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पहला प्यार - भाग 6

राज की नज़र कब्र पर रखे सफेद गुलाब के नीचे दबे लिफ़ाफ़े पर पड़ी। उसने लिफ़ाफ़ा उठाया और उसे खोल लिया। उसमें एक ख़त था। वह ख़त निकालकर पढ़ने लगा।

राज,

हैरान होंगे आप! आपके जन्मदिन के दिन कौन सा उपहार देने के लिए मैंने आपको यहाँ बुलाया है? ये सवाल आपको परेशान ज़रूर कर रहा होगा। उपहार देने के पहले अपने दिल की कुछ बातें आपसे साझा करना चाहती हूँ। उम्मीद है इन बातों को आप समझ जायेंगे।

मैं आपको अपनी सहेली के बारे में बताना चाहती हूँ। उसका नाम था - इसाबेला डिसूज़ा। हम दोनों पड़ोसी थे और एक ही कॉलेज में पढ़ते थे। कॉलेज के फर्स्ट ईयर में थे हम, जब इसाबेला की माँ इस दुनिया को छोड़कर चली गई। उन्होंने जानबूझकर दुनिया छोड़ी थी, इसाबेला के पिता की नशे की आदतों के वजह से। इसाबेला की माँ और पिता की कभी बनी ही नहीं। उनमें हर समय झगड़ा होता। एक दिन झगड़ा इतना बढ़ा कि उसकी माँ ने ऐसा कदम उठा लिया। माँ के जाने के बाद इसाबेला टूट सी गई। मैं उसे दिलासा देती, तो उसका ढांढस बंधता। मगर उसकी ज़िन्दगी में कोई ख़ुशी न थी। उसके उदास चेहरे पर कई महीनों बाद मैंने तब हल्की-सी मुस्कान देखी, जब उसने एक पत्रिका में किसी लड़के का नाम पता देखकर उसे ख़त भेजा।

उस दिन मैंने उससे पूछा था, "इसाबेला! क्या मेरी दोस्ती में कोई कमी है, जो तुझे पेन फ्रेंड बनाने की ज़रूरत पड़ गई।"

"नहीं बेला! ऐसा नहीं है। पता नहीं क्यों, पत्रिका में उसका नाम देखकर ख़त लिखने का जी चाहा। वजह मुझे भी समझ नहीं आई। वैसे वो दोस्त बना नहीं है। जब खत का जवाब आयेगा, तब पता चलेगा कि उसे मेरी दोस्ती क़ुबूल है या नहीं। और सुन, पता मैंने तेरे घर का दिया है। जानती तो है, पापा के कारण मैं घर पर ख़त नहीं मंगवा सकती।"

उसके वो पेन फ्रेंड आप थे राज! उस दिन के बाद से आपका ख़त मेरे घर के पते पर आने लगा। मैं वो ख़त इसाबेला को दे देती। ख़त पाकर वह बेहद ख़ुश होती। माँ के जाने के बाद आपके ख़त थे, जिसने उसके चेहरे पर मुस्कान लौटाई थी। उसकी ज़िन्दगी में खुशियाँ बिखेरी थी। मैं उसे ख़ुश देखकर ख़ुश थी और कभी-कभी उसे छेड़ती भी थी कि इस ख़त वाले मिस्टर से तुझे प्यार तो नहीं हो गया। तब वह हमेशा इंकार कर कहती – “हम बस अच्छे दोस्त हैं।“ पर उसके चेहरे की सुर्खी उसके दिल के हाल की चुगली कर जाती।

ख़त में आप दोनों के बीच क्या बातें होती, उसके बारे में मुझे कुछ मालूम नहीं था। इसाबेला उस बारे में मुझे कुछ बताया नहीं करती थी और मुझे भी जानने में कोई दिलचस्पी नहीं थी।
एक दिन कॉलेज गार्डन में एक पेड़ के नीचे बैठी इसाबेला को मैंने देखा। उसके चेहरे के भाव अजीब थे। एक पल को वह ख़ुश दिखती और एक पल को उदास। मैंने उससे कारण पूछा, तो उसने कोई साफ़ जवाब नहीं दिया। उल्टे मुझसे ही पूछने लगी, "बेला! क्या प्यार में झूठ की गुंजाइश होती है?"

मैं एकदम से कोई जवाब नहीं दे सकी। कहाँ से देती, मैंने कभी प्यार किया ही नहीं था।

उसने ख़ुद ही कहा, "नहीं ना!"

मैं फिर कुछ नहीं कह पाई।

"मैं उसे सब सच-सच बता दूंगी।" वह फिर बोली।

"क्या?" इस बार मैंने पूछा। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे जा रही थी।

"मैं इसाबेला हूँ, बेला नहीं!" वह बोली।

"हाँ! मैं जानती हूँ।" मैंने कहा।

"शेक्सपीयर ने कहा है कि नाम में क्या रखा है? पर नाम में बहुत कुछ रखा होता है - किसी की दोस्ती, किसी का भरोसा, किसी का प्यार!"

"इसाबेला! मेरी कुछ समझ नहीं आ रहा। तू कैसी उलझी-उलझी बातें कर रही है। खैर, अभी तो मैं ड्राइविंग क्लास जा रही हूँ। तुझसे बाद में मिलूंगी। हो सकता है, तब तक तू कुछ सुलझ जाये।"

मैं जाने के लिए पलट गई। कॉलेज गेट से बाहर जाते वक़्त मैंने एक बार पलट कर फिर से इसाबेला को देखा, वह रजिस्टर से पेज फाड़कर ख़त लिख रही थी।

मैं उन दिनों कार ड्राइविंग सीख रही थी। ड्राइविंग क्लास मैं ले चुकी थी। उसके बाद भी जब मौका भी मिलता, भैया की कार चलाकर प्रैक्टिस किया करती थी। भैया कभी-कभी ही कार लेकर ऑफिस जाया करते थे। इसलिए अक्सर मुझे घर पर कार मिल जाया करती थी।

उस दिन कॉलेज में कई प्रोफेसर नहीं आए थे। क्लासेस खाली जा रही थी। इसलिए मैं घर आ गई थी। घर आकर लंच करने के बाद मैं कार लेकर निकल गई। इधर-उधर सड़कों पर लगभग घंटे भर मैं कार दौड़ते रही, फिर घर की ओर लौटने लगी।

अचानक एक मोड़ पर मैंने कार मोड़ी, तो एक लूना मेरे सामने आ गई. बस्किस्मती से वो लूना इसाबेला चला रही थी। लाख कोशिशों के बाद भी मैं इसाबेला को अपनी कार की चपेट में आने से बचा न सकी। उसकी लूना कार के साइड से टकरा गई और बैलेंस खोकर उसी सड़क पर आते एक तेज रफ़्तार ट्रक से भिड़ गई। लूना के परखच्चे उड़ गये। इसबेला बुरी तरह घायल हो गई।

क्रमश:


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