दिन बीतने लगे और ऑफिस के बोरिंग रूटीन में बंधकर राज पेन फ्रेंड की बात भूल गया। मगर शायद तक़दीर मेहरबान थी। एक दिन जब वह ऑफिस से घर लौटा, तो फर्श पर पड़ा गुलाबी रंग का एक लिफ़ाफा नज़र आया, जो यक़ीनन डाकिया दरवाज़े के नीचे से अंदर सरका गया था। उसने लिफ़ाफ़ा उठाया। वह उसके ही नाम था। प्रेषक के नाम की जगह लिखा था -
'बेला!'
नाम पढ़कर ही उसके दिल में एक हलचल हुई। लिफ़ाफा खोलने के पहले ही उसका यक़ीन पुख्ता हो चुका था कि ये ख़त ज़रूर उस पत्रिका में उसका नाम-पता देखकर भेजा गया है।
उसने झट से लिफ़ाफ़ा खोला और उसमें खूबसूरत लिखाई से लिखे ख़त के हर अक्षर को बड़े ध्यान से पढ़ने लगा।
प्रिय राज!
मेरा नाम बेला है। अठारह बरस की हूँ। बीए कर रही हूँ। अभी फर्स्ट ईयर में हूँ। आपकी पेन फ्रेंड बनना चाहती हूँ। क्या आप मेरे पेन फ्रेंड बनेंगे?
बेला
महज़ चंद लाइनों के उस ख़त को पढ़कर राज के दिल में एक अजीब सी गुदगुदी हुई। ऐसा होना लाज़मी था। पहली बार किसी लड़की ने खत लिखा था उसे। दिन भर में जाने कितनी बार उसने ख़त को पढ़ा और हर बार एक नया अहसास दिल में जागा। उसी शाम उसने ख़त का जवाब लिख दिया।
प्रिय बेला!
मुझे तुम्हारा पेन फ्रेंड बनकर बेहद ख़ुशी होगी। वैसे बता दूं कि तुम मेरी पहली पेन फ्रेंड हो और इसलिए ख़ास हो। उम्मीद करता हूँ कि हमारी दोस्ती भी ख़ास रहेगी।
राज
इन पंक्तियों के साथ अपने बारे में कुछ जानकारी देकर और कुछ उसके बारे में पूछकर उसने ख़त पूरा किया। एक पन्ने के उस ख़त को लिखने में उसने जाने कितने पन्ने बर्बाद कर दिये। अगले दिन ऑफिस जाते वक़्त उसने धड़कते दिल से ख़त पोस्ट बॉक्स में डाल दिया। फिर शुरू हुआ इंतज़ार, उसके जवाब का।
एक अलग ही मज़ा था उस इंतज़ार में। आज जहाँ वाट्सअप मैसेज भेजने के बाद एक सेकंड का भी इंतज़ार बेसब्र कर जाता है। उन दिनों लोग बड़े सब्र से कई-कई दिनों तक खतों का इंतज़ार किया करते थे। इंतज़ार की आदत थी उन्हें और जब इंतज़ार के एक लंबे दौर के बाद ख़त हाथ में आता, तो ख़ुशी का जो आलम होता, उसे ज़ाहिर कर देने पर भी उसे महसूस कर पाना शायद आज के दौर के लोगों के लिए ज़रा मुश्किल हो।
कुछ दिनों के बाद बेला का दूसरा ख़त राज के हाथ में था। इस बार ख़त चंद लाइनों का नहीं, बल्कि दो पन्नों का था।
बहुत सी बातें लिखी थी उसने। अपने बारे में बहुत ज्यादा तो नहीं बताया था, पर अपने शहर के बारे में, कॉलेज के बारे में, सहेलियों के बारे में बहुत कुछ लिखा था। उसी रात राज ने जवाब भी लिख दिया। फिर तो एक सिलसिला सा चल पड़ा। उसे हर वक़्त बेला के ख़त का इंतज़ार रहता। हालांकि मालूम होता कि खत पहुँचने में कम से कम पाँच दिन लगेंगे। मगर जाने क्यों दिल कोई जादू की उम्मीद करता। ऐसा जादू, जो दिन को हवा के मानिंद उड़ा ले जाये। मगर ऐसा न होता। इंतज़ार में एक-एक दिन सदियों की तरह गुज़रता और जब इतने इंतजार के बाद ख़त मिलता, तो ख़ुशी सातवें आसमान पर होती।
वक़्त गुज़रता जा रहा था। ख़तों का सिलसिला बढ़ता चला जा रहा था और ख़तों में पन्नों का इज़ाफ़ा करता जा रहा था। चार-पाँच लाइनों से शुरू हुए ख़त अब चार-पाँच पन्नों में भी सिमट नहीं पाते थे। न जाने कहाँ से इतनी बातें निकल आती थीं। अब तो राज की ज़िन्दगी में कुछ भी होता, उसका दिल उसे बेला से साझा करने को चाहता। इतने सालों की ज़िन्दगी में उसके कई दोस्त बने, मगर उन सबमें ख़तों के आदान-प्रदान से बनी दोस्त 'बेला' उसके सबसे क़रीब थी। अजीब सा लगाव हो गया था उससे और हर गुज़रते दिन के साथ वो लगाव बढ़ता जा रहा था।
एक बार राज ने ख़त में बेला से पूछा - 'तुम्हारा पसंदीदा अभिनेता कौन है बेला?'
जवाब आया – 'कुमार गौरव! मैंने उनकी फिल्म लव स्टोरी दस बार देखी है।'
जलन क्या होती हैं, ज़िन्दगी में पहली बार जाना था राज ने।
क्रमश:
क्या जलन से शुरू होगा राज और बेला का प्यार? जानने के लिए पढ़िए अगला भाग।
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