लोकतंत्र का उत्सव DINESH KUMAR KEER द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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लोकतंत्र का उत्सव

1. लोकतंत्र का उत्सव

एक छोटे से गाँव में एक साधारण - सा परिवार रहता था । परिवार में सभी लोग एक - दूसरे को बहुत ही प्यार करते थे और बहुत ही प्यार से रहते थे । उस परिवार में दो बेटे थे - दीपक और विनोद । माता जी दोनों ही बच्चों को बहुत ही स्नेह करती थी, लेकिन पढ़ाई पर जरा भी ढिलाई पसन्द न थी । बच्चे गाँव के प्राथमिक स्कूल में पढ़ते थे ।
आज - कल स्कूल में "स्कूल चलो अभियान" के साथ - साथ चुनाव से संबन्धित गतिविधि भी हुआ करती थी ।
एक दिन स्कूल की शिक्षिका ने आदेश के अनुसार "स्वीप मतदाता जागरूकता अभियान" चलाया । गाँव के सभी छोटे - बड़े तथा सम्मानित लोगों को भी रैली में शामिल किया गया । इन सभी बातों का असर दीपक पर बहुत पड़ा और मतदान से संबन्धित बहुत से सवाल वह पूछता रहता था ।
एक दिन तो हद हो गयी । अपनी माता जी - पिता जी को बात करते सुना, "इस बार चुनाव में लम्बी छुट्टी पड़ रही है । चलो, कहीं घूम आते है । सी० एल० भी नहीं लेनी पड़ेगी ।" माता जी कह रही थी । दीपक तुरन्त बोल पड़ा, "नहीं माता जी ! हमें पहले वोट डालने जाना होगा, फिर कहीं घूमने जायेंगे ।"
"अरे, कैसी बात कर रहे हो बेटा ? तुम्हें कुछ नहीं पता ।" पिता जी भी बोलते हैं, "कोई भी सरकार बने, हमें क्या ? सब एक - सी होती है । हमारे एक वोट से क्या बनता बिगड़ता है ?"
दूसरे दिन ही उसके पिता जी का का कुछ प्रोडक्ट बाजार में आता है । मगर उसे रेटिंग बहुत कम मिलती हैं, तो वह बिक नहीं पाया । वह बहुत दुःखी होते हैं । तब दीपक सबको समझता है, "कि देखो, एक - एक करके कितना फर्क पड़ता है ? इसलिए हम हर चीज को जैसे जाँच - पड़ताल के बाद ही खरीदते हैं या प्रयोग करते हैं, उसी प्रकार हमें वोट डालने से पूर्व सही पार्टी और कार्यकर्ता की भी जाँच कर लेनी चाहिए । हमें मतदान के पर्व को एक पर्व की तरह ही मानना चाहिए ।"
दरवाजे पर खड़े पटेल जी सब बात सुन रहे थे । वह बहुत खुश हुए और बोले, " बेटा ! तुमने इतनी अच्छी - अच्छी बातें कहाँ से सीखी ? सच ! बड़े होकर कुछ नाम करोगे ।"
"दीपक ने कहा, "सर ! ये सब बातें मेरी शिक्षिका जी ने बतायीं हैं ।"
बस ! क्या था, विद्यालय में नामांकन की लाइन लग गयी ।

संस्कार सन्देश :- सच ! अच्छी शिक्षा से अच्छे गुणों का विकास होता है ।

2.
"फूलदानों को फूल पसंद हैं,
मगर पत्तियाँ बोझ लगती हैं...

जिनको बेटों की चाहत हो,
उनको बच्चियाँ बोझ लगती हैं

साहिल पर पहुंचते ही,
कश्तियाँ बोझ लगती हैं...

उठाने वाले सारे अपने ही होते हैं,
फिर भी, अर्थियाँ बोझ लगती हैं...

विकासशील शहर के मानचित्र में,
गरीबों की बस्तियाँ बोझ लगती हैं...

3.
ना जाने कब से सोच रही हूं
किसे कहते हैं घर ?

चार दीवारें और एक छत
जिसे बनाया हो जतन से
सजाया हो जिसे पूरे मन से
तो बन जाता है क्या घर

जहां जाना, आराम हो
रुकना, सुकून
ठहर जाना, नींद के जैसा ।

फिर तुम्हें देखती हूं
तो लगता है

घर एक व्यक्ति भी हो सकता है ।।