सन्यासी -- भाग - 11 Saroj Verma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सन्यासी -- भाग - 11

जयन्त बुझे मन से अपने कमरे में आया,उसे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा था,धनिया के मरने की खबर उसे आहत कर गई थी,वो स्नान करने के लिए स्नानघर में घुस गया और तब तक स्नान करता रहा ,जब तक कि उसका मन शान्त ना हो गया,इसके बाद वो तैयार हुआ और किसी से बिना कुछ कहे अपनी साइकिल उठाकर वो घर के बाहर चला गया,वो कहीं नहीं मंदिर गया था और वहाँ वो वृद्ध पुजारी जी के पास पहुँचा,उसने उनके चरण स्पर्श किए और उनके पास जाकर शान्ति से बैठ गया,जब वृद्ध पुजारी जी ने जयन्त को आहत देखा तो उन्होंने उससे पूछा....
"क्या बात है जयन्त! बड़े बुझे बुझे से दिख रहे हो",
"जी! बाबा! मन थोड़ा अशान्त सा है आज",जयन्त ने कहा...
"क्या हुआ? आज फिर ऐसा कुछ घटित हुआ क्या जिसकी तुम्हें आशा नहीं थी",पुजारी जी ने पूछा....
"जी! बाबा! मैं समाज में स्त्रियों की दशा को लेकर बहुत चिन्तित हूँ,स्त्रियाँ इस दोगले समाज और परिवार के सामने इतनी विवश हो जाती है कि आत्महत्या कर लेतीं हैं,आखिर स्त्रियाँ कब तक यूँ ही अबलाएँ बनी रहेगीं,कब तक यूँ ही अत्याचार सहतीं रहेगीं",जयन्त बोला....
तब पुजारी जी जयन्त से बोले...
"बेटा! अभी तो समय लगेगा स्त्रियों की दशा सुधरने में,क्योंकि सदियों से चलीं आ रहीं परम्पराएँ यूँ ही एक क्षण में नहीं बदला करतीं,परम्पराओं और मान्यताओं ने स्त्रियों का जीवन इतना कठिन कर दिया है कि स्त्रियाँ स्वयं पतन की ओर जा रहीं हैं,उन्हें अपने उत्थान के लिए स्वयं ही प्रयास करने होगे,क्योंकि सदियों से चली आ रही पित्रसत्तात्मकता यूँ ही समाप्त नहीं हो सकती,स्त्रियों को स्वयं के विकास के लिए पहले शिक्षित और योग्य बनना होगा,यूँ घर की चारदीवारी के भीतर उनका उत्थान सम्भव ही नहीं है,जयन्त तुम स्वयं ही देख लो कि तुम्हारे घर की स्त्रियों में से कितनी शिक्षित हैं,शायद एक भी नहीं होगीं,उनमे से कुछ को तो लिखना पढ़ना भी नहीं आता होगा,
जब मैं तुम्हारी उम्र का था ना तब ये सब विचार मेरे मन में भी आया करते थे, मैंने अपने विचारों को साकार करने लिए बहुत प्रयास भी किए लेकिन सफल नहीं हुआ,मैं तब जवान था और सरकारी नौकरी करता था,सरकारी नौकरी में पैसा तो बहुत था लेकिन सम्मान नहीं था,गोरे साहबों की झिड़कियाँ और अपमान मुझसे सहा ना गया इसलिए मैंने नौकरी छोड़ दी, परिवार वाले मेरे विरोधी स्वाभाव से प्रसन्न नहीं थे इसलिए फिर मैंने घर द्वार छोड़कर ऐसा जीवन अपना लिया,सालों हो गए मुझे अपने गाँव घर गए हुए,अब मैं यूँ ही भगवान की भक्ति करके ही प्रसन्न हूँ,सन्यासी बनकर बहुत शान्ति मिली मुझे"
"तो क्या मुझे भी आप सा बनना होगा",जयन्त ने पुजारी जी से पूछा...
"नहीं! तुम्हें अभी मेरे जैसा बनने की जरुरत नहीं है,मैं तब नासमझ था और हार मान बैठा ,इसलिए ऐसा बन गया,लेकिन तुम इतनी जल्दी हिम्मत मत हारो,संघर्ष करो,दूसरों के सामने अपना मत रखो,विचार रखो, जीतने की कोशिश करो,याद रखो या दुनिया हमेशा जीतने वालों का साथ देती है ,हारने वालों का नहीं", पुजारी जी बोले....
"जी! मैं समझ गया आपकी बात,अब अशान्त मन को शान्ति मिली",जयन्त बोला...
"हाँ! और सुनो,जीवन से कभी भागना मत,कायर भागते हैं जीवन से,जब तक जीवन है तो संघर्ष करते रहना",पुजारी जी बोले...
"जी! बहुत बहुत धन्यवाद,अब मैं चलूँगा,क्योंकि काँलेज जाने का समय हो गया है"जयन्त अपनी जगह से उठते हुए बोला....
"और सुनो उधर रामबालक बैठा होगा,उससे कहकर प्रसाद ले लो,मुझे मालूम है कि आज तुम घर से कुछ भी खाकर नहीं आएँ होगें",पुजारी जी बोले....
फिर पुजारी जी की बात सुनकर जयन्त मुस्कुराकर बोला...
"आपसे क्या छुपा है,आप तो सब जानते हैं"
फिर जयन्त पुजारी जी के चरणों में नतमस्तक हुआ और फिर उसने रामबालक से प्रसाद लिया ,इसके बाद प्रसाद खाकर वो साइकिल में बैठकर काँलेज की ओर निकल गया,काँलेज पहुँचा तो उसे अनुकम्पा गेट पर ही मिल गई ,उसका ड्राइवर उसे मोटर से काँलेज छोड़कर वापस घर जा रहा था,अनुकम्पा ने जैसे ही जयन्त को देखा तो उससे बोली...
"अरे! जयन्त बाबू! आज आप जल्दी आ गए"
"हाँ! ऐसे ही कुछ काम था ,इसलिए जल्दी आ गया",जयन्त बोला...
"हाँ! मुझे भी काम था,मुझे लाइब्रेरी से कुछ किताबें निकलवानी थी,इसलिए जल्दी आ गई",अनुकम्पा बोली...
"तो फिर आप लाइब्रेरी हो आइएँ,मैं तक अपने काम भी निपटा लेता हूँ",
"ठीक है"अनुकम्पा बोली...
और फिर जयन्त वहाँ से चला आया,उसे अभी एकान्त की जरूरत थी, इसलिए वो सबसे दूर आकर एक आम के पेड़ के नीचे आकर बैठ गया,उसके भीतर अभी भी अशान्ति थी और उसे दूर करने के लिए उसने अपने हाथ में ली हुईं किताबें धरती पर रखी दीं और थोड़ी देर के लिए आँखें बंद करके वो पेड़ से टिककर बैठ गया, तभी वहाँ एक चुलबुली सी लड़की आई जिसकी उम्र यही कोई सोलह सत्रह साल रही होगी, जो कि अपनी बकरी चरा रही थी,बकरी को पता नहीं क्या सूझा वो जयन्त के किताबों के पास जाकर उन्हें खाने की कोशिश करने लगी तो वो लड़की अपनी बकरी से बोली...
"ओ...रामप्यारी! किताबें खाने की चींज नहीं होतीं,पढ़ने की चींज होतीं हैं"
उन दोनों का शोर सुनकर जयन्त ने अपनी आँखें खोल दी और उस लड़की से पूछा...
"यहाँ क्या कर रही हो तुम?"
"मैं तो यहाँ रोज अपनी बकरी चराने आती हूँ,तुम बताओ कि तुम कौन हो?" उस लड़की ने कहा...
"पहले सवाल मैंने पूछा है तो पहले जवाब तुम दो",जयन्त ने कहा...
"अरे! ऐसे कैंसे जवाब दे दूँ,पहले तुम जवाब दो कि तुम कौन हो?",वो लड़की अकड़कर बोली...
तभी उस लड़की के पिता वहाँ पर आएँ और उस लडकी से बोले....
"ओ...फागुनी! बाबूजी से काहें बहसबाजी कर रही हो बिटिया!
जैसे ही जयन्त ने उस लड़की के पिता को देखा तो बोला....
"अरे! लखन लाल तुम",
"हाँ! बाबूजी! हम ही है और ये हमारी बेटी है फागुनी",लखनलाल बोला...
"तुम यहाँ क्या कर रहे हो,काँलेज नहीं गए",जयन्त ने पूछा...
"हम यही रहते हैं बाबूजी! ऊ देखो हमार झोपड़ी",लखन लाल बोला.....
"काँलेज के चपरासी को यहाँ रहना पड़ता है,तुमलोगों के लिए तो काँलेज ने पक्के मकान दे रखें हैं ना!",जयन्त बोला...
"हाँ! मकान तो दे रखा है,लेकिन काँलेज के बाबू ने ऊ मकान किराएँ पर चढ़ा दिया और हमसे बोले कि तुम ई झोपडी़ में रहो और अगर किसी से कुछ कहा तो नौकरी से निकाल दिए जाओगे,अब आप ही बताओ बाबूजी! सयानी बिटिया को लेकर कहाँ जाऐगे,उस पर से इसकी माँ भी नहीं है,इसलिए जैसे तैसे इसी झोपड़ी में गुजारा कर रहे हैंं",लखन लाल बोला...
"अच्छा! तो ये बात है,मैं अभी उस बाबू सुमेर सिंह की खबर लेता हूँ,गरीबों हक़ छीनता है नामाकूल कहीं का", जयन्त गुस्से से बोला....
"नहीं! बाबूजी! आपको हमारी कसम! ऐसा मत कीजिएगा,वो बहुत खतरनाक इन्सान है,जैसा चल रहा है चलने दो,शायद हम गरीबों की किस्मत में यही लिखा होता है",लखनलाल बोला...
"ऐसे कैंसे चलने दूँ,वो गुण्डा होगा तो अपने लिए होगा,मैं उसकी शिकायत प्रिन्सिपल से जरूर करूँगा", जयन्त गुस्से से बोला...
"नहीं! बाबूजी! तरस खाइए हम पर,हमें कोई लड़ाई झगड़ा नहीं चाहिए",लखनलाल गिड़गिड़ाते हुए बोला...
"तुम जैसे लोग पीछे हट जाते हैं,गलत के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाते, तभी तो ऐसे लोगों की हिम्मत बढ़ती है",जयन्त बोला...
"जाने दीजिए ना बाबूजी! हमें नहीं उलझना उस आदमी से,वो ठीक आदमी नहीं है और आप भी मत उलझिए उससे", लखनलाल बोला....
"तुम कहते हो तो छोड़ देता हूँ लेकिन मैं कुछ ना कुछ तो जरूर करूँगा,उसकी असलियत सबके सामने आनी चाहिए",जयन्त बोला....
"लेकिन अभी कुछ मत कीजिएगा",लखनलाल बोला...
"ठीक है,लेकिन मैं चुप नहीं बैठूँगा", और ऐसा कहकर जयन्त वहाँ से गुस्से में चला आया...

क्रमशः...
सरोज वर्मा...