भारी डिप्रेशन bhagirath द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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भारी डिप्रेशन

 भारी डिप्रेशन    

  

मैं भारी डिप्रेशन में हूँ। मुझे वे लोग याद आने लगते हैं जिन्होंने डिप्रेशन के चलते आत्महत्या कर ली। तो क्या यह  डिप्रेशन मुझे चौथी मंजिल से कूदने पर मजबूर कर देगा?

कभी-कभी बड़ी बेचैनी महसूस होती है, घबराहट होने लगती है, हमेशा शरीर में थकान बनी रहती है और अपने को ऊर्जा हीन पाता हूँ। यह करूँ या वो करूँ हमेशा उलझन बनी रहती है। निराशा ने तो जैसे मन में डेरा जमा रखा है। कहीं बाहर जाना अच्छा नहीं लगता किसी से मिलना-मिलाना नहीं भाता। सारी गतिविधियां जैसे नीरस हो गई है।

चिंताएं बराबर बनी रहती है। चिंताओं के बढ़ने के साथ ही नींद बार-बार उचाट हो जाती है, पूरी और गहरी नींद तो महीनों से नहीं आई। फिर भी लेटे रहने का मन करता है। जानता हूँ मेरे लिए आठ घंटे की नींद जरूरी है लेकिन नींद आती ही नहीं तो लूँ कैसे? डॉक्टर ने गोलियां लिख दी है, उनके लेने के बाद ही नींद आती है। फिर भी हल्का-हल्का सर दर्द बना रहता है और उदासी बनी रहती है। दिमाग में बुरे-बुरे खयाल आते हैं। सोचने समझने की शक्ति तो जैसे है ही नहीं। जीने की इच्छा ही खत्म हो गई है।

शारीरिक बीमारियाँ अलग से तंग करती है। अपच होने से पेट खराब रहता है। कुछ भी खाने को मन नहीं करता। प्रोसट्रेट की वजह से बार-बार पेशाब करने उठना पड़ता है। कभी अलर्जी तंग करती है, पीठ खुजाना कितना मुश्किल है, जोड़ों का दर्द भी सोने नहीं देता। पैर झनझनाते हैं फिर मौत का साया सर पर मंडराने लगता है। जो जिंदगी भर समेटा था वह हाथ से फिसलता जा रहा है और जो अल्टिमेट पाना था वह अभी कोसों दूर लगता है।

पढ़ने-लिखने पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाता। मुझे लगता है कि मैं अब अधूरा उपन्यास कभी पूरा नहीं कर पाऊँगा। आत्म विश्वास खो चुका हूँ। ‘ज्ञानपीठ पुरुस्कार’ के लिए एक बार भी मेरा नाम नामित नहीं किया गया जब कि उपलब्धियों के नाम पर कईं उपन्यास, कहानी संग्रह और आलोचना की पुस्तकें हैं। साहित्य जगत में रिश्ते भी ठीक-ठाक है। लगता है भाग्य ही साथ नहीं दे रहा है।

‘अपने लिए अप्राप्य लक्ष्य ना बनाएं। ये लक्ष्य आपको बेचैन कर देंगे।‘ अजीज मित्र की सलाह पर मेरा कहना है कि ‘ज्ञानपीठ मेरे लिए अप्राप्य लक्ष्य नहीं है यह तो मेरे लिए सहज सुलभ होना चाहिए। इतनी उपलब्धियां है मेरी ।‘   

मित्र फिर कहते हैं ‘छोड़िए ज्ञान पीठ पुरुस्कार को, जिनको मिला उन्होंने क्या उखाड़ लिया? और जिनको नहीं मिला वे क्या साहित्य से विदा हो गए? प्रेमचंद को कौन सा ज्ञानपीठ मिला था? फिर भी मजबूती से जमे हुए है साहित्य में। लेखनी में दम होना चाहिए जो आपकी लेखनी में है। दिमाग से इस फितूर को निकाल दीजिए। अपने जीवन और साहित्य को महत्व दीजिए।‘    

सलाह देना कितना आसान है लेकिन उसे कार्यरूप में परिणित करना कितना मुश्किल! 

किसी काम में मन नहीं रमता, पढ़ना-लिखना महीनों से बंद है। कभी कोई मित्र मिलने आ जाता है तो कुछ राहत मिलती है।  जब वह पुरानी सुखद यादों को दोहराता है तो थोड़ा सकूँ मिलता है। कई सहानुभूति दर्शाते है ‘अपना खयाल रखो दोस्त अभी तुम्हें बहुत काम करने है। साहित्य जगत तुम्हारी ओर बड़ी आशा भरी नजर से देख रहा है।’ यह सुनकर तो मैं और भी डिप्रेशन में चला जाता हूँ कि अब कुछ किए बिना इस जगत से विदा लेनी होगी।

कई लोग काम में व्यस्त रहने और सकारात्मक सोचने की सलाह देते है। मस्तिष्क में बेतरतीब विचारों की भीड़ के बीच कैसे व्यस्त रहूँ? और अपना लेखन कार्य करूँ? रह-रह कर नकारात्मक खयाल आते रहते है। सकारात्मक सोचूँ कैसे? सकारात्मक सोच सकता तो मेरी यह हालत बनती ही क्यों?

‘भाभी जी जरा भाई साहब का ध्यान रखा करो। देखो कितने कमजोर हो गए हैं, चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही है, लगता है जैसे बौरा गए हैं। न हो तो मनोचिकित्सक को दिखला दो।’    

‘दिखाया था डिप्रेसन की गोलियों से ही तो इनकी ये हालत हो गई है। आधी-अधूरी नींद में रहते है। कंप्यूटर ले कर बैठते हैं फिर बंद कर देते है। किताब खोलते हैं, पलटते हैं, फिर बंद कर देते हैं, पता नहीं किस उधेड़बुन को बुनते रहते हैं।   

उस दिन इनके एक दोस्त आये थे कह रहे थे, ‘माता रानी सब ठीक करेगी, माता रानी ही इस स्थिति से बाहर निकलने का कोई न कोई रास्ता दिखा देगी।  माता से प्रार्थना करें। पूजा-पाठ और भक्ति में मन रमाएं। न हो तो जप ही करें। आप नहीं कर सकते तो पंडित जी से अनुष्ठान करवा ले। वैष्णो देवी से मनौती माँग लें। विश्वास रखें सब ठीक होगा।’

     धार्मिक पोंगापंथी से दूर रहने वाले लेखक बोलें तो क्या बोलें! भाभी बोली-‘भाई साहब हमारे लिए वैष्णो देवी से अरदास कीजिएगा। आप तो भक्त ठहरे आपकी जरूर सुनेंगे।’         

जैसे ही रिश्तेदारों को पता लगा वे सहानुभूति जताने और सांत्वना देने पहुँच गए। बहन आई, ‘भाई साहब आपने ये क्या हालत बना ली। सब सुख चैन तो हैं आप किस बात की चिंता करते हैं? बेटे-बहू से कोई परेशानी है? भाभी बोली, “बेटे बहु से क्या परेशानी हो सकती हैं वे तो बहुत खयाल रखते हैं परसों ही लल्ला का फोन आया था कि थोड़े दिनों के लिए यहाँ आ जाओ। जगह बदलने से भी कई बार इस बीमारी में फर्क पड़ने लगता है। सब साथ रहेंगे तो अकेलापन नहीं काटेगा।’

भाई भाभी भी आए, बेटी जमाई भी आए। अच्छा तो लगा कि लोग मेरी परवाह   करते हैं जब तक वे रहते कुछ तो राहत मिलती। लेकिन आखिर सब को अपने घर काम पर लौटना होता है।     

एक दिन फोन टनटनाया ‘कैसे हो भाई? बहुत दिन से मिले नहीं। कोई समारोह भी अटेंड नहीं कर रहे क्या बात है?’  

‘भाई भारी अवसाद में हूँ, आत्मघात के खयाल आते रहते हैं।’

‘भैया जरा बाहर निकलो दोस्तों से गपशप करो किसी साहित्य समारोह की अध्यक्षता करो। सब ठीक हो जायगा। मैं निमंत्रण भिजवा रहा हूँ।’ 

‘नहीं भाई अभी रहने दीजिए मेरी हालत ऐसी नहीं है कि साहित्य समारोह की अध्यक्षता करूँ।’

हर मित्र डॉक्टर बन सलाह देते हैं, ‘अपने आप को अकेला न रहने दें, दोस्तों के साथ बाहर जाएं, लोगों से मिले जुलें गपशप करें। इससे आप बेहतर महसूस करेंगे।’ 

‘प्रकृति के सानिध्य में रहे इससे दिमागी शान्ति मिलती है महीना भर किसी हिल स्टेशन पर रहे अवश्य सुकून मिलेगा।’ इसी तरह की कईं हिदायतें।              

कुछ धीर-गंभीर मित्र मुझसे अब भी उम्मीद बाँधे है। भाई साहब, आपने अपनी रचनाओं के माध्यम से लोगों को जीना सिखाया है। यही कहूंगा की भारी डिप्रेशन के बाद भी जीवन की खिड़की खुली रहती है। धैर्य रखिए यह वक्त भी गुजर जायेगा। 

आपको हमेशा चिंतन करते देखा है परंतु आज आपका कथन सबको चिंता में डाल रहा है भाई साहब! अपना ख्याल रखिए...प्रसन्न रहिए।  

एक दिन महिला मित्र आई जिनको मैंने साहित्य में प्रोत्साहित कर आगे बढ़ाया था, बोली, ‘भाईसाहब ये क्या! हमने तो आप से संघर्ष करना सीखा है और अब आप ही हथियार डाल देंगे तो हमारा क्या होगा?’

लोग कृतघ्न नहीं हो गए हैं। कृतज्ञ हैं और धन्यवाद करने आए हैं। यह देखकर मन को सुकून मिला। मैंने उनका धन्यवाद किया कि आप हमें देखने आयी।

डॉक्टर ने बताया कि इन्हें डीप रेस्ट की जरूरत है। कुछ दवाइयाँ दूंगा जिससे वे गहरी नींद में जाएंगे, देखना कुछ दिन बाद बेहतर महसूस करेंगे। बेटे को बुलाया चार दिन की छुट्टी लेकर आ जाओ।

बेटा आ गया। माँ अकेले घबराने लगी थी। मिलने वालों को मना करने का काम बेटे के जिम्मे छोड़ दिया। सप्ताह भर में तरोताजा महसूस करने लगे। बेटे ने कहा ‘मेरे साथ चलो वहाँ इन्हें तंग करने वाला कोई नहीं होगा। पोते-पोती से खेलेंगे तो बेहतर महसूस करेंगे।

घर के ताला लगाकर बंगलोर निकल गए। दिल्ली की साहित्यिक गलियां अब पीछे छूट गई। परिवार का संग साथ होने से पत्नी को आराम मिलने लगा और चिंता भी कम होने लगी।             

लेकिन फोन है तो दोस्त कहाँ चूकने वाले थे, ‘अच्छा हुआ बेंगलोर पहुँच गए लेकिन दोस्तों को मत भूल जाना। दोस्तों से रोज़ बातें करें और बतरस का आनन्द उठायें। इससे आपकी सेहत पर अच्छा असर पड़ेगा।’       

एक दिन काउन्सलर को घर बुलाया। उसने सजेस्ट किया कि  सूरज  की रोशनी में कुछ देर बैठे या टहलें।  नियमित रूप से सुबह-शाम योग प्राणायाम करें, मेडिटेशन करें इससे हैप्पी हार्मोन्स का उत्पादन बढ़ता है और मन की शान्ति मिलती है। फिर उन्होंने कुछ विशेष योग आसन बताये और ध्यान करने के तरीके बताये। महीने भर एक योग प्रशिक्षक को भेजूँगा जो इन्हें नियमित रूप से प्राणायाम और मेडिटेशन करा सके।

ये सब चल ही रहा था कि एक दिन गुरु समान वरिष्ठ मित्र का मैसेज आया। आपकी सेहत के बारे में सुना, अच्छा नहीं लगा ये क्या आत्म घात के बारे में सोचने लगे ‘ये जीवन लेने वाले हम कौन हो सकते हैं जब दे नहीं सकते। जो आया है वो जायेगा ही मौत के कदम हम सब की ओर बढ़ रहे हैं समय आने पर वह हमें दबोच ही लेगी। पर अपनी तरफ़ से भला अपने प्रिय जनों और इतनी हसीन दुनिया, को छोड़कर जाने के बारे में क्यूं सोचना। आप नहीं जानते आप हम सब के लिए कितने महत्वपूर्ण है।  

एक मित्र बेफिक्री का फलसफा पढ़ते हैं - हर फिक्र को धुएं में उड़ाते चल। इस दुनिया में कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है, सिवाय स्वयं के। लव योर सेल्फ। क्यों चिंता करते हो? और किसकी करते हो? यह एक दौर है जो निकल जायगा।

काउन्सलर ने सुझाया - दिल ही दिल में घुटने की बजाय किसी विश्वास पात्र या मुझ से मन में घुमड़ने वाली बातों को जरूर बताएं इससे दिल का बोझ हल्का हो जाता है। मुझ से बातें करिए मैं दिन भर आपके साथ हूँ बात करते-करते ही उन्होंने हिपनोटाइज कर दिया। ‘मन को पूरा खोल दो अंदर एक भी गांठ नहीं रहनी चाहिए।‘ ‘मुझे डर लगता है कि मेरी पत्नी नहीं रही तो मेरा क्या हाल होगा? यही तो एक है जो मेरी केयर करती है। बच्चों की मौत के बारे में ख्याल आते हैं इस तरह से तो मैं बीमार बूढ़ा लाचार हो जाऊंगा इससे तो अच्छा है दुनिया से विदा ही ले लूँ।’ साहित्य जगत के बारे में आप का क्या कहना है? ‘जितना मेरा साहित्य को अवदान है उसके हिसाब मुझे सम्मान और पुरुस्कार नहीं मिला। निम्नतर लोगों को ज्ञानपीठ मिल गया और मेरी ओर उनका ध्यान भी नहीं गया। मित्रों के होते हुए ऐसा हुआ। सब कहने के मित्र है। मैं घोर निराशा में हूँ।’ अब आपकी क्या इच्छा  है? ‘मेरा अधूरा उपन्यास किसी तरह पूरा हो जाय तो समझूँगा मेरा काम पूरा हुआ।’  

‘अधूरा उपन्यास पूरा करने के लिए आपको स्वस्थ होना होगा। इच्छा शक्ति जगाओ कि मैं स्वस्थ हो रहा हूँ, मुझे स्वस्थ होना ही होगा। यह उपन्यास आपको अवश्य ज्ञानपीठ पुरुस्कार दिलवायेगा। हम सब उस दिन की प्रतीक्षा में है। 

काउन्सलर रोज यही थेरपी अलग-अलग तरीके से देता। सारांश यही कि अधूरा उपन्यास पूरा करने और ज्ञानपीठ पुरुस्कार पाने के लिए स्वस्थ होना जरूरी है। सुनो मुझे गहनता से सुनो, ‘मैं स्वस्थ हो रहा हूँ’ मैं स्वस्थ होकर रहूँगा मैं स्वस्थ हूँ  मैं स्वस्थ हूँ।‘ अब आँखें मलते हुए धीरे से उठिए।

‘कैसा महसूस कर रहे हैं। ’ 

‘अच्छा लग रहा है,  ऐसे  ही चलता रहा तो मैं जल्द ही उपन्यास पर काम करने लगूँगा। शुक्रिया आप का बहुत-बहुत शुक्रिया।  शुक्रिया की कोई बात नहीं आप ठीक ही थे लेकिन आपके विचारों की दिशा नकारात्मक हो गई थी आपने दिशा बदल दी और सब कुछ पहले जैसा हो गया।

End