द्वारावती - 33 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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द्वारावती - 33

33


केशव मंदिर की दिशा में चलने लगा, गुल भी।
मंदिर तथा तट के मध्य जलराशि न्यूनतम थी। दोनों ने चलते हुए उसे सरलता से पार कर लिया।
गुल सीधे ही मंदिर के भीतर चली गई। भगवान के सन्मुख रखे चावल मुट्ठी में भरकर वह प्रांगण में चली आई। समुद्र में दूर कहीं पंखी उड़ रहे थे, गुल को उन पंखियों की प्रतीक्षा थी।
गुल ने अपनी मुट्ठी खोल दी। सारे चावल बिखेर दिये। एक कोने में जाकर वह खड़ी हो गई। प्रतीक्षा करने लगी।
‘आज मुझे ईन पंखियों से कोई भीती नहीं है। मैं इन सभी से मित्रता करूंगी। वह भी यहाँ आएंगे, चावल के दाने खाएँगे, तत् पश्चात मेरे साथ मैत्री कर लेंगे।’ गुल मन ही मन बात करती रही।
एक पंखी उड़ता हुआ प्रांगण में आया। वह चावल के दानों को देखता रहा। गुल उसे देखती रही।
‘इन दानों को देखकर यह पंखी के मन में कौन से भाव उत्पन्न होते होंगे? कुतूहल होगा अथवा कौतुक? मुझे उसके मुख को देखना चाहिए, मुख पर कैसे भाव होंगे?’
‘गुल, तुम यह देख नहीं सकोगी।’
‘क्यूँ?’
‘यह पंखी है, मनुष्य नहीं, मनुष्यों के मुखभावों को तो मनुष्य समज लेता है किन्तु इन जीवों के मुखभावों को समजने में मनुष्य असमर्थ रहा है।’
‘कोई बात नहीं, वह भी मैं सीख लूँगी।’
‘तब तक इस पंखी को निहारते रहो गुल।’
वह पंखी को निहारने लगी। वह पंखी कुछ क्षण उन दानों पर चलता रहा। वह उड़ गया। गुल उसे उड़कर जाते हुए देखती रही।
‘यह तो चला गया । एक भी दाना नहीं खाया इसने!’
वह पंखी दूर समुद्र में उडते अनेक पंखियों के समूह में जुड़ गया। गुल उन पंखियों को देखती रही। सहसा उसके कानों पर आरती की ध्वनि पड़ी। उसे मन हुआ कि मंदिर के भीतर दौड़ जाउं और आरती में मग्न हो जाऊं। उसने अपने चरण मंदिर के प्रति उठाए ही थे कि दो तीन पंखी प्रांगण में आ गए। गुल ने अपने चरण रोक लिए। वह ऊन पंखियों का अवलोकन करने लगी।
पंखी चावल के दानों पर चलने लगे। वह कभी चलते थे तो कभी रुक जाते थे।
‘कितने चंचल हैं यह पंखी! इनकी चंचलता मेरा मन मोह रही है। मुझे आकृष्ट कर रही है। यदि वह सब इन दानों को भी खाने लगे तो इससे अधिक मोहक इस जगत में कुह नहीं होगा।’
पंखियों ने एक भी दाना नहीं खाया। सभी उड गये। अपने समूह में जुड़ गए।
‘यह भी उड गए। एक दाना भी नहीं खाया। क्या वह अपने स्वभाव का त्याग नहीं करेंगे? मेरी अपेक्षा के विपरीत हो रहा है। क्या मुझे आशा छोड़ देनी चाइए?’
अपने विचारों से परास्त होती हुई गुल मंदिर के भीतर चली गई। मंदिर में आरती चल रही थी। उसने अपने उद्विग्न मन को आरती में लगाकर शांत करने का प्रयास किया, विफल रही। आरती सम्पन्न हो गई किन्तु मन शांत नहीं हुआ। वह मंदिर से बाहर चली गई। प्रांगण में जाते ही वह मंदिर के भीतर लौट आई।
“क्या हुआ गुल?” केशव ने पूछा, “इस प्रकार लौट क्यूँ आई? मैं भी तो देखूँ कि बात क्या है।” केशव बाहर जाने लगा।
गुल ने उसे रोक लिया,“बाहर का द्रश्य यहीं खड़े रहते हुए देखो। कोई ध्वनि ना करना। पगरव भी नहीं। बस देखते रहो।”
केशव के मुख पर अनेक प्रश्न आ गए जिनके उत्तर गुल के हाथों के संकेतों में थे। वह रुक गया। बाहर देखने लगा।
प्रांगण में वही श्वेत मांसाहारी पंखियों की टोली थी जो चावल के दानों को खा रही थी। पंखी उल्लास से भरे थे, प्रसन्न होकर कलरव कर रहे थे। गुल उसे मुग्धता से देख रही थी, प्रसन्न हो रही थी। केशव उस प्रसन्नता के भावों को निहारने लगा।
“गुल, क्या बात है? तुम इतनी प्रसन्न क्यूँ हो?”
“केशव, इन पंखियों को देखो। चावल के दानों से अपनी क्षुधा को तृप्त कर रहे हैं। कितना मनोहर द्रश्य है यह!”
“इस मनोहर द्रश्य को समीप से देखते है। चलो।”
“नहीं केशव। हमारे पगरव से पंखी उड जाएँगे। दूर से ही कुछ दृश्यों की मनोहरता का अनुभव करना उचित होता है। सौन्दर्य के समीप जाने से कभी कभी सौंदर्य अधिक दूर हो जाता है। कभी कभी तो वह सदा के लिए खो भी जाता है।”
केशव बाहर के द्रश्य को भीतर से देखने लगा। अनेक पंखी दाना खा रहे थे। इधर उधर घूम रहे थे। उनके कलरव में प्रसन्नता थी। कुछ ही क्षण में सभी दाने समाप्त हो गए। कुछ क्षण दानों को खोजते हुए पंखी प्रांगण में घूमते रहे, उड़ते रहे। जब उन्हें स्पष्ट हो गया कि कोई भी दाना नहीं बचा है, सभी समुद्र की दिशा में उड गए। गुल तथा केशव प्रांगण में आ गए। पंखी दूर गगन में उड रहे थे।
“केशव।” केशव ने गुल को देखा। उसके मुख पर विजयी भाव थे।
“कहो।”
“केशव, इन पंखियों को देखा? प्रकृति के नियम से वह मांसाहारी है। किन्तु आज इन पंखियों ने चावल के दाने खाये हैं। वह शाकाहारी बन गए हैं। प्रकृति के नियम को बदल दिया हैं इन पंखियों ने। जैसे मेरे पिता ने एक ही क्षण में मांसाहार त्याग दिया था वैसे ही इन पंखियों ने भी आज से मांसाहार त्याग दिया है।”
“यह अर्ध सत्य है गुल। पंखियों ने चावल के दाने अवश्य खाये हैं किन्तु मांसाहार त्याग दिया है यह कहना उचित नहीं है।”
केशव कह रहा था तभी एक पंखी अपनी चांच में एक मछली को लेकर प्रांगण में आ गया। केशव ने तथा गुल ने उसे देखा। दोनों ने एक दूसरे को देखा। गुल क्षोभ करने लगी, पंखी पर कृध्ध हो गई। वह दौड़ गई, पंखी को उड़ा दिया।
“शांत हो जाओ, गुल। प्रकृति के नियम स्थायी होते हैं। हमें उसे बदलने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए। हम उसे बदल नहीं सकते।”
“केशव, मैं दुखी हूँ। तुम्हारे इन शब्दों ने मुझे अधिक दुखी कर दिया है। अब मुझे कुछ नहीं कहना।” वह मौन हो गई। मौन रहते हुए दोनों ने जल पार किया, तट पर आ गए। मौन ही गुल घर की तरफ चल दी। केशव उसके पदचिन्हों को देखता रहा, मौन रहकर ।