सन्यासी -- भाग - 9 Saroj Verma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सन्यासी -- भाग - 9

दूसरे दिन भोर होते ही जयन्त जाग गया,इसके लिए उसने अलार्म लगाकर रखा था,क्योंकि उसे अपनी माँ नलिनी पर नज़र रखनी थी,नलिनी भोर होते ही काम पर लग जाती थी,वो आँगन में आकर वहाँ का नल खोलकर पटले पर बैठ जाती थी और घर भर के गंदे कपड़े धोने लगती थी,इसके बाद वो स्नान करके पूजा करती थी और फिर रसोईघर में सबके लिए नाश्ता बनाने के लिए जुट जाती थी,क्योंकि सुबह सुबह सुरबाला और गोपाली अपने बच्चों को सम्भालती थी,इसलिए दोनों रसोई में समय नहीं दे पातीं थीं,लेकिन जयन्त ने उस दिन ऐसा नहीं होने दिया...
आज उसने अपनी दोनों भाभियों से कहा कि वो और सुहासिनी मिलकर उनके बच्चों को सम्भाल लेगें, इसलिए आज नाश्ते की जिम्मेदारी तुम दोनों की है...
फिर सुरबाला और गोपाली ने नाश्ता तैयार किया और सभी नाश्ता करके अपने अपने काम को निकल गए...
काँलेज जाते समय जयन्त ने घर की सभी महिलाओं को हिदायत दी कि आज माँ कोई भी काम ना करने पाएँ और उसने अपनी छोटी बहन सुहासिनी से कहा कि माँ को दोपहर का खाना तुम अपने हाथ से खिला देना,इतना कहकर वो काँलेज चला गया....
वो काँलेज पहुँचा तो उसका दोस्त वीरेन्द्र उसका इन्तजार कर रहा था,जयन्त वीरेन्द्र के पास पहुँचा तो वीरेन्द्र ने उससे पूछा....
"आज बड़ी देर कर दी तूने"
"हाँ! माँ के हाथ में चोट लग गई है,इसलिए नाश्ता वगैरह भाभियों ने बनाया और मैं उन दोनों के बच्चों को सम्भाल रहा था, इसलिए देर हो गई",जयन्त ने कहा...
"ये तो मुझे मालूम है कि तू अपनी माँ से बहुत प्यार करता है,लेकिन अपनी भाभियों का भी तू इतना ख्याल रखता है,ये मुझे नहीं मालूम था",वीरेन्द्र ने जयन्त से कहा...
"मैं समूची नारी जाति की इज्ज़त करता हूँ, इसलिए अपने घर की नारियों की इज्जत करना तो मेरे लिए वाजिब सी बात है",जयन्त बोला....
"तेरी सोच बिलकुल ठीक है मेरे भाई! लेकिन इस समाज को तू कभी नहीं बदल सकता,सदियों से जो दकियानूसी विचारधारा चली आ रही है ,उसे तू कैंसे बदलेगा",वीरेन्द्र ने पूछा....
"माना कि मैं लोगों की विचारधारा को नहीं बदल सकता ,लेकिन कोशिश करने में क्या बुराई है",जयन्त बोला...
"भाई! वो कहावत है ना कि "अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता",तो ये बता कि तू अकेले कैंसे ये काम कर सकता है",वीरेन्द्र ने पूछा...
"यार! तू मेरा मनोबल बढ़ा नहीं सकता तो कम से कम मेरा मनोबल गिरा तो मत,तू दोस्त होकर ऐसी बातें करता है तो फिर मैं और किसी से क्या उम्मीद रखूँ",जयन्त ने वीरेन्द्र से कहा....
"भाई! मैं तेरा मनोबल नहीं गिरा रहा हूँ,मैं तो एक सामान्य सी बात कह रहा हूँ,जिस जमाने में महिलाओं का घर से निकलना,पढ़ाई करना,पुरूषों के सामने मुँह खोलना वर्जित है ,तो तू उस समाज में अकेले कैंसे ये सब सुधार ला पाऐगा,जहाँ स्त्रियाँ अभी भी पर्दे में रहतीं हों और जिन्हें उन पर्दे की आदत पड़ चुकी हो तो तू उन स्त्रियों से कैंसे कहेगा कि " घूँघट के पट खोल",वीरेन्द्र ने कहा...
"देखता हूँ कि कैंसे करूँगा,लेकिन मैं ये काम एक ना एक दिन करूँगा जरूर,तू देख लेना",जयन्त बोला...
"ठीक है! अब जयन्त बाबा आपके प्रवचन खतम हो चुके हो तो आपका ये शिष्य क्लासरूम चलने की विनती करता है" वीरेन्द्र ने हाथ जोड़ते हुए कहा....
"हाँ! शिष्य! चलो अब क्लासरूम चलते हैं,हमारे प्रवचन अब समाप्त हुए" जयन्त ने कहा...
तो जयन्त की इस बात पर वीरेन्द्र हँस पड़ा और इसके बाद दोनो क्लासरूम में पहुँचे,वे दोनों वहाँ पहुँचे तो आज अनुकम्पा मुखर्जी क्लासरूम में पहले से ही मौजूद थी और जैसे ही उसने जयन्त और वीरेन्द्र को क्लासरूम में आते देखा तो दोनों को हाथ हिलाकर उसने हैलो बोला....
जयन्त और वीरेन्द्र ने भी मुस्कुराकर उसके हैलो का जवाब दिया,इसके बाद प्रोफेसर साहब क्लासरूम में आए और उन्होंने क्लास लेनी शुरु कर दी,आज क्लासरूम में मदन और सुधीर ने भी कोई बतमीजी नहीं की,क्लास लेने के बाद प्रोफेसर साहब चले गए,इसके बाद दूसरे प्रोफेसर भी क्लास लेने आ पहुँचे,इस तरह से दो तीन क्लासेस होने के बाद लंचटाइम हुआ तो जयन्त और वीरेन्द्र क्लासरूम से बाहर आकर एक पेड़ के नीचे आ बैठे और फिर वहाँ कुछ ही देर में अनुकम्पा मुखर्जी भी उनके पास आ पहुँची और दोनों से बोली....
"तो आप दोनों यहाँ हैं,मैं कब से आप दोनों को ढूढ़ रही थी",
"कोई काम था क्या आपको हम दोनों से?",वीरेन्द्र ने पूछा...
"जी! नहीं! कोई काम नहीं था,वो इसलिए कि इस काँलेज में मैं आप दोनों को ही जानती हूँ,इस काँलेज में और कोई दोस्त नहीं है मेरा",अनुकम्पा मुखर्जी बोली....
"क्यों? क्लासरुम में और भी तो लड़कियाँ है,क्या आपकी उनसे दोस्ती नहीं हुई",जयन्त ने पूछा....
"क्लास में लड़कियांँ हैं ही कितनी,गिनती की दो तीन लड़कियांँ ही तो हैं और वे मुझसे बात नहीं करना चाहतीं, मुझे देखकर वे मुँह बना रहीं थीं,इसलिए उन सब से बात करना मुझे सही नहीं लगा",अनुकम्पा उदास होकर बोली....
"आप शायद उन सब में ज्यादा खूबसूरत और अकलमंद हैं,इसलिए शायद वे सभी लड़कियांँ आपसे ईर्ष्या रखतीं हैं", वीरेन्द्र बोला....
"अब ये तो मुझे नहीं मालूम,लेकिन अब से आप दोनों ही मेरे दोस्त हैं"
और ऐसा कहकर वो भी उन दोनों के साथ पेड़ के नीचे जा बैठी,फिर उसने अपना बैग खोलकर उस मे से एक डब्बा निकाला,इसके बाद वो डब्बा खोलकर उसने दोनों के सामने बढ़ाते हुए कहा....
"लीजिए! खाइए"
"अरे! आज आप पराँठें लाईं हैं",वीरेन्द्र ने कहा...
"हाँ! क्योंकि जयन्त बाबू तो कैन्टीन का खाते ही नहीं हैं और मैं कैन्टीन अकेले जाना नहीं चाहती थी, इसलिए महाराजिन से कहकर सुबह सुबह ही आलू के पराँठे बनवा लिए",अनुकम्पा बोली...
"आप इतनी अमीर हैं,इसलिए शायद आपकी माँ घर का खाना नहीं बनातीं होगीं",वीरेन्द्र ने कहा...
"आप गलत समझे वीरेन्द्र बाबू! मेरी माँ को तो खाना बनाने का बहुत शौक था,वो मुझे हर रोज तरह तरह का खाना बनाकर खिलातीं थीं",अनुकम्पा बोली...
"थीं...मतलब,अब कहाँ हैं आपकी माँ",वीरेन्द्र ने पूछा...
"जी! भगवान के पास,मैं जब पाँचवीं में पढ़ती थीं,तो तब वे मुझे छोड़कर चलीं गईं थीं",अनुकम्पा बोली...
"ओह...अफसोस हुआ ये जानकर,बीमार रहीं होगीं शायद",वीरेन्द्र बोला...
तब अनुकम्पा उदास होकर बोली....
"जी! नहीं! वो माँ बनने वालीं थीं,डाक्टर ने उन्हें मना भी किया था,कहा था कि उनके शरीर में बहुत खामियाँ हैं,वे अगर दोबारा माँ बनी तो उनकी जान को खतरा भी हो सकता है,लेकिन मेरी दादी और मेरे पापा को लड़का चाहिए था,उन दोनों ने इस बात के लिए मेरी माँ का जीना मुहाल कर रखा था,इसलिए मेरी माँ ने अपने शरीर की परवाह ना करते हुए दोबारा माँ बनने का खतरा उठा लिया और जब उनका पाँचवाँ महीना चल रहा था तो उनके पेट में बहुत दर्द हुआ,इसके बाद उन्हें अस्पताल ले जाया गया,लेकिन डाक्टर की उन्हें बचाने की बहुत कोशिशों के बावजूद भी मेरी माँ और बच्चे दोनों की जान चली गई और तबसे मुझे अपने पापा से नफरत सी हो गई, मैं ने तबसे उनसे बात करना बंद कर दिया,अब मैं केवल बहुत जरूरत पड़ने पर ही उनसे बात करती हूँ और तबसे मैंने सोच लिया था कि मैं और महिलाओं को अपनी माँ की तरह मरने नहीं दूँगीं,इसलिए मैंने ये विषय चुना,मैं स्त्री रोग विशेषज्ञ बनकर महिलाओं की मदद करूँगीं"
अनुकम्पा की बात सुनकर अब तक शान्त बैठा जयन्त चुप ना रह सका और दोनों से बोला...
"इतना पढ़ा लिखा इन्सान जो कि बैरिस्टर है,वो ऐसी सोच रख सकता है मुझे यकीन नहीं होता,बेटे की चाहत में अपनी पत्नी को बलि चढ़ा दिया",
"ऐसा मत बोल यार! वो अनुकम्पा के पिता हैं",वीरेन्द्र ने कहा...
"कोई बात नहीं वीरेन्द्र बाबू! मुझे जयन्त बाबू की बातों का बुरा नहीं लगा,सच ही तो कहा उन्होंने", अनुकम्पा बोली...
वीरेन्द्र ने उस बात को वहीं रोकने की कोशिश की,क्योंकि उसे पता था कि अगर जयन्त एक बार शुरु हो गया तो फिर उसकी बातें खतम होने वाली नहीं हैं,इसलिए वो अनुकम्पा से बोला...
"अरे! छोड़िए ना ये सब बातें,आप आलू के पराँठे खाइए,",
"सही कहा आपने,पुराने जख्मों को कुरेदने से कोई फायदा नहीं!",अनुकम्पा ने कहा...
"जी! वही तो मैं कह रहा हूँ",वीरेन्द्र बोला...
और फिर उस बात को वहीं पर छोड़कर तींनो आलू के पराँठे खाने लगे.....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....