पर-कटी पाखी - 4. नया ठिकाना. Anand Vishvas द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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पर-कटी पाखी - 4. नया ठिकाना.

4. नया ठिकाना.

-आनन्द विश्वास

आज स्कूल में भी सारे दिन उदास ही रही पाखी। शायद उसे अपनी कम और अपनी *पर-कटी* की चिन्ता कुछ ज्यादा ही सता रही थी। उसे रह-रह कर यही ख्याल आ रहा था कि वह किस प्रकार से, और कैसे कर सकेगी अपनी *पर-कटी चिड़िया* की उचित सुरक्षा-व्यवस्था।

उसने अपने प्रिलिम-ऐग्ज़ामस् तो दिये, पर बे-मन और बिना पढ़े ही। रात भर तो बीता था उसका जागते ही जागते अस्पताल में अपनी *पर-कटी चिड़िया* की देख-भाल में और रिसेस में भी उसका नाश्ता करने का मन ही नहीं हुआ।

भूख न लगने का कारण भी समझा जा सकता है। जब दर्द और आँसू ही तन और मन में अटे पड़े हों, तो भूख लगती ही कहाँ है और पीने को तो आँसू ही पर्याप्त होते हैं।

पाखी को सुस्त और उदास देखकर पलक को सब कुछ समझने में देर न लगी। वह तुरन्त ही भाँप गई उसकी मानसिक स्थिति को, उसकी वेदना को और उसकी समस्या को। पक्की सहली जो ठहरी। और पक्की सहेली भी ऐसी कि जैसे *एक प्राण दो गात* ही हों। चोट एक को लगे तो दर्द दूसरी को हो। खुशी एक को हो तो मुस्कान दूसरी के होठों पर पसरी पड़ी हो।

जुड़वाँ बहनों में भी इतनी आत्मीयता देखने को कम ही मिलती है। आखिर मन के रिश्तों की डोर, खून के रिश्तों की डोर से भी अधिक शक्तिशाली और विश्वस्यनीय होती है। तभी तो बज्र से भी कठोर, समाज और वातावरण के कुठाराघातों को भी हँसते-हँसते सहन करने की सामर्थ्य और शक्ति होती है, मन के फौलादी रिश्तों में।  

यूँ तो पलक सब कुछ समझ गई थी फिर भी जानबूझ कर अनजान-सी बनकर पलक ने पाखी से अधिकार के साथ पूछ ही लिया,‘क्या बात है पाखी, आज तू इतनी उदास क्यों है, तूने तो आज नाश्ता भी नहीं किया है। आखिर कौन-सी ऐसी बात है जो तू मुझसे छुपा रही है। देख पाखी, दोस्ती में कुछ भी छुपाना कोई अच्छी बात तो होती नहीं है। चल, सच-सच बता क्या बात है, क्या चिन्ता है तुझे और वो भी मेरे रहते हुये। मैं हूँ न, तू बता तो सही। किस चिन्ता में तू घुले जा रही है। आखिर कौन-सी ऐसी चिन्ता है जिसके कारण तेरा ये फूल-सा सुन्दर चेहरा मुर्झाया हुआ दिखाई दे रहा है।’

‘कुछ भी तो नहीं पलक, कुछ हो तभी तो बताऊँ तुझे।’ और कहते-कहते सकपका-सी गई पाखी। जैसे कोई चोरी ही पकड़ ली गई हो उसकी।

पलक ने कहा,‘देख पाखी, अगर तू अपनी *पर-कटी* के विषय में चिन्तित है तो उसे तो तू भूल ही जा। उसकी सारी चिन्ताऐं, उसकी पूरी जवाबदारी, सब कुछ, तू मुझ पर ही छोड़ दे। और आराम से नाश्ता कर, वह भी बिन्दास होकर।’ 

‘कैसे पलक, जब चिन्ता हो तो चिन्तित होना स्वाभाविक ही होता है। चल, तू ही बता, आखिर क्या है इस समस्या का समाधान तेरे पास, मैं भी तो जानूँ।’ पाखी ने पलक से पूछा।

‘देख पाखी, मैं तुझसे अलग ही कहाँ हूँ। और तेरी इस *पर-कटी* की समस्या, ये तेरी समस्या है ही कहाँ, ये तो हमारी समस्या है। हाँ, हम दोनों की समस्या और हम अकेले हैं ही कहाँ। क्या तू जानती नहीं कि *एक और एक ग्यारह* होते हैं। और फिर ग्यारह से ग्यारह सो, फिर ग्यारह हजार, फिर ग्यारह लाख और फिर ग्यारह करोड़...। और फिर... और फिर... और फिर...।

*सच* के साथ कितने लोग होते हैं, इसका अन्दाज़ तो  लगा पाना बेहद मुश्किल होता है। बस *सच* को सच ही होना चाहिये, फिर तो अपार जन-समुदाय साथ होता है।

जब नियति साफ हो और नेक इरादा हो तो अनेक लोग साथ में होते हैं और सफलता अवश्य ही मिलती है। किसी कार्य का उद्देश्य जब पर-जन हिताय होता है और कार्य बिना किसी स्वार्थ के किया जाता है तो सारा का सारा संसार साथ होता है।

हमारे गाँधी बापू जी भी तो अकेले ही चले थे देश को आजाद कराने के लिये, सत्य की डगर पर और फिर सारे संसार ने उनका अनुसरण किया था।’ पलक एक झटके के साथ बोलती ही चली गई। बिना रुके हुये और पूरे आत्म-विश्वास के साथ।

पलक की बातों को सुनकर तो पाखी के सिर से एक बहुत बड़ा बोझ ही उतर गया, चिन्ताओं का सैलाब जैसे छूमन्तर हो गया था। अब वह आस्वस्त थी, क्योंकि पलक उसके साथ में थी।

उसे लगा कि वह सही दिशा में गतिशील है। निर्दोष पक्षियों के प्राणों की रक्षा करना, निर्दोष पीड़ित-पक्षियों को न्याय दिलाना और सेवा करना, कोई गलत काम नहीं है । उसके इस काम में स्वार्थ तो दूर-दूर तक भी दिखाई नहीं दे रहा है उसको। और वैसे भी स्वार्थ तो है ही कहाँ और क्या।

*सच* को मुश्किलों का सामना तो करना पड़ सकता है पर पराजित तो कभी भी हुआ ही नहीं है सच। *सच* तो आखिर सच ही होता है और हमेशा विजेता ही होता है।

नेक इरादा, अनेक लोगों को अपने साथ लेकर ही चलता है। क्योंकि वह कभी भी अकेला नहीं होता है, जन-शैलाव होता है उसके साथ।

फिर भी पाखी ने पलक से पूछ ही लिया,‘पर कैसे पलक, मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा है।’

‘देख पाखी, मैंने अपने मम्मी-पापा से भी बात की है और तेरी मम्मी से भी । सभी लोगों का यही कहना है और मैं भी यही चाहती हूँ। पर इसमें तेरी स्वीकृति हो तभी, अन्यथा तो बिलकुल भी नहीं।’ और इतना कहते-कहते संकोच-वश पलक थोड़ा रुक गई और पाखी की प्रक्रिया की प्रतीक्षा करने लगी।

‘किस बात में मेरी स्वीकृति की आवश्यकता है तुझे पलक, बता न और वो भी मेरे से।’ अधीर और आश्चर्यचकित होकर पाखी ने पलक से पूछ ही लिया। 

‘पाखी, एक बात पूछूँ, सच-सच बताना, तू बुरा तो नहीं मानेगी।’ पलक ने साहस करके कहा।

‘किस बात का बुरा मानूँगी पलक, बुरा मानने का तो प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता। बुरा और वह भी तेरी बात का, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। ऐसा तो कभी भी नहीं हो सकता और सपने में भी नहीं हो सकता। क्या हमारी दोस्ती की जंजीर इतनी कमजोर और खोखली हो गई है कि एक दूसरे की बात का बुरा मानें।’ ऐसा कहकर जैसे पाखी ने पलक को सब कुछ कहने का अधिकार ही दे दिया हो। और सच भी तो यही है, दोस्ती भी तो इसी को ही कहते हैं।

‘पाखी मुझे डर लगता है कि मेरे इस निवेदन से कहीं तेरी भावनायें आहत न हों। तेरे सिद्धान्त और आदर्श आहत न हों। तेरे *स्वतंत्रता* के विचारों को मैं आहत नहीं करना चाहती। मैं नहीं चाहती कि तेरे किसी दुःख का कारण मैं बनूँ।

पर फिर भी मैं, मेरे पापा-मम्मी और सभी लोग भी यही चाहते हैं कि अपनी *पर-कटी चिड़िया* के रहने की व्यवस्था, उन पिंजरों में ही कर दी जाय जो कि मालिये पर रखे हुये हैं। पिंजरे तेरी अमानत हैं और आज भी मेरे पास तेरी अमानत के रूप में सुरक्षित रखे हुये हैं।

पर पाखी, मैं वचन-बद्ध हूँ। मैं विवश हूँ। मैंने तुझे वचन दिया हुआ है कि उन पिंजरों का उपयोग मैं कभी भी किसी प्राणी को या तोतों को बन्द करने के लिये नहीं करूँगी। हाँ, अगर तेरी अनुमति हो और तू अपनी इच्छा से ऐसा करना भी चाहती हो, तो ही ऐसा करना सम्भव हो सकता है अन्यथा तो नहीं ही।’ पलक ने पाखी को समस्या का हल सुझाया।

पाखी तो कब से बेचैन थी, उसकी तो रातों की नींद और दिन का चैन, सब कुछ गायब हो गया था। वह तो मालिये पर रखे हुये तोतों के उन पिंजरों को पाने के लिये बेहद अधीर थी। उसके लिये तो उसकी *पर-कटी* की सुरक्षा और सुरक्षित स्थान एक अत्यन्त गम्भीर ज्वलंत प्रश्न था और बेचैनी का कारण भी। वह तो उस *सुरक्षा-कवच* को हर हाल में पाना ही चाहती थी। पर कहने का साहस ही न जुटा पा रही थी।

आखिर कहे तो कैसे और किस मुँह से। वह तो, कुछ दिन पहले ही, उन पिंजरों को तोड़कर ही फैंक देना चाहती थी। आँखों से आँसू छलक पड़े थे पाखी के।

पलक के निवेदन ने तो पाखी के मुँह की बात ही छीन ली थी जैसे, आखिर पाखी भी तो यही चाहती थी। सच ही तो है जब मन मिले होते हैं, तो शब्द और विचार अलग-अलग कैसे हो सकते हैं, हो ही नहीं सकते।

‘पलक, आज की परिस्थिति में चाहती तो मैं भी यही हूँ कि *पर-कटी* की रहने की व्यवस्था पिंजरे में ही कर दी जाय। पर कहने का साहस ही न जुटा पा रही थी मैं। आज मुझे अपनी गलती का एहसास हो रहा है। मैं गलत थी और तू ही सही थी।

 आज मुझे मेरी *पर-कटी* की रक्षा के लिये, उसकी *सुरक्षा* के लिये, उस *सुरक्षा-कवच* की आवश्कता तो है ही। और आज मुझे चाहिये ही तेरी जैड-प्लस श्रेणीं की सुरक्षा वाला वहलोहे के सरियों से बना हुआ मजबूत स्पेशल अभेद्य सुरक्षित किला, तेरा वह *सुरक्षा-कवच*, तेरा वह पिंजरा।

जिसमें भले ही ऐ.सी.-वे.सी. की व्यवस्था न भी हो, तो भी, चलेगा ही नहीं दौड़ेगा भी। आज मुझे मेरी अपनी *पर-कटी* की सुरक्षा चाहिये ही, हर हाल में, हर कीमत पर।’ कहते-कहते पाखी का मन भर आया और गला रुंध गया।

‘कैसी बात करती है पाखी तू। मैं और तू अलग-अलग हैं ही कहाँ। दोनों एक ही तो हैं और केवल एक। हाँ, हाँ और वे भी पूर्ण-समर्पित, एक दूसरे के लिये।

और पाखी, समर्पित व्यक्ति का अपना कुछ भी तो नहीं होता है। समर्पण के बाद तो समर्पित व्यक्ति का अपना कुछ भी तो नहीं रह जाता है। तन, मन, धन और ये सारा जीवन, सब कुछ तो उस आराध्य-देव का हो जाता है।

मैं तेरी हूँ पाखी, हाँ, तेरी। मेरा सब कुछ तेरा ही तो है पाखी। तो फिर कैसा माँगना, कैसा कहना और कैसा निवेदन।

तेरा घर, तेरा मालिया, तेरा पिंजरा और तेरी मैं। ये सब कुछ तेरा ही तो है।’ पलक का ऋषि-मन सब कुछ, बिना किसी कोमा-फुलस्टॉप के बोलता ही चला गया।

पलक की ज्ञान की बातों के आगे, स्कूल की पढ़ाई में नम्बर-वन आने वाली पाखी अपने आप को पलक के ऋषि-मन के आगे बहुत बौना महसूस कर रही थी।

पर सखा कृष्ण और सुदामा में कौन छोटा है और कौन बड़ा है, यह निश्चित कर पाना इतना आसान भी तो नहीं होता और तब तो और भी, जब दोनों एक दूसरे के मन में बसते हों, दोनों ही एक दूसरे के पूज्य हों और दोनों ही एक-दूसरे को समर्पित हों।

और पाखी ने अपनी *पर-कटी चिड़िया*की सुरक्षा के लिये, अपने सिद्धान्तों और आदर्शों को ताख पर रखकर, मालिये पर पड़े धूल खा रहे पिंजरे के उपयोग के लिये पलक को अपनी स्वीकृति दे ही दी।

स्कूल से छूटने के बाद, स्कूल से घर तक का रास्ता पाखी और पलक दोनों के लिये बड़ा ही सुख-मय और आनन्द-दायक रहा। सुबह की चिन्ता और उदासी शाम होते-होते प्रसन्नता, आनन्द और उल्लास में बदल चुकी थी।

दोनों खुश थे। पाखी इसलिये खुश थी कि उसे उसकी *पर-कटी चिड़िया* के रहने के लियेउचित और सुरक्षित व्यवस्था हो गई थी और पलक इसलिये खुश थी कि उसकी पक्की सहेली पाखी ने उसके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया था।

ये भी जिन्दगी का कैसा खेल है, कोई कुछ पाकर खुश होता है तो कोई कुछ देकर खुश होता है।आज पाखी को इस बात की खुशी थी कि उसको उसकी *पर-कटी* की सुरक्षा के लिये सुरक्षा-कवच मिल गया था और पलक को इस बात की खुशी थी कि उसे उसकी प्यारी सहेली की आँखों में खुशी मिल गई थी।

और अब दोनों ही अपने अगले मिशन के लिये नये जोश के साथ उत्साहित होकर चल पड़े थे।घर पहुँच कर सबसे पहले पलक और पाखी ने मालिये पर पड़े धूल खा रहे पिंजरों को उतार कर उनकी साफ-सफाई करवाई।

उन्होंने पानी और साबुन से पिंजरों को अच्छी तरह धुलवाया। नर्म, कोमल और गुद-गुदे कपड़े को पिंजरे के अन्दर बिछवायागया ताकि उसकी *पर-कटी* को अधिक से अधिक सुविधा और आराम मिल सके। साथ ही उसकी आवश्कता की सभी वस्तुओं की व्यवस्था भी की गई।

 अब अगली सबसे बड़ी समस्या यह थी कि इस पिंजरे को कहाँ और किस स्थान पर रखा जाय ताकि उसे पूर्ण-सुरक्षा प्राप्त हो सके। दो-तीन विकल्प ही नज़र आ रहे थे पाखी और पलक को। और वे थे, पाखी का घर पर..., पलक का घर पर..., अस्पताल में... या फिर और कहीं पर...।

पाखी के घर पर दो सदस्य, पाखी और पाखी की मम्मी। दिन में पाखी को स्कूल जाना होता और पाखी की मम्मी साक्षी को कॉलेज। और सारे दिन घर खाली। ऐसी परिस्थिति में *पर-कटी चिड़िया* को पिंजरे में घर पर अकेले छोड़ना सुरक्षित नहीं समझा जा सकता था और ना ही उचित।

और कुछ ऐसी ही स्थिति थी पलक के घर पर भी। पलक को भी पाखी के साथ ही स्कूल जाना होता और पलक की मम्मी शीतल को कॉलेज जाना होता। पलक के पापा का दिन-भर नीचे अस्पताल में मरीज़ों के साथ व्यस्त रहना। और ऊपर घर पर किसी का भी न होना। यहाँ भी *पर-कटी चिड़िया* के पिंजरे को रखना सुरक्षित नहीं समझा जा सका।

अन्त में पलक के मन में विचार आया, क्यों न पिंजरे की व्यवस्था अस्पताल में ही रखी जाय, जहाँ पर कि ये पिंजरे पहले टँगे हुये थे। अस्पताल चौबीसों घण्टे खुला भी रहता है और जहाँ पर देख-भाल के लिये नर्स-स्टाफ और अन्य लोग सदैव उपलब्ध होते ही हैं।

और फिर उनमें से ही अस्पताल केकिसी भी विश्वस्यनीय स्टाफ को *पर-कटी चिड़िया* के देख-भाल की जबावदारी सौंपी भी जा सकती है साथ ही दिन भर मरीज़ों और अन्य आने-जाने वालों का तांता तो लगा ही रहता है।

सारे दिन अच्छी-खासी चहल-पहल भी बनी रहती है और रात को भी नर्स-स्टाफ आदि की ड्यूटी तो लगी ही होती है और अन्य लोग भी तो जागते ही रहते हैं। पलक ने अपने इस विचार से पाखी को अवगत कराया। पाखी को भी यह विचार उचित लगा। अतः यह स्थान सबसे उपयुक्त समझा गया।

पाखी ने एक प्रस्ताव और रखा कि दूसरे पिंजरे में भी दो तोतों को रखा जाय और उस पिंजरे को भी *पर-कटी चिड़िया* के पिंजरे के पास ही रखा जाय ताकि उसकी *पर-कटी चिड़िया* को कम्पनी भी मिली रहेगी, वातावरण भी अच्छा बना रहेगा। साथ ही *पर-कटी* को अकेला-पन का एहसास नहीं होगा। पलक को पाखी का यह प्रस्ताव अच्छा लगा। 

पाखी और पलक दोनों को ही यह व्यवस्था उचित लगी। और अन्त में सर्व-सम्मति से *पर-कटी चिड़िया* को दवाखाने में ही रखने का निर्णय ले लिया गया और साथ में दो तोतों को भी दूसरे पिंजरे में रखने की व्यवस्था की गई।

पलक के पापा डॉक्टर गौरांग पटेल को बच्चों द्वारा लिया गया यह निर्णय उचित लगा और जो सही भी था। साक्षी और शीतल दोनों ने भी बेटियों के इस निर्णय को सही ठहराया। पलक के पापा डॉक्टर गौरांग पटेल तो पहले से ही इसके पक्ष में थे।

पाखी और पलक दोनों ही आस्वस्त थे अपने इस निर्णय से और अपनी *पर-कटी चिड़िया* की *सुरक्षा-व्यवस्था* से। शायद एक बहुत बड़ा बोझ ही उतर गया था पाखी और पलक के सिर से पर-कटी चिड़िया की सुरक्षा-व्यवस्था का।

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