9. न्यायालय से.
-आनन्द विश्वास
लगभग सात साल से ऊपर का समय तो हो गया था, लाखन सिंह और उनके अन्य साथियों पर भ्रष्टाचार और घोटालों से सम्बन्धित केस को चलते-चलते। हजारों-करोड़ रुपये डकार चुके थे नेताजी और उनके साथी। कहीं सरकारी तिजौरी से तो कहीं जनता की गाढ़ी कमाई की जमा राशि से। कहीं पर सरकार को चूना लगाया तो कहीं भोली-भाली जनता को उल्लू बनाया और अपना उल्लू सीधा कर लिया, राजनीति में कुशल चालाक नेता लाखन सिंह ने।
पर कानून की दृष्टि से तो सब आरोप ही आरोप थे अभी तक। अभी तक तो उसके निर्णय का या आरोप के सिद्ध होने का कोई ओर-छोर भी दिखाई नहीं दे रहा था और ना ही कोई सन्तोष-जनक प्रगतिही।
केस कभी इस कोर्ट में पहुँचता था तो कभी उस कोर्ट में। कभी इस शहर में तो कभी उस शहर में। कोर्ट बदलते रहे, शहर बदलते रहे, सरकारी अफसर बदलते रहे, वकील और सरकारी वकील भी बदलते रहे।
बहुत कुछ बदल गया था इतने लम्बे अर्से में। लोगों के काले बालों का रंग भी बदल कर सफेद हो गया था, दस्तावेज़ों और फाइलों के कागजों के रंग भी सफेद से बदल कर पीला हो गया था और कुछ लोगों के तो लोक भी बदल गये थे, इस लोक से बदल कर परलोक में भी पहुँच गये थे कुछ लोग।
सरकारें भी बदल गईं थीं, सरकारी महकमे भी बदल गये थे। पर नेता जी पर लगे भ्रष्टाचार और घोटालों के आरोप नहीं बदले तो नहीं ही बदले। *आरोप*, आरोप ही बने रहे। *आरोप* सिद्ध नहीं हो सके तो नहीं ही हो सके।
और इसका कारण तथ्य, सबूत और गवाह नहीं थे। वे सब के सब तो अपने-आप में परिपूर्ण थे और पर्याप्त भी थे।
पर बेचारे सबूत ही क्या करें जब उनके साथ छेड़छाड़ की जाय, उन्हें तोड़-मरोड़ कर सामने वाले पक्ष को बचाने के लिये, उनकी अनुकूलता और आवश्यकता के अनुसार आधे-अधूरे ही प्रस्तुत किया जाय। तो फिर कानून, न्याय, न्यायालय और न्यायाधीश ही क्या कर सकते हैं। कानून तो तर्क, सबूत और गवाहों पर चलता है। और ऐसी परिस्थिति में केस को तो कमजोर होना ही था और ऐसा हुआ भी।
किसी की समझ में कुछ भी तो नहीं आ रहा था कि आखिर क्यों, सीबीआई डायरेक्टर भ्रष्ट नेता लाखन सिंह को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। सीबीआई डायरेक्टर की भूमिका को लेकर एक बार फिर से गम्भीर सबाल उठाये जा रहे थे।
पर विरोध काफी नहीं था। शायद डायरेक्टर के पीछे कोई बड़ी शक्ति काम कर रही थी। और सच तो यह है कि मुलाज़िमों को तो वही कुछ करना होता है जो उनके ऊपर वाले चाहते हैं और जो उनके बॉस चाहते हैं। वे भी तो बेचारे मजबूर ही होते हैं आदेश का पालन करने के लिये। आदेश का पालन करना ही तो उनके लिये सर्वोपरि होता है।
और इधर इतने लम्बे समय के अन्तराल में, जमीनी हकीकत और स्वयं के अनुभवों ने बहुत कुछ सिखा दिया था, भोली-भाली सरल स्वभाव की पाखी को और साक्षी को।
कोर्ट, कचहरी, कानून, वकील, गवाह, ऐफीडैविट, स्टैम्प-पेपर और टाइप राइटर के बीच से गुजरते-गुजरते पाखी, आज कानून की पेचीदगियों को भी समझने लगी थी और समाज के लोगों की कुटिल मुस्कान को भी।
कोर्ट, अदालत और समाज में फैले हुये इस प्रदूषण को दूर करने के लिये मन बना चुकी थी पाखी। उसने पहले एल.एल.बी और फिर एल.एल.एम. की परीक्षा अच्छे अंकों से पास की। एल.एल.एम. की परीक्षा में तो उसने यूनिवर्सिटी को टॉप भी किया और गोल्ड मेडिल भी प्राप्त किया।
कम्पटीटेटिव ऐज़ाम में भी उसने प्रथम रैन्क प्राप्त किया। और अब उसकी पोस्टिंग सुप्रिम कोर्ट में सरकारी वकील के रूप में हो चुकी थी।
इधर पाखी की पक्की सहेली, पलक ने मास-कॉम और जर्नलिज्म की मास्टर्स डिग्री लेने के बाद इलेक्ट्रोनिक मीडिया में प्रवेश किया और दिल्ली के एक प्रतिष्ठित न्यूज़ चेनल में ऐंकरिंग और न्यूज़ रीडिंग के जॉब को ज्वाइन कर लिया था।
इसी बीच एक भ्रष्ट नेता के स्ट्रिंग-ऑपरेशन ने तो पलक को मीडिया की जानी-मानी हस्तियों के बीच लाकर खड़ा कर दिया था। उसका नाम आज शौहरत की ऊँची बुलन्दियों पर पहुँच चुका था।
सीबीआई डायरेक्टर द्वारा भ्रष्ट नेता लाखन सिंह को बचाने के प्रयास की जानकारी मिलते ही ऐडवोकेट पाखी ने सीबीआई डायरेक्टर की भूमिका पर ही सवाल खड़े कर दिये थे, साथ ही पर्याप्त सबूतों और गवाहों के होते हुये भी उनकी अनदेखी करने के गम्भीर आरोप भी लगा दिये थे।
ऐडवोकेट पाखी ने पीएमओ और अटॉर्नी जनरल के ऑफिस में भी इस विषय को लेकर गुहार लगाई। साथ ही अनेकों सबूत भी प्रस्तुत किये, जो उसके पास आज भी मौजूद थे। जिन्हें किसी समय उसके पापा सीबीआई अफसर भास्कर भट्ट जी ने अपने बैंक के लॉकर में सुरक्षित रख छोड़ा था। वे सब आज भी उसके पास सुरक्षित रखा हुये थे।
आज वे सभी सबूत और साहित्य काम आ गये। साथ ही उन सभी सबूतों और साहित्य को पाखी ने पलक के न्यूज़ चेनल को भी दे दिया और उन्हें एयर करने की अनुमति भी दे दी।
पाखी के निवेदन, गुहार और आरोपों को इसलिये भी गम्भीरता से लिया गया क्योंकि पाखी का इस केस से बहुत करीब का नाता था।
पाखी के पापा सीबीआई अफसर भास्कर भट्ट जीके ही अथक प्रयासों के परिणाम स्वरूप सीबीआई विभाग भ्रष्ट नेता लाखन सिंह के खिलाफ भ्रष्टाचार और घोटालों के सबूत प्राप्त कर सका था। और यही वजह तो सीबीआई अफसर भास्कर भट्ट जी की मौत का कारण भी बनी थी।
पाखी के इस साहसिक कदम से राजनीति के गलियारे में तो हड़कम्प-सा मच गया था। सरकारी विभाग के बड़े-बड़े अफसरों की कुर्सियाँ हिल गईं थी, इस भूकम्प से। सीबीआई डायरेक्टर और सरकार के प्रवक्ताओं को जबाव देते नहीं बन रहा था। सभी ओर उनकी किरकिरी हो रही थी।
सभी ओर चर्चा का विषय बन गया था पाखी का यह साहसिक कदम। विरोध-पक्ष को एक विरोध करने का मौका मिल गया था, मीडिया को चर्चा के लिये मिर्च-मसाला और भिन्न-भिन्न पार्टियों के प्रवक्ताओं को भिन्न-भिन्न चेनलों पर अपने-अपने वाक्-चातुर्य दिखाने और अपने विचारों को रखने का मौका।
अटॉर्नी जनरल ने पाखी के तर्कों को उचित ठहराया। अतः उन्होंने पीएमओ से निवेदन किया कि लाखन सिंह के खिलाफ पर्याप्त मात्रा में ठोस सबूत हैं अतः लाखन सिंह की फाइल को पुनः खोलकर उनके खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति दी जाय।
अटॉर्नी जनरल के निवेदन को संज्ञान में लेते हुये पीएमओ ने लाखन सिंह के खिलाफ पुनः फाइल को खोलने के दिशा-निर्देश जारी कर दिये गये। साथ ही केस को रि-ओपन करने की अनुमति भी दे दी।
अटॉर्नी जनरल और विभाग के द्वारा माननीय सुप्रिम कोर्ट से लाखन सिंह के खिलाफ पुनः फाइल खोलने और मुकदमा चलाने की अनुमति माँगी गई। जिसे माननीय सुप्रिम कोर्ट ने स्वीकार कर मुकदमा चलाने की अनुमति दे दी।
सब कुछ तो दिन के उजाले सा साफ था। गवाह भी थे, सबूत भी थे और भ्रष्टाचार होने के पर्याप्त प्रमाण भी। तीन-चार तारीखों में तो केस अपने निष्कर्ष के अन्तिम पड़ाव पर आ चुका था। और चौथे महिने में तो माननीय सुप्रिम कोर्ट का निर्णय भी आ गया।
दोनों पक्ष की दलीलों को सुनने के बाद न्यायालय ने नेता एवं सांसद लाखन सिंह, उनके साले तेजपाल सिंह तथा अन्य साथियों को भ्रष्टाचार और घोटाले में लिप्त पाया।
भ्रष्टाचार और घोटाले के जो आरोप उन पर लगाये गये थे, वे सही पाये गये। करोड़ों रुपये के लेन-देन के आरोपों को भी सही पाया गया।
कानून की भिन्न-भिन्न धाराओं के अन्तर्गत नेता एवं सांसद लाखन सिंह को पाँच साल का सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई। उनके साले तेजपाल सिंह और अन्य साथियों को तीन-तीन साल की सश्रम कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। नेता लाखन सिंह को अपनी संसद की सदस्यता से भी हाथ धोना पड़ा।
हजारों-करोड़ रुपये के लेन-देन के प्रमाणहोने के बाद भी, सरकार की तिजोरी का पैसा, गरीबों की मेहनत की गाढ़ी कमाई का पैसा, नेता लाखन सिंह और उनके साथियों से वापस बरामद नही हो सका।
हजारों-करोड़ रुपये की रिकवरी के विषय में कानून और न्याय मौन था।
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