द्वारावती - 35 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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द्वारावती - 35



35


गुल बलपूर्वक उठी। चारों दिशाओं में द्रष्टि डाली। कहीं कुछ भी नहीं बदला था। सभी दिशाओं में वही शून्यता व्याप्त थी।
“यह कैसी शून्यता है? शिक्षक कहते थे कि शून्य का कोई मूल्य नहीं होता। शून्य स्वयं मे शून्य ही होता है। अनेक शून्य साथ मिलकर भी शून्य ही रहते हैं। तुम सत्य कह रहे थे, शिक्षक। तुम्हारी यह बातें उस समय मुझे समज नहीं आ रही थी, किन्तु अब सब समज आ रहा है। यह शून्यता भी मूल्यहिन है। यहाँ भी अनेक शून्य साथ मिले हुए हैं। सागर, लहरें, हवा, तट , धजा, मंदिर, पंखी, दिशा, तमस, एकांत, स्थिरता तथा स्वयं महादेव भी। सब शून्य है। सब एक साथ मिले हैं किन्तु अंतत: शून्य। शून्य... शून्य.... शून्य...। तुम सब केवल शून्य हो। कोई मूल्य नहीं तुम्हारा, कोई मूल्य नहीं।”
गुल ने गहन श्वास लिया, मौन हो गई, स्थिर हो गई। समग्र स्थिरता के साथ वह भी एकाकार हो गई। पुन: संचार करने का यत्न किया गुल ने।
“शिक्षक ने यह भी तो कहा था कि शून्य का मूल्य चाहे शून्य ही हो किन्तु बिना शून्य के भी किसी अंकों का मूल्य भी शून्य समान ही होता है। शून्य का मूल्य शून्य होते हुए ही अमूल्य है, यदि शून्य का स्थान परिवर्तित हो जाय तो। शून्य का स्थान ही स्वयं अपना तथा अन्य अंकों का मूल्य निर्धारित करता है। शून्य को किसी अंक के आगे नहीं किन्तु पीछे रखना है। बस इतना करने से मूल्य वृद्धि हो जाएगी।
ओह... अर्थात इस शून्यता में मुझे किसी एक अंक की आवश्यकता है जो इस शून्य का मूल्य वृद्धि कर दे। मुझे इस शून्यता को महत्व नहीं देना है, मुझे किसी अंक को महत्व देना होगा। उस अंक के पीछे... नहीं... नहीं, इस शून्यता के आगे, इतने अधिक शून्य के आगे मुझे किसी एक अंक को जोड़ना होगा। बस इतनी सी बात? पश्चात इसके यह शून्य कितने अमूल्य हो जाएंगे। मुझे बस एक अंक की ही आवश्यकता है।
किन्तु यह अंक क्या है? कौन है? कहाँ है? कैसे मिलेगा? यदि मिल भी जाये तो उसका प्रयोग कैसे करूंगी? यह गणित, यह अंक, यह शून्य का ज्ञान तो कभी किसी शिक्षक ने नहीं दिया। कैसे ढूँढ पाऊँगी मैं उस अंक को?”
वह उस अंक के विषय में विचार करने लगी। वह गगन को ताकने लगी। गगन स्थिर था। किन्तु उस स्थिर गगन में भी प्रकाश की ज्योत नियमित रूप से आ रही थी, जा रही थी। प्रत्येक 20 सेकण्ड्स के पश्चात ज्योति पुंज आता था, क्षणिक प्रकाश देता था और विलीन हो जाता था। गुल का ध्यान उस प्रकाश पर पड़ा। उसने प्रकाश के उद्गम की दिशा में देखा।
“ओह, यह तो दीवादांडी है। समुद्र के तट पर वर्षों से स्थिर खड़ी इस दिवाडांडी के प्रकाश के सहारे कितने जलयान रात्री में भी समुद्र के भीतर रहते हुए भी दिशा का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। समुद्र से धरती के अंतर का अनुमान लगा लेते हैं। समुद्र के यात्रियों का मार्गदर्शन कर रही इस दीवादांडी के इस प्रकाश पर मेरा ध्यान क्यूँ नहीं गया। इस स्थिरता में भी यह प्रकाश तो गतिमान है। मैं इस गति को देखना, समजाना कैसे चूक गई? यह प्रकाश मुझे नयी आशा दे रहा है। मुझे जिस अंक की खोज है उसमें वह मेरी सहायता अवश्य करेंगा।”
गुल ने कुछ क्षण विचार किया। वह स्वयं से बोली, “ वह अंक अन्य कोई नहीं है, मैं ही स्वयं हूँ। मैं ही बनूँगी वह अंक। इतने सारे शून्य के आगे मैं खड़ी रहूँगी अंक बनकर।”
गुल चलने लगी। मंदिर के भीतर गई। वहाँ पड़े शंख को उठाया, उसे बजाने लगी। शंखनाद से हवा आंदोलित हो गई। उसने समग्र वातावरण को आंदोलित कर दिया। क्षणों से जो स्थिर थी वह स्थिरता भंग हो गई। सब कुछ प्रवाहित होने लगा।
समुद्र चेतनवंत हो गया। लहरें जाग गई। जागकर गतिमान हो गई। हवा बहने लगी। धजा निंद्रा से जागी, लहराने लगी। एकांत, स्थिरता, दिशा आदि सब जागृत हो गए। दूर कहीं से उड़ते हुए पंखी आने लगे। प्रांगण में बिखरे चावल के दाने खाने लगे।
सब कुछ, जो क्षण पूर्व निस्तेज - निष्प्राण था, जीवंत हो गया। एक मात्र तमस स्थिर था। कदाचित वह सूर्योदय की प्रतीक्षा में था।
गुल प्रसन्न हो गई, नाचने लगी। सब कुछ भूल कर नाचती रही।
गुल के नृत्य को देखकर पंखी प्रसन्नता से कलरव करने लगे। उस मधुर ध्वनि से गुल उत्साहित हो गई। अब वह उस कलरव के ताल पर नृत्य करने लगी। कुछ पंखी गुल के समीप आ गए, गुल के नृत्य को ध्यान से देखने लगे।
एक पंखी ने अपना एक पाँव उठा लिया, कूदने लगा। अन्य पंखी भी इसी प्रकार कूदने लगे। गुल जैसे नाच करती थी, पंखी भी उसे देखकर उसी प्रकार नाचने का प्रयास करने लगे। पंखी तथा गुल का समूह नृत्य होने लगा। जो पंखी नाच नहीं सकते थे, नाच नहीं रहे थे, नाचने-न-नाचने की दुविधा में थे वह सब एक साथ जुड़ गए। एक शिस्तबद्ध दीर्घा में खड़े हो गए। प्रेक्षक बन कर उस नृत्य को देखने लगे।
मंदिर के प्रांगण में एक अद्भुत द्रश्य था। जैसे किसी रंगमंच पर नृत्य हो रहा हो तथा प्रेक्षक दीर्घा में दर्शक इस नृत्य का आनंद ले रहे हो। यह रंगमंच भी कैसा? जिसे कोई सीमा नहीं, कोई भीत नहीं, कोई छत नहीं, कोई जवनिका नहीं। ऊपर विशाल-असीम गगन तो एक तरफ अतल-गहन समुद्र। दर्शकों मे पंखी, गगन, हवा, दिशा, मंदिर, समुद्र, धजा, तारे, नक्षत्र, मेघ तथा महादेव स्वयं।