सुमन खंडेलवाल - भाग 1 Pradeep Shrivastava द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सुमन खंडेलवाल - भाग 1

भाग -1

प्रदीप श्रीवास्तव

उस सुनसान और दुनिया के लिए डरावने, भूत-प्रेतों से भरे मनहूस रास्ते पर निकलना मुझे किसी शांत सुन्दर उपवन में टहलने जैसा लगता था। शहर में बहने वाले एक गंदे नाले के तट-बंध पर बनी रोड तब बहुत टूटी-फूटी जर्जर हालत में थी। एक तरफ़ पंद्रह-बीस फ़ीट गहरा गंदा नाला, जिसकी धारा किनारे से काफ़ी दूर बीच में है, सिल्ट से पटी हुई। तो दूसरी तरफ़ पंद्रह-बीस फ़ीट गहरे खड्ड हैं। दिन में भी लोग उधर से निकलने में कतराते थे, अँधेरा होने के बाद तो कोई भी विवशतावश ही निकलता था। 

अँधेरा होते ही झाड़-झंखाड़ों में जो होता है, वही वहाँ भी होता था। कीड़ों-मकोड़ों, झींगुरों की आवाज़ें आती थीं। लेकिन मैं अपनी डिज़ायनर जीप लेकर उस उबड़-खाबड़ क़रीब पाँच किलोमीटर लंबे रास्ते पर देर शाम को ज़रूर निकलता था। शाम के पाँच बजते ही मुझे लगता कि जैसे वह रास्ता मुझे अपनी तरफ़ खींच रहा है। अन्धेरा होते ही यह खिंचाव इतना हो जाता था कि मैं सारा काम-धाम भूल जाता था। 

मुझे और कुछ भी याद नहीं रहता था सिवाय वहाँ जाने के। लुटती है मेरी दुनिया तो लुट जाए, मुझे इसकी भी परवाह नहीं रहती थी। अपना मोटर वर्कशॉप कर्मचारियों के हवाले कर अन्धेरा होते ही निकल देता था, दुनिया के लिए उस अभिशप्त रास्ते पर। 

वास्तव में उसके अभिशप्त, कुख्यात होने के एक नहीं कई कारण थे। मुख्य था कि वह गुंडे माफ़ियाओं की पसंदीदा जगह थी, लोगों की हत्या करने, या लोगों की लाशों को ठिकाने लगाने की। ऐसा कोई महीना नहीं बीतता था, जब वहाँ किसी झाड़ी या रोड के दूसरी तरफ़ नाले में किसी का शव न मिलता हो। 

यह सारे शव बहुत बुरी हालत में ही मिलते थे। क्योंकि उनके बारे में पता तभी चलता था, जब दिन में लोग उधर से निकलते और उनकी नाक सड़ी हुई लाश की भयानक बदबू से फटने लगती थी। सड़ने से विकृत हो जाने के कारण वहाँ मिलने वाली किसी भी डेड-बॉडी की कभी भी आसानी से पहचान नहीं हो पाती थी। 

मगर यही अभिशप्त रोड शाम होते-होते मुझे अपनी तरफ़ खींचने लगती थी। यह इतनी ख़राब थी कि मुझे फ़ोर व्हील ड्राइव जीप भी दस-पंद्रह से ज़्यादा स्पीड में लेकर चल पाने में मुश्किल होती थी। इंच भर भी स्टेयरिंग इधर-उधर गड़बड़ हुई नहीं कि गाड़ी या तो गंदे नाले में या फिर दूसरी तरफ़ झाड़-झंखाड़ों, कीड़ों मकोड़ों से भरे पंद्रह-बीस फ़ीट गहरे खड्ड में। 

इसी अभिशप्त रास्ते पर सीधे पाँच किलोमीटर आगे जाने के बाद एक अच्छी सड़क दाहिनी तरफ़ जाती है। जो आगे जाकर एक कॉलोनी को चली गई है। मैं अभिशप्त रास्ते को पार कर उस कालोनी में बनी एक मार्केट में जाता था। वहीं एक साफ़-सुथरा रेस्ट्राँ है। वहाँ रुक कर चाय और दो समोसे लेकर जीप में ही बैठ कर खाता-पीता था। 

उसके समोसे मुझे इसलिए बहुत अच्छे लगते हैं, क्योंकि वह समोसे में आलू के छोटे-छोटे पीस काट कर डालता है, उन्हें कुचलता (मैश) नहीं। उसमें जो मसाला डालता है, वह बहुत टेस्टी होता है। उसकी चटनी भी एकदम अलग तरह की होती है, उत्तराखंड के पहाड़ों पर बनने वाली भाँग के बीज और नीबू की। कई और चीज़ों के साथ बनी इस चटनी के साथ समोसा एक अनूठे स्वाद का मज़ा देता है। चाय तो ख़ैर वह बहुत अच्छी देता ही है। 

मैं क़रीब आधे घंटे तक वहाँ चाय समोसे का आनंद लेने के बाद, फिर वापस दुनिया के लिए भयावह रास्ते की तरफ़ निकलता था। तब-तक अँधेरा घना हो चुका होता था। गाड़ी की हेड-लाइट हर तरफ़ अजीब सी मनहूसियत भरे सन्नाटे का साम्राज्य दिखलाती हुई चलती थी। जिसे मैं मंत्र-मुग्ध सा देखता चलता रहता था। 

 जब वापस वर्कशॉप पहुँच जाता तो यह बात भी दिमाग़ में ज़रूर आती कि आख़िर मैं उधर जाता ही क्यों हूँ? शाम होते-होते मुझे क्या हो जाता है? और इससे बड़ी बात यह कि नाले और आए दिन सड़ी-गली लाशों की चारों तरफ़ फैली बदबू, वहाँ लोगों द्वारा बार-बार भूत-प्रेत देखे जाने की बातें भी, मुझे विचलित करने के बजाए उधर ही क्यों खींचती हैं? इन सबसे ज़्यादा बड़ी और रहस्यमयी बात यह कि इन सबके विपरीत मुझे ऐसा क्यों महसूस होता है कि मैं किसी शांत उपवन में टहल रहा हूँ। 

जब सोता तो कई बार सपने में भी मैं अपने को वहीं पैदल ही चहल-क़दमी करते हुए पाता। कई बार यह भी देखता कि वहाँ एक दुबली-पतली लंबी सी औरत मेरे आगे-आगे चल रही है। मैं तेज़ी से चलकर उसके पास पहुँचता हूँ कि उससे कुछ बातें करूँ, पूछूँ कि वह ऐसे बियाबान में अकेले ही क्यों घूमती है? क्या उसे डर नहीं लगता? क्या उसे अपनी जान, अपनी इज़्ज़त की चिंता नहीं है? क्या उसे मालूम नहीं है कि यहाँ दिन में ही शोहदे महिलाओं की इज़्ज़त पर हमला कर देते हैं। 

उसे रोकने के लिए मैं आवाज़ देता हूँ ‘इस्क्यूज़-मी’, वह मेरी तरफ़ घूमती है, मैं देखता क्या हूँ कि साड़ी ही साड़ी है, कोई शरीर नहीं। और मेरे पलक झपकते ही वह साड़ी सड़क पर ऐसे नीचे गिरी, जैसे किसी दीवार में लगी कील पर टँगी हुई थी, और कील अचानक ही दीवार से निकल गई। 

लेकिन अन्य लोगों की तरह मैं डरता घबराता नहीं हूँ, तीव्र उत्सुकता के साथ वह साड़ी देखने लगता हूँ, जो सड़क पर गिरी थी, लेकिन देखते ही देखते वह भी ग़ायब हो जाती है। फिर तुरंत ही हरसिंगार के फूलों की तेज ख़ुश्बू मेरे नथुनों में भर जाती है। मैं जब-तक कुछ समझूँ तब-तक मेरी नींद खुल जाती है। 

जल्दी ही यह रात में दो-दो, तीन-तीन बार होने लगा। नींद खुलते ही मैं उठ कर बैठ जाता। पूरी रात सो नहीं पाता। एक दिन सपने में ही कुछ बोल रहा था कि बग़ल में सो रही पत्नी जाग गई। मेरी भी नींद खुल गई थी। उस दिन मैंने उसे सारी बात बताई तो वह किसी बाबा के पास चलने के लिए कहने लगी, मैंने कहा कि मुझसे यह सब नहीं होगा। 

रात में नींद ख़राब होने से दिन-भर वर्कशॉप पर मुझे नींद आती रहती। आलस्य, थकान के कारण कोई काम ठीक से कर नहीं पाता। लेकिन बड़े ही रहस्य्मयी ढंग से शाम होते-होते सारी नींद थकान, आलस्य दूर हो जाता। लगता जैसे मैं छह-सात घंटे की अच्छी नींद ले कर उठा हूँ, बिल्कुल तरोताज़ा हूँ और मेरा वह सुन्दर शांत उपवन मुझे अपनी तरफ़ खींच रहा है। 

अन्धेरा होते ही मैं और मेरी जीप उसी डरावने अँधेरे में, बिल्कुल मस्ती में रेंगते हुए, चल कर उसी कॉलोनी की चाय वाली दुकान पर पहुँच जाते। फिर वही समोसा, भाँग की चटनी, चाय थोड़ा सा समय बिताना और जीप फिर से रेंगती हुई वापस चल देती। लगता जैसे वह अपने आप ही चल रही है। इस रहस्य्मयी स्थिति, समय को जीते हुए देखते देखते कई महीने बीत गए। 

वसंत के दिनों में शुरू हुई यह आवाज़ाही बरसात के मौसम तक पहुँच गई। अब मैं प्रतीक्षा करता था अन्धेरा होने का। मौसम की जब पहली बारिश हुई तो दिन था। उसी समय मेरे दिमाग़ में आया कि मैं जब अँधेरे में गाड़ी लेकर निकलूँ तो धीरे-धीरे बारिश होती रहे, और मैं गाड़ी का वायपर चलाता हुआ, बिलकुल पैदल चाल से एक घंटे में उस दुकान पर पहुँचूँ। मगर हो क्या रहा था कि या तो बारिश ख़ूब तेज़ मिलती, या फिर घने बादल। जैसा मैं चाह रहा था वैसा कुछ भी नहीं। 

एक दिन जब वर्कशॉप से निकला तो घने बादल छाए हुए थे, हवा तेज़ चल रही थी, लग रहा था कि बस बारिश शुरू हो जाएगी। सोचा थोड़ी प्रतीक्षा कर लूँ, जब बारिश शुरू हो तब चलूँ। मगर मैं प्रतीक्षा करता रहा, हवा तेज़ होती रही और धीरे-धीरे बादल हल्के होते चले गए। जैसे-जैसे बादल हल्के हो रहे थे, वैसे-वैसे मेरा दिल बैठता जा रहा था। 

मेरी सारी आशाओं पर बादल बिना बरसे ही पानी डालते जा रहे थे। इस महत्वहीन घटना पर भी मुझे ऐसा महसूस हो रहा था, जैसे कोई मेरे जीवन भर की कमाई, मुझसे छीने जा रहा है, और मैं विवश कुछ नहीं कर पा रहा हूँ। थोड़ी ही देर में आसमान में छुट-पुट बादल आवारा गुंडों से टहलने लगे। 

मेरा मन टूट गया। मैं वापस कुर्सी पर बैठ गया। मैंने लड़के से चाय लाने को कहा। वर्कशॉप पर मैं चाय बाहर से नहीं मँगवाता। गैस चूल्हा, चाय वग़ैरह की सारी व्यवस्था वर्कशॉप पर ही करवाई हुई है। स्टॉफ़ को मेरा आदेश है कि मैं जब भी चाय माँगूँगा तो पूरे स्टॉफ़ को चाय दी जाएगी। कुल मिलाकर पैंतीस-छत्तीस लोगों का स्टॉफ़ है। एक साथ इतनी चाय बनने में थोड़ा समय लगता है। जब वह कप में चाय लेकर आया तभी मुझे महसूस होने लगा कि जैसे कोई मुझे मेरी गाड़ी की ओर धकेल रहा है। 

मैंने लड़के से चाय लेकर एक घूँट पिया। मैं समझ नहीं पा रहा था कि मुझे कौन गाड़ी की तरफ़ धकेल रहा है। मुझे बराबर ऐसा महसूस हो रहा था कि गाड़ी धीरे-धीरे पीछे मेरी तरफ़ चली आ रही है, वो एकदम मेरे क़रीब आ गई है, मैंने चाय छोड़ दी। अचानक मेरे क़दम गाड़ी की तरफ़ बढ़े, और मैंने ख़ुद को ड्राइविंग सीट पर बैठा पाया।