इन्हीं ख्यालों में खोए हुए उत्कर्ष की तंद्रा तब टूटी जब ड्राइवर ने कार का दरवाजा खोलकर कहा "छोटे साहब हम घर पहुँच गये हैं।"
"हम्म हाँ।" उत्कर्ष ने अपना सर झटकते हुए कहा और प्रणय के कंधे को झकझोरकर उसे जगाया।
"नहीं चाचू, मुझे मत मारिये, मेरी कोई गलती नहीं है।" बड़बड़ाते हुए प्रणय ने ऑंखें खोलीं।
"अबे यार उफ़्फ़ सपने में भी डरता है तू? हद है। चल बाहर निकल।" उत्कर्ष ने प्रणय की बड़बड़ाहट सुनकर झल्लाते हुए कहा।
"ओहह शुक्र है भगवान का की वो सिर्फ एक सपना था।" प्रणय ने गहरी साँस ली और गाड़ी से बाहर आया।
इस वक्त रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे। आमतौर पर ऋषिकेश जी साढ़े दस बजे तक सो जाते थे।
इसलिए उत्कर्ष और प्रणय ने सोचा कि कम से कम इस वक्त तो वो किसी भी तरह के सवाल-जवाब और डाँट से बच जाएंगे।
अभी वो दोनों मुख्य दरवाजे पर पहुँचकर घण्टी बजाने ही जा रहे थे कि उससे पहले ही दरवाजा खुल गया।
सामने ऋषिकेश जी को खड़ा देखकर उत्कर्ष और प्रणय दोनों के ही चेहरे का रंग उड़ गया।
शरण बाबू भी उनके साथ ही खड़े थे।
उन दोनों का हाव-भाव बता रहा था कि वो इस वक्त बहुत ज्यादा गुस्से में थे और किसी भी तरह की सफाई सुनने के मूड में नहीं थे।
उत्कर्ष और प्रणय कुछ कहने जा ही रहे थे कि शरण बाबू ने उन्हें चुप होने का इशारा करते हुए पास खड़े एक नौकर से कहा "इन दोनों से कह दो की चुपचाप अपने कमरे में चले जाएं और हमसे बात करने की कोशिश ना करें।
अब इनकी यही सज़ा है कि हम इन दोनों से बात नहीं करेंगे। ये पूरी तरह से आज़ाद हैं जैसे चाहें वैसे जीने के लिए।"
शरण बाबू की बात जैसे ही खत्म हुई उनके साथ ऋषिकेश जी भी अपने कमरे की तरफ बढ़ गए।
दरवाजे पर खड़े उत्कर्ष और प्रणय अपने पिताओं का ये फैसला सुनकर हतप्रभ से खड़े थे।
वो समझ ही नहीं पा रहे थे कि अब करें तो क्या करें।
उन दोनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा तो पाया दोनों की ही आँखों से आँसू बस छलकने ही वाले थे।
पहले तो उन दोनों दोस्तों ने एक-दूसरे के आँसू पोंछे और फिर प्रणय ने कहा "सुन अभी हम भी चलकर सोते हैं। कल सुबह कोई ना कोई जुगाड़ निकाल ही लेंगे दोनों पिताश्री को मनाने के लिए।"
"हम्म आखिर कब तक अपने लाडलों से यूँ नाराज रहेंगे दोनों।" उत्कर्ष ने भी सहमति जताई और दोनों अपने-अपने कमरे की तरफ बढ़ गए।
अभी उत्कर्ष को सोए हुए चंद मिनट ही बीते होंगे कि अचानक झटके से उसकी नींद टूटी और सहसा उसे फिर से द्वीप से तोड़कर लाए गए उस फल का ध्यान आया।
उसने बैग से फल को निकाला और गौर से उसे देखने लगा।
"पता नहीं क्यों लेकिन मेरा मन इसे खाने का हो रहा है।"
"लेकिन अगर ये ज़हरीला हुआ तो?"
"मेरे कमरे में एक स्ट्रांग एंटीडोट भी तो है जो खतरनाक से खतरनाक ज़हर को भी काट सकता है।"
"और अगर नहीं काट पाया तो?"
"याद कर वो शर्त जब तूने साँप का ज़हर पिया था तब इसी एंटीडोट ने तुझे बचाया भी था और शर्त भी जितवाया था, तो अब भी ये तुझे बचा लेगी।"
"ठीक है लेकिन मुझे ये रिस्क रात में नहीं सुबह उठाना चाहिए ताकि अगर कुछ गड़बड़ हो तो कोई मेरी मदद के लिए आ सके।"
"हाँ ये ठीक रहेगा।"
उत्कर्ष स्वयं से बातें करते हुआ सवाल भी स्वयं ही कर रहा था और जवाब भी खुद ही दे रहा था।
एक निश्चित फैसले पर पहुँचने के बाद उत्कर्ष ने एक बार फिर फल को देखा और उसे अपने बैग में छुपाकर फिर से सोने की कोशिश करने लगा।
सुबह दरवाजे पर होने वाली तेज़ दस्तक से उत्कर्ष की नींद टूटी।
उसने घड़ी की तरफ देखा तो सुबह के छह बज रहे थे।
उनिंदी आँखों से उठकर जब उसने दरवाजा खोला तो देखा सामने प्रणय खड़ा था।
"क्या हुआ भाई तू इतनी सुबह-सुबह किस खुशी में आया है?"
"इस खुशी में की हम दोनों फांसी के फंदे पर लटकने वाले हैं। चल मेरे साथ चल।" प्रणय ने उत्कर्ष का हाथ पकड़कर उसे लगभग खींचते हुए कहा।
अगले ही पल उत्कर्ष ने देखा कि वो दोनों अपने बगीचे में खड़े थे जहाँ लगे हुए पेड़ की मजबूत डाल पर फांसी के दो फंदे लटके हुए नज़र आ रहे थे।
ये दृश्य देखते ही उत्कर्ष के होश उड़ गए।
उसने घबराई हुई नज़रों से प्रणय की तरफ देखते हुए पूछा "ओ भाई ये क्या है? तेरी तबियत तो ठीक है? तुझे दिमागी बुखार तो नहीं हो गया? रुक मैं डॉक्टर को बुलाता हूँ।"
"अबे ढक्कन मैं बिल्कुल ठीक हूँ। ये बस जुगाड़ है उन दोनों रूठे हुए हमारे पिताओं को मनाने का जो अभी अपना योग-ध्यान करने यहाँ आते ही होंगे।" प्रणय ने जब उत्कर्ष को अपनी योजना समझाई तब उत्कर्ष ने मुस्कुराते हुए उसे गले से लगा लिया।
ऋषिकेश जी और शरण बाबू के वहाँ आने की आहट सुनते ही उत्कर्ष और प्रणय तेज़ी से आगे बढ़कर फांसी के फंदे के पास पहुँच गए और वहाँ रखी हुई कुर्सी पर चढ़कर उन्होंने फंदे को अपने गले में डाल लिया।
ऋषिकेश जी और शरण बाबू जब बगीचे में पहुँचे तो ये नज़ारा देखकर वो भी चौंक गए।
उन्होंने एक-दूसरे की तरफ देखा और कुछ पल आपस में मौन संवाद करने के बाद अपना-अपना आसन बिछाकर उन्होंने अपनी योग-क्रियाओं को आरंभ कर दिया।
उन दोनों पर कोई असर ना होता हुआ देखकर उत्कर्ष ने कहा "मेरे भाई मैं मानता हूँ कि हम दोनों से बहुत बड़ी गलती हुई है। हमने अपने पापा से झूठ बोला, उन्हें धोखा दिया। लेकिन अब हम ये वादा करने के लिए तैयार हैं कि आगे से हम अपनी ऐसी कोई गलती नहीं दोहराएंगे।"
"हाँ भाई जो हुआ उसे भूलकर आगे बढ़ना चाहिए। हम अपनी गलती की हाथ जोड़कर माफ़ी माँगते हैं।" प्रणय ने भी कहा।
"अगर अगले दो मिनट में हमारे पापा ने हमसे बात नहीं की तो हम दोनों फांसी के फंदे पर लटक कर अपनी जान दे देंगे।" उत्कर्ष आवाज़ में दृढ़ निश्चय लाता हुआ बोला।
"बिल्कुल ठीक कह रहा है तू मेरे यार। क्या फायदा ऐसी ज़िन्दगी का जब पापा ही बात करना बंद कर दें।
माँ तो हम दोनों की पहले ही हमें छोड़कर ईश्वर के पास जा चुकी है।
अब पापा भी ऐसी सज़ा देंगे तो उससे बेहतर है कि हम ही अपने आप को सज़ा दे दें।" प्रणय ने भी रुआँसी आवाज़ में उन दोनों के इरादे से ऋषिकेश जी और शरण बाबू को अवगत करवाते हुए उनकी प्रतिक्रिया जानने के लिए उनकी तरफ देखने लगा।
सहसा ऋषिकेश जी अपने आसन से उठे और उसे मोड़ते हुए शरण बाबू से बोले "चलो हम पीछे वाले बगीचे में चलकर ध्यान करते हैं।
यहाँ नौटंकी में काम करने वाले दो उम्दा कलाकार हमें ध्यान लगाने नहीं देंगे।"
"सही कह रहे हैं आप बड़े साहब। आइए चलें।" शरण बाबू ने भी उठकर अपना आसन समेटा और ऋषिकेश जी के पीछे-पीछे चल पड़े।
उन दोनों पर अपनी इस धमकी का कोई असर ना होता हुआ देखकर उत्कर्ष और प्रणय ने निराशा से एक-दूसरे की तरफ देखा और जिस कुर्सी पर अब तक खड़े थे उसी पर बैठकर उन्होंने अपना सर पकड़ लिया।
क्रमशः