बड़ी माँ - भाग 3 Kishore Sharma Saraswat द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बड़ी माँ - भाग 3

3

 

अपनी आँखों के तारे को, जिसे वह एक पल भी अपनी नज़रों से दूर नहीं होने देती थी, खोकर कौशल्या पागलों की तरह व्यवहार करने लगी थी। उसने अपने सिर के बाल नोच-नोचकर अपना बहुत बुरा हाल कर लिया था। वह शुष्क नज़रों से इधर-उधर देखती और कभी नीचे बैठकर जमीन पर जोर-जोर से अपने हाथ मारने लगती, जिसके कारण उसके हाथों से खून निकलने लगा था। लाला दीवान चन्द जी बेबस थे। उधर जिगर का टुकड़ा चला गया था और इधर पत्नी का दुःख देखना उनके बस से बाहर हो चला था। थोड़़ी हिम्मत करके पत्नी को संभालने लगे तो उनके सीने पर ही उसने जोर-जोर से मुक्के मारने शुरू कर दिए। हँसता खेलता परिवार पलक झपकते ही बिखर चुका था। बड़ी मुश्किल से कौशल्या को ढांढस बंधाया गया कि आदमी बच्चे की तलाश में निकल चुके हैं और अगर परमात्मा की कृपा हुई तो वह जिंदा मिल भी सकता है। तब कहीं जाकर कौशल्या थोड़ी शाँत हुई और हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगीः

       ‘हे भगवान! मेरे बच्चे की रक्षा करना। मेरी गोद तो पहले भी सूनी थी और अब भी सूनी हो गई है। वो तुम्हारी अमानत बनकर मेरे पास आया था। मैंने उसमें हरदम तुम्हारा ही रूप देखा है। उसे यूँ चुराकर मत ले जाओ। वो यहाँ भी तुम्हारे पास ही था और अगर आप ने मेरे साथ उसका सम्बन्ध इतना ही रखा था तो मुझे भी अपने पास बुला लो। मैं अपने बच्चे के बिना अब एक पल भी जिंदा नहीं रहना चाहती।‘

       उसकी करूणामय चीत्कार सुनकर लाला दीवान चन्द जी का हौसला भी पस्त होने लगा था। वह मुँह मोड़़कर रोने लगे। ऐसे भयावह वातावरण में एक-एक पल बीताना पहाड़ की तरह मुश्किल हो रहा था। वह भयानक रात सभी ने बैठकर गुजारी। किसी ने भी अन्न का एक दाना तक नहीं लिया और भूखे पेट बच्चे की सलामती की दुआ करते रहे। टार्च की रोशनी में रात को बच्चे को ढूँढने की कोशिश की गई, परन्तु उसका कोई सुराग नहीं लगा। अतः वे लोग आधी रात के लगभग वापस डाक बंगला आ गए। कौशल्या ने अपनी पत्थराई आँखों से उनकी ओर प्रश्नात्मक दृष्टि से देखा और कोई उत्तर न पाकर बेहोशी की हालत में जमीन पर गिर गई। दो जवान लड़कों ने बड़ी मुश्किल से उसके दाँतों की जकड़न को खोला और थोड़ा सा पानी उसके सूखे मुँह मे डाला। सुबह तक काफी चीत्कार, कभी समझाना बुझाना और कभी भगवान से दुआ का सिलसिला चलता रहा। सुबह थोड़ी रोशनी होते ही महकमे के कुछ कर्मचारी दोबारा नदी के किनारे-किनारे होते हुए आठ-दस मील तक गए, परन्तु बच्चे का कोई अता-पता नहीं चला। आखिर दोपहर बाद तक वे वापस लौट आए।

       इस विनाशलीला की सूचना उच्च अधिकारियों तक पहुँच चुकी थी। काफी विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया गया कि सभी कर्मचारियों व अधिकारियों को वहाँ से हटाकर मंडल कार्यालय लाया जाए। इसलिए दोपहर पश्चात् कुछ गाड़ियों का इंतजाम करके वे डाक बंगले की ओर रवाना कर दी गई। शाम को अंधेरा होने से पहले सामान व परिवार सहित सभी को वहाँ से हटा लिया गया।

       राजगढ़ पहुँचकर भी लाला दीवान चन्द जी की परेशानी खत्म नहीं हुई थी। एक ओर बच्चे के खो जाने का गम और दूसरी ओर पत्नी का दुःख उन्हें अंदर ही अंदर खाये जा रहा था। वह इसे परमात्मा की होनी मानकर भूल जाना चाहते थे। परन्तु वहाँ की यादें कौशल्या को तिल-तिल करके तड़़फा रही थीं। वह सब कुछ छोड़कर वहाँ से भाग जाना चाहती थी। आखिर लाला दीवान चन्द जी ने निर्णय ले ही लिया। कौशल्या को अपने पास बुलाकर कहने लगेः

       ‘कौशल्या, मैं अब पूरी तरह से टूट चुका हूँ। मेरे से तुम्हारा रोज-रोज का दुःख सहन नहीं होता। मैं यह नौकरी छोड़कर कहीं दूर चला जाना चाहता हूँ, जहाँ पर यहाँ से जुड़ी यादें तो क्या यहाँ का परिंदा तक नज़र न आए। मेरा निर्णय अब केवल तुम्हारी हाँ या ना पर टिका हुआ है। कौशल्या तब तो तुम खुश रहोगी न?’

       लाला जी की इस बात का कौशल्या ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसकी आँखों से मोटे-मोटे आँसू निकलकर उसके मूक चेहरे पर न कही गई व्यथा को उजागर करने के लिए काफी थे। लाला जी की शक्ति भी जवाब दे चुकी थी। उनके होंठ काँपने लगे थे। कौशल्या का उत्तर न पाकर थर्राई आवाज में फिर पूछने लगेः

       ‘कौशल्या, भगवान के लिए मेरा साथ दो। एक तुम ही तो मेरा सहारा हो। तुम भी अगर इस प्रकार मेरे से दूर होती जाओगी तो मैं कैसे जी पाऊँगा? कौशल्या अब मेरे में बोलने की शक्ति नहीं रही है। मैं इस शक्ति को कायम रखना चाहता हूँ, ताकि हम दोनों बाकी की जिंदगी जी सकें और यह तभी होगा जब तुम मेरा साथ दोगी। कौशल्या, हम लाख चाहकर भी उस महान ईश्वर द्वारा लिखे गए लेख को नहीं बदल सकते और न ही मिटा सकते हैं। हमें उनके अनुसार चलना होगा। कौशल्या, हमें साथ-साथ जीना होगा एक दूसरे का सहारा बनकर। हम में से अगर एक भी जिंदगी की दौड़ में थक जाता है तो दूसरे को उसकी लाठी बनकर सहारा देना होगा। कौशल्या, बोलो मेरा साथ दोगी?’

       पति की करूणामय आवाज सुनकर कौशल्या द्रवित हो उठी।  आज तक जो दूसरों का सहारा लेकर अपने निर्जीव शरीर को ढोये जा रही थी, पति को सहारा देने के लिए उठी। पति के पास बैठकर उसने अपना सिर उनके सीने पर रख दिया और दोनों बाहें गले में डालकर उनके दुःखी मन को सहारा देने लगी। लाला जी अपने हाथों से उसे सहलाते हुए बोलेः

‘कौशल्या, बताओ सहमत हो तुम मेरे फैसले से?’

       ‘कौशल्या में जुबान हिलाने की शक्ति नहीं रही थी। उसने सहमति स्वरूप अपनी गर्दन हिला दी। आज दोनों एक दूसरे का सहारा पाकर कुछ समय के लिए अपने दुःख-दर्द को भूल चुके थे। जिस मिलन से उन्हें आज एक लम्बे समय बाद सुख की अनुभूति हुई थी, उसे वह जल्दी खोना नहीं चाहते थे। शायद उनका प्रेम ही उनके जीने की प्रेरणा बन चुका था।

       सुबह लाला दीवान चन्द जी अपने नियमित समय से एक घंटा पहले नींद से उठ गए। नहा-धोकर भगवान का नाम लिया और फिर काग़ज पैन लेकर बैठ गए। अपनी नौकरी के त्याग-पत्र का तीन महीने का नोटिस लिखा और फिर काग़ज को मोड़कर अपने कमीज की जेब में डाल लिया। खाना खाकर ऑफिस पहुँचे और अपने काम को निपटाने लगे। काम से थोड़ी राहत मिली तो सामने टंगी दीवार घड़ी पर नज़र पड़ी। सुबह के ग्यारह बज चुके थे। चुपचाप उठे और वन मण्डल अधिकारी के कमरे में पहुँच गए। उन्हें नमस्कार किया और फिर सामने वाली कुर्सी पर बैठ गए। अपने आगे रखी फाइल को निपटाकर साहब ने लाला जी की ओर प्रश्नात्मक दृष्टि से देखा और पूछने लगेः

‘क्या बात है दीवान चन्द जी? कैसे अए हो?’

‘सर, यह मेरा तीन महीनें का नोटिस है। इसे स्वीकृति हेतु  मुख्यालय को भेजने की कृपा करें।’ लाला दीवान चन्द जी अपनी जेब से निकाला हुआ काग़ज उन्हें पकड़ाते हुए बोले। काग़ज पकड़कर उन्होंने उसे पढ़ा और फिर लाला दीवान चन्द जी की ओर देखते हुए बोलेः

       ‘दीवान चन्द जी, यह क्या? क्या परेशानी है तुम्हें? मुझे बताओ। एकदम ऐसा निर्णय लेने का विचार क्यों और कैसे आया तुम्हें। जहाँ तक मुझे पता है, तुम्हारी मेहनत और ईमानदारी की शौहरत पूरे विभाग में है और सभी अधिकारी और कर्मचारी तुम्हारी बहुत इज्जत करते हैं। मैं नहीं समझता कि इस्तीफा देने का कोई कारण हो सकता है? एक बार बैठकर ठंडे मन से सोच लो, उसके बाद ही कोई निर्णय लेना।’

       यह कहते हुए वह प्रार्थना-पत्र वापस लाला दीवान चन्द जी को पकड़ाने लगे। लाला जी ने पत्र पकड़ने की अपेक्षा अपने दोनों हाथ जोड़ दिए और कहने लगेः

       ‘नहीं सर, अब इसे वापस नहीं लूँगा। मैंने यह निर्णय बहुत सोच विचार करने के बाद ही लिया है। हम पति-पत्नी दोनों ने यह फैसला किया है कि अब यहाँ पर नहीं रहेंगे। एक ऐसी जगह चले जाएंगे जहाँ पर यहाँ सें जुड़ी यादें हमें सपनों में भी याद न आएं। कौशल्या के दुःख को भुलाने का अब यही एक उपाय शेष बचा है मेरे पास। सर, मेरी यही प्रार्थना है कि आप जल्दी से जल्दी इसे मुख्यालय को स्वीकृति हेतु भेज दें।’

       उठकर, नमस्कार करने के पश्चात् ज्योंही लाला जी चलने लगे, साहब ने कागज एक तरफ रख दिया और बोलेः

‘लाला जी, बैठो। चाय लेंगे आप?’

‘सर ऐसी तो कोई इच्छा नहीं है।’ वह बैठते हुए बोले।

साहब ने सेवादार को बुलाया और दो कप चाय लाने के लिए कहा। चाय पीते-पीते बातों का सिलसिला भी जारी रहा। वह पूछने लगेः

       ‘दीवान चन्द जी, मान लिया तुम नौकरी छोड़कर यहाँ से चले भी गए, तब भी सारा समय खाली तो बैठा नहीं जा सकता, कुछ न कुछ काम तो करना ही पड़ेगा। रुपया-पैसा तो आनी-जानी चीज है, अगर कोई काम-धंधा न करो तो बड़ी से बड़ी रकम भी कुछ दिनों में खत्म हो जाती है। और वैसे भी यूँ ही हाथ पर हाथ धरकर वक्त काटना मुश्किल हो जाता है। मेरी मानों तो अब भी अपने फैसले पर पुनर्विचार कर लो। मैं तुम्हारे प्रर्थना-पत्र को अभी एक-दो दिन रोक कर रख लेता हूँ, तुम सोचकर मुझे बता देना। हूँ, ठीक है न?’

       यह कहते हुए उन्होंने प्रार्थना-पत्र उठाकर अपनी मेज की दराज में रख दिया। परन्तु लाला दीवान चन्द जी के चेहरे पर किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया के भाव नहीं आए। वह बोलेः

‘सर, मेरा यह अंतिम फैसला है।’

‘ठीक है, जैसी तुम्हारी इच्छा।’ उन्होंने जवाब दिया।

       लाला दीवान चन्द जी चाय पीने के बाद अपने कमरे में वापस आ गए। परन्तु उनके आग्रह करने के पश्चात् भी साहब ने उनका त्याग-पत्र का प्रार्थना-पत्र कार्यवाही हेतु नीचे मार्क नहीं किया और यह सोचकर कि शायद एक-दो दिन में लाला जी का विचार बदल जाए, उसे अपने पास ही रख लिया। लाला दीवान चन्द जी के त्याग-पत्र की बात पूरे मण्डल कार्यालय में आग की तरह फैल चुकी थी। लाला जी हर एक छोटे-बड़े के हरमन प्यारे थे, इसलिए त्याग-पत्र वापस लेने के लिए उन पर चारों ओर से भारी दबाव पड़ा। परन्तु वह तो अपना मन बना चुके थे। आखिरकार उनके त्याग-पत्र का प्रार्थना-पत्र मुख्यालय को भेजना ही पड़ा। तीन महीने का समय किसी तरह बीत गया। उनके पैंसन व अन्य लाभों के फार्म भरवाकर कार्यालय द्वारा व्यक्तिगत स्तर पर उनके शीघ्र निपटान हेतु प्रयास किए गए। कार्यालय से उनकी विदाई का दिन था। उनके साथ घटित त्रासदी को देखते हुए केवल सादी पार्टी का ही आयोजन किया गया। एक पुराने अधिकारी, जो अब मुख्यालय स्तर पर एक उच्च अधिकारी बन चुके थे, विशेष तौर पर पार्टी में शरीक होने के लिए आए थे। लाला दीवान चन्द जी के बहुत प्रशंसक थे। पूछने लगेः

       ‘दीवान चन्द जी, बुढ़ापा आने में अभी बहुत समय है। क्या सोचा है आगे के लिए? समय गुजारना बहुत मुश्किल होता है। मेरी सहायता की अगर कोई जरूरत हो तो निःसंकोच मुझे बता दो।  जितना, मेरे वश में होगा में जरूर करूँगा।’

       ‘सर, आपकी बहुत मेहरबानी है। मैं तो आपके साथ गुजारे वक्त को कभी भी भूल नहीं सकता। आगे भी जरूरत पड़ने पर आपको कष्ट देता रहूँगा। बाकी सर, जिंदा रहने के लिए कुछ न कुछ काम तो करना ही पड़ेगा। पढ़ते वक्त मेरी तमन्ना शिक्षक बनने की थी और इसीलिए मैंने बी ए़. बी. टी. की थी। परन्तु शिक्षक बनने की बजाय बन गया वनों का रक्षक। अब शायद भगवान मुझे शिक्षक ही बनाना चाहता है। काफी निजी स्कूल हैं, कहीं न कहीं कोई छोटी-मोटी टीचर की नौकरी मिल ही जाएगी। दो जान हैं, गुजारा हो ही जाएगा।’ लाला जी ने उतर दिया।

‘कहाँ जाकर रहने का विचार है?’ वह बोले।

       ‘सर, कौशल्या की एक मौसी अम्बाला शहर में रहती है। दिल की बड़ी धनी है। कौशल्या को अपनी सगी बेटी समान मानती है। पीछे यहाँ पर आई थी तो बड़ा जोर देकर कह रही थी कि यहाँ सब कुछ छोड़कर उसके पास अम्बाला आ जाओ। जगह की कोई तंगी नहीं हैं, मुझ से कौशल्या का दुःख देखा नहीं जाता। वहाँ रह कर कुछ दिनों में बच्चे से जुड़ी यादें भूल जाएगी। कौशल्या का भी यही विचार है।’ लाला दीवान चन्द जी ने बताया। 

       ‘ठीक है, यह तो और भी अच्छी बात है। वहाँ पर मि0 टंडन मेरे एक पुराने मित्र हैं। सीनियर सैकण्डरी स्कूल में प्रधानाचार्य हैं। तुम्हें उनके नाम एक चिट्ठी लिखकर दे देता हूँ। उनसे मिल लेना। वह जितना होगा तुम्हारी मद्द जरूर करेंगे। उन्होंने मि0 टंडन के नाम एक पत्र लिखकर लाला दीवान चन्द जी को दे दिया।