने के पश्चात् राम आसरी बड़ी तेज गति से मंदिर की ओर चलने लगी। रेलवे लाइन को पार करते ही उसे कुछ लड़के थोड़ी  दूरी पर आागे की ओर चलते हुए नज़र आए। अपनी ओर पीठ होने के कारण वह उन्हें पहचान न पाई। उसने आगे बढ़कर आवाज लगाईः 

       ‘मुन्ना!’

       आवाज सुनकर लड़कों ने पीछे मुड़कर देखा। परन्तु उनमें उसका मुन्ना नहीं था। अब तो उसकी रही-सही आस भी टूट गई।  पैरों ने चलना और टाँगों ने सहारा देना बंद कर दिया। शाम ढलने वाली थी और पश्चिम दिशा में सूर्यदेव अपनी ललिमा लिये अपने प्रचंड रूप को प्रकृति के आवरण में छुपाकर प्रतिदिन की तरह क्षितिज के आगोश में दस्तक देने जा रहा था। राम आसरी ने ढलते सूर्य की ओर देखा और सोचने लगी। कुछ समय बाद अंधेरा हो जाएगा। तब क्या होगा? वह कहाँ जाएगी?

       ‘हे राम! अब क्या करूँ?’ कहकर वह सड़क किनारे पड़े एक बड़े से पत्थर पर एक जीवित लाश की तरह बेसहारा होकर बैठ गई।  सहसा उसकी नज़र सामने माता मनसादेवी के मंदिर पर पड़ी। देख कर कुछ धीरज बंधा। सोचने लगी माँ से मन्नत ही माँग लूँ। शायद इसकी कृपा से मेरा बेटा मिल जाए। वह मन ही मन माँ को प्रणाम करके उठी और जल्दी-जल्दी मंदिर की ओर चल पड़ी, ताकि अंधेरा होने से पूर्व वह वापस मुड़ सके। मंदिर में जाकर वह माता के चरणों में झुकी और हाथ जोड़कर मन ही मन प्रार्थना करने लगी कि हे माँ! तू तो जगत की पालनहार है और सारे संसार की माँ है, फिर तेरे चरणों में आकर मुझे दुःख क्यों सता रहा है? मैं भी एक बच्चे की माँ हूँ और संतान का दुःख क्या होता है उसे तू भी अच्छी तरह से जानती है। माँ! मेरे मुन्ना को मुझसे मिला दे। वह अभागा एक माँ को तो पहले ही खो चुका है और अब उसे दूसरी माँ से भी दूर मत कर। माँ के चरणों में सीस नवाकर वह वापस घर की ओर चल पड़ी। शहर में पहुँची तो हलका-हलका अंधेरा होने लगा था।

       उधर शाम होते ही मुन्ना की आँख खुली तो वह सहमा-सहमा छत से नीचे उतरा। परन्तु दरवाजे पर तो ताला लगा हुआ था। आज बड़ी माँ क्यों नहीं आई? वह डर के मारे काँपने लगा। अब जाता भी तो किसके पास? वह दीवार के साथ चिपटकर सुबक-सुबक कर रोने लगा। राम आसरी जब गली में आई तो उसे दीवार के साथ चिपकी हुई एक काली छाया सी नज़र आई। वह, वहीं खड़ी होकर बड़े ध्यान से उसकी ओर देखने लगी। जब पहचान पड़ी तो अकेले ही धीरे से बोली:

       ‘ओह! यह तो मुन्ना है।’

       मन क्रोध से भर उठा। इसकी यह मजाल कि ये अभी से गलत संगत में पड़ने लगा है। पर अब तक था कहाँ? मैं तो इसे बड़ा आदमी बनाना चाहती थी, परन्तु यह तो आम आदमी भी नहीं बन पाएगा। आज मैं इसे ठीक करके ही रहूँगी। मन में यह धारणा लिये वह पूरे उग्र के साथ आसमानी बिजली की तरह उस पर लपकी। नजदीक पहुँच कर उसने थप्पड़ उठाया, परन्तु ममता की जंजीरों ने उसे वहीं पर जकड़ दिया। हाथ ऊपर उठाये ही वह एक बुत की तरह खड़ी रह गई। धीरे-धीरे मन का गुबार शाँत समुंद्र की गहराइयों की तरह अदृष्य होने लगा। क्रोध पर माँ की ममता भारी पड़ने लगी। उसने धीरे से अपना हाथ नीचे कि ओर किया और उसे ममत्व की नज़रों से निहारने लगी। मुन्ना जो पहले बड़ी माँ के क्रोध से भयभीत हुआ अपने दोनों गालों को अपने हाथों से छुपाए दीवार के साथ सटकर खड़ा था, थोड़ा शिथिल होकर बड़ी माँ की ओर बिना आँखें झपकाए देखने लगा। संतान को जन्म नहीं दिया, फिर भी नारी हृदय माँ, मातृत्व के प्रेम, वात्सल्य और वियोग की पीड़ा से राम आसरी की आँखें भर आई। उसने आगे बढ़कर मुन्ना को अपने आलिंगन में ले लिया और बार-बार उसका माथा चूमने लगी। मुन्ना रोते हुए ही पूछने लगा:

       ‘बड़ी माँ........बड़़ी माँ.........आप इतनी देर तक कहाँ थी? परन्तु राम आसरी को तो इस प्रश्न का उत्तर देने की शुध कहाँ थी। उसे तो मानो अपना खोया हुआ खजाना वापस मिल गया हो? वह बच्चे को अपनी छाती से लगाए आँखें बंद किये हुए खड़ी थी। आँखों से आँसूओं की धारा बह निकली। उसने मुन्ना के चेहरे की ओर देखते हुए पूछा:

       ‘मेरे बेटे, तू कहाँ चला गया था? तुझे अपनी बड़ी माँ का जरा भी ख्याल नहीं आया कि उस पर क्या बीत रही होगी? और यह तेरे कमीज को क्या हुआ? यह कैसे फट गया? बता तू ठीक तो है? कहाँ पर रहा इतनी देर?’ वह प्रश्न पर प्रश्न किए जा रही थी। 

       ‘बड़ी माँ.......बड़ी माँ........ मैं तो घर पर ही था।’ वह बीच में ही बोलने लगा, परन्तु राम आसरी तो अपनी ही धुन में बोले जा रही थी। जब माहौल थोड़ा शाँत हुआ तो वह फिर बोला:

       ‘मैं तो कहीं नहीं गया था। मैं तो इधर घर पर ही था बड़ी माँ।’

       ‘कौन कहता है तू घर पर था? मैं तुझे इधर सब जगह ढूँढ कर गई हूँ। बेटा, तू सच-सच बता दे, मैं तुझे कुछ नहीं कहूँगी। बता तू कहाँ गया था?’ वह उसे अपनी आलिंगन से नीचे उतारती हुई बोली।

       ‘मैं सच ही तो कह रहा हूँ बड़ी माँ। मैं कहीं नहीं गया था।’ वह बोला ।

       ‘अगर तू इधर ही था तो मुझे नज़र क्यों नहीं आया?’

       ‘मैं छत पर सो गया था बडी माँ।’ वह बोला।

       ‘क्यों, तू छत पर क्यों गया था?’ उसने प्रश्न किया।

       ‘मैं डर गया था बड़ी माँ।’

       ‘क्यों डर गया था? किस बात का डर था तुझे?’

       ‘बड़ी माँ, स्कूल में लड़कों ने मेरी कमीज फाड़ दी थी, इसलिए।’

       ‘क्यों फाड़ी है उन्होंने तेरी कमीज?’

       ‘बड़ी माँ, वो आपको गाली दे रहे थे।’

       ‘क्यों? क्या गाली दे रहे थे वो?’

       ‘वो आपको गंदे नाम से बुला रहे थे।’

       ‘तो कहने देता बेटा, उनके कहने से क्या होता है?’

       ‘बड़ी माँ, वो मुझे छेड़ते हैं।’

       ‘क्या कहते हैं बेटा वो तुझे?’

       ‘बड़ी माँ, आप मूँगफली बेचती हो न, इसलिए वो मुझे कहते हैं कि तेरी माँ का नाम मूंगफली है।’

       बेटे की बात सुनकर राम आसरी ने एक गहरी साँस ली और मुन्ना को गोद में लेकर वहीं पर बैठ गई और कहने लगी:

       ‘बेटा, वो सच कहते हैं। गरीबी का नाम ही मूंगफली है। अगर तेरी बड़ी माँ अमीर होती तो वह ऐसा नहीं बोलते।’

       ‘बड़ी माँ, ये गरीबी कौन होती है? आपका नाम तो गरीबी  नहीं है? फिर वो ऐसा क्यों बोलते हैं?’ उसने बड़े भोलेपन से प्रश्न किया।

       ‘बेटा, तू नहीं जानता मेरा जन्म का नाम गरीबी है और गरीब को किसी भी नाम से बुलाया जा सकता है। अगर मैं अमीर होती तो मेरा नाम राम आसरी की बजाय आशा कुमारी या आशा सिंह होता।’ राम आसरी ने उसके प्रश्न का उत्तर दिया।

       ‘तो फिर बड़ी माँ, आप अमीर क्यों नहीं बन जाती? पर ऐसा करने पर तो आपको अपना नाम बदलना पड़ेगा।’ वह बोला।

       ‘वाह रे! मेरे लाल। तू तो पूरा बुद्धू ही है। अमीर-गरीब कोई कपड़ें थोड़े ही न हैं, जिन्हें पहनकर जो चाहो बन जाओ। अमीर के पास तो धन-दौलत, रुपया-पैसा, मान-सम्मान और शोहरत सब कुछ होता है। ये सब कुछ हमारे पास कहाँ है? तभी तो तुझे कहती हूँ कि खूब मन लगाकर पढ़। आदमी का गुण ही उसे बड़ा बनाता है।’ राम आसरी उठती हुई बोली।

       ‘फिर तो बड़ी माँ, आप भी एक दिन बड़ा आदमी बन जाओगी।’ वह उसके पीछे चलता हुआ बोला।

       ‘कैसे?’ राम आसरी दरवाजे का ताला खोलती हुई बोली।

       ‘मैं जो आपको हर रोज पढ़ाता हूँ।’

       उसकी बात सुनकर राम आसरी खिलखिलाकर हँस पड़ी और बोली:

       ‘हाँ बेटा, भगवान ने चाहा तो हम दोनों एक दिन बड़े आदमी बनेंगे। अब तू बैठकर अपना काम कर और मैं खाना बनाती हूँ।’

       यह कहकर राम आसरी खाना बनाने में व्यस्त हो गई। खाना बनाने के पश्चात् जब दोनों खाना खाने लगे तो मुन्ना बोला:

       ‘बड़ी माँ, मैं अब स्कूल नहीं जाऊँगा।’

       ‘क्यों?’ रोटी का ग्रास राम आसरी के हाथ में ज्यों का त्यों पकड़ा रह गया।

       ‘वो लड़के फिर मेरा कमीज फाड़ डालेंगे।’

       ‘कैसे फाड़ डालेंगे? मैं तेरे साथ चलूँगी और मास्टर जी से बोलूँगी बेटा। वो अब कुछ नहीं करेंगे। एक बात और, अभी-अभी तो तू कह रहा था कि हम बड़े आदमी बनेंगे। फिर बिना पढ़े-लिखे कैसे बन पाएंगे बड़े आदमी? बेटा, तू यह साल इस स्कूल में पूरा करले, फिर हम यहाँ से कहीं दूर चले जाएंगे, जहाँ पर तेरी बड़ी माँ को बुरा-भला कहने वाला कोई नहीं होगा। शाबास बेटा, अब इन बातों के बारे में सोचना बंद कर और खाना खाले, नहीं तो फिर सोने के लिए देर हो जाएगी।’

       बड़ी माँ की बात सुनकर मुन्ना जल्दी-जल्दी खाना खाने लगा। सारे दिन की परेशानी से काफी त्रस्त था, इसलिए खाना खाने के पश्चात् वह जल्दी सो गया। राम आसरी काम निपटाकर मुन्ना की बगल में चारपाई पर बैठ गई और सोचने लगी। राम आसरी जो कुछ साल पहले बिल्कुल अनपढ़, अल्हढ़ और दिन-रात मजदूरी करके अपना गुजर-बसर करती थी, अब काफी सूझबूझ रखने वाली महिला बन चुकी थी। उसे मालूम था कि उसके रहन-सहन, खान-पान और दिनचर्या का बच्चे के उत्थान पर क्या प्रभाव पड़ने वाला है। अगर वह उसे एक होनहार बालक के रूप में देखना चाहती है तो उसको उसकी भावी जिंदगी को बदलने वाली हर छोटी से छोटी बात पर ध्यान रखना होगा। इसलिए उसने पक्का इरादा ठान लिया कि वह यह मकान छोड़कर किसी दूसरे शहर में चली जाएगी, जहाँ पर शिक्षा का स्तर यहाँ से बेहतर हो। इसके अतिरिक्त वह कोई ऐसा काम भी नहीं करेगी, जिसके कारण उसके मुन्ना को अपने सहपाठियों के सम्मुख जलालत का सामना करना पड़े। कहाँ जाए और क्या काम करे यही सोचते हुए आधी रात गुजर गई। आखिर जब कुछ तय नहीं कर पाई तो चारपाई पर लेट गई।

       सुबह उठकर नहाने-धोने के बाद उसने नाश्ता बनाया और फिर मुन्ना को तैयार करके स्कूल की ओर चल पड़ी। स्कूल पहुँच  कर उसने कल की घटना के बारे में मास्टर जी को बताया। मेज पर कुहुनी टिकाये और अपने बाएं हाथ के अँगूठे और अँगुलियों से सिर को सहारा देकर मास्टर जी आगे की ओर झूककर राम आसरी की पूरी बात सुनते रहे। जब वह अपनी बात सुनाकर चुप हुई तो मास्टर जी ने गर्दन उठाकर दाएं हाथ से अपनी आँखों पर से चश्मा उतारा और फिर एक निगाह से कक्षा में बैठे सभी बच्चों की ओर देखा। मास्टर जी की पैनी नज़र अपने ऊपर पड़ते ही शरारत करने वाले लड़कों को तो मानो साँप सूँघ गया होI गर्दन नीचे की ओर करके मास्टर जी की नज़रों से बचने की कोशिश करने लगे। परन्तु हुआ वही जिसका उन्हें डर था। मास्टर जी तर्जनी अँगुली को बार-बार अपनी ओर मोड़ते हुए बोले:

       ‘उठो .......उठो........।’

       लड़के काँपते हुए खड़े हो गए। मास्टर जी ने कुर्सी से उठ  कर मेज पर रखा हुआ काले रंग का गोल रूलर उठाया और उसे जोर से मेज के ऊपर पटकते हुए गरजे:

       ‘किसने शरारत की है तुम में से ?’

       सभी लड़के फर्श की ओर आँखें गड़ाए चुप-चाप खडे़ रहे।  कोई उतर न पाकर मास्टर जी पुनः गरजे:

       ‘तुम बोलते क्यों नहीं? क्या तुम्हें साँप सूँघ गया है? मैं पूछता हूँ शरारत किसने की?’

       दूसरी ओर से कोई उत्तर न पाकर मास्टर जी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। वह नाक को सिकोड़कर और बड़ी-बड़ी आँखें खोलकर बोले:

       ‘तुम ऐसे नहीं बोलोगे। मैं सिखाता हूँ तुम्हें कैसे बोला जाता है?’

       यह कहते हुए मास्टर जी ने जैसे ही रूलर उठाया और  लड़कों की ओर बढ़े, राम आसरी दोनों हाथ जोड़कर आगे खड़ी हो गई और बोली:

       ‘मास्टर जी, इन्हें माफ कर दो, बच्चे हैं। इन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया है।’

       मास्टर जी ने गुस्से में रूलर मेज पर पटक दिया और बोलेः 

       ‘हूँ..........फिर शिकायत लेकर क्यों आई हो? बदमाशों की चमड़ी उधेड़ देता। तुम सुन रहे हो लड़कों! आइन्दा अगर तुमने ऐसी हरकत की तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा। अब बैठ जाओ।’ फिर वह देव कुमार की ओर मुँह करके बोले:

       ‘तुम स्कूल से कल क्यों भाग गए थे? मुझे बताते, इनकी हड्डी-पसली एक कर देता। आइन्दा इन्होंने अगर कोई शरारत की तो मुझे बताना, समझे?’

       देव कुमार मन ही मन घबरा रहा था। उसने मास्टर जी की बात का कोई उत्तर नहीं दिया और आँखें नीची कर ली। उसका मन कर रहा था कि बड़ी माँ के साथ अभी भाग जाए, परन्तु ऐसा करना उसके लिए सम्भव नहीं था।