लुंबिनी बाज़ार पहुँचकर राघव ने अपनी माँ, दिव्या मौसी, तारा और यश के साथ-साथ दफ़्तर के बाकी सभी लोगों के लिए उपहारस्वरूप भगवान बुद्ध की मूर्तियां और दूसरे स्मृति चिन्ह खरीदे, साथ ही उसके जिन एम्पलॉयीज़ के बच्चे थे उनके लिए उसने कुछ खिलौने भी खरीदे।
तारा के लिए जब राघव अलग से रंग-बिरंगे मोतियों की एक माला खरीद रहा था तब अचानक उसने नोटिस किया कि जानकी एकटक उसी की तरफ देख रही थी।
राघव से नज़रें मिलते ही जब जानकी ने अपनी आँखें दूसरी ओर फेर लीं तब राघव ने जल्दी से एक और माला खरीदी और उसे दूसरी चीज़ों के साथ रखने की जगह उसने उसे अपनी जेब में डाल लिया।
जानकी ने भी मार्क और लीजा के लिए उपहार लिए लेकिन अपने लिए जब उसने कुछ नहीं खरीदा तब राघव ने उससे कहा, "क्या हुआ जानकी, तुम्हें कुछ भी नहीं चाहिए?"
"नहीं।" जानकी ने बस इतना ही कहा और चुपचाप जाकर गाड़ी में बैठ गयी।
उन दोनों को रिसॉर्ट पहुँचते-पहुँचते रात के नौ बज चुके थे, इसलिए वो सीधे रेस्टोरेंट में खाना खाने के लिए चल दिये।
खाने के दौरान राघव ने जब अपने गेम की फाइनल रूपरेखा जानकी को सुनायी तो जानकी ने उत्साहित होकर कहा, "ये सुनने में ही कितना इंट्रेस्टिंग लग रहा है, स्क्रीन पर तो और भी शानदार लगेगा।"
"मैं इस गेम की पहली सीडी तुम्हें ही दूँगा क्योंकि इसे शानदार बनाने में सबसे अहम योगदान तुम्हारा होगा।" राघव ने जब कहा तो जानकी कुछ उदास होकर बोली, "लेकिन मैंने आज तक अपनी लाइफ में कभी वीडियो गेम नहीं खेला।"
"तो क्या हुआ? अब खेल लेना। मैं तुम्हें सीखा दूँगा।"
"सचमुच?"
"हाँ बाबा सचमुच। तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है?"
"बहुत विश्वास है, तभी तो मैं अकेली यहाँ तुम्हारे साथ बैठी हूँ।" जानकी ने सहजता से कहा तो राघव के होंठो पर मुस्कुराहट आ गयी।
अब आगे की प्लानिंग करते हुए जानकी ने पूछा, "तो कल सुबह हमें कितने बजे बनारस के लिए निकलना है?"
"आठ बजे तक नाश्ता करके निकल जायेंगे। ठीक है न?"
"हाँ सही है। फिर परसों तो इतवार ही है। उसके बाद सोमवार से दफ़्तर में इस गेम पर हम काम शुरू कर देंगे।"
"बिल्कुल। वैसे अगर अब तुम्हारी काम की चिंता दूर हो गयी हो तो कमरे में जाने से पहले हम थोड़ी देर गार्डन में चलें?" राघव के पूछने पर हामी भरते हुए जानकी ने कहा, "बिल्कुल। मैं भी अभी यही सोच रही थी। काश अभी फिर वो बाँसुरी बजाने वाला वहाँ बैठा हो तो कितना अच्छा होगा न।"
"तुम्हें बाँसुरी की धुन बहुत पसंद है क्या?"
"बहुत। बाँसुरी से निकली हुई स्वरलहरी जैसे मेरा सारा तनाव दूर भगा देती है।" जानकी ने मुस्कुराते हुए कहा तो राघव भी किसी तरह बस धीरे से मुस्कुरा दिया।
गार्डन में टहलने के दौरान राघव जानकी से इतिहास के कुछ और रोचक किस्से सुनता जा रहा था और जानकी किसी मंझे हुए कथाकार की तरह उसे कहानियाँ सुनाती जा रही थी।
इन कहानियों के बीच उसने अभी महादेव के नटराज स्वरूप का किस्सा छेड़ा ही था कि तभी हवा में तैरती हुई बाँसुरी की धुन उन दोनों के कानों से टकरायी।
"अरे वाह राघव, देखो ईश्वर ने मेरी इच्छा पूरी कर दी।" जानकी ने चहकते हुए राघव की तरफ देखकर कहा तो उसने पाया राघव का चेहरा जैसे इस क्षण भावहीन होता जा रहा था।
कहीं वो फिर अपने अतीत की छाया के कारण यहाँ से भाग न जाये इस ख़्याल से जानकी ने कसकर उसका हाथ थामा तो राघव ने एक पल के लिए उसकी आँखों में देखा और फिर किसी तरह उसने स्वयं को समझाया कि उसे इस धुन को नज़रंदाज़ करते हुए बस जानकी पर ध्यान देना चाहिए जिसके साथ वो इस समय ऐसी ख़ुशी, ऐसा सुकून महसूस कर रहा है जिसकी शायद उसे एक लंबे अरसे से ज़रूरत थी।
जानकी के किस्सों की पोटली एक बार फिर खुल चुकी थी और राघव छोटे बच्चे की तरह इन कहानियों का लुत्फ़ उठा रहा था।
कुछ देर के बाद जब गार्ड ने उनसे कमरे में जाने के लिए कहा, तब राघव बोला, "अब दफ़्तर में जब वर्क शेड्यूल बहुत हेक्टिक हो जायेगा तब तुम ब्रेक टाइम में मुझे कहानियाँ सुनाया करना।"
"पक्का सुनाऊँगी डोंट वरी। वैसे भी लड़कियों को हमेशा ऐसे ही शख्स की तलाश तो रहती है जिसे वो जी भरकर सुना सकें।" जानकी ने चुहल करते हुए कहा तो उसकी इस शरारत पर राघव हँस पड़ा।
कमरे में आने के बाद एक बार फिर राघव ने अपने उस हाथ को देखा जिसे थोड़ी देर पहले जानकी ने थाम लिया था।
"शायद वो समझ गयी है कि मुझे संगीत से परेशानी होती है लेकिन फिर भी वो मुझे संगीत से भागने नहीं देती।
और मैं... मैं क्यों हर बार उसका मौन आग्रह मानते हुए उसके साथ ठहर जाता हूँ? उफ़्फ़ ये कैसी उलझन है?"
राघव ने स्वयं से ही प्रश्न पूछा और फिर स्वयं ही इसका उत्तर तलाशने की कोशिश करते-करते उसकी आँख लग गयी।
जानकी भी इस समय अपने बिस्तर पर लेटे-लेटे बस राघव के विषय में ही सोच रही थी।
"राघव, आज एक बार फिर अपनी नापसंदगी के बावजूद मेरे रोकने से तुम गार्डन में रुक गये। इसका अर्थ ये है कि धीरे-धीरे तुम मुझे, अपनी वैदेही को उसके नृत्य और संगीत के साथ ज़रूर स्वीकार कर लोगे।
मुझे अब बस उसी दिन का इंतज़ार है राघव। ईश्वर करे वो पल जल्दी ही हमारी ज़िन्दगी में आये जब हमारे बीच किसी झूठ की कोई दीवार न हो।"
राघव के साथ इस ट्रिप पर बिताये गये ख़ुशनुमा पलों की याद मन में सहेजते हुए जानकी को सुकून से भरी हुई इतनी गहरी नींद आयी कि अगली सुबह जब आठ बजे तक उसने राघव को फ़ोन नहीं किया, तब राघव ने ही उसे फ़ोन किया लेकिन नींद के खुमार में डूबी हुई जानकी ने जैसे मोबाइल की घंटी ही नहीं सुनी।
जानकी का कोई उत्तर न पाकर अब राघव ने उसके कमरे की घंटी बजायी लेकिन अब भी जब उसे कोई उत्तर नहीं मिला तब उसने लगातार घंटी बजानी शुरू की।
बार-बार बजती हुई घंटी ने आख़िरकार जानकी को जगाया और उसने हड़बड़ाते हुए दरवाजा खोला तो सामने राघव को देखकर एक पल के लिए वो चौंक गयी।
जानकी की अस्त-व्यस्त हालत देखकर राघव ने घबराते हुए उससे पूछा, "तुम ठीक तो हो?"
"हाँ-हाँ बिल्कुल। तुम अंदर आओ न।" जानकी ने किनारे होते हुए कहा तो राघव बोला, "नहीं, मैं अपने कमरे में जा रहा हूँ। तुम तैयार हो जाओ तो मुझे बता देना।"
"अच्छा ठीक है। आई एम रियली वेरी सॉरी मेरी वजह से हमें काफ़ी देर हो गयी।" जानकी ने घड़ी की तरफ देखते हुए कहा तो राघव बोला, "कोई बात नहीं, अब तो अपने घर ही जाना है। वैसे अगर तुम्हें और आराम की ज़रूरत है तो हम आज भी यहाँ रुक सकते हैं।"
"नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। मैं बस अभी कुछ देर में आती हूँ।"
"ठीक है।" इतना कहकर जब राघव अपने कमरे में चला गया तब जानकी ने भी तेज़ी से तैयार होकर अपना बैग पैक किया और ठीक आधे घंटे बाद उसने राघव के कमरे की घंटी बजा दी।
"आ जाओ।" अंदर से राघव की आवाज़ आयी तो जानकी ने कमरे का दरवाजा खोला।
अंदर आने पर उसने देखा राघव ने उसके और अपने लिए यहीं नाश्ता मँगवाकर रखा था।
आज नाश्ते के दौरान राघव को चुप देखकर जब जानकी से रहा नहीं गया तब उसने कहा, "तुम किसी बात से परेशान हो क्या?"
"नहीं तो।"
"फिर कुछ बोल क्यों नहीं रहे हो?"
"क्या बोलूँ? तुम बताओ।"
"अच्छा यही बता दो रात में नींद तो अच्छी आयी न?" जानकी ने मुस्कुराते हुए कहा तो राघव बस हामी भरकर फिर चुप हो गया।
जानकी ने भी अब उसे टोकना सही नहीं समझा और ख़ामोशी से अपना नाश्ता खत्म करने के बाद उसने बस इतना ही कहा, "तो अब चलें?"
"हाँ चलो। वैसे भी एक जगह ठहरकर किसी को जीवन में शायद ही कुछ हासिल हुआ है।"
राघव के इन शब्दों का अर्थ समझने का प्रयास करती हुई जानकी जब पार्किंग में आकर गाड़ी में बैठी तब राघव ने उससे कहा, "सुनो, गोरखपुर में लंच करके जब हम वहाँ से बनारस के लिए निकलेंगे तब तुम ड्राइव करना।"
"अच्छा तो तुम इसलिए परेशान थे कि कहीं मैं पूरे दिन तुमसे ड्राइवरी न करवाऊँ?" जानकी ने अब हँसते हुए कहा तो राघव ने भी मुस्कुराते हुए मन ही मन सोचा, "काश इस समय मेरी जो मन:स्थिति है उसे मैं किसी के साथ बाँट पाता लेकिन अफ़सोस जब मैं तारा तक से कुछ नहीं कह सकता तो किसी और से क्या ही कहूँगा।
मैं कैसे किसी को बताऊँ कि आज इस ट्रिप से वापस जाने की मेरी इच्छा ही नहीं हो रही है, कि मुझे लग रहा है काश ये समय यहीं थम जाता और ये सब बस जानकी के कारण है।
अगर तारा से मैं अपनी फीलिंग्स शेयर करूँगा तो उसकी नज़रों में भी शायद मेरी इमेज प्लेबॉय की बन जायेगी।
उफ़्फ़ जो आज तक कभी मेरे साथ नहीं हुआ वो अब क्यों हो रहा है? क्यों मेरा मन इस तरह भटकने लगा है?"
"ओ हैलो मिस्टर राघव, ये गाड़ी का दरवाजा खोलकर आप कौन सी दुनिया में खो गये हैं?" जानकी के टोकने पर राघव की तंद्रा टूटी तो उसके जैसे कड़े शब्दों में स्वयं को चेतावनी दी कि उसे अपने बहक रहे मन की लगाम कसकर खींचकर उसे काबू में रखना है और अपना पूरा ध्यान सिर्फ और सिर्फ वैदेही गेमिंग वर्ल्ड के नये प्रोजेक्ट पर लगाना है।
जैसे-जैसे राघव और जानकी की गाड़ी वापस भारत के रास्ते पर बढ़ी वैसे-वैसे जानकी की सहजता ने अंततः राघव को भी सहज कर ही दिया और उसने एक बार फिर ख़ुद ही ख़ुद को समझाया कि आगे जीवन में जो होना है सो होगा ही लेकिन उसे इस सबकी चिंता करने की जगह बस अपने वर्तमान पर फोकस करना है।
और इस समय उसका वर्तमान यही है कि वो उस लड़की के साथ है जिसका साथ उसे अच्छा लगने लगा है, तो उसे इस लम्हे को बस भरपूर जीना है बिना किसी भी और बात की परवाह किये।
सुबह से राघव को खोया हुआ और परेशान देख रही जानकी ने अब जब राघव को खुलकर हँसते-मुस्कुराते और बातें करते हुए देखा तब उसके मन का एक कोना जो उदासी के बादलों से घिरने लगा था अब वहाँ उसे प्रेम के सुंदर फूल खिलते हुए महसूस होने लगे।
क्रमश: