अबोध पग Kishore Sharma Saraswat द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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अबोध पग

ढोलक वाला

 

‘जग वाला मेला यारो! थोड़ी-थोड़ी देर दा

   लंघ गई रात पता नहीं सवेर दा........।

उस समय के इस प्रसिद्ध गाने के यह बोल तो शायद बच्चों के कानों तक न पहुँच पाए हों, परन्तु ढोलक पर पड़ी हाथ की थाप उन तक ज़रूर पहुँच गई थी। ढोलक वाला आ गया!‘ढोलक वाला आ गया! की गूंज के साथ पूरी गली का सन्नाटा कोलाहल में बदल गया। गली के छोटे-बड़े सभी बच्चे उस ओर भागने लगे। जो उम्र में बड़े थें उन्होंने सबसे पहले बाज़ी मार ली थी। लड़कियों को उनके साथ किए गए भेदभाव पर गुस्सा आ रहा था। झुँझलाते हुए टिक्को बोलीः

 ‘'अम्मा भी कैसी हैं क्या बच्चों को खिलवाने की जिम्मेवारी हमारी ही हैI लड़के मस्ती में भागते फिरते हैं। उन्हें तो कोई कुछ नहीं कहता।'

उसकी बात की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। सब को एक-दूसरे से आगे निकलने की पड़ी थी। भागते-भागते रेशमों की गोद से टिंकू नीचे फिसल गया। ये तो भला हो प्रेमो का जिसने उसे जमीन पर पड़ने से पहले ही सम्भाल लिया, नहीं तो आज माँ उसके गालों की ही ढोलक बजा देती। लड़कियों को शायद अपने ऊपर इतना गर्व जरूर था कि इस भाग-दौड़ की कतार में वे उन अभागों से तो आगे थीं जो अपने बड़े भाई-बहनों से पिछड़ कर उनके पीछे रोते हुए चले जा रहे थें। इस भागम-भाग की दौड़ में कोई गिरता, कोई रोता कोई भागता सभी एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में थें।

सिर के ऊपर मैले-कुचैले कपड़े की पगड़ी, शरीर के ऊपर बिना कालर की कमीज, कूल्हे के ऊपर तहबंद, गले में अटकी पट्टी के सहारे पेट के ऊपर लटकी एक छोटी ढोलक, दाएँ कंधे से लटकी अनाज की पोटली और गर्दन के पीछे दोनों कंधों पर बैठा एक मासूम बच्चा, यही ढोलक वाले की पहचान थी। वह

 

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बारी-बारी से एक घर से दूसरे घर की देहरी पर जाता और ढोलक को बजाते हुए बड़े ही मधुर कंठ से गाना शुरू करताः

‘'जग वाला मेला यारो! थोड़ी-थोड़ी देर दा,

लंघ गई रात, पता नहीं सवेर दा........पता नहीं सवेर दा।'

वह एक-दो महीने में फेरा डालता। उसके आने पर बच्चे बहुत खुश होते और उसके चले जाने के पश्चात् उसकी बाट की जोह में रहते। आरम्भ के कुछ वर्षों तक यह सिलसिला जारी रहा। कंधे पर उठाया हुआ बच्चा अब बड़ा हो चला था और अपने बापू जी के साथ पैदल चलने लगा था। छोटे बच्चों के साथ उसका भी एक गुमनाम रिश्ता कायम हो चुका था। वे बोल कर न सही, एक मूक भाषा में एक-दूसरे के चेहरे के भावों को पहचानने लगे थे। कभी-कभी तो उसका मन करता कि वह भी उन बच्चों में शामिल होकर उनकी तरह अठखेलियाँ करे। परन्तु यह कैसे सम्भव हो सकता था। जब भी कोशिश की तो बापू जी की आवाज सुनाई देतीः

 ‘'बेटा जल्दी चल, अभी बहुत रास्ता बाकी है।'

और फिर अबोध पग अनिच्छा से आगे की ओर बढ़ने लगते। गाँव में फेरी का काम पूरा होने के पश्चात् बच्चों का झुण्ड ढोलक वाले के पीछे-पीछे उन्हें गाँव की सीमा तक छोड़ने जाता।

दूसरे गाँव में पहुँचने की चाह कदमों की रफ्तार बढ़ा कर दोगुना कर देती। परन्तु बच्चे का मन तो अभी भी पीछे खड़े अपने उन अनजान हितैषियों में ही खोया रहता। वह पलट-पलट कर उनकी ओर निहारने लगता, मानो कह रहा हो कि उसे भी अपने पास बुला लो। तभी कुछ दूर से बापू जी पुकारने लगतेः

‘'बेटा जल्दी चल, अभी बहुत रास्ता बाकी है।'

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 और फिर वे अबोध पग मायूसी के बवंडर में खोये हुए अपनी राह ढूंढने लगते।

समय बीतने के साथ-साथ उम्र बढ़ती गई और उम्र बढ़ने के साथ-साथ बच्चों के व्यवहार और उनकी आदतों ने भी करवट बदलनी शुरू कर दी। अब वो केवल तमाशबीन न रह कर स्वयं तमाशबीन का ढोंग रचने लगे थें। डालडा वनस्पति घी के खाली डिब्बों को रस्सियों से बाँध कर, उन्हें ढोलक का स्वरूप देकर और फिर ढोलक वाले की प्रतीक्षा में उन्हें सम्भाल कर रख दिया। अब प्रतीक्षा का एक-एक क्षण बेसबरी से कटने लगा था। और फिर एक दिन गाँव के मुहाने पर ढोलक की आवाज सुनाई दी। छोटे बच्चों का समूह नदी में आई बाढ़ की तरह गाँव की संकरी गलियों से आगे की ओर बढ़ने लगा। मनचले लड़के भी डिब्बों की ढोलकें अपने गलों में लटका कर बेसुरे स्वरों में नकल उतारते हुए वहाँ पर पहुँच गए। ढोलक वाला हाथ की थाप से ढोलक को बजाता हुआ गाने लगाः

'जग वाला मेला यारो! थोड़ी-थोड़ी देर दा,

लंघ गई रात, पता नहीं सवेर दा........।'

वह अभी इतना ही बोल पाया था कि मनचले, डिब्बों को बजाते हुए ऊँची आवाज़ से उसका अनुसरण करने लगे। बेचारा पहले से ही वक्त का मारा था, क्या कह सकता थाI मन मार कर दूसरे घर की ओर चल पड़ा। परन्तु इस नई जन्मी मुसीबत ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। वह जहाँ-जहाँ भी जाता, मनचले लड़के उसका पीछा करने से बाज नहीं आते। अबोध बालक का मन जो पहले अपने इन नन्हें मित्रों को मिलने के लिए तड़फ उठता था, उनके इस दुष्कृत्य से व्यधित हो उठा। बार-बार उसके मन में आता कि वह उनकी ढोलकें छुड़ा कर पत्थर से फोड़ डाले। परन्तु उसका यह प्रतिशोध किसी को हानि पहुँचाने की अपेक्षा उसे स्वयं ही भीतर से उद्धिग्न किए जा रहा था। आखिर बरदाश्त की

 

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भी एक हद होती है। उसका धैर्य पस्त हो चुका था। वह चीख-चीख कर रो पड़ा। ढोलक वाले ने गाना बंद करके बच्चे को उठाया और अपने सीने से चिपका लिया। फिर वह गाँव से बाहर निकलने के लिए गली में चल पड़ा।

शरारतों के परिणाम स्वरूप आनंद की अनुभूति प्राप्त करना बाल्यावस्था की फितरत होती है। उनका मंतव्य किसी को दुःख पहुँचाना नहीं था, अपितु यह तो उनके आनंद की पिपासा की परिणति का दुष्परिणाम था। ढोलक वाला गाँव की परिधि लांघ चुका था, परन्तु लड़के अब भी उसका पीछा नहीं छोड़ रहे थें। वह अपने जिगर के लाल को अब और दुःखी नहीं देखना चाहता था। इसलिए वह पीपल के वृक्ष के नीचे बने चबूतरे के ऊपर एक ओर बैठ गया। अपने बच्चे को अपनी बगल में बैठा कर ढोलक और अनाज की पोटली को अपने पीछे की ओर रख दिया और फिर बच्चों को अपने पास बुलाकर बैठने को कहा और बोलाः

‘'प्यारे बच्चों! मेरे गाने की कहानी सुनोगेI'

 कहानियाँ तो बच्चों की खुराक होती हैं, इसलिये एक स्वर में बोलेः

‘हाँ, सुनेंगे।'

‘'तो सुनोI' वह बोला और कहानी सुनाने लगाः

‘बच्चों! मेरी कहानी उस समय की है जब तुम बहुत छोटे थे और तुम में से शायद कुछ तो पैदा भी नहीं हुए थें। हमारा देश दो टुकड़ों में बंट चुका था - हिन्दुस्तान और पाकिस्तान। मैं और मेरा परिवार उस हिस्से में रहते थे जिसे पाकिस्तान कहते हैं। बंटवारे का ऐसा तूफान चला कि जो भी आगे आया वह उजड़ता हुआ चला गया। कल के मित्र दुश्मन बन बैठे थे। चारों ओर विभीषिका का तांडव था। हाहाकार और चीत्कार के अतिरिक्त कुछ सुनाई नहीं देता था। जो सबल थे वे गाँव छोड़कर भाग चुके थे और मेरी तरह जो निर्बल थे वे मौत की प्रतीक्षा में अपनी हड्डियाँ सुखा रहे थें। भगवान की इच्छा के आगे किसी

 

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का वश नहीं चलता। दो दिन पहले बारिश के कारण हमारे कच्चे मकान की पीछे की दीवार का कुछ हिस्सा ढह गया था। उधर मेरी धर्मपत्नी भारी पाँव थी। उचित चिकित्सा के अभाव में उसकी हालत बहुत नाजुक बनी हुई थी। उपद्रव के कारण घर से बाहर निकलना जोखिम भरा था। गाँव में दाई तक का इंतजाम होना भी सम्भव नहीं था। किसी तरह अगली सुबह इस बच्चे का जन्म हो गया। दवा-दारू के बिना उस अबला की हालत बिगड़ती चली जा रही थी। उसकी यह हालत देखकर मुझ से रहा न गया और मैं वैद्य जी की तलाश में घर से निकलने लगा तो वह आँखों में आँसू भर कर बोलीः

‘'सांई! एक जिंदगी को बचाने के लिए सब को क्यों मार रहे हो। बाहर गली में निकलना अपनी मौत को बुलावा देना है। कदम-कदम पर दरिंदे बैठे हुए हैं। मेरी किस्मत में अगर मौत लिखी है तो मुझे कोई नहीं बचा सकता और अगर नहीं है तो मेरा कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। जरा इस मासूम को तो देखो। हमने तो जिंदगी के कई बसंत देख लिए हैं। ये बेचारा तो धरती पर आज ही आया है। तुम सलामत रहोगे तो कम से कम इस बेचारे की जिंदगी तो महफूज रहेगी। मेरा क्या भरोसा कब भगवान अपने पास बुला ले।'

 यह कहते हुए उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। मैंने उसे बार-बार दिलासा दिया कि वह अपना दिल छोटा न करे। थोड़ी तबीयत ठीक हो जाए तो किसी तरह से हम यहाँ से हिन्दुस्तान के लिए निकल जाएंगे। वो बेचारी सब जानती थी। मेरे झूठे दिलासे उसे कब तक छलावे में रख सकते थे। थोड़ा अपने-आप को सम्भाल कर बड़े ही दार्शनिक भाव में बोलीः

'सांई! ये जग वाला मेला थोड़ी-थोड़ी देर दा'

लंघ गई रात, पता नहीं सवेर दा।'

 

 

 

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'सांई! सवेर किस ने देखी है, आए या न आए। मुझे तो लगता है मेरी लीला समाप्त होने वाली है। आप इस मासूम को लेकर किसी तरह से यहाँ से निकल जाओ। अगर इसे कुछ हो गया तो मुझे मर कर भी शांति नहीं मिलेगी।'

‘'ऐसा अशुभ मत बोल। तुम्हें कुछ नहीं होने वाला है। हम कल सुबह होने से पहले ही अंधेरे में यहाँ से निकल जाएंगे। उसकी यह हालत देखकर मैं भी अपनी आँखों में भरे आँसुओं को रोक नहीं पाया।'

यह कह कर जब उसने बच्चों की ओर देखा तो वे भी अपने नन्हें हाथों से अपने आँसू पोंछ रहे थें। भावुकतावश कुछ समय के लिए वह भी आगे एक शब्द न बोल पाया और अपने तहमंद के पल्लू से अपनी आँखों में आए आँसू पोंछने लगा। माहौल एक दम शांत और गमगीन हो गया था। बच्चे उत्सुकतावश आगे की बात जानने के लिए उसकी ओर देखने लगे। परन्तु वह तो एक पत्थर के बुत की भांति अपने संस्मरणों में खोया अविचल था। आखिर निस्तब्धता में भेदन करते हुए एक लड़का बोलाः

‘'ढोलक वाले बाबा! फिर आगे क्या हुआ I'

‘'मेरे प्यारे बच्चों! होना क्या था, वही हुआ जो कुदरत वाले को मंजूर था। रात लगभग दस बजे का समय रहा होगा। आसमान काले घनघोर बादलों से ढका हुआ था। चारों ओर एकदम घोर अंधेरा छाया हुआ था। ऊपर से प्रकृति की मार और नीचे दरिंदों के भय से मैं भीतर से दरवाजा बंद करके अपनी धर्मपत्नी की बगल में असहाय सा बैठा हुआ था। तभी मुझे गाँव के दूसरे छोर से कोलाहल सुनाई दिया। आवाम के दुश्मन विभीषिका का तांडव करते हुए चले आ रहे थें। अब कुछ और सोचने और समझने का समय नहीं रह गया था। गली में निकलना एकदम जोखिम भरा था। मैंनें परमात्मा का लाख-लाख शुक्रिया किया कि शायद दो दिन पहले मकान की दीवार उसने हमारी रक्षा के लिए ही गिराई थी। मेरी धर्मपत्नी प्रसूता और बीमार होने के कारण चलने में

 

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असमर्थ थी। मैंने एक बाजू से बच्चे को उठाया और दूसरे बाजू से उसे पकड़ कर सहारा देते हुए हम टूटी दीवार फाँद कर पीछे ज्वार के खेतों में निकल गए। पूरी रात छिपते-छिपाते खेतों के रास्ते से हम चलते रहे। भोर होने पर चलना सुरक्षित नहीं था, इसलिए उससे पहले ही हम पास के एक जंगल में जाकर झाड़ियों में छिप कर बैठ गए। पूरा दिन भूख-प्यास से निढाल, हमारी आवाज़ तक नहीं निकल पा रही थी। ऐसी अवस्था में बार-बार बच्चे को दूध पिलाते हुए वो बेचारी सांस तक भी ठीक ढंग से नहीं ले पा रही थी। थकावट की वजह से अचानक मुझे झपकी आ गई। बच्चे की किलकारी सुनाई दी तो मैं हड़बड़ा कर उठा। देखा, वो बेचारी भगवान को प्यारी हो चुकी थी। मैं बेसुध होकर पागलों की तरह हरकतें करने लगा। मन में आया कि दरिंदों के हाथों मरने से तो बेहतर यही है कि मैं स्वयं अपनी जीवनलीला समाप्त कर लूँ। परन्तु फिर मन में ख्याल आया कि इस मासूम का क्या कसूर है। चील-कौवे इसे नोच-नोच कर खा जाएंगे। मैंने दिल पर पत्थर रख कर बच्चे को कपड़े की पोटली बना कर पीठ के पीछे लटका लिया और फिर सूखी लकड़ियाँ बींध कर उस मृत काया को अग्नि के सपुर्द कर दिया। आकाश के दूसरे छोर पर सूरज़ अपनी लालिमा लिए दिन के अंतिम पड़ाव पर था मानो कह रहा हो कि उदय के पश्चात अस्त तो उसे भी होना पड़ता है। इससे पहले की आग की लपटों से निकलते धुएं पर किसी की नज़र पड़ती मैं जंगल की गहराई में खो गया। बच्चा बार-बार भूख से बिलखता तो मैं अपने हाथ की अँगुली उसके मुँह में डाल देता। पूरी रात इधर-उधर भटकता हुआ मैं सुबह एक सड़क के किनारे पहुँचा। मन में थोड़ी आस जगी। मेरी तरह विस्थापितों का हजूम अमृतसर की ओर चला जा रहा था। मैं भी इंसानों की उस अभागी भीड़ में शामिल हो गया। बच्चा भूख से लगातार बिलख रहा था। भला हो बेचारी एक बहन का उसने तरस खाकर बच्चे को अपना दूध पिलाया और फिर वो सो गया। काफिला मुश्किल से दो मील चला

 

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होगा तभी दरिंदों ने हल्ला बोल दिया। देखते ही देखते लाशों के ढेर लग गए। इससे पहले कि वे हम सब को कत्ल कर देते सेना के कुछ वाहन वहाँ से गुजरते हुए आ पहुँचे। बेटा! जिसको राखे सांइयाँ मार सके न कोई। मेरी किस्मत में जिंदगी लिखी थी सो बच गया। मैं अब तक इतना टूट चुका था कि सेना के वाहन में बैठने के बाद अचेत सा हो गया। किसी तरह अमृतसर पहुँचे तो उस भगवान का लाख-लाख शुक्रिया किया। कुछ दिन वहाँ पर रूकने के पश्चात मुझे अन्य लोगों के साथ मुबारिकपुर कैंप भेज दिया गयाI तब से इस बच्चे के सहारे मैं अपनी जिंदगी के बाकी दिन पूरे कर रहा हूँ।

ढोलक वाले की त्रासदी सुन कर कुछ बच्चे रोने लगे थें। शरारती बच्चों ने आपस में एक-दूसरे की ओर देखा और फिर सिसकते हुए एक स्वर में बोलेः

‘'ढोलक वाले बाबा! अब हम तुम्हें कभी परेशान नहीं करेंगे।'

 फिर उन्होंने अपनी-अपनी ढोलक उठाकर उसके बच्चे के आगे रख दी। बच्चा, जो पहले गमगीन बना बैठा था अब हँसने लगा था। उसे हँसता देख कर ढोलक वाला भी हँसने लगा और बोलाः

‘'बेटा! अपने दोस्तों को गाना नहीं सुनाओगे।'

बच्चे ने मुस्कराते हुए रस्सी को अपनी गर्दन में डाला और डिब्बे को अपने दाएं घुटने के नीचे दबाकर दोनों हाथों से बजाता हुआ अपनी तुतलाती आवाज़ में गाने लगाः

‘'जग वाला मेला यारो! थोड़ी-थोड़ी देर दा

लंघ गई रात, पता नहीं सवेर दा........।'

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