बेटी की अदालत - भाग 5 Ratna Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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बेटी की अदालत - भाग 5

स्वीटी के दादा-दादी हों या फिर नाना-नानी वे चारों अंदर ही अंदर उनके मन में यह जानते थे। लेकिन आज सबके सामने इस बात का खुलासा होता देखकर उन्हें बहुत दुख हो रहा था। वे सब नहीं चाहते थे कि इस बात का ज़िक्र इस तरह से हो। लेकिन स्वीटी तो दिल की बड़ी ही साफ़ लड़की थी। वह जो भी महसूस कर रही थी उसे कहने में उसे जरा-सी भी हिचकिचाहट नहीं हो रही थी। वह जानती थी कि यह सब उसके अपने ही तो हैं। वे तो उसके पापा-मम्मी के पापा-मम्मी ही हैं।

बात को संभालते हुए स्वीटी की नानी ने कहा, “स्वीटी बेटा हर परिवार में छोटी-मोटी बातें तो होती ही रहती है।”

“नहीं नानी, यह छोटी-मोटी बात नहीं है।”

तभी उसकी दादी ने कहा, “लेकिन स्वीटी इन सबसे तुम्हारे अमेरिका जाकर पढ़ाई करने का क्या लेना देना है? तुम्हारे पापा कह रहे थे कि वह चाहते हैं तुम्हें वहीं सेटल कर दें। वहाँ पढ़ोगी तो यह आसानी से हो जाएगा। पढ़ लिख लो बेटा, अच्छी पढ़ाई कर लोगी तो फिर अच्छी जगह शादी होगी। अच्छा लड़का और अच्छा परिवार मिलेगा।”

“जानती हूँ दादी, मैं पापा-मम्मी की यह इच्छा भी जानती हूँ लेकिन दादी मुझे शादी से नफ़रत है। मुझे शादी करनी ही नहीं है।”

“भला इसमें शादी से क्यों नफ़रत कर रही हो? इस समस्या से तुम्हारी शादी का क्या लेना देना है बेटा?”

“लेना-देना है ना दादी। यदि शादी करूँगी तो माँ भी बनूँगी ना? माँ-बाप का बच्चों की नज़र में उनके बूढ़े और बच्चों के जवान होने के बाद क्या महत्त्व रह जाता है वह तो मैं बचपन से ही देखती आ रही हूँ। इसीलिए ना मुझे शादी करना है, ना मुझे माँ बनना है और ना ही ऐसा तिरस्कार झेलना है।”

अलका और गौरव अपनी बेटी स्वीटी के तेवर देखकर ज़मीन में नजरें गड़ाए शांत बैठे थे। उनके पास इस समय उसे रोकने या टोकने की हिम्मत नहीं थी।

स्वीटी ने फिर कहा, “नाना-नानी के लिए तो फिर भी मामा-मामी हैं। मुझे नहीं लगता उन्हें नाना-नानी के साथ रहने से कोई आपत्ति होगी। लेकिन दादा-दादी वह कहाँ जाएंगे। मैंने निर्णय ले लिया है कि मैं मेरे दादा-दादी के साथ रहूँगी। अब मैं 18 वर्ष की हो चुकी हूँ और मैं निर्णय ले सकती हूँ।”

यह सुनकर अलका ने हिम्मत बटोर कर कहा, “यह क्या कह रही है स्वीटी? तुम्हारे भविष्य का सवाल है, उसी के लिए तो हम यह सब कर रहे हैं।”

“नहीं मम्मा मुझे नहीं चाहिए, वह भविष्य जो आप मेरे लिए बनाना चाहती हैं। मेरे लिए दादा जी और दादी से बढ़कर अमेरिका नहीं है मम्मी। आप लोग तो आपके कर्तव्य से आपके फ़र्ज़ से मुंह मोड़ रहे हो लेकिन वह कर्तव्य मैं पूरा करूँगी। आप लोग लड़ते रहो, पता भी नहीं चलेगा कब उनका बुलावा आ जाए और वह दुनिया से चले जाएँ। पापा-मम्मी मुझे यहीं रहकर पढ़ाई करना है। यह मेरा अंतिम निर्णय है।”

“मैं आपसे बहुत प्यार करती हूँ मम्मा लेकिन आपके विचारों से मुझे नफ़रत है। जब आप लोग बूढ़े हो जाओगे तब मैं आपके साथ रहूँगी। शादी नहीं करूँगी तब तो किसी के विरोध का कोई सवाल ही नहीं होगा।”

वहाँ बैठे हर एक की आँखें स्वीटी की तरफ़ ऐसे देख रही थी मानो वहीं पर ठहर गई हों। उसकी बातों में सच्चाई थी, कहाँ कुछ भी ग़लत कहा था उसने।

यह एक बेटी की अदालत थी, जिसमें वही जज थी, वही वकील। इसमें गुनहगार थे उसके माता-पिता और उन्हें जो सज़ा मिली थी वह थी कि अब उनकी बेटी उनके साथ नहीं रहेगी। ना ही वह जीवन में कभी भी शादी करेगी। सभी की आंखें नम थीं। एक सन्नाटा-सा वहाँ पर छा गया था। किसी के पास शब्द ही नहीं थे, कुछ भी कहने या समझाने के लिए।

कुछ पलों में अलका की आवाज़ आई। उसने कहा, “स्वीटी हमें माफ़ कर दो। हमसे गलती तो हुई है। तुमने अभी-अभी जो भी कहा उसे वापस ले लो बेटा।”

“नहीं मम्मा जो बोल दिया उसे वापस कैसे ले लूँ। आप ले सकती हैं वापस वह सारे शब्द जो आपने दादा-दादी के लिए कहे थे। नहीं ले सकती ना? क्या पापा अपने शब्द वापस ले सकते हैं जो वह कहते थे।”

स्वीटी उठकर खड़ी हो गई और कहा, “दादा जी, दादी चलिए मैं अब हमेशा आप दोनों के साथ रहूँगी,” इतना कहते हुए उसने एक तरफ़ दादा जी का और दूसरी तरफ़ अपनी दादी का हाथ पकड़ा और घर से बाहर निकलने लगी।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः