टोरंटो (कनाडा) यात्रा संस्मरण - 8 Manoj kumar shukla द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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टोरंटो (कनाडा) यात्रा संस्मरण - 8

भारत की आजादी के बाद भारतीयों की संख्या बढ़ी

भारत वर्ष के आजाद होने के बाद १९५१ में भारत सरकार के अनुरोध पर कनाडा की सरकार ने भारत से आने वाले अप्रवासियों के लिए १५० की संख्या निर्धारित की। इसके अलावा कनाडा में रह रहे अप्रवासियों को अपनी पत्नी और बच्चों को बुलाने की छूट मिली फिर यह संख्या बढ़ती चली गई। वर्ष १९७१ से वर्ष १९८२ के बीच में करीब १,७०,००० भारतीय अप्रवासी के रूप में कनाडा आये। अब यह संख्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है।

आज जो भारतीय अप्रवासी कनाडा में हैं उनमें डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक, व्यवसायी, नौकरीपेशा वाले लोगों के अलावा खेतिहर भी हैं। आगे भी दक्षिण एशिया के लोग कनाडा आते रहेंगे, क्योंकि कनाडा की अपनी आबादी स्थिर है। कल-कारखाने बढ़ते जा रहे हैं तो उनमें काम करने के लिए इन्हें अप्रवासियों की जरूरत बनी रहेगी।


एक रोचक बात यहाँ यह है कि जब आप ऐसा चेहरा देखते हैं जो भारतीयों जैसा दिख रहा है तो आप ऐसा न सोच लें कि यह व्यक्ति भारत वर्ष से आया होगा। वह व्यक्ति युगांडा से आया हो सकता है या कीनिया से आया हुआ होगा। हो सकता है वह कभी भारत वर्ष गया भी नहीं हो। हाँ उसके पूर्वज भारत वर्ष से जरूर आये रहे होंगे। हमारे देश के लोग विश्व के कोने-कोने में फैले हुए हैं, यह भी एक गौरव की बात है। यदि आप किसी विष्णु मंदिर में जाएं और किसी हिंदू को पूजा करते देखें और जब उससे बातचीत करना प्रारंभ करेंगे तो ज्ञात होगा कि वह व्यक्ति गियाना या सूरीनाम का है। वह हिंदी बोल भी सकता है या नहीं भी बोल सकता है। एक बार ट्रीनीडाड के एक नवयुवक को मंदिर में भजन गाते हुए सुना। जब उससे बात शुरू की तो उस नवयुवक ने बतलाया कि वह हिंदी नहीं जानता है। यह भजन उसने रोमन लिपि में लिखकर याद किया है। इस भजन का अर्थ उसकी दादी ने उसे बताया था। ऐसे इन सब लोगों को दक्षिण एशिया के मूल के निवासी कहते हैं। कनाडा में दक्षिण एशिया के नाम से टी.वी. स्टेशन है, जो इन लोगों के लिए कार्यक्रम प्रस्तुत करता है।

कनाडा में भारतीय मूल के लोगों का आना और समय के साथ-साथ यहाँ के वातावरण में घुल-मिलकर रहते हुए अपने धर्म, संस्कृति और सभ्यता को जिंदा रखना प्रशंसनीय है। एक सौ साल में भारतीय मूल के लोगों ने यहाँ अपनी एक पहचान बना ली है। जिस गार्डन में मैं अक्सर घूमने जाया करता था वहाँ एक अजनबी व्यक्ति ने दूर से पहचान कर दोनों हाथ जोड़कर मुझसे कहा ‘‘ओ इंडियन, नमस्ते... नमस्कार... ’’ तब मुझे इसका अहसास हुआ। उस समय तक हमारे श्री मोदी जी ने भी भारतीय छवि में इजाफा कर दिया था। यहाँ भारतीय लोग शांतिप्रिय नागरिक माने जाते हैं। कनाडा के विकास में हर क्षेत्र में इनका योगदान है। इनके रहन-सहन का स्तर सबके बराबर या कुछ ऊँचा ही है। इन लोगों ने कनाडा के अन्य नागरिकों से बहुत कुछ सीखा है तो उन्हें नृत्य, संगीत इत्यादि बहुत कुछ सिखाया भी है।

कनाडा की राजधानी ओटावा है। अंटारियो कनाडा देश का एक प्रदेश है, इस प्रदेश में टोरेन्टो एक बड़ा शहर है। मोन्टेरियल भी एक चर्चित शहर है। हम लोग टोरेन्टो शहर के जिस हिस्से में रुके थे। वह वेल्सिली कहलाता है, यह उस शहर का डाउन टाउन ऐरिया है। इसका आशय मुख्य शहर के उस हिस्से से होता है, जहाँ सरकारी-गैर सरकारी आफिस, मुख्य व्यापारिक केन्द्र, बड़ी दुकानें और उँची भव्य इमारतें सभी नजदीक होती हैं।


जन्माष्टमी पर्व

आज जन्माष्टमी का दिन है। गौरव एक दिन पूर्व से कागज को गोल गोल बेंत का आकार देकर झूला बनाने की कोशिश कर रहा था। पुटठे को मोड़कर पालकी बनाई गई फिर उसमें कलर पेपर को चिपकाया गया। काफी सुंदर कृष्ण झूला बन कर तैयार हो गया। शाम को हम सभी पूजन करने वाले थे। कुछ पूजन का सामान श्रीमती जी जबलपुर से ले आयीं थीं। फूल की आवश्यकता थी, इस फूल की नगरी में फूल तोड़ना वर्जित था। आसपास फूल की दुकानें भी नहीं दिखीं। बेटे ने मना किया फूल तोड़ने को, पर श्रीमती के आदेश की अवहेलना कैसे कर सकता था। आठ-दस फूल तोड़ कर ले ही आया।


अपने यहाँ तो सुबह की सैर करने वाले हर नर-नारी हर जगह लगे फूलों पर अपना जन्म सिद्ध अधिकार ही समझते हैं। वे प्रतिदिन भारी मात्रा में फूल तोड़ कर भगवान को चढ़ाते हैं कि आज तो वे खुश होकर दर्शन दे ही देंगे। मजाल है कि कोई मकान मालिक फूल तोड़ने को मना कर दे। खैर ... जन्माष्टमी पर पूजन पाठ किया। हवन कर नहीं सकते थे तो अगरबत्ती जला कर काम चलाया। हलुआ पकवान घर में ही बन गये थे। बहू रोशी ने अंश को कृष्ण बनाया, उसके नटखट बालपन की भावी-भंगिमा को देखकर हम सभी खुश हो रहे थे। फेसबुक पर उसकी और झूले की फोटो डाली गई।


हरितालिका गणेशोत्सव पर्व

कुछ दिन बात ही हरितालिका जिसे तीजा का त्यौहार भी कहते हैं, आया। आसपास की इमारतों से सात आठ भारतीय महिलाओं को बहू रोशी ने अपने घर में बुला लिया था। सभी भारतीय परिधान साड़ी में आईं। माटी के शंकर-पार्वती बनाए गये, पूजन पाठ हुआ। काफी दिनों के बाद एक जगह भारतीय महिलाओं से मिलकर श्रीमती बहुत खुश हुईं। सावन- भादों का महीना तो तीज त्यौहार वाला महीना होता है। हरछठ, संतान सप्तमी गणेश स्थापना आदि। हमारे गौरव के एक मराठी मित्र ने गणेश स्थापना की थी उनके यहाँ हम सभी दर्शन करने गये। विसर्जन पर उन्होंने कुछ मित्रों को परिवार सहित खाने पर बुलाया। गणेश मूर्ति को देख मैं आश्चर्य में जब पड़ा तो गौरव ने बतलाया कि एक दक्षिण भारतीय की जो बड़ी शाप है, उसमें वह भारत से मंगवा लेता है। यहाँ विसर्जन करना मुश्किल होता है,इसके लिए जब भारत में जाते हैं तो साथ ले जाते हैं। नदी तालाब झीलों में कुछ भी डालना वर्जित है। इसलिए यहाँ का पानी कंचन जैसा साफ सुथरा दिखता है। हालाकि प्रायःहिन्दू बाहुल क्षेत्रों में जो मंदिर हैं, वहाँ ही जाकर अपने तीज-त्यौहार मनाते और पूजनपाठ करते हैं।

31 अक्टूबर को हैलोविन डे

31 अक्टूबर को क्रिश्चिन देशों में ‘हैलोविन डे’ मनाया जाता हैं यहाँ पर भी विशेष उत्सव जैसा मनाते हैं। इसे भूत प्रेतों का दिन कहा जाता है। हमारे यहाँ भय टोटकों से अपने आपको बचाने के लिए लोग घरों के बाहर नहीं निकलते पर यहाँ तो दिन में जलूस के रूप में अधिकांश लोग स्वयं भूत प्रेतों के स्वांग वेश धारण कर निकलते हैं।मैं भी देखने गया दिन में तो मुझे दो प्रेतों ने घेर लिया। उस दिन फिर रात में बच्चों औरतों के साथ लोग घरघर जाकर उनकी डरावनी झाँकियों को देखने के लिए जाते हैं, बदले में बच्चों को ढेर सारी टाफियाँ भी मिलती हैं। इस उत्सव में टाफियाँ इतनी मिलती हैं कि लोग कई माह तक उसका स्वाद लेते रहते हैं। मार्केट में टाफियाँ की बिक्री रिकार्ड तोड़ होती है।

समाचार पत्र


मैं एक दिन जब अकेले घूमने निकला तो रेलवे स्टेशन के बाहर सड़क के किनारे हमारे यहाँ पोस्ट बाक्स जैसे कुछ स्टील के बाक्स दिखे। जिनमें यहाँ के अंग्रेजी अखबार और पत्रिकाएँ रखी हुयीं थीं। जिनको पढ़ना होता है, वे फ्री में ले जा सकते हैं। ये विज्ञापन के माध्यम से अपनी लागत-प्राफिट निकाल कर इस तरह रख दिया करते हैं। चिकने ग्लैज्ड पेपर में निकली पत्रिकाएँ तो सौ पृष्ठों से भी अधिक की होती हैं और अखबार पैतींस चालीस पृष्ठों तक के होते हैं। मैंने भी दो तीन पत्रिकायें उठाईं और ले आया ताकि घर में। कुछ पलट कर, शहर के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकूँ। एक पत्रिका में तो पूरे शहर में बिकाऊ मकानों फ्लैटों का विज्ञापन था। दूसरी पत्रिका में शहर के पर्यटक विभागों के विज्ञापन थे। यह पत्रिका एक जुलाई कनाडा डे पर प्रकाशित हुई थी। जिसमें यहाँ के अधिकांश पर्यटन स्थल की संक्षिप्त जानकारियाँ दी गईं थीं। उसमें मेरे लिए विशेष बात यह थी कि घर बैठे मुझे बहुत कुछ जानकारी प्राप्त हो गई। एक पत्रिका में मुझे चार पाँच नक्शे भी दिखे, जो यहाँ के रेल-सड़क मार्ग व अन्य शहरों को दर्शा रहे थे। उसी में मुझे ब्राम्टन भी दिखा। यह यहाँ का भारतीय बाहुल्य क्षेत्र माना जाता है।

यहाँ टोरेन्टों में हिन्दी के साप्ताहिक समाचार पत्र भी निकलते है जो कि भारतीय बाहुल क्षेत्र में वहाँ की दुकानों, होटलों में अक्सर मुफ्त में रखे मिल जाते हैं। ये समाचार पत्र 40से 50 पेज तक के निकलते हैं।एक बाजार हमारे निवास से 10-12 किलो मीटर की दूरी पर था। एक रविवार को हम सभी वहाँ घूमने के लिए गये। यहाँ परदेश में अपने देश का नजारा देखकर बड़ा अच्छा लगा। अनेक भारतीय रेस्ट्रारेंटों में पंजाबी, गुजराती, दक्षिण व्यंजनों की भरमार नजर आ रही थी। भुट्टे, पोहा, छोले- भटूरे, पुड़ी-सब्जी, समोसे, आलूबंडे, मगोड़े, भजिया आदि बिकते दिखे। पूरा वातावरण ठेट भारतीय बाजार जैसा दिखा। हम लोगों ने एक होटल में जाकर कुछ नास्ता किया। जब बाहर निकल रहा था तो मेरी इन हिन्दी के अखबारों पर नजर पड़ी, उठा लाया। ‘हिन्दी एबराॅड’ जिसके सम्पादक जयाश्री एवं फिरोजखान और दूसरा ‘समय इंडो-कैनेडियन’ जिसके सम्पादक गगनदीप कँवल थे। हिन्दी अखबार देखकर बड़ी प्रसन्नता हुयी। हालाकि घर पर इंटरनेट के माध्यम से जबलपुर के अखबार हम यहाँ नित्य ही पढ़ते थे। पर यहाँ के समाचार पढ़ना वह भी हिन्दी में कुछ अलग ही था।

इस क्षेत्र में भारतीय पाकिस्तानी और चीनियों की दुकानें ज्यादा थीं। कई दुकानों से दिलीप कुमार, अशोक कुमार के जमाने के हिन्दी गानों की सुमधुर आवाजें गूँज रहीं थीं। भारत के बाजारों जैसी चहल पहल नजर आ रही थी। पंजाबियों की दुकानें काफी दिखीं, कपड़ों की दुकानों में भारतीयों की परम्परागत पोषाकों और परिधानों की भरमार थी। हमारी श्रीमती भारत से साड़ियाँ ही ले गयीं थीं जिसका प्रचलन बाजारों सड़कों पर कम ही देखने मिलता था तो उनके लिए सलवारसूट के कपड़े खरीदे गये। हलाकि यहाँ रेडीमेड मिल रहे थे किंतु खाली समय के उपयोग खातिर उन्होंने कपड़े ही खरीदे ताकि अपने हाथों से घर में ले जाकर सिला जा सके। दुकानों में शो रूम और अंदर दुकान मालिकों के साथ कई बम्बई फिल्मी कलाकारों के फोटोग्राफ टंगे दिखे। कभी न कभी ये कलाकार यहाँ आये होंगे तब इन्होंने ये फोटो खिचवाये होंगे।

एक रविवार हम लोग सुबह घूमने के लिए निकले, सड़क के किनारे बाएँ और दाएँ दोनों ओर जगह-जगह फाइवर के चार चके वाले कन्टेनर रखे हुये थे। कौतुहल वश बेटे से पूँछा तो मालूम पड़ा कि यह घरों से निकलने वाले मकान मालिको के कचरे के कन्टेनर हैंयहाँ पर घरों का कोई कचरा सड़कों में नहीं फेंकते। सभी इसमें ही डालते हैं। भर जाने पर सुबह मकान मालिक इन्हें सड़क के किनारे रख देते हैं नियमानुसार कारपोरेशन की बड़ी गाड़ी आती है और यह कचरा ले जाती है। खाली होने पर मकान मालिक इसे अपने घर पर फिर रख लेते हैं। इसीलिए कहीं भी कचरा नजर नहीं आता। यह कन्टेनर नगर निगम द्वारा मकान मालिकों को दिया जाता है, बकायदा इसमें नम्बर पड़े रहते हैं।