पहला प्यार - भाग 2 Kripa Dhaani द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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पहला प्यार - भाग 2

'बड़ी अजीब हो बेला तुम और आज तो रहस्यमयी भी लग रही हो।' राज के होंठ बुदबुदा उठे।

राज और बेला का प्रेम विवाह हुआ था। लव मैरिज! अरेंज मैरिज के उस दौर में लव मैरिज आसान नहीं थी। मगर राज शुरुवात से ही मॉडर्न ख़यालातों का आदमी था। उसके रंग-ढंग देखकर और सोच-विचार जानकर उसके माँ-पिताजी भी समझ गए थे कि वो लड़का उनकी पसंद की किसी लड़की से शादी करने से रहा। इसलिए उन्होंने ये ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर लेने के बजाय उसके कंधे पर ही डाल दी थी। वह ख़ुद को किस्मत का धनी मानता था, जो उसकी पैदाइश एक ऐसे परिवार में हुई थी, जहाँ सोच-समझ का दायरा संकीर्ण नहीं था। उसके माता-पिता दोनों ही शिक्षक थे। दोनों एक ही स्कूल में पढ़ाते थे। कई बार तो राज को यूं लगता कि उन दोनों की भी लव मैरिज ही हुई है। हालांकि अपनी जुबान से उन्होंने कभी इस बारे में कोई ज़िक्र नहीं छेड़ा।

राज का ख़याल तो यही था कि जिस लड़की से पहली बार प्यार होगा, शादी भी उसी से करेगा। यूं तो अपने पहले प्यार को हमसफ़र बना लेने की ख़ुशनसीबी हर किसी को नसीब नहीं होती, मगर वह ख़ुद को ख़ुशनसीब मानता था। उसने अपने पहले प्यार से ही शादी की, वो भी उस ज़माने में, जब लोग देवदास हुए जाते थे और अपनी पारो के लिए ताउम्र दिल ही दिल में सुलगते रहते थे।

बेला की उसकी ज़िन्दगी में आने की कहानी बड़ी दिलचस्प है। वह लव मैरिज करना चाहता था और लव मैरिज के लिए प्यार होना ज़रूरी है। मगर सोचने भर से तो प्यार होता नहीं। कोई तो ऐसा मिले, जो प्यारा लगे; जिस पर प्यार आये। आसपास तो कोई भी नहीं थी। पूरा स्कूली जीवन ब्वॉयज स्कूल में कटा; आस-पड़ोस में रहने वाली कोई लड़की आसपास नहीं फटकी; दोस्तों की बहनों ने भैया बना लिया; इंजीनियरिंग कॉलेज में लड़कियों का अकाल था; जिस ऑफिस में काम करता था, वहाँ ज़रूर दो स्टेनों थीं, मगर पद की गरिमा के साथ-साथ ख़ुद की गरिमा भी बनाए रखने के सामाजिक बोझ के कारण उसने कभी उन्हें नज़र उठाकर नहीं देखा।

नई-नई नौकरी थी, इसलिए ज्यादातर वक़्त वह काम में ही मशरूफ़ रहा करता था। दोस्तों से मेल-मुलाक़ात भी कम ही हो पाती थी। नये शहर में इतने दोस्त थे नहीं और ऑफिस में जो भी जान-पहचान थी, ऑफिस तक ही सीमित थी। रविवार का दिन थोड़ी बोरियत में बीता करता था। टीवी उसके पास था नहीं और अकेले सिनेमा जाने का मन नहीं करता था। ऐसे में वक़्त काटने के लिए अक्सर कुछ पत्रिकायें खरीद लाया करता था। उन्हें पढ़ते-पढ़ते छुट्टी का दिन कैसे बीतता था, पता ही नहीं चलता था।

वो रविवार का दिन था। हमेशा की तरह वह कोई पत्रिका पढ़ रहा था। पढ़ते-पढ़ते उसकी नज़र आखिरी पृष्ठ पर लिखी इन लाइनों पर पड़ी -

'क्या आप खतों के ज़रिये किसी के दोस्ती करना चाहते हैं? उसे दोस्त बनाना चाहते हैं? तो बिना देर किए अपना नाम-पता भेजें।'

उन दिनों ‘पेन फ्रेंड’ बनाने का एक नया फैशन सा चल पड़ा था। ख़तों के ज़रिये किसी अनजाने से दोस्ती करने का ये कॉन्सेप्ट नये लड़के-लड़कियों को बड़ा लुभा रहा था। शायद इसलिए उन दिनों पत्रिकायें भी इस ट्रेंड का फ़ायदा उठाने में पीछे नहीं थी। नाम-पते मुहैया करवाकर वो अपनी ग्राहक संख्या में लगातार इज़ाफा कर रही थीं।

उस पत्रिका में भी कई लड़के-लड़कियों के नाम-पते लिखे हुए थे। राज उनमें से किसी को पेन फ्रेंड बनने के प्रस्ताव के साथ पत्र भेजने की हिम्मत न कर सका। मगर यह सोचकर पत्रिका कार्यालय में अपना नाम-पता ज़रूर भेज दिया कि शायद कोई उसे अपना पेन फ्रेंड बना ले। वह जानता था कि उस दौर के सामाजिक बंदिशों के दायरे में, जहाँ सबके सामने लड़के-लड़कियाँ खुलकर आपस में दोस्ती करने में हिचकिचाते हैं, इस तरह ख़तों के ज़रिये दोस्ती करने में काफ़ी सहज होते हैं। वैसे उसका मकसद पेन फ्रेंड के ज़रिये गर्ल फ्रेंड की तलाश करना था।

वह एक पाक्षिक पत्रिका थी। पंद्रह दिन बाद जब उसका अगला अंक प्रकाशित हुआ, तो अंतिम पृष्ठ में पेन फ्रेंड की चाहत रखने वालों की सूची में राज़ का नाम और पता भी दर्ज़ था। उसके बाद शुरू हुआ इंतज़ार का दौर। उसे पूरी उम्मीद थी कि कोई न कोई उसे ज़रूर ख़त भेजेगा। मगर एक महीना गुज़र गया और किसी का ख़त नहीं आया।

बड़ा गुस्सा आया उसे। नाम तो अच्छा ही था उसका - राज शेखर शर्मा! ऐसा तो शायद नहीं था कि कोई दोस्त बनाना न चाहे और तेईस की उम्र भी कोई बहुत ज्यादा नहीं थी। गुस्सा निकला उस पत्रिका पर और उसका एक ग्राहक कम हो गया।

क्रमश:

क्या राज को कोई खत भेजेगा? कैसे होगा उसे बेला से प्यार? जानने के लिए पढ़िए अगला भाग।

दोस्तों! उम्मीद है, आपको आज का भाग पसंद आया होगा। कहानी का अगला भाग जल्द रिलीज होगा। Thanks!

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