राघव (खण्ड -1) - विनय सक्सेना राजीव तनेजा द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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राघव (खण्ड -1) - विनय सक्सेना

बॉलीवुड की फ़िल्मों में आमतौर पर आपने देखा होगा कि ज़्यादातर प्रोड्यूसर एक ही ढर्रे या तयशुदा फॉर्मयुलों पर आधारित फ़िल्में बनाते हैं या बनाने का प्रयास करते हैं। एक समय था जब खोया-पाया या कुंभ के मेले में बिछुड़े भाई-बहन का मिलना हो अथवा बचपन में माँ-बाप के कत्ल का बदला नायक द्वारा जवानी में लिया जाना हो इत्यादि फॉर्मयुलों पर आधारित फिल्मों की एक तरह से बाढ़ आ गयी थी।

इसी तरह किसी एक देशभक्ति की फ़िल्म के आने की देर होती है कि उसी तर्ज़ पर अनेक फिल्में अनेक भाषाओं में बनने लगती हैं। एक बाहुबली क्या ब्लॉग बस्टर साबित हुई कि उसके बाद ऐश्वर्या रॉय (बच्चन) और विक्रम समेत दक्षिण के बड़े-बड़े सितारे तक राजमहलों और युध्दों से संबंधित षड़यंत्रकारी फिल्मों में व्यस्त होते चले गए।

कुछ-कुछ ऐसा ही हाल हमारे देश में साहित्य का भी है। आमतौर पर कोई भी लेखक अथवा कवि अपने सोच एवं विचारों से वशीभूत होकर किसी ऐसे विषय पर अपनी कलम चलाता है या चलाने का प्रयास करता है जो उसे उसकी सोच के हिसाब से सही लगते हैं लेकिन बहुत से लेखक ऑन डिमांड भी किसी की मॉंग के अनुसार उसके सुझाए या दिए गए विषय पर भी उतनी ही सहजता से अपनी कलम चला लेते हैं जितनी सुगमता से वे अपने मन की इच्छा एवं रुचिनुसार विषय पर अपनी सोच के घोड़ों को दौड़ाते हुए लिखते हैं। लेकिन कई बार भेड़चाल को देखते हुए हम किसी ऐसे ट्रेंडिंग विषय पर भी अपनी सोच की नैय्या खेने लगते हैं जिस पर पहले ही बहुत से लेखक लिख चुके हैं या लिखने जा रहे हैं। उदाहरण के तौर पर मूल कहानी के एक ही होते हुए भी तुलसीदास या बाल्मीकि द्वारा रचित रामायण के ही लगभग 300 से ज़्यादा अलग-अलग वर्ज़न आ चुके हैं जो भिन्न-भिन्न समय पर भिन्न-भिन्न देशों में विभिन्न लोगों द्वारा लिखे या रचे गए। इसी रामायण की प्रसिद्ध कहानी को अँग्रेज़ी लेखक अमीश त्रिपाठी द्वारा बड़े स्तर पर हॉलीवुड स्टाइल में लिखा गया जिसकी बिक्री के आँकड़े चौंकाते हैं। ख़ैर.. इस विषय में ज़्यादा बातें फ़िर कभी किसी अन्य पोस्ट में। फिलहाल मैं यहाँ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर पाँच खण्डों में लिखे गए उपन्यास 'राघव' के पहले खंड की बात करने या रहा हूँ जिसे लिखा है विनय सक्सेना ने।

इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है किशनूर राज्य पर नज़रें गड़ाए उसके पड़ोसी राज्यों प्रकस्थ एवं तितार की षड़यंत्रभरी कोशिशों की। जिनके तहत एक तरफ़ किशनूर के युवाओं को रूपवती युवतियों के ज़रिए वासना के जाल में उलझा अपनी तरफ़ मिलाया जा रहा है तो वहीं दूसरी तरफ़ उन्हें नशे की
गिरफ्त में ले नाकारा किया जा रहा है।

इस उपन्यास में एक तरफ़ 'राघव' राज्य से निकाले जा चुके अपराधियों/बेगुनाहों को संगठित करने में जुटा दिखाई देता है तो वहीं दूसरी तरफ़ मंथरा सरीखी 'रूपा' की षड़यंत्रभरी चालबाज़ियों में फँस, ममतामयी राजमहिषी भी अपने पुत्र को राजा बनने के मोह में अपने सौतेले पुत्र 'राघव' के लिए महाराज से देशनिकाला माँगती नज़र आती है।

इस उपन्यास में कहीं युवराज और राजनर्तकी के मध्य प्रेम पनपता दिखाई देता है तो कहीं अत्याचारी राजा के अमानवीय अत्याचार होते दिखाई देते हैं। कहीं खंडहर हो चुके भव्य महल का राघव के दिशानिर्देशोंनुसार जीर्णोद्धार होता दिखाई देता है तो कहीं इस कार्य में विशालकाय पक्षी भी राघव की मदद करते नज़र आते हैं।

इसी उपन्यास में कहीं अस्त्रों-शास्त्रों के संचालन, व्यूह रचना एवं युध्दकौशल से जुड़ी बातें नज़र आती हैं तो कहीं शतरंज की बिसात पर शह और मात के खेल के ज़रिए रणनीति की गूढ़ बातें सरल अंदाज़ में समझाई जाती दिखाई देती हैं। इसी किताब में कहीं औषधीय चिकित्सा में वन्य वनस्पतियों का महत्त्व समझाया जाता दिखाई देता है।

◆ किसी भी गुप्तचर या दुश्मन के क्षेत्र में घुसे सैनिक का कर्तव्य होता है कि वह पकड़े जाने पर अपने देश या राज्य की कोई भी जानकारी अपने शत्रुओं को न लगने दे लेकिन इस उपन्यास में युवराज राघव के गुप्त रूप से प्रकस्थ की राजकुमारी से मिलने के प्रयास के दौरान जब वह जानबूझकर अचानक अपनी सुरक्षा में तैनात सैनिकों की दृष्टि से ओझल हो ग़ायब हो जाता है। तो उसकी खोज में जंगल में भटकते हुए जब दमन और उसके सैनिक पकड़े जाते हैं तो उनका एक ही बार में सब राज़ उगल देना बड़ा हास्यास्पद एवं अजीब लगता है कि ऐसे ढीले लोगों को राज्य की सेना में शामिल ही क्यों किया गया।

◆ पेज नम्बर 22-23 पर दिए गए एक प्रसंग में महाराज ऊँचे लंबे कद के बलिष्ठ देव से राज्य की सुरक्षा के संदर्भ में एक दूसरे से आदरपूर्वक भाषा में विचारविमर्श कर रहे हैं। इसी प्रसंग के दौरान महाराज देव को निर्देश देते हुए कहते हैं कि..

'कुछ भी संशयात्मक लगे तो वह तुझे और तू मुझे सूचित करेगा'

यहाँ एक राजा के मुख से सम्मानपूर्वक भाषा के बजाय 'तुझे' और 'तू' की भाषा में देव को संबोधित करना थोड़ा अटपटा लगा। इसके बजाय अगर 'तुम्हें' और 'तुम' शब्दों का प्रयोग किया जाता तो बेहतर था।

इसी तरह की 'तू-तड़ाक' वाली भाषा का आगे भी उपन्यास में कई जगह पर प्रयोग दिखाई दिया। जिससे बचा जाना चाहिए था।

◆ इसी किताब में सेना में नौसिखियों की भर्ती के लिए रँगरूट शब्द का उपयोग किया गया जो कि एक उर्दू शब्द है। उर्दू शब्दों जैसे 'मजलिस', 'शुबह' , 'शक', 'खैरख्वाह', 'सेहत', 'तरक्की' इत्यादि का इस्तेमाल बहुतायत में दिखा।

◆ पेज नंबर 103 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'यहाँ की जलवायु में प्राय: गंभीर रोग नहीं होते किंतु वर्षा के समय संक्रामक रोग, हैजा, मलेरिया आदि हो जाते हैं'

कहानी के समय-काल के हिसाब से कहानी की भाषा में यथासंभव हिंदी शब्दों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए था लेकिन यहाँ इस्तेमाल किया गया 'मलेरिया' शब्द एक अँग्रेज़ी शब्द है।

◆ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया यह काल्पनिक उपन्यास कहीं अँग्रेज़ी लेखक अमीश त्रिपाठी की लेखनी से प्रेरित लगा तो कुछ एक जगहों पर ऐसा प्रतीत हुआ जैसे रामायण, महाभारत इत्यादि पौराणिक ग्रंथों के कुछ दृश्यों को हूबहू बस नाम, स्थान और पात्र संख्या बदल कर नए सिरे से पाठकों के समक्ष परोस दिया गया हो। उदाहरण के तौर पर ऋषि विश्वामित्र द्वारा राम-लक्ष्मण को शिक्षा-दीक्षा एवं युद्ध कौशल एवं जीवन के नैतिक मूल्यों की शिक्षा प्रदान किए जाने के दृश्यों को लेखक द्वारा जस का तस वाले अन्दाज़ में पुनः लिख दिया गया।

दरअसल हम लेखक अपने लिखे के मोह में इस कदर पड़ जाते हैं कि उसे ही ऐसा ब्रह्म वाक्य समझ लेते हैं जिसे किसी भी सूरत में काटा या छाँटा नहीं जा सकता जबकि किसी भी लेखक का स्वयं में एक अच्छा पाठक होना बेहद ज़रूरी है जो कि स्वयं अपने लिखे को ही पढ़ कर उसकी पठनीयता/अपठनीयता की जाँच कर सके। साथ ही उसमें एक निर्दयी संपादक का गुण होना भी बहुत ज़रूरी है जो बेदर्दी से स्वयं लिखे हुए में से अनावश्यक हिस्से को काट-छाँट कर रचना को उम्दा एवं अव्वल दर्जे का बना सके।

पाठकीय दृष्टि से अगर कहूँ तो यह उपन्यास मुझे बेहद खिंचा हुआ लगा। राघव की शिक्षा-दीक्षा से संबंधित दृश्य मुझे अनावश्यक रूप से ज़्यादा बड़े लिखे गए प्रतीत हुए जिनकी वजह से कई जगहों पर उपन्यास बोझिल एवं उबाऊ सा भी लगा। अगर कोशिश की जाती तो इस 286 पृष्ठीय उपन्यास को आसानी से 200 पेजों में समेटा जा सकता था। बतौर सजग पाठक एवं स्वयं के भी एक लेखक होने की वजह से मुझे इस तरफ़ ध्यान दिए जाने की आवश्यकता प्रतीत हुई।

यूँ तो लेखक द्वारा इस उपन्यास के पाँचों खण्ड मुझे उपहारस्वरूप प्रदान किए गए परंतु अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा की इस उपन्यास के 286 पृष्ठीय प्रथम खण्ड 'राघव - युगप्रवर्तक' के पेपरबैक संस्करण को छापा है वाची प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 300/- रुपए जो कि कंटैंट के हिसाब से मुझे ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।