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व्यंग्य के तेवर

वैज्ञानिक दृष्टिकोण

नेहरू जी चाहते थे कि यह पुराना हिन्दुस्तान, जो विश्वास में डूबा है, विज्ञान में उन्नति के शिखर चूमे। वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाकर अपनी जीवन शैली को वैज्ञानिक दृष्टि सम्पन्न बनाये। हुआ भी वही, बड़े-बड़े बान्ध बने, बिजली घर बने, बड़े-बड़े उद्योग खुले, शोध शालायें खुली, इंजीनियरिंग व मेडिकल कालेज खुले, विद्यार्थी पढ़े, कुछ विदेश चले गये, जो नही जा सके वे मन मसोस कर यहीं सरकार की खिदमत करते रहे। हमारे वैज्ञानिकों का यह हाल है कि माशहअल्ला क्या कहें! न वे अपनी संस्कृति छोड़ सकते हैं न अपने संस्कार और विश्वास; वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी नहीं छोड़ सकते। अत: जिस तरह हमने अर्थशास्त्र में मिश्रित अर्थव्यवस्था जैसी नायाब धारणा का विकास किया, करीब वैसी ही नायाब सोच हमारे वैज्ञानिकों ने विज्ञान और विश्वास के मिश्रण मे देखी। पूरव और पश्चिम का अद्भूभुत मिलन। उद्योग लगे तो भूमि पूजन हो, मशीन लगे तो नारियल फूटे, प्रसाद जरूर बंटे, अगरबत्तियाँ और दीप जरूर प्रज्जवलित हो, पंडित जरूर मंत्र पढे अब यह सब ना हो तो वैज्ञानिकों पर संस्कृति विहीन और संस्कार हीन होने का आरोप लगेगा।

एक बार हमारे मन में आई कि पंडत तू संस्कृत पढ़ा है, धर्म की किताबे पढ़ी हैं, बच्चों की पुस्तकों से विज्ञान भी पढ़ ही रहा है, तो मन में एक दुविधा उठी कि सूर्य ग्रहण, राहु-केतु जब सूर्य को ग्रस लेते हैं, तब होता है या विज्ञान के अनुसार सूर्य और पृथ्वी के बीच मे चन्द्र के आने से होता है, तो हमने यह दुविधा चीफ इंजीनियर के सामने रखी, वे हनुमान भक्त थे, अक्सर मंदिर में भेंट होती थी, कुछ धार्मिक चर्चा भी होती थी, जब कभी जरूरत पड़ती प्रोजेक्ट में पूजन करने चला जाता, विश्व्कर्मा पूजा तो होती ही है। चीफ साहब आप दोनों दृष्टिकोण में सामंजस्य कैसे बिठाते हैं? वे बोले इट्स वैरी सिम्प्ल। धर्म को धर्म की तरह मानो और विज्ञान को विज्ञान की तरह। बस नो प्रोब्लम। गैलिलियो ने कहा - पृथ्वी सूरज के चारो और चक्कर लगाती है जबकि विश्वास कहता है, सूरज पृथ्वी के चारों और चक्कर काटता है, वह बेकार अपनी बात पर अड़ा रहा, जिससे उसे जेल की हवा खानी पड़ी, हमे देखिये कि हम धर्म का प्रसाद भी खा रहे हैं और विज्ञान के लड्डू भी, पंड़ित जी अपनी दुविधा यहीं छोड़िये, सबसे बड़ा सिद्धांत है कि आपके दोनों हाथ में लड्डू है या नहीं।

लडो डट कर लडो

भाई-भाई लड़ते है, हिन्दु-मुस्लिम भाई-भाई है, इसलिए आपस में लड़ते है। अगर भाई-भाई नहीं होते तो आपस में नहीं लड़ते। पहले हिन्दी चीनी भाई-भाई थे इसलिए आपस में लड़े। जब से दुश्मन हुए है, नहीं लड़े।

जब हम कहते हैं कि हिन्दु-मुसलमान लड़ते हैं तो इसका तात्पर्य है कि हिन्दु-हिन्दु नहीं लड़ते, मुसलमान-मुसलमान नहीं लड़ते लेकिन पश्चिमी पाकिस्तान, पूर्वी पाकिस्तान से लड़ा, इराक कुवैत से लड़ा, इरान-इराक लड़े, लोगों को बिना लड़े चैन नहीं मिलता सो लोग आपस में लड़ते है।

संजीदा लोगों को भाइयों के झगड़ों में नही पड़ना चाहिए। सरकार को भी चाहिए कि वह भाई-भाई के झगड़ों में अपने कानून का डंडा नहीं घुमाएं बल्कि लड़ने के लिए स्टेडियम प्रदान करे और टिकट लगाकर तमाशा दिखाए ताकि सरकार का रेवेन्यू बढे।

कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें लड़ने का नहीं, लड़ाने का शौक है। उन्हें लोगों को लड़ाये बिना चैन नहीं मिलता। जैसे नवाब पहले मुर्गे लड़ाते थे, आजकल के नवाब आदमियों को लड़ाते हें जैसे मीणा को गूजर से, दलित को ब्राहण से, पिछड़े को अति पिछड़े से।

आजादी के बाद का इतिहास आपस में लड़ने का इतिहास रहा है। आजादी प्राप्त होते ही हिन्दु-मुसलमान लड़े, फिर मराठी-तेलगू, यानी भाषा के नाम पर लड़े, प्रांतो पर लड़े, नदियों के बंटवारें को लेकर लड़े, हिंदू-सिक्ख जम कर लड़े, बाबरी मस्जिद को लेकर कारसेवक मुसलमान से लड़ मरे। आदिवासी- गैर-आदिवासी लड़े, कम्यूनिस्ट कम्यूनिस्ट से लडे, नक्सली सरकार से लड़े, आरक्षण हितैषी-आरक्षण विरोधी से लड़े भारतीय मुजाहदीन और अभिनव भारत लोगों को लामबन्द कर रही है। नहीं लड़ने वाले की, लड़ने वाले नहीं सुनते वे कहते है तुम यह बताओ कि तुम किस तरफ हो। किसी भी तरफ नहीं हो तो हिजड़ै हो। लड़ो - डट कर लड़ो। आमीन।

भारत भाग्य विधाता

कमाल है हमारे जनतंत्र की, दाद तो देनी पड़ेगी कि हम हर बार चुनावों के बाद ज्यादा अपराधियों को पार्लियामेंट भेज देते हैं। करोड़पतियों को भेजकर उन्हें सम्मान से नवाजते हैं। वे आपके आभारी है लेकिन तुमने यह क्या किया! बिल्ली के हाथ में चूहों का कल्याण सौंप दिया! ऐसे सांसद एक तो राजनैतिक दलों के संख्या बल को बढ़ाते है और जरुरत पड़ने पर संसद में हाथ खड़े कर देते है। दूसरे संसद में कोई सवाल नहीं करते अपने क्षेत्र की समस्या नहीं उठाते बस उंघते रहते हैं। आरक्षित कोटे से चुने सांसदों ने कभी अपने वर्ग पर होते अत्याचार का मामला उठाया दलों के पार जाकर तो फिर करते क्या हैं? सत्ता के गलियारों में टहलते हैं और अपना तथा अपनों के हित का जुगाड़ करते हैं हालत यह है कि संसद में कोरम पूरा नहीं होता। वे तो बस सत्ता का स्वाद चखने के लिए यहाँ आ जाते हैं. सत्ता का स्वाद कैसा होता है/ जरुर जायकेदार होता होगा तभी तो चुनाव जीतने के लिए बंदा कुछ भी करेगा हंसेगा, रोयेगा, दहाडेगा, मिमिक्री करेगा। बार-बार विश्वास दिलाएगा, भावुक अपील करेगा, कसमें उठाएगा, गंगाजल हाथ में लेगा, हिन्दू-मुसलमान करेगा, दलित-ब्राहमण करेगा, लेकिन वोट जाने नहीं देगा। बदले में पाते हैं जिंदगी भर लाखों की पेंशन और सुविधाएँ। जैसे एक कर्मचारी का वार्षिक असेसमेंट होता है इनका होने लगे तो आधे से ऊपर बर्खास्त करने योग्य मिल जायेंगे लेकिन हम उन वोटर का क्या करें जो उन्हें फिर जितवा कर भेज देते है। भारत भाग्य विधाता को नमन है!

कानूनी किताबों के बारे में

जरा उॅची देकर पटखनी दो, तब कहीं जाकर कमाई होती है। कानूनी किताबों के भरोसे कमा खाना यहॉं असम्भव है। मुवक्किल ही तुम्हारा मुर्गा है और मुवक्किल ही तुम्हारी मुर्गी। तुम चाहो तो मुर्गा काट लो और तुम चाहो तो मुर्गी के अण्डे खाते रहो, जैसा उचित समझो।

एफ. आई. आर दर्ज होते ही या गिरफतारी होते ही मुजरिम वकील की टोह लेता आपके पास आता है, आपका फर्ज है कि उसे बैठने को कहे, उसे पीने को पानी दें, साथ ही तसल्ली दें। आश्वस्त करें की घबराने की बात नहीं है, अभी निपटा देते है।

जैसे ही वह आश्वस्त हो, उसे आई.पी.सी. के प्रावधान बताएं और तफसील से बताए, कि इस जुर्म में कम से कम तीन साल की जेल होगी। हाकिम के कर्रा होने के किस्से सुनाएं डी.वाई.एस.पी. के ईमानदार होने के वाकिए बताएँ। और बताएँ कि यह काम बहुत मुश्किल है, पुलिस पर राजनैतिक दबाव लाना होगा, हथकड़ी तो लगेगी, पुलिस रिमांड भी मांगेगी, हाकिम जे.सी. देगा और चार्जशीट भी पुख्ता तय करेगी पुलिस।

लेकिन चिंता न करें, मैं जो हूँ, आप निश्चिंत रहे आखिर हम वकालात कर रहे हैं भाड़ नहीं झोंक रहे है। फिर उसे चाय पिलाए, पीने को सिगरेट दें और उसके साथ आए लोगों को आश्वस्त करें कि आपने किस तरह इससे भी कठिन केस मुजरिम के हक में हल करवाएं है।

स्टडी में रखी हजारों किताबों की तरफ इशारा करे, एक-दो खोल कर देख लें और कहें कि आपको रिलीफ मिलेगा। हालांकि कोई वकील गारंटी नहीं देता, लेकिन आप आश्वस्त रहें मुझे पूरा विश्वास है आपको रिलीफ मिलेगा।

इतना सुनने पर वह ऊब जायेगा। उसे जल्दी है, उसे तुरन्त मुद्दे पर आने की जरूरत है, वह पूछेगा इसमें कितना पैसा लग जायगा। आप पूछें कि केस थाने में सलटाना है या कोर्ट में।

- वकील साहब, आप थाने चलिए, पुलिस ने उसे अपनी कस्टडी में ले रखा है, पुलिस बेरहमी से मार रही है, पहले उसे देखिए, बाद की बात बाद में देखेंगे।

आप तुरन्त रवाना न हो, फोन पर थानेदार से बात करें और बताएं कि आप आ रहे हैं। उनसे पूछें कितने रूपये लेकर आये हो, वे एक-दूसरे की तरफ देखेंगे, एक आध अपनी अंटी की तरफ देखेगा, तगड़ी पार्टी होगी तो बोलेगी कितना लगेगा? आप कहें -अभी पॉंच हजार दे दो बाकी बाद में देख लेगें। वे तीन निकाल कर देंगे।

थाने जाएं, थानेदार से बात करें, मुजरिम के सगे से कहे, साहब के लिए ठण्डा लायें, सिगरेट का पेकेट लायें. थानेदार कर्रा पड गया।

-मैं कुछ नहीं कर सकता आप साब से बात कर लें ।

आप डीवाई.एस.पी. की चेम्बर में जाएं कुछ और बात करें बाहर निकल कर अपने मुवक्किल के हमदर्द को बताएं, यह बात थानेदार की पहुँच से बाहर चली गई है। इस तीन हजार से आपका काम नहीं होगा। और जेब से तीन निकालकर उनके हाथ में रख दें। वे नहीं-नहीं कर पैसे आपको लौटा देंगे और अन्टी से दो हजार निकाल कर आपके हाथ में दे देंगे। उनसे कहें आप बाहर बैठें, मैं मुजरिम से बात करूंगा, कॉंपते मुजरिम को तसल्ली दें। अभी बाहर निकलवाता हूँ। घर वाले खाना लेकर आएं है, लेकिन पुलिसवाला उन्हें खाना नहीं देने देता है । कस्टडी में जहॉं हैं वही कोने में मूत रहा है, दुर्गन्ध आ रही है। फिर मिलें थानेदार से चुपके से, दो हजार उन्हें दे, फिर मुजरिम को छुड़ा कर, उसके सगों के हवाले कर दें, और ताकीद कर दे कि सुबह सात बजे के पहले मुजरिम फिर थाने में हाजिर हो जाएं। यहॉं से पुलिस उसे कोर्ट में पेश करेगी। जब पक्की हामी भरें तो ही उसे जाने दे।

कस्टडी में पिटाई नहीं हो उसकी तय रेट है, आरोपी से मिलने का, थाने के परिसर में घूमने का भी रेट तय है मुजरिम चाय, समोसे, सिगरेट मंगा कर खा पी सके इसके लिए जेब में पैसे रखने की छूट है मगर शर्त है कि थाने के सभी कर्मचारी /सिपाही चाय वगैरह पीयेंगे। बिना हथकड़ी कोर्ट में पेश होना है या हथकड़ी लगाकर गली-गली घूमाकर थाने ले जाने में जो भी पसन्द है इसकी छूट भी पुलिस देती है।

कोर्ट परिसर में पॉंव रखते ही हाकिम, पी. पी., पेशकार , बाबू-मुंशी और चपरासी सबके नाम के पैसे मुजरिम के रिश्तेदारों से प्राप्त करें फिर अपनी फीस भी प्राप्त करें। सबके नाम का पैसा लेने से एक फायदा यह होता है कि मुवक्किल को तसल्ली हो जाती है कि अब यह काम होगा। बताइये यह कमाई कानूनी किताबों से हो सकती है। क्या कानूनी किताबों में इस कमाई की तरफ कोई ईशारा किया गया है।

बेहतर तो यह है कि किसी न किसी हाकिम से आपकी सेटिंग हो तब प्रेक्टिस ऐसी दौड़ेगी कि ब्रेकर लगाने पर भी नहीं रूकेगी।

संगीन मामला, अगर महीने में एकाध भी हाथ लग जाये तो महीनों की कमाई खरी हो जाती है। हाकिम, पी.पी और पेशकार से सेटिंग रखने के लिए मोटी पुस्तके काम नहीं आती है न ही कानूनी दलीलें। हाकिम की त्यौहार पर भेंट पूजा करें, दावत आदि पर बुलाते रहें रोज कुछ न कुछ कमाई करवायें तब आपका दबदबा और रूआब बनेगा इतना ही नही कि आप थाने और कचहरी तक ही अपने आप को सीमित कर ले, आजकल मुख्य राजनैतिक पार्टियों में आपके टाउट होने चाहिए जो आपको केस ही लाकर नहीं देंगे बल्कि वक्त जरूरत राजनैतिक दबाव लाने में भी आपकी मदद करेंगे, राज किसी पार्टी का हो, आपको हर पार्टी अपना समझे। कई काम तो मेल मिलाप से ही निपट जाते है। खासतौर से समझौते करवानें में यह कला काम आती है और केस के फैसले तक आपको इन्तजार नहीं करना पडता, पता नहीं उॅंट किस करवट बैठे। अतः समझौते करवा लो कोर्ट भी हमेशा समझौते के हक में रहती है। हाकिम को फैसले नहीं लिखने पडते और फाईल निपट जाती है। टारगेट पूरे हो जाते हैं और प्रमोशन लेकर ऊपरी की कोर्ट में चले चले जाते है।

कानूनी पुस्तकें वकील का गहना है जो मुवक्किलों पर रौब मारने के काम आता है या यू कहें उन्हें फॉंसने के काम में आता है। अब मुवक्किल भी बेवकूफ नहीं रह गये है वे तहकीकात करते हैं कि कौनसे वकील की सबसे अच्छी सेटिंग है और कौन उन्हें रिलीफ दिलवा सकता है।

गरीब की वृद्धि दर

आंकड़े बताते हैं कि अब भारत में गरीबी 25 प्रतिशत ही रह गई है जबकि अन्य आंकड़े बताते है कि भारत की 70 से 80 प्रतिशत जनसख्या 20रूपए से कम पर गुजारा करती है यह तो तब है जब हमारी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 8 से 11 प्रतिशत है अगर अर्थ व्यवस्था में वृद्धि हुई है तो गरीबी कम होनी चाहिए इस दृष्टि से देखे तो पहला वाला आंकड़ा सही लगता है लेकिन विद्वान लोग दूसरी दृष्टि से भी देखते हैं आर्थिक वृद्धि हुई, धन बढ़ा लेकिन वह मलाई उड़ाने वालों की जेब में ही चला गया। इसलिए जो धन 20 प्रतिशत तक पहुँचना था वह पहले से ही पेट फुलाये, धापे लोगों की जेब में चला गया। खैर देश का धन तो देश में रहा, कम से कम राष्ट्र को तो नुकसान नहीं पहुंचा, चाहे 70 प्रतिशत गरीब को पहुंचा हो। लेकिन कुछ विद्धान कहते है इन 20 प्रतिशत खाये-अघायें लोगों में उपर के 5 प्रतिशत लोगों ने इतना धन कमाया (लूटा) है कि उसे भारत में नहीं रख सकते थे, सो उन्होनें स्वीस बैंक में जमा करा दिया है, लोग इसे कालाधन कहते हैं। धन कभी काला नहीं होता, उसकी चमक हमेशा बनी रहती है उसे तराशने के लिए जौहरी नहीं चाहिए। वे तो रेडियम की तरह चमकते रहते है। कुछ श्याणे लोगों ने विदेश में बड़े-बड़े फार्म खरीदे हैं, बंगले खरीदे हैं, होटल खरीदे हैं, उद्योग खरीदे हैं, और यह सारा पैसा विदेशों में हवाले के तहत पहुंचा यानि काले धन को सुनहरा करने का विदेश में सुअवसर पाकर हमारे 1 प्रतिशत नागरिक धन्य हो गये हैं। राष्ट्र को भी गर्व करने का सुअवसर दिया है कि भारतीय विदेशों में निवेश कर रहे हैं। देखा! भारत की प्रगति। और यहाँ हम एफ डी आई के लिए चिंतित है। क्या गणित है ! हमारा पैसा विदेश में और विदेश का पैसा भारत में। क्यों नहीं होगा? पूंजी तो वही जायेगी जहां उसे मुनाफा हो। उनके बच्चे विदेशों में पढ़ते है उनकी छुट्टियां लाॅस-वे-गास में गुजरती है। और शाम को डिस्को, केसिनों और एक्सक्लूंिसव क्लबो में गुजारते है एक दिन का खर्च गरीब के दस साल के खर्च के बराबर। अब ये लोग राजे-महाराजे हो गए। बेहतर से बेहतर वाइन और वूमेन तक पहुँच है क्योंकि उनके पास वेल्थ है। अब इन तीन का संगम हो जाये तो स्वर्ग धरती पर है आखिर इन्द्र लोक में भी तो देवताओं के पास यही है लेकिन 70 प्रतिशत के लिए तो उन्होंने नरक की रचना कर ही दी है। नरक की रचना करने वालों में राजनेता, उद्योगपति, ठेकेदार कम्पनियां, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ यानि कोर्पोरेट जगत सभी महारथी, बडे-बडे प्रशासनिक अधिकारी, सरकारी अमला जन जन के लिए नरक रच रहे हैं। सरकार आर्थिक वृद्धि का बाजा बजाती रहती, ‘भारत महाशक्ति का शखंनाद करता है और नरक की ओर ध्यान दिलाने पर भी नहीं देखता। क्यों देखे? जब उजला पक्ष मौजूद हो। सो सरकार उजला पक्ष ही देखती है और जनता को भी दिखाती है। उजले पक्ष और पोजेटिव थिंकिंग के ऐसे-ऐसे किस्से सुनने को मिलते हैं कि सारे गरीब लोग इन किस्सों को सुनकर ही गरीबी-रेखा के पार कूद जायेंगे। इतिहास यह सिद्ध नहीं करता लेकिन सरकार है कि इसे सिद्ध करने पर तुली है।

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