सुमन खंडेलवाल - भाग 3 Pradeep Shrivastava द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सुमन खंडेलवाल - भाग 3

भाग -3

कुछ ही साल बीते होंगे कि मुझे उसके फ़ादर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर दिखाई दिए। मैं अपने नए-नए शुरू किए गए बिज़नेस के सिलसिले में दिल्ली गया हुआ था। जिस बोगी से प्लैटफ़ॉर्म पर मैं उतरा, उसी बोगी के पिछले दरवाज़े से वह भी उतरे। उनके साथ मध्यम क़द काठी की साँवली सी एक महिला भी थी। उन पर निगाहें पड़ते ही मैंने उन्हें पहचान लिया। 

मेरी आँखों के सामने एकदम से सुमन खंडेलवाल का चेहरा घूम गया। मैं लपक कर उनके पास पहुँचा। हाथ जोड़कर उन्हें नमस्ते की। वह एकदम हक्का-बक्का से हो गए। नमस्ते का जवाब देने के बजाय मुझे अनदेखा कर आगे बढ़ने लगे। लेकिन मेरे सामने तो सुमन खंडेलवाल का चेहरा था। मैं उन्हें ऐसे कैसे जाने देता? मैंने आगे बढ़ कर उन्हें रोक लिया। 

मैंने कहा, “अंकल जी आपने मुझे पहचाना नहीं, आप मेरे पड़ोस में रहते थे।” 

लेकिन वह कोई जवाब देने के बजाय बग़ल से होकर फिर आगे बढ़ गए। मगर मैं उन्हें किसी भी स्थिति में ऐसे जाने देने के लिए तैयार नहीं था। मेरा आश्चर्य तब और बढ़ गया जब वह औरत भी उनका हाथ पकड़कर खींचने लगी थी। 

मैं फिर से उनके एकदम सामने खड़ा हो गया और कहा, “अंकल जी आप पहचान कर भी अनजान क्यों बन रहे हैं। आपको आपका पूरा परिवार, पुलिस ढूँढ़ते-ढूँढ़ते थक गई, आप कहाँ चले गए थे? आपको मालूम है कि आपका परिवार कहाँ चला गया है?” 

लेकिन वह फिर भी कुछ नहीं बोले, फिर से आगे निकलने की कोशिश की। लेकिन मैंने ज़िद कर ली कि इन्हें बात किए बिना, सच जाने बिना जाने नहीं दूँगा। मैंने ज़्यादा कोशिश की तो उनके बजाय वह महिला मुझ पर भड़क उठी। लड़ने पर उतारू हो गई। बोली, “जब यह तुमको जानते नहीं, तो तुम क्यों इनके गले पड़े जा रहे हो। सामने से हटो, हमें जाने दो, नहीं तो मैं अभी पुलिस बुला लूँगी।” 

पुलिस का नाम सुनते ही मेरा ग़ुस्सा और बढ़ गया। मैंने कहा, “तुरंत बुलाइए, तब तो और भी अच्छा होगा। पुलिस में इनकी मिसेज ने कई साल पहले, इनके खो जाने की रिपोर्ट लिखवाई हुई है, आज यह पुलिस को मिल जाएँगे, और पुलिस इन्हें, इनके परिवार को हैंडओवर कर देगी।”

अब तक मेरा ध्यान इस ओर भी चला गया था कि अंकल न सिर्फ़ दुबले-पतले बीमार-बीमार से हैं, बल्कि अजीब तरह से खोए-खोए एबनॉर्मल से दिख रहे हैं। मेरी बात सुनते ही महिला के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। वह जल्दी से जल्दी निकलने की कोशिश करने लगी। लेकिन मैं तेज़ आवाज़ में बात करते हुए उन्हें जाने नहीं दे रहा था। 

मैंने जानबूझकर बात को इतना बढ़ाया कि लोगों की भीड़ लगने लगी, अंततः पुलिस आ गई। मैंने उन्हें सारी बातें बताईं तो वह मुझे और उन दोनों को थाने ले गए। वहाँ से तुरंत ही लखनऊ के उस थाने पर फोन किया, जहाँ उनकी गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवाई गई थी। मेरी बात सच निकलते ही पुलिस कड़ाई से पूछताछ करने लगी। मेरी तरह उसे भी मामला सन्देहास्यपद लगा था। 

पूछताछ में अंकल एकदम झूठ बोलने लगे कि “मिसेज बहुत झगड़ा करती थी, सारे बच्चे बहुत परेशान करते थे, इसलिए उन्होंने हमेशा के लिए घर छोड़ दिया और अब वह, वहाँ कभी नहीं जाएँगे।” उस महिला के बारे में भी वह कोई साफ़-साफ़ जवाब नहीं दे पा रहे थे। 

पुलिस को मामला ज़्यादा सन्देहास्यपद लगा तो उन्होंने उस महिला के बारे में सख़्ती से पूछताछ शुरू कर दी, तब वह दोनों सच बोलने लगे। महिला जो पहले अपना नाम सुगंधा बता रही थी, उसका वास्तविक नाम सकीना था। और खंडेलवाल अंकल जी उसके चंगुल में ऐसे फँसे थे कि अपने परिवार से ही हाथ नहीं धो बैठे थे, बल्कि पैंतालीस-छियालीस की उम्र में खतना भी करवा बैठे थे। 

भुवन चंद्र खंडेलवाल से मोहम्मद सुलेमान बन गए थे। यहाँ तक कि काफ़ी हद तक अपना मानसिक संतुलन भी खो बैठे थे, एक रिमोट चालित रोबोट से बन गए थे, और उनका रिमोट सकीना के हाथ में था। वह जो चाहती थी, कहती थी, वह यांत्रिक गति से वही करते थे। 

लेकिन जब थाने में पुलिस ने उन्हें विश्वास में लेकर पूछताछ शुरू की, मैंने भी उन्हें विश्वास दिलाया कि मैं आपके साथ हूँ, मैं आपको आपके परिवार के पास ले चलूँगा तो जैसे वह कुछ हद तक हिम्मत कर पाए और सारी बातें बताने लगे। उनके सच से एक बहुत बड़े ह्यूमन बॉडी ऑर्गन्स को ब्लैक वर्ल्ड में बेचने वाले ख़ूँख़ार क्रूर गैंग का भंडाफोड़ हो गया। 

ऐसा गैंग जो बाइस लोगों का एक बड़ा परिवार था। परिवार का हर सदस्य जब-तक जागता था, तब-तक शिकार की तलाश में हर तरफ़ घूमता था, हर जगह कटिया फेंके रहता था कि कोई तो शिकार फँसेगा। एकदम बुद्धिनाथ मिश्र की इस कविता की तर्ज़ पर कि ‘एक बार और जाल फेंक रे मछेरे, जाने किस मछली में बंधन की चाह हो!”

तो मछलियों-सी मासूमियत वाले लोग, भुवन चंद्र की तरह, इस दरिंदे, ख़ूनी भेड़ियों के झुण्ड से, ख़ूनी गैंग का शिकार होते रहते थे, जो खतना तो खतना, उस समय तक एक किडनी भी गँवा बैठ थे। भुवन चंद्र जी जहाँ काम करते थे, सुगंधा यानी की सकीना आए दिन वहाँ किसी न किसी काम से पहुँचती रहती थी। 

बड़ी सी बिंदी लगाए, बहुत ही ढंग से साड़ी पहने हुए। जब वह चलती थी तो उसके पायलों की छुन्न-छुन्न की आवाज़ में भुवन चंद्र तो जैसे खो जाते थे। एक बार जब सुगंधा ने उनकी आँखों से आँखें मिलते ही बड़े क़रीने से मुस्कुरा दिया तो भुवन चंद्र जी तो जैसे हवा में उड़ने लगे। 

और फिर दो-चार दिन में ही उससे बातें भी ख़ूब करने लगे, होटल में चाय नाश्ता करवाने लगे। उसे लेकर घूमने-फिरने जाने लगे। सुगंधा की एक-एक अदा पर वह मंत्र-मुग्ध से होते चले गए। सुगंधा ने हफ़्ते भर में ही उनकी हालत यह कर दी कि वह ऑफ़िस से छुट्टी ले-ले कर उसके साथ समय बिताने लगे। 

भुवन चंद्र जी को बड़ी ख़ुशी महसूस हुई थी जब सुगंधा ने बताया था कि उसकी शादी हो कर भी, नहीं हुई है। इस बड़ी अजीब सी बात पर उन्होंने उससे पूछा था, ‘यह तुम क्या कर रही हो, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। शादी होकर भी शादी नहीं हुई है, क्या मतलब है इस बात का?’

तो वह सुबकने लगी थी, आँखों से बारिश की बूँदों की तरह आँसू टपकने लगे थे। भुवन चंद्र ने उसके आँसू पोंछते हुए कहा, ‘तुम तो रो रही हो, ऐसी भी क्या बात है, बताओ ना, मुझ से जो भी हो सकेगा, वह मैं तुम्हारे लिए करूँगा।’ उन्होंने अपनी रुमाल से उसके आँसू पोंछते हुए कहा, तो उसने एक लंबी-चौड़ी बहुत भावुक कर देने वाली कहानी उन्हें सुनाई कि वरमाला की रस्म पूरी हो जाने के बाद दहेज़ के लिए झगड़ा हो गया और बड़ी मारपीट के बाद बारात लौट गई, उसकी शादी नहीं हो पाई। 

बाद में घर में माँ-बाप, भाई-बहन सब इसके लिए उसको ही कोसने लगे कि ‘यह इतनी कुलक्षणी न होती तो दरवाज़े पर आई बारात वरमाला के बाद वापस न जाती, दुनिया में उनकी ऐसी बेइज़्ज़ती न होती।’ उठते-बैठते, खाते-पीते सभी उसको ताना मारते थे, इसीलिए आख़िर उसने ऊब कर घर छोड़ दिया। 

उसके बाद से दर-दर की ठोकरें खाती फिर रही है। कभी कहीं, तो कभी कहीं, छोटी-मोटी नौकरी करती, धक्के खाती जी रही है, हर जगह उसे हेल्प करने के नाम पर लोगों ने बार-बार नोचने-खसोटने की ही कोशिश की है। बस ऐसे ही देखते-देखते इतने साल निकल गए। मैंने तो सोचा था कि बस ऐसे ही जल्दी ही ज़िन्दगी ख़त्म हो जाएगी, लेकिन तुम मिल गए, तो लगा नहीं अभी तो ज़िन्दगी और जीनी चाहिए।’

उसकी बहुत ही ज़्यादा भावुक कर देने वाली बातों में भुवन चंद्र जी खोते ही चले गए, इतना खोए कि अपनी पत्नी, बच्चे घर सब भूल गए। और फिर कई रातें अपनी पत्नी बच्चों को छोड़कर उसके घर पर बिताने लगे। ऐसी ही एक रात को वह उसके साथ व्यस्त थे कि तभी उन्हें कमरे में दो और लोग दिखाई दिए, जो लगातार उनकी वीडियो रिकॉर्डिंग कर रहे थे। 

झटके से उठ कर वह अपने कपड़े की तरफ़ बढ़े तो कपड़े अपनी जगह से ग़ायब थे। वह ग़ुस्से में उन लोगों की तरफ़ झपटे, लेकिन उनमें से एक ने तुरंत तमंचा उनकी तरफ़ तान दिया। वह हक्का-बक्का हो गए कि यह सब क्या हो रहा है। उन्होंने अपने कपड़े माँगे तो बदले में गालियाँ, लात-घूँसे मिले। 

जबकि सुगंधा के कपड़े उसके पास थे, उसने तुरंत पहन लिए। उन्होंने सुगंधा से पूछा, ‘यह सब क्या है?’ तो वह बड़ी निश्चिंतता के साथ बोली, ‘मैं नहीं जानती, मुझे कुछ नहीं पता यह लोग कौन हैं।’ लेकिन उसके हाव-भाव से भुवन चंद्र जी समझ गए कि दाल में कुछ नहीं, बल्कि पूरी दाल ही काली है।