ये तुम्हारी मेरी बातें - 7 Preeti द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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ये तुम्हारी मेरी बातें - 7

"बुरा मत मानना प्रतिमा, लेकिन तुम्हारे पति तुमसे भी ज़्यादा अच्छी चाय बनाते हैं।" शुक्लाइन ने तारीफ रूपी तंज कसते हुए कहा।

चेहरे पर सामान्य मुस्कुराहट बनाए रखते हुए प्रतिमा बोली" इसमें बुरा मानने जैसी क्या बात है। ये तो मेरा सौभाग्य है कि वकील साहब के रूप में मुझे इतना अच्छा जीवन साथी मिला है जो इस बात तक का ध्यान रखते हैं की मुझे किस वक्त कौन सी चाय पीनी पसंद है। अब हर कोई इतना भाग्यशाली कहां ही हुआ करता है, है ना शुक्लाईन भाभी!"

प्रतिमा की बात खतम भी नहीं हुई थी और शुक्लाइन
ने चुनौती स्वीकारते हुए हामी भर दी।

( मिलिए हमारी पांडे कॉलोनी की शुक्लाइन भाभी से!
हर कॉलोनी में एक चलता फिरता सीसीटीवी होता है जिससे हम सब वाकिफ हैं, इस गली की ये जिम्मेदारी हमारी शुक्लाइन भाभी ने उठा रक्खी है। कब किसके घर में क्या हो रहा, कौन आ रहा कौन कहां जा रहा, यहां तक कि कौन क्या बना खा रहा इन सब बातों को संभाल कर सब तक पहुंचाने का काम हमारी शुक्लाइन भाभी का है। वकील बाबू और प्रतिमा जी के घर के ठीक सामने वाला घर इनका है। कहने को बीच में से एक रोड जाती है , लेकिन शुक्लाइन के लिए वो दो घरों को जोड़ने वाली गली है। अब क्या ही तारीफ करें शुक्लाइन भाभी की हम, वो उन सारे गुणों से युक्त हैं जिनसे एक आम इंसान का जीवन अस्त व्यस्त किया जा सकता है।

खैर, आज पर आते हैं। आज कचहरी से आते वक्त शुक्लाइन ने हमारे वकील बाबू को धर दबोचा और खुद को चाय पर निमंत्रण दिलवा डाला। खिड़की से सारा प्रकरण हमारी प्रतिमा जी ने देख लिया और चूल्हे पर चाय भी धर दी। कहानी पर वापस चलते हैं।)

"कुछ भी कहो प्रतिमा! जितना वकील बाबू तुम्हारी चाय की तारीफों के पुल बांधा करते हैं, आज तुम्हारी हाथों की बनी चाय पीने के बाद जब उनकी बनाई चाय पी तो सब झूठ ही लग रहा। बुरा मत मानना। भाई साहब! मज़ा आ गया वाकई।"

" आप शर्मिंदा कर रहीं हैं भाभी। ये सब तो सालों की प्रैक्टिस का नतीजा है बस!" अपनी तारीफ सुन कर शालीनता से वकील बाबू अप्रत्यक्ष रूप से धन्यवाद ज्ञापित कर बैठे।

वकील बाबू का इतना कहना था कि प्रतिमा ने मेज़ के नीचे से उनके पैरों पर अपना पैर जम कर दे मारा।

( आंखों ही आंखों में होती बात

प्रतिमा : सालों की प्रैक्टिस हां!

अभिषेक : पहली बार कोई तारीफ कर रहा। समझ नहीं आया क्या बोलूं। तुम करती होती तो पता रहता ना क्या जवाब देना है, सब तुम्हारी गलती है मिश्राइन!

प्रतिमा: जाने दो आज शुक्लाइन को, आज करूंगी तुम्हारी तारीफ वकील बाबू!)

" क्या हुआ प्रतिमा, आंख में कुछ चला गया क्या, लाल हुई जा रही?" चुटकी लेते हुए शुक्लाइन बोलीं।

" नहीं, सब ठीक है, थोड़ी थकान सी है शायद उसी से बस.."

प्रतिमा की बार बीच में ही काटते हुए शुक्लाइन -
" वही तो कह रही भाई साहब! मन से की गई मेहनत का रंग निखर के ज़रूर सामने आता है। फिर चाहे वो वकालत में आपकी पकड़ हो या चाय ! क्यूं सही कहा ना प्रतिमा!"

( शुक्लाइन द्वारा बोले जा रहे एक एक शब्द का असर हमारी प्रतिमा के चेहरे पर आसानी से देखा जा सकता था। आज मन ही मन प्रतिमा ने नई चाय का अविष्कार कर लिया था जिससे अपने पड़ोसी की ज़हरीली ज़ुबान को कैसे नीस्त ओ नाबूद किया जा सकता है जिसका भान हमारे वकील बाबू को भी भली भांति हो रहा था। अपनी कातिल मुस्कुराहट लिए अभिषेक अपनी प्रतिमा को आंखों ही आंखों में आश्वासन दिए जा रहा था कि अब वो जीवन में कभी किसी और के लिए चाय नहीं बनाएगा मगर हमारी प्रतिमा कहां ही अब काबू में रह गईं थीं। शुक्लाइन आज पहली बार अपने काम में सफल होती नज़र आ रहीं थीं। आज से पहले ना जाने कितने मौके ढूंढे थे उन्होंने वकील बाबू और प्रतिमा में लड़ाई करवाने के। आज बराबर मौका मिला था उन्हें अपने टैलेंट को दिखाने का और वो इस मौके को पूरी तरह भुनाने में लगी हुईं थीं। एक आदर्श बहु और पत्नी का खिताब ,जो मोहल्ले वालों ने बिना शुक्लाइन की सहमति के प्रतिमा को दे रक्खा था आज उसी का बदला जैसे लेने वो प्रगट हुईं थीं।)

" भाभी जी, आप बैठिए मुझे ज़रूरी काम से बाहर जाना पड़ेगा, एक मुवक्किल को टाइम दे रक्खा था अभी याद आया। प्रतिमा वो फाइल निकाल दो चलकर जल्दी से, चलो प्लीज़।"

" कौन सी फाइल?" प्रतिमा ने अभिषेक को घूरते हुए पूछा।

" वही लाल पीली वाली! उठो ज़रा दे दो ना।" बिनती भरे सुर से अभिषेक प्रतिमा को आवाज़ लगाता कमरे में चला गया।

" वकील बाबू की मदद कर दो प्रतिमा, उन्हें देर हो जायेगी तो नुकसान हो जायेगा , जाओ। मेरा अपना ही घर है। बैठी हूं मैं। जाओ जल्दी।"


(शेष अगले भाग में
संग बने रहिए 🙏)