द्वारावती - 34 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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द्वारावती - 34


34


घर से जब गुल निकली तो रात्रि का अंतिम प्रहर अपने अंतकाल में था।
“इतने अंधकार में कहाँ जा रही हो? प्रतिदिन जिस समय तुम समुद्र तट पर जाती हो वह समय आने में अभी समय है।” गुल के पिता ने गुल को रोका।
“जी, लौटकर बताऊँगी।” गुल के चरण अधीर थे। वह दौड़ गई। समुद्र के तट पर आ गई।
समुद्र को अंधकार में निहारती, नीरवता में समुद्र को सुनती वह भड़केश्वर मंदिर की तरफ गति करने लगी। समुद्र की ध्वनि में एक लयबध्ध संगीत था। उस लय में वह मग्न थी। कुछ क्षण पश्चात वह लय खंडित हो गया।
‘यह ध्वनि समुद्र की लय से भिन्न है। कैसी है यह ध्वनि?’ गुल ने अपनी गति रोक ली। उसने ध्वनि के उद्गम को खोज लिया, उस पर ध्यान केन्द्रित करने लगी।
‘उस बिन्दु पर कुछ गतिमान है जो समुद्र की इस लय को भंग कर रहा है। कोई आकृति है वहाँ पर। क्या हो सकता है, इस समय? कोई जीव? कोई वस्तु? कोई नौका? इतने अंधकार में कुछ भी स्पष्ट नहीं हो रहा है। मैं क्या करूँ? रुक जाऊं? प्रकाश होने तक प्रतीक्षा करूँ? नहीं... नहीं। जिस कार्य हेतु मैं घर से चली हूँ मुझे उसे पूर्ण करना होगा। मुझे यहाँ रुकना नहीं है। मैं चलती हूँ।’
वह चली। कुछ दूरी पर पुन: रुक गई। वह उस उद्गम बिन्दु के समीप थी। उसने उसे ध्यान से देखा।
‘यह तो मानव आकृति है। कोई व्यक्ति समुद्र में स्नान कर रहा है। कौन होगा इस समय?’ गुल के मन में अनेक विचार, अनेक तर्क, अनेक प्रश्न, अनेक उत्तर जन्मे तथा मृत भी हो गए। वह कोई निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाई। इसी अवस्था में उसने उस बिन्दु को वहीं छोड़ दिया, मंदिर की तरफ चल पड़ी। पानी पार किया, मंदिर में आ गई।
उस समय मंदिर में कोई नहीं था। वह मंदिर के भीतर गई, शिवलिंग के समीप गई, हाथ जोड़े और बोली, “हे शिव शंकर, हे महादेव, मेरा वंदन स्वीकार करो। आज मैं आप को समर्पित चावल के सभी दाने आपसे मांग रही हूँ। मैं इसे ले जाती हूँ। मुझे इसकी अनुमति दें। मेरा यह अपराध क्षमा करें।” गुल ने नतमस्तक वंदन किया। शिवलिंग के समीप पड़े चावल के सभी दाने लेकर प्रांगण में आ गई। सभी दाने वहीं पर बिखेर दिये।
“अब मुझे प्रतीक्षा के उपरांत कोई काम नहीं है।”
गुल प्रांगण के एक कोने में चली गई। भीत के सहारे खड़ी हो गई। मन के सभी विचारों को शांत करने लगी, विराम देने लगी। वह उस वर्तमान की क्षण में लौट गई। वह क्षण अनुपम था। उस क्षण में एक अकथ्य- अकल्पय अनुभूति थी ऐसा वह अनुभव कर रही थी।
उसने समग्र दिशाओं में दृष्टि डाली। उसे कुछ भिन्न ही प्रतीत होने लगा। वह स्वयं से बातें करने लगी
“यह समुद्र पूर्णत: शांत है, स्थिर है। जैसे अभी भी वह निंद्रा में हो। यह लहरें भी आलसी व्यक्ति की भांति मंद गति से तट की तरफ प्रवाहित हो रही है। तट पर जाकर जैसे सो जाती है। इन में न कोई उमंग है ना कोई चंचलता है, ना ही कोई ध्वनि है। जैसे तट पर जाने की परंपरा को निभा रही हो।”
गुल ने गहन श्वास लिया।
“समुद्र की भांति यह हवा भी ऊर्जाहिन है। हवा है तो सही किन्तु निस्तेज, निष्प्राण व्यक्ति की भांति स्थिर है। कभी कोई एक मंद लहर गति करती आती है तो पुन: शांत हो जाती है। यह मंद लहर जब मेरे तन को स्पर्श करती है तभी प्रतीति होता है कि मैं जीवंत हूँ। अन्यथा मैं भी प्रतिमा सी स्थिर खड़ी हूँ।मेरा चेतन, मेरे प्राण कहाँ है? किसने हर लिया है यह सब मुझसे? मैं इस प्रकार स्थिर क्यूँ हूँ? मेरे भीतर की शक्ति कहाँ चली गई? यह क्या हो रहा है मुझे? मैं स्थिर खड़ी क्यूँ नहीं रह पाती? मुझे इस भीत का आश्रय लेना होगा।”
गुल ने भीत को पकड़ लिया।
“यह भीत मेरे हाथों से सरक रही है। यह भी मुझे सहारा नहीं दे पा रही। मुझे बैठ जाना होगा।”
वह बैठ गई। आँखें बंद कर ली। सब कुछ स्थिर हो गया। जड़ सा स्थिर।
“मेरे चारों तरफ यह कैसा अंधकार छाया है? यह तमस किसी गहन सागर की भांति मुझे अपने भीतर डुबो रहा है। मैं गहन, अधिक गहन तमस में खींची जा रही हूँ। एक तीव्र प्रवाह में बही जा रही हूँ। मुझे इसे रोकना होगा, प्रतीकार करना होगा। अन्यथा यह तमस मुझे नष्ट कर देगा। नहीं, मुझे प्रकाश की ज्योति को पाना होगा। तमस के इस प्रवाह को, इस गति को रोकना ही होगा। क्या मैं रोक पाऊँगी? कदाचित मुझ में इतना साहस नहीं है। किन्तु मैं प्रयास करूंगी, मैं तमस की इस गति का प्रतिरोध करूँगी। मैं, मैं...।”
गुल ने आँखें खोल दी। सम्मुख वही स्थिरता थी। कोई जीवन नहीं, कोई गति नहीं। समुद्र की मंद लहरों की शुष्क ध्वनि के अतिरिक्त सब कुछ स्थिर था, शांत था।
गुल ने गगन की तरफ देखा।
“यह गगन भी स्थिर है। इतने तारें, इतने नक्षत्र भरे हैं तेरे आँगन मे फिर भी तुम स्थिर क्यूँ हो, गगन? क्या तुम में भी कोई चेतना शेष नहीं बची? गतिमान हो ऐसा एक मेघ भी नहीं है तुम्हारे पास? तुम भी निष्प्राण हो गगन, निष्प्राण।”
“यहाँ कितने अधिक पंखी उड़ा करते थे। इस समय यह सब कहाँ चले गए? अभी तक एक भी पंखी उड़कर यहाँ नहीं आया। हे पंखिओं, आ जाओ। तुम्हारे भोजन के लिए मैंने इस प्रांगण में इतने सारे चावल बिखेर दिये हैं। तुम्हें ज्ञात है? यह चावल तुम्हारे लिए मैंने स्वयं महादेव से मांग लिए हैं। तुम सब आ जाओ, इस चावल को खाओ।अपनी चंचलता से इस अनंत स्थिरता को परास्त कर दो। अपनी मधुर ध्वनि से इस शांति को भंग कर दो। अपनी उपस्थिती से मेरे इस एकांत को नष्ट कर दो। आओ...आओ।”
वह पुकारती रही किन्तु कोई नहीं आया।
“हे महादेव! यह कैसी स्थिरता है? यह कैसी शांति है? यह कैसा अंधकार है? यह निस्तेज,निष्प्राण तथा ऊर्जाहीन क्षणों को तुम कैसे सह लेते हो? इस एकांत में मुझे जीवन के किसी संकेत नहीं दिख रहे। क्या इस निर्जनता का सर्जन भी तुमने ही किया है?
हे महादेव,यदि तुम में कोई चेतना शेष रही हो तो तुम इस स्थिरता को जीवन से भर दो। तुम्हें ज्ञात है कि तुम्हारी यह धजा भी निश्चेत हो गई है? देखो इसे, कैसी सोई हुई है? इसे तो उत्तुंग होकर लहराना होता है किन्तु यह तो थक गई है। उसमें भी कोई प्राण नहीं बचे। यदि तुम चाहो तो तुम अपनी इस धजा को तो जीवंत कर सकते हो। करो, हे महादेव, इस धजा को तो जीवंत करो।”
गुल धजा को देखती रही। अनेक क्षण व्यतीत हो गए किन्तु धजा में कोई प्राण संचार नहीं हुआ। वह निराश हो गई।
“महादेव, तुमसे ना होगा यह। इस एकांत को, इस शांति को, इस निश्चेत को, इस स्थिरता को मुझे ही भंग करना पड़ेगा, मुझे ही नष्ट करना पड़ेगा। मुझे मेरी शक्तियों को संचित करना होगा, उसका प्रयोग करना होगा।”