Beti ki Adalat - Part 3 books and stories free download online pdf in Hindi

बेटी की अदालत - भाग 3

स्वीटी के मुँह से अमेरिका ना जाने की बात सुनकर गौरव ने कहा, “बेटा बहुत अच्छा कॉलेज है वहाँ पर, चली जाओ ज़िद मत करो।”

“नहीं पापा मैं नहीं जाऊँगी।”

“परंतु स्वीटी ...”

“पापा मुझे नाना-नानी के आने से भी कोई दिक्कत नहीं होती। मुझे तो दिक्कत आप दोनों के कारण होती है। आपके रोज़-रोज़ के झगड़ों के कारण होती है। मैं सब जानती हूँ, आपका झगड़ा करने की वज़ह।”

गौरव ने गुस्से में चिल्ला कर कहा, “स्वीटी तुम कुछ ज़्यादा ही बोल रही हो। अभी बहुत छोटी हो, जैसा हम कह रहे हैं सुन लो। तुम्हें अमेरिका जाना ही होगा। हम तुमसे पूछ नहीं रहे हैं, तुम्हें बता रहे हैं समझी।”

स्वीटी गुस्से में पांव पटकती हुई उस कमरे से बाहर चली गई।

आज स्वीटी बहुत दुखी थी साथ ही नाराज भी थी। उसने उसी समय पहले अपने दादा को फ़ोन लगाकर कहा, “दादा जी आप लोग जल्दी यहाँ आ जाइए।”

“बेटा स्वीटी क्या हुआ है? क्या बात है बेटा?”

“दादा जी डरने की या चिंता की कोई बात नहीं है। मुझे आपकी मदद की ज़रूरत है। प्लीज दादा जी …!”

“अरे-अरे कल ही आ जाएंगे बेटा, प्लीज बोलने की कोई ज़रूरत नहीं है।”

“ठीक है थैंक यू दादा जी।”

उसके बाद उसने अपने नाना को फ़ोन लगाया, “हेलो नाना जी”

“हेलो स्वीटी, माय बेबी।”

“नाना जी आपको और नानी को कल यहाँ हमारे घर आना है।”

“घर आना है? क्यों?”

“अभी कल ही तो हम तुम्हारे मामा अनिल के घर आए हैं।”

“यह तो और भी अच्छी बात है नाना जी। आप मेरे मामा-मामी को भी लेकर आ जाइए। मुझे आपकी मदद की बहुत ज़रूरत है पर यह बात अभी आप मम्मी-पापा से मत बताना कि मैंने आपको इस तरह बुलाया है।”

स्वीटी के नाना सोच में पड़ गए कि आख़िर ऐसी क्या बात हो सकती है, जो स्वीटी इस तरह उन्हें बुला रही है।

दूसरे दिन शाम को स्वीटी के दादा जी और दादी उनके घर आ गए। दरवाजे की घंटी बजते ही स्वीटी ने दौड़ कर दरवाज़ा खोला।

अपने दादा जी को देखते ही उसने खुश होते हुए कहा, “आइए दादा जी, दादी आप भी आइए।”

यह आवाज़ सुनते ही गौरव और अलका के कान खड़े हो गए। उन्होंने कमरे से बाहर झांक कर देखा तो हाथों में सूटकेस लिए गौरव के अम्मा बाबूजी सामने दिखाई दिए।

गौरव जल्दी से बाहर आया और उनके हाथ से सूटकेस लेते हुए उनके पैर छुए।

“अरे बाबूजी आप लोग अचानक?”

स्वीटी की तरफ़ जैसे ही दादा जी ने देखा स्वीटी ने इशारा कर दिया कि कुछ मत बताना।

तब दादा जी ने कहा, “बस मन कर रहा था, तुम लोगों से मिलने का इसीलिए आ गए।”

तभी दरवाजे पर फिर से दस्तक हुई। स्वीटी ने दौड़ कर दरवाज़ा खोला तो सामने उसके नाना-नानी हाथों में सूटकेस लिए खड़े थे। अपने मम्मी-पापा को देखकर अलका दंग रह गई।

वह लपक कर बाहर आ गई। मजबूरी में ही सही सास-ससुर के पैर छूकर वह अपनी माँ के गले से लिपट गई।

फिर अलका ने अपने पापा से कहा, “आप लोग अचानक? फ़ोन कर दिया होता तो मैं लेने आ जाती पापा।”

“बस बेटा मन कर रहा था स्वीटी से मिलने का।”

तभी अलका की नज़र दरवाज़े के बाहर खड़े उसके भैया भाभी पर पड़ी जो सामान उठाकर अंदर आ रहे थे।

अलका ने उन्हें देखकर खुश होते हुए कहा, “अरे भैया भाभी आप लोग भी आए हैं, आइए-आइए। ठीक है आप लोग बैठिए, मैं सबके लिए चाय बना कर लाती हूँ।”

चाय पीकर सब बैठे थे। इस बार तो स्वीटी के दादा-दादी, नाना-नानी और मामा-मामी सब साथ में एकत्रित हो गए थे। वह सब बातें कर रहे थे।

कुछ ही देर में अलका और उसकी भाभी ने मिलकर सबके लिए टेबल पर खाना लगाया। सब ने साथ में खाना खाया और फिर अपने-अपने कमरे में जाकर सो गए।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः

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