अस्सी के दशक को लुगदी साहित्य का स्वर्णिम युग कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। युवाओं से लेकर अधेड़ों एवं बुज़ुर्गों तक के हाथ में इसी तरह के उपन्यास नज़र आते थे। घरों में पाबंदी होने के बावजूद किसी के तकिए के नीचे ऐसे उपन्यास नज़र आते तो कोई सबकी नज़र बचा इन्हें टॉयलेट अथवा स्टोर रूम इत्यादि में छिप कर पढ़ रहा होता था। बस अड्डों से लेकर रेलवे स्टेशनों तक, हर तरफ़ इन्हीं का बोलबाला था। गली मोहल्लों की छोटी-छोटी दुकानों में इस तरह के उपन्यास किराए पर मिला करते।
इन उपन्यासों में जहाँ एक तरफ़ रोमानियत से भरे ख़ुशनुमा पल नुमायां होते तो वहीं दूसरी तरफ़ घर-घर की कहानी के रूप में मौजूद घरेलू कलहों को इनमें भरपूर स्थान मिलता। इन उपन्यासों में कोई रोमांचक जासूसी कहानियों का दीवाना था तो कोई प्रेम कहानियों का। कहने का मतलब ये कि हर किसी को उसकी ज़रूरत एवं रुचि के अनुसार मनोरंजनहेतु उसके मतलब का सामान पढ़ने को मिल जाता। बॉलीवुड इन कहानियों से इतना ज़्यादा प्रेरित हुआ कि गुलशन नंदा सरीखे लुगदी साहित्य के लेखकों की कलम के ज़रिए कई फिल्में ब्लॉक बस्टर भी साबित हुईं।
दोस्तों...आज मैं 80 के दशक की कहानियों से प्रेरित एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'अंजुरी भर नेह' के नाम से लिखा है वरिष्ठ लेखिका रेणु गुप्ता जी ने।
प्रेम के विभिन्न आयामों से गुज़रते हुए इस उपन्यास में मूल में एक तरफ़ कहानी है कॉलेज में वकालत की पढ़ाई कर रहे ग़रीब घर के देवव्रत और अमीर घर की चंदा के आपसी स्नेह, विश्वास एवं प्रेम की। किस्मत की मार कि जब जज बनने के बाद देवव्रत पहली बार चंदा से अपने प्रेम का इज़हार एक ऐसे प्रेमपत्र के ज़रिए करता है जो अपने लिखे जाने के अनेक वर्षों बाद तक दुर्भाग्य से चंदा को नहीं मिल पाता। पारिवारिक दबाव में आ चंदा को मिलनसार स्वभाव के एक आईपीएस अफ़सर वरदान से विवाह रचाना पड़ता है। बरसों बाद देवव्रत और चंदा फ़िर मिलते हैं मगर अब देखना ये है कि उनका रिश्ता कैसी और किस तरफ़ अपनी करवट बदलता है।
कहने को तो इस उपन्यास के बारे में कहने को अभी बहुत कुछ बाक़ी है मगर बेहतर यही कि बाक़ी का मज़ा पाठकों की बेहतरी के लिए जस का तस छोड़ दिया जाए।
सरल भाषा में लिखे गए इस तेज़ रफ़्तार में प्रूफरीडिंग की कुछ कमियों के अतिरिक्त दो-चार जगहों पर वर्तनी की त्रुटियाँ भी दिखाई दीं। साथ ही आवश्यकता होने पर भी बहुत सी जगहों पर नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला।
◆ पेज नंबर 125 में लिखा दिखाई दिया कि..
'ट्यूलिप आज संडे है और इस दिन तो गॉड ने भी हर काम की छुट्टी कर रखी है, फ़िर मुझे गरीब पर यह अत्याचार क्यों'
यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि छुट्टियों को गॉड यानी कि भगवान ने नहीं बल्कि हम जैसे इन्सानों द्वारा चुनी गयी सरकारों या फ़िर प्रतिष्ठानों ने छुट्टियों का दिन तय किया हुआ होता है। जो कि देश-देश या फ़िर राज्य-राज्य या फ़िर अलग-अलग प्रतिष्ठानों ने अपनी मर्ज़ी से नियत किया हुआ होता है। इनका एक जैसा होना कतई ज़रूरी नहीं है। इसलिए यह कहना कि छुट्टी का दिन गॉड तय करता है, कदापि सही नहीं है।
◆ किसी भी कहानी या उपन्यास में किसी भी पात्र की भाषा..लहज़ा उसके अभिभावकों की भाषा, माहौल, परिवेश एवं परवरिश अथवा प्रोफेशन के आधार पर तय होती है कि वह किरदार किस लहज़े या तरीके से बात करेगा। यहाँ इस उपन्यास की एक मुख्य पात्र 'ट्यूलिप' इस स्तर पर मुझे पिछड़ती हुई लगी कि कहानी के हिसाब से वह विदेशी माँ और भारतीय पिता की संतान है।
उस पिता की संतान जिसका उसे सानिध्य महज़ 3 वर्ष की उम्र तक ही मिला। उसके बाद अभिभावकों का आपस में तलाक हो जाने की वजह से वह अपनी विदेशी माँ के साथ ही रही। ऐसे में उसका एकदम भारतीय लहज़े में चंद्रगुप्त इत्यादि की उक्तियाँ कोट करना या एकदम ख़ालिस उर्दू शब्दों का प्रयोग करना बतौर लेखक एवं पाठक मुझे अजीब लगा।
यहाँ लेखिका को उसके संवाद लिखते वक्त अँग्रेज़ी/विदेशी लहज़े का ध्यान रखने के साथ-साथ उर्दू शब्दों से परहेज़ करना चाहिए था या फ़िर इसके पीछे किसी तार्किक वजह को बताना चाहिए था जैसे कि उसने विदेश में रह कर भारतीय संस्कृति एवं लहज़े की पढ़ाई इत्यादि की हुई थी।
◆ उपन्यास में दो पात्रों के नामों 'आदि' और 'अभि' अन्य भिन्न अर्थ वाले शब्दों के नामों को लेकर थोड़ा भ्रम पैदा करते हैं। 'आदि' नामक पात्र का नाम (आदि, इत्यादि) शब्दों का तथा 'अभि' नामक पात्र का नाम 'अभी' शब्द का। अतः इनके ये नाम ना हो कर कोई अन्य नाम होता तो बेहतर रहता।
इसके अतिरिक्त पेज नंबर 90 की दूसरी पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..
'पापा मल्टीनेशनल में प्रेसिडेंट हैं'
यहाँ 'मल्टीनेशनल में प्रेसिडेंट हैं' की जगह अगर 'मल्टीनेशनल कम्पनी में प्रेसिडेंट हैं' तो ज़्यादा अच्छे तरीके से क्लीयर होता।
इसके बाद पेज नंबर 91 में लिखा दिखाई दिया कि..
'उसने देखा, उनके पीछे एक बड़ी सी चट्टान पर बैठी धरा ज़ार-ज़ार रो रही थी'
यहाँ 'उसने देखा, उनके पीछे एक बड़ी सी चट्टान पर बैठी धरा ज़ार-ज़ार रो रही थी' की जगह 'उसने देखा कि उसके पीछे एक बड़ी सी चट्टान पर बैठी धरा ज़ार-ज़ार रो रही थी' आना चाहिए।
पेज नंबर 92 के अंतिम पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..
'वहाँ बीते घोर उतार-चढ़ाव भारी ट्रेनिंग ने अपने सभी ट्रेनीज़ को अपने देश की प्रशासनिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिदृश्य से परिचित कराया'
यहाँ ''वहाँ बीते घोर उतार-चढ़ाव भारी ट्रेनिंग ने' की जगह ''वहाँ बीती घोर उतार-चढ़ाव भारी ट्रेनिंग ने' आएगा। साथ ही 'अपने सभी ट्रेनीज़ को अपने देश की प्रशासनिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिदृश्य से परिचित कराया' की जगह 'सभी ट्रेनीज़ को अपने देश के प्रशासनिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिदृश्य से परिचित कराया' आएगा।
पेज नंबर 101 में लिखा दिखाई दिया कि..
'रिश्तो में छलना से व्यथित, न जाने कितनी परतों में दबा-ढका उसका असली स्वरूप बहुत कम किसी की पकड़ में आता'
यहाँ 'रिश्तो में छलना से व्यथित' की जगह 'रिश्तों में छले जाने से व्यथित' आएगा।
पेज नंबर 144 में लिखा दिखाई दिया कि..
'आई लव यू सो वेरी मच ट्यूलिप'
यहाँ 'सो' शब्द की ज़रूरत नहीं है। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
'आई लव यू वेरी मच ट्यूलिप'
* जियँ - जिएँ
* गिफ्टस् - गिफ्ट्स
* प्रेज़ेटस् - प्रेजेंट्स
* लाँ - लॉ
* प्राय - प्रायः
* होटेल - होटल
यूँ तो यह उपन्यास मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 179 पृष्ठीय इस बढ़िया उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है बोधरस प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 290/- जो कि मुझे थोड़ा ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।