कर्म से तपोवन तक - भाग 12 (अंतिम भाग) Santosh Srivastav द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कर्म से तपोवन तक - भाग 12 (अंतिम भाग)

अध्याय 12

नदी की उर्मियाँ सूर्यास्त के सुनहले रंग से भर उठी थी। माधवी गगरी उठाकर अपने आश्रम की ओर चलने लगी। कैसी सम्मोहित अवस्था हो गई थी जब नदी किनारे बैठे-बैठे उसने अतीत को पुनः जी लिया था। 

अब उसने जीवन की उस अवस्था को प्राप्त कर लिया है जब उसे अतीत चुभता नहीं बल्कि गर्व से भर देता है कि किस तरह उसने पिताश्री राजा ययाति की दानशीलता को कलंकित नहीं होने दिया किस तरह गालव की गुरु दक्षिणा जुटाने की वचनबद्धता निभाई और किस तरह गालव को उसके संस्कारों से गिरने नहीं दिया। उसे गर्व है अपने त्याग और सच्चाई पर। सच पूछा जाये तो गालव के साथ के प्रथम दिन से लेकर अब तक का समय तपश्चर्या ही तो कहलायेगा। 

अब तो वह 10 शिष्यों की विधिपूर्वक गुरु माता है। जो उससे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं । ये सभी निर्धन बालक हैं । किंतु शिक्षित होने की उनमें अपूर्व ललक है। वे स्वयं भिक्षाटन कर अपने और माधवी के लिए रसोई पकाते हैं। और अपनी गुरु माता माधवी की सेवा करते हैं । 

नदी से लौटकर माधवी ने मंदिर में जा कर पूजा अर्चना की। पूजा की तैयारी शिष्य पहले से ही कर देते थे। पूजा के पश्चात उसने शिष्यों के साथ भोजन ग्रहण किया। 

भोजन करते हुए वह शिष्यों के प्रश्नों का उत्तर भी देती जाती थी। अतः भोजन करने का वह समय बहुत रोचक व्यतीत होता था। 

भोजन करके शिष्य ने माधवी के कक्ष में दूध और जल रख दिया और निवेदन किया -"माता विश्राम करें। "

उसने भी सभी शिष्यों को विश्राम का आदेश दिया तथा अपने कक्ष में आ गई । 

अब उसने कौमार्य को प्राप्त करने वाले अनुष्ठान को त्याग दिया था। और बढ़ती आयु तथा चार पुत्रों की माता के चिन्ह उसमें दिखाई देने लगे थे । 

शैया पर लेट कर वह गालव की स्मृतियों में खो गई। अंतिम बार वह पिताश्री राजा ययाति के आश्रम से निकलकर अंधकार में लुप्त हो गया था। न जाने कहां होगा गालव। 

****

जिस समय गालव ने इस वन में कुटिया बनाने का विचार त्यागा था वह 1 को पार कर निरंतर भटकता ही रहा था नदी पर्वत पगडंडी या सड़क खेत खलियान पारकर कई महीनों पश्चात अरावली के लिए बनो और शादियों में पहुंचा वहां की शांति ने उसके आहत मन पर मानव मलहम युक्त फाहे का काम किया । गालव ने यहीं आश्रम बनाने का निर्णय लिया । 

जब भी एकांत मिलता वह माधवी की स्मृति में खो जाता । वह माधवी के साथ न होकर भी उसके साथ है। नींद खुलने से नींद आने तक की घड़ियों में भी माधवी निकट ही रहती। जब राजा ययाति के आश्रम से चला था उसके 2 दिन बाद उसका स्वयंवर होने वाला था। न जाने माधवी ने किस राजकुमार या राजा के गले में वरमाला पहनाई होगी। किसे जीवन साथी के रूप में चुना होगा । एक वर्ष गुरु विश्वामित्र के आश्रम में तपस्वियों जैसी रहकर, अश्वों की खोज के समय वनों में कष्टों को सहते हुए उसके साथ कई कई माह व्यतीत कर अब वह सुख से किसी राज्य के राज महल में पटरानी बनकर रह रही होगी। सोचते हुए गालव ने अपने हाथ जोड़े ' हे प्रभु, वह जहां भी हो सुख समृद्धि और प्रसन्नता से पूर्ण हो उसका जीवन। '

गालव ने प्रार्थना में आंखें मूंदी ही थीं कि शिष्य ने आकर सूचना दी "गुरुजी मुनिवर ध्रुपद पधारे हैं। " गालव नाम सुनते ही प्रसन्नता से भर उठा- ध्रुपद !मेरा मित्र! गुरु विश्वामित्र के आश्रम में हमने साथ-साथ शिक्षा ग्रहण की थी। 

आओ ध्रुपद जीवन धन्य हुआ तुमसे मिलकर । "

दोनों गले मिले। शिष्य ध्रुपद के बैठने के लिए आसन ले आया। दूसरा जल ले आया। 

" तुमने तो बहुत उत्तम स्थान तपश्चर्या के लिए चुना है गालव। किंतु यहां जल का तो संकट होगा। "

‘हां ध्रुपद रेतीला होने के कारण यह स्थान शुष्क है। एक पतली सी झिरी पाताल से निकलकर अपनी जलधारा से आश्रम में जल की आपूर्ति करती है। ग्रीष्मकाल में झिरी से बूंद-बूंद जल रिसता है। " "यह तो चिंता का विषय है। किंतु मित्र, तुमने गुरु विश्वामित्र के आश्रम वाला वन क्यों छोड़ा। वहां तो नदियां, सरोवर, जलप्रपात सभी कुछ था । "

गलत मौन रहा। शिष्य पपीता और केले काट कर ले आया। 

" फलाहार कर लो ध्रुपद, दूर से आए हो। थोड़ा विश्राम भी कर लो। फिर बातें होंगी। "

गालव के कहने पर ध्रुपद ने पपीते की फाँक उठाते हुए कहा-" गालव तुम्हें देवी माधवी के साथ रहना था। मुझे तो कौतूहल हो रहा है तुम दोनों के अलग अलग वनों में अलग-अलग आश्रम देखकर। " "माधवी का आश्रम !मैं तुम्हारी बात समझा नहीं मित्र, स्पष्ट कहो। 

"क्यों आपको ज्ञात नहीं है कि माधवी तपोवन में निवास कर रही है । "

"क्या कह रहे हो मित्र, माधवी का तो स्वयंवर होने वाला था। "

"हां गालव, स्वयंवर तो हुआ था देवी माधवी का, किंतु उन्होंने उस स्वयंवर में पधारे अतिथियों में से किसी का भी चयन न कर तपोवन को स्वीकार किया । यहां तक कि उन्होंने हाथ में पकड़ी वरमाला तपोवन की ओर उछालते हुए कहा कि मैं तुम्हें स्वीकार करती हूं । हे तपोवन, आज से तुम ही मेरे जीवन साथी हो । "

गालव न सिर पकड़ते हुए कहा-" "अनर्थ, यह तो अनर्थ हो गया। यह माधवी के प्रति अन्याय है। किसी ने रोका क्यों नहीं उसे ? "

"रोकता कौन? माधवी के तेज और दृढ़ संकल्प के आगे था किसी में साहस। "

गालव से कुछ कहते न बना । वह मौन रहकर ध्रुपद की बातें सुनता रहा। ध्रुपद के हर शब्द में माधवी के प्रति घोर पीड़ा थी । उसकी पीड़ा का दोषी गालव उन शब्दों के नश्तर में मानो कतरा कतरा टूट रहा था, चूर चूर हो रहा था। 

शिष्य बुलाने आया-"भोजन तैयार है गुरुजी। "

गालव को होश ही कहाँ था

भोजन का । किंतु ध्रुपद उसके बिना भोजन नहीं करेगा। सोचकर बुझे मन से उठा -

"चलो मित्र, शिष्य भोजन शाला में हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। "

माधवी के विषय में जितनी जानकारी थी ध्रुपद को उतना बता कर वह भी दुखी हो गया था। गर्म और सुस्वादु भोजन होने पर भी दोनों प्रसन्न नहीं बल्कि उदास होकर भोजन कर रहे थे । शिष्यों को समझ में आ रहा था गुरुजी और मुनिवर ध्रुपद के बीच कोई ऐसा वार्तालाप हुआ है जिससे दोनों उदास हैं। उनकी उदासी दूर करने के लिए एक शिष्य ने पूछा- "मुनिवर, आपका आश्रम कहां है? "

अभी तो कहीं नहीं है आश्रम। किंतु तपस्या के लिए उत्तर दिशा का चयन किया है। "

"उत्तर दिशा का क्या महत्व है मुनिवर, कृपया बताएं। "

गालव समझ गया कि उनके चेहरे पर प्रसन्नता नहीं देख कर शिष्य उनका ध्यान दूसरी ओर बंटा रहे हैं। स्वयं के प्रति शिष्यों का ऐसा स्नेह देखकर गालव अभिभूत था। 

ध्रुपद ने शिष्यों की जिज्ञासा देखकर उत्तर दिशा के विषय में बताया-"प्रिय शिष्यों आप सब ऐसा समझ लीजिए कि उत्तर दिशा चाहे तपस्वी हो या साधारण मनुष्य

सभी के लिये कल्याणमय है। इसे उत्तरायण भी कहते हैं। 

उत्तर दिशा उत्कृष्ट सुवर्ण आदि निधियों की खान है। इसलिए भी इसका नाम उत्तर है क्योंकि यह पश्चिम और पूर्व दिशाओं का मध्य स्थित है। 

इस गौरवशालिनी दिशा में ऐसे लोगों का वास है, जो सौम्य स्वभाव के हैं, जिन्होंने अपने मन को वश में किया है तथा जो धर्म का पालन करते हैं। 

इसी दिशा में बदरिकाश्रम तीर्थ है, जहाँ सच्चिदानंद स्वरूप श्रीनारायण, विजयशील नरश्रेष्ठ नर और सनातन ब्रहमाजी निवास करते हैं। "

बद्रीकाश्रम का नाम सुनते ही गालव को माधवी याद आ गई जो उशीनर के साथ वहाँ भ्रमण हेतु गई थी। माधवी पुण्यात्मा है तभी तो इन तीर्थो का दर्शन लाभ हुआ उसे। 

ध्रुपद ने बताया-

उत्तर में ही हिमालय के शिखर पर प्रलयकालीन अग्नि के समान तेजस्वी अंतर्यामी भगवान शंकर भगवती उमा के साथ नित्य निवास करते हैं। 

किंतु वे नर और नारायण के सिवा और किसी की दृष्टि में नहीं आते। समस्त मुनिगण, गंधर्व, यक्ष, सिद्ध अथवा देवताओं सहित इन्द्र भी उनका दर्शन नहीं कर पाते हैं। 

यहाँ सहस्रों नेत्रों, सहस्रों चरणों

और सहस्रों मस्तकों वाले एकमात्र अविनाशी भगवान विष्णु ही उन मायाविशिष्ट शंकर का साक्षात्कार करते हैं। 

उत्तर दिशा में ही चंद्रमा का द्विजराज के पद पर अभिषेक हुआ था। यहीं आकाश से गिरती हुई गंगा को शंकरजी ने अपनी जटाओं पर धारण किया और उन्हें मनुष्यलोक में बहने दिया। 

यहीं पार्वतीदेवी ने भगवान शंकर को पतिरूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी और इसी दिशा में शंकर को मोहित करने के लिए कामदेव प्रकट हुए थे। कामदेव के द्वारा शरसंधान करते ही भगवान शंकर की महाक्रोध की ज्वाला ने कामदेव को भस्म कर दिया । उस अवसर पर गिरिराज हिमालय और उमा भी वहाँ विद्यमान थीं। 

इसी दिशा में कैलाश पर्वत पर राक्षस, यक्ष और गन्धर्वों का आधिपत्य करने के लिए धनदाता कुबेर का अभिषेक हुआ था। उत्तर दिशा में ही रमणीय चैत्ररथ वन और वैखानस ऋषियों का आश्रम है। 

यहीं मंदाकिनी नदी और मंदराचल हैं। इसी दिशा में राक्षसगण सौगंधिक वन की रक्षा करते हैं। 

यहीं हरी-हरी घासों से सुशोभित कदलीवन है और यहीं कल्पवृक्ष शोभा पाते हैं। इसी दिशा में सदा संयम, नियम का पालन करने वाले स्वच्छंदचारी सिद्धों के इच्छानुसार भोगों से सम्पन्न एवं मनोनुकूल विमान उड़ते हैं। 

इसी दिशा में आकाश में अरुंधति और सप्तऋषि प्रकाशित होते हैं। स्वाती नक्षत्र का उदय भी इसी दिशा में होता है। 

इसी दिशा में ब्रहमाजी यज्ञ के अनुष्ठान में प्रवृत होकर नियमित रूप से निवास करते हैं। नक्षत्र, चंद्रमा तथा सूर्य भी सदा इसी में परिभ्रमण करते हैं। 

"किंतु मुनिवर, सूर्य और चंद्र तो इस दिशा से नहीं निकलते और न अस्त होते हैं? "

"प्रिय शिष्यों, मैंने उनके उदय और अस्त की बात नहीं की है बल्कि इस दिशा में परिभ्रमण की बात की है। वैसे संदेह का निवारण तो होना ही चाहिए तभी तो ज्ञान का चरम प्राप्त होता है। 

इसी दिशा में धाम नाम से प्रसिद्ध सत्यवादी महात्मा मुनि श्रीगंगामहाद्वार की रक्षा करते हैं। उनकी मूर्ति, आकृति तथा संचित तपस्या का परिणाम किसी को ज्ञात नहीं होता है। वे सहस्त्रों वर्ष तक की आयु इच्छानुसार भोगते हैं। "

"

मुनिवर आपने इतनी अद्भुत और रोचक बातें उत्तर दिशा के विषय में बताईं। इसके लिए हम आपके आभारी हैं । "कहते हुए शिष्यों ने ध्रुपद के चरण स्पर्श किए। 

ध्रुपद ने सभी शिष्यों को आशीर्वाद देते हुए उनके सफल भविष्य की कामना की और गालव के साथ भोजनशाला से उठकर बाहर आ गया। 

"अब अनुमति दो मित्र। आश्रम के लिए स्थान खोजने मुझे हिमालय की ओर जाना है जहां जाने में बहुत अधिक समय लग जाएगा। "

गालव उसे विदा करने आश्रम के द्वार तक आया-" मित्र एक बात और जानना चाहता हूं। 

आश्रम में क्या माधवी अकेले रहती है ? "

"नहीं गालव, शिष्य भी रहते हैं जो देवी माधवी से शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं । "

सुनकर गालव के मन को शांति मिली । माधवी की विद्वता का कायल था वह । उसे प्रत्येक विषय पर महारत हासिल था । निश्चित ही शिष्य तेजस्वी और ज्ञानी होंगे। 

ध्रुपद के प्रस्थान करने के पश्चात गालव खिन्न मन से अपने कक्ष में आया। माधवी ने अपना जीवन त्याग और तप से स्थिर कर लिया है । किंतु वह स्थिर नहीं हो पा रहा है । बल्कि माधवी के विषय में सब जानकर वह और अधिक उद्विगन हो गया । गुरु विश्वामित्र से उसके संबंधों के कारण वह उससे, उसके जीवन से सदा सदा के लिए दूर हो गई है । वह आत्मविश्लेषण करने लगा। कहां गलत है वह? उसने धार्मिक संस्कारों का ही तो पालन किया । गुरुदक्षिणा में भी और गुरु माता के रूप में माधवी को स्वीकार न करने में भी। 

रात्रि स्वप्न में उसे 600 अश्वों को घेरे बहुत विशाल रूप में विश्वामित्र और माधवी दिखे। विश्वामित्र अट्टहास कर रहे थे -

"मूर्ख गालव, तुम समझ नहीं पाए कि मैंने तुमसे विलक्षण, अश्वमेधी अश्वों की क्यों मांग की और क्यों माधवी से पुत्र उत्पन्न किया? वह मेरे पिताश्री महाराज गाधी के अश्व थे। मैं उन्हें पुनः प्राप्त करना चाहता था और उन को प्राप्त करने में तुमने जिसे उपकरण बनाया उसी उपकरण से तो मैंने शेष गुरु दक्षिणा प्राप्त की। "

उपकरण? माधवी उपकरण है? हा दुर्भाग्य, अपनी प्रेयसी के विषय में यह सब सुनकर वह कामदेव की तरह भस्म क्यों नहीं हो गया ? 

सहसा उन अश्वो के पंख निकल आए और वे आकाश में उड़ने लगे। अग्रिम पंक्ति के अश्व से माधवी लटक गई। उसे लगा मानो अश्व माधवी से कह रहे हैं-

"आओ माधवी हमसे शक्ति, ऊर्जा, गति और विकास ग्रहण करो । हम इन्हीं शक्तियों के प्रतीक हैं । "

व्याकुल होकर गालव की आंखें खुल गईं। वह आश्रम से बाहर आया। अभी रात्रि का अंतिम प्रहर था । वह टेढ़े मेढ़े मार्ग में भटकने लगा । झाड़ियों में जुगनू टिमटिमा रहे थे जो अंधेरे में टिमटिमा कर उजाला अवश्य देते हैं किंतु न तो वे स्वयं को मार्ग दिखा पाते हैं और न औरों को। जुगनू तो लुकाछिपी खेलते मात्र भ्रम हैं । भ्रम में उम्र भर गालव को रहना है । उसका जीवन व्यर्थ है, उसका जीना व्यर्थ है। व्यर्थता के बोझ तले गहरे धँस चुका है गालव। 

धीरे-धीरे अंधकार सिलेटी और फिर हलके उजास से भरने लगा। भोर के उज्ज्वल कदम निःशब्द सन्नाटे में चिड़ियों के घोंसले से निकल पंख फड़फड़ाने की ध्वनि के संकेत देने लगे। 

गहरे आत्ममंथन में था गालव। गुरु विश्वामित्र की गुरु दक्षिणा ने राजा ययाति को भी तो दुर्भाग्य में ढकेल दिया। अपनी दानशीलता से चर्चित वे जीवन के सबसे सौभाग्यशाली पुण्य कर्म कन्यादान से वंचित रह गये। क्या गुरु विश्वामित्र को तनिक भी भान है कि उन्होंने क्या किया है? एक साथ तीन जीवन को ग्रहण लगा दिया । 

सहसा ठोकर लगने से गालव के अंगूठे से रक्त निकलने लगा। वह इस पीड़ा का अधिकारी है । शरीर से पूरा ही रक्त निकल जाए तो वह निर्जीव हो जाएगा । वैसे भी सांसे हैं किंतु जीवन नहीं। आहत मन लिए वह आश्रम में लौट आया। सूर्य की रश्मियों में सब कुछ जगमग था। 

गालव की मनोदशा से शिष्य भी दुखी थे। प्रतिदिन जैसी चहल-पहल आश्रम में नहीं थी। दैनिक कार्यों को भी वे चुपचाप संपन्न कर रहे थे। गालव ने स्वयं को कक्ष में बंद कर लिया । साहस करके गालव के प्रिय शिष्य सुयश ने उनके कक्ष के द्वार पर मुंह लगा कर धीरे से कहा -"गुरुजी, कृपया द्वार खोलें। आपके पैर के अंगूठे से रक्त बहता देख आपके लिए गर्म हल्दी का लेप और हल्दी वाला दूध लाया हूं। "

सुयश के बार-बार आग्रह पर गालव ने कक्ष के द्वार खोले। सुयश उसके रक्तिम नेत्र देख चिंतित हो गया। हल्दी का लेप चोट पर लगाने के लिए उसने उसका पैर स्पर्श किया -"गुरुजी आपको तो ज्वर है। दूध पीकर आप विश्राम करें मैं जड़ी बूटियां एकत्रित कर काढ़ा बनाता हूं । "

"नहीं उसकी आवश्यकता नहीं पड़ेगी पुत्र । मैं ठीक हो जाऊंगा। "

सुयश ने कहा कुछ नहीं किंतु एक घड़ी पश्चात वह काढ़ा बनाकर ले आया । गालव के शरीर में ज्वर का कंपन था । काढ़ा पिलाकर शिष्य ने उसे कंबल उढ़ा दिया और कक्ष का द्वार बंद कर चला गया। 

मन मस्तिष्क में आघात गहरा था। एक माह का समय लगा गालव को स्वस्थ होने में। 

ग्रीष्म ऋतु का आरंभ था। शुष्क हवाओं ने जल्द ही उस नन्हे से जल के स्रोत की धारा को सोखने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। 

गालव ने शिष्यों को एकत्रित कर कहा -"प्रिय शिष्यों इस आश्रम को अपने तप और तेज से तुम सब सार्थक करना। मैं तपश्चर्या के लिए हिमालय की ओर जा रहा हूँ। मुझे ज्ञात नहीं तुम सबके बीच लौट पाऊंगा या नहीं। भाग्य किसने देखा । हम सब समय और भाग्य के वशीभूत हैं । अतः मुझे लेकर खेद मत करना । तुम सब की शिक्षा विधिवत होती रहेगी । तुम सब स्वयं के गुरु भी हो, शिष्य भी।  किंतु नेतृत्व के लिए किसी का होना आवश्यक है। अतः मैं यह उत्तरदायित्व सुयश को सौंपता हूं। वह इस आश्रम का प्रथम शिष्य है। मुझे पूरा विश्वास है कि वह इस उत्तरदायित्व को भलीभांति निभायेगा। "

सुयश हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। 

" गुरुजी "

उसके होठ रुलाई के आवेग से कांप रहे थे और नेत्र अश्रुपूर्ण थे। "गुरुजी हमें अकेला न छोड़े। " गालव ने उसके सिर पर हाथ फेरा। सभी शिष्य ऐसी ही अनुभूति से गुजर रहे थे। गालव ने सभी से निवेदन किया कि वे स्वयं को हतोत्साहित न करें। जीवन में इस तरह की स्थितियों से दो-चार होना ही पड़ता है । तब संयम से काम लेना ही मनुष्य के हित में है। 

आश्रम में गालव की अंतिम 24 घड़ियां शिष्यों ने उसके साथ ही व्यतीत कीं। 

गालव का निश्चय दृढ़ था। अतः शिष्य भी धीरे-धीरे प्रकृतिस्थ हो गए । अब वे अपने गुरु को विदा देने के लिए मानसिक रूप से तैयार थे। 

किंतु आश्रम से विदा लेते हुए गालव अशांत हो रहा था। आश्रम से, शिष्यों से उसे लगाव हो गया था । अब किसी भी तरह की बिछोह की अवस्था गालव के लिए असह्य हो जाती। 

शिष्य काफी दूर तक उसके साथ गये। वह चलता रहा। जब तक कि वह शिष्यों की दृष्टि में वह बिंदु मात्र न रह गया तब तक शिष्य वहीं खड़े रहे। 

बिंदु में ही तो संपूर्ण ब्रह्मांड समाया है । गालव उस बिंदु को आधार बना कई वर्ष तक हिमालय की वादियों में भटकता रहा। किंतु ध्यान केंद्रित ही नहीं हो रहा था। माधवी उसके जीवन में रच बस कर ऐसी समाई थी कि एकाग्रता हो ही नहीं पा रही थी। उसकी दुर्दशा पर कितनी ही बार वह पश्चाताप की अग्नि में तपा है। कितनी बार उसे अपना जीवन व्यर्थ निरुद्देश्य नजर आया है। कितनी ही बार उसने ईश्वर से प्रश्न किया है कि उसने गालव को इस धरती पर भेजा ही क्यों और भेजा था तो माधुरी से मिलवाया ही क्यों? 

अन्ततः वह अपने आश्रम में लौट आया। तप के लिए इससे अच्छा स्थान हो ही नहीं सकता । 

अपने अपने जीवन के निर्धारित उद्देश्यों को पूरा करने हेतु उसके सभी शिष्य शिक्षा पूर्ण कर आश्रम से जा चुके थे । आश्रम में एक मास तक उसने मन को एकाग्र करने का योगाभ्यास किया। जल संकट से जूझती इस इस शुष्कभूमि में स्वयं की आहुति दे वह पश्चाताप के चरम पर था। धीरे-धीरे वहवह तप में रमता गया। 

वर्ष पर वर्ष बीतते गए। महर्षि गालव के कठोर तप के तेज से प्रभावित हो एक दिन गंगा माता स्वयं गोमुख से चलकर आईं। वह तब भी ध्यान मग्न ही था। गंगा माता ने उसे आशीर्वाद दिया और अरावली की उस पतली सी जल धारा को एक बड़े जलकुंड के रूप में परिवर्तित कर वे गोमुख वापिस चली गईं। यह जलकुंड गालवी गंगा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अरावली का सूखा वन प्रदेश हरियाली से लहलहा उठा । जिसकी घाटी में स्थित गालव का आश्रम महर्षि गालव की तपस्थली के नाम से जाना जाता है। 

किंतु कदाचित ही कोई जानता हो कि महर्षि गालव ने माधवी को अपने शरीर के रग-रग में बसा कर माधवीमय जीवन जिया। 

हवन की अग्नि भी वही था, समिधा भी वही था और अग्निहोत्र भी वह स्वयं। 

 

समाप्त