पर-कटी पाखी - 5. बात उस दिन की. Anand Vishvas द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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पर-कटी पाखी - 5. बात उस दिन की.

5. बात उस दिन की.

-आनन्द विश्वास

आज पिंजरे भी वही हैं,अस्पताल भी वही है और उन पिंजरों के टाँगने के स्थान भी वही हैं। सब कुछ तो वही है। बिलकुल वैसा का वैसा ही, पहले जैसा ही। पर हाँ, बदल गये हैं तो बस, पिंजरे के अन्दर के पक्षी, और बदल गये हैं पाखी और पलक के आदर्श, सिद्धान्त और उद्देश्य भी।

पहले इन पिंजरों में कभी तोते हुआ करते थे। जो हर किसी आते-जाते को राम-बोलो,राम-बोलो,बोला ही करते थे और जिनकी प्यारी-प्यारी मधुर कर्ण-प्रिय आवाज को सुनकर, हर किसी के चहरे पर हल्की-सी स्मित या मुस्कान तो आ ही जाती थी। मन प्रसन्न हो जाता था और पल भर के लिये ही सही, उनको अपने दुःख और पीढ़ा की अनुभूति तो थोड़ी-बहुत कम हो ही जाती थी। राम-बोलो,राम-बोलो शब्द सभी के कानों में पड़ते ही रहते थे और जाने-अनजाने में लोग, राम-बोलो,राम-बोलो तो बोलते ही रहते थे।

पर आज उन तोतों के स्थान पर है पाखी की बेचारी, बेदम, विवश और लाचार *पर-कटी चिड़िया*। एक ऐसी चिड़िया जिसका एक पंख, पतंग के तेज धागे से किसी निष्ठुर पतंग-बाज़ ने काट दिया था।

आज जो भी कोई इस *पर-कटी चिड़िया* को देखता तो उसे इसकी दयनीय दशा को देखकर दुःख ही होता और जब इसकी दर्दनाक आप-बीती भयावह कहानी को सुनता तो आँखें नम हुये बगैर न रह पातीं।

इस पर-कटी चिड़िया की ऐसी दयनीय दशा को देखकर हर किसी के मुँह से यही निकलता कि अब कैसे जी पायेगी ये *पर-कटी चिड़िया* अपनी जिन्दगी के शेष दिन। हाय, अब तो ये बेचारी उड़ भी तो नहीं सकती है।

और तब उन्हें इस *पर-कटी चिड़िया* के दुःख के आगे अपना खुद का दुःख बहुत बौना लगने लगता। वे कुछ समय के लिये ही सही, पर अपने खुद के दुःख तो भूल ही जाते और इस *पर-कटी चिड़िया* के दुःख में ग़मगीन हो जाते। और उनकी आँखों से आँसू तो ढुलक ही जाते। वे सोचने लगते कि हमारा दुःख तो दो-चार दिनों का ही है, दो-चार दिनों के बाद तो हम तो लोट-पीट कर फिर से चंगे हो जायेंगे।

पर बेचारी बिना पंख के इस *पर-कटी चिड़िया* का दुःख तो जीवन-भर का है। और इसे तो सारा जीवन ऐसे ही गुजारना होगा। आखिर कौन करेगा इसकी देख-भाल कब तक और क्यों।

और जब से अस्पताल के बरामदे में *पर-कटी चिड़िया* के पिंजरों की व्यवस्था की गई है तभी से पाखी और पलक के मन में एक विचार और आया कि क्यों न हम अपने घर के कम्पाउण्ड में ही, बरामदे के सामने छायादार स्थान पर पक्षियों के लिये दाना और पानी की व्यवस्था भी कर लें, तो कितना अच्छा रहेगा।

पाखी और पलक ने यह प्रस्ताव जब पलक की मम्मी शीतल के सामने रखा तो उन्होंने इस पुर्ण्य-कार्य के लिये सहर्ष स्वीकृति दे दी। और साथ ही पक्षियों को दाना खिलाने के महत्व को भी समझाया। उन्होंने बताया कि ये तो बिना झोली के फकीर होते हैं। इनको दिया हुआ दान कभी भी निष्फल नहीं जाता है और वैसे भी भोजन का दान तो सर्वश्रेष्ठ दान कहलाता ही है।

बच्चे तो स्वभाव से ही उत्साही होते हैं उन्हें तो अच्छे कार्य करने के अवसर की सदैव ही तलाश रहती है मम्मी की स्वीकृति मिलते ही पलक और पाखी ने कुछ ही समय में सभी आवश्यक सामान दाना, पानी का वर्तन आदि की व्यवस्था कर ली और घर के कम्पाउण्ड में, बरामदे के सामने ही, पक्षियों को दाना डालने का स्थान बना दिया और साथ ही पानी की व्यवस्था भी कर दी गई। दाना खरीदने के लिये पाखी और पलक ने अपनी पॉकेट-मनी का उपयोग किया। पलक की मम्मी शीतल को बालकों का यह निर्णय बहुत अच्छा लगा।

अब तो वहाँ पर सुबह से ही दाना चुँगने और पानी पीने के लिये ढ़ेरों पक्षी, तोते, चिड़ियाँ, कबूतर आदि आ जाया करते थे। पलक उन्हें नियमित रूप से दाना डाला करती थी और दाना-पानी आदि की पूर्ण-व्यवस्था करके ही वह स्कूल जाया करती थी। यह उसका नित्य का नियम ही बन गया था और इस काम में पाखी की बराबर की सहभागिता भी रहती थी। अधिकतर काम तो पाखी और पलक दोनों मिल-जुल कर ही किया करते थे।

प्यारे-प्यारे रंग-बिरंगे विभिन्न प्रकार के भोले-भाले पक्षी उन्हें बहुत ही अच्छे लगते। मानव-प्रिय कबूतर से तो उसका विशेष लगाव ही रहता। उनकी गुटुर-गूँ, गुटुर-गूँ की मन-मोहक ध्वनि तो उसे अत्यन्त प्रिय और रोचक भी लगती। नन्हीं गौरैया का इधर से उधर फुदकना, दाना चुँगना और अपने छोटे-छोटेबच्चों के लिये दाना लेकर जाना उन्हें विशेष तौर से भाता था।

भोर की प्रथम रश्मि के आगमन के साथ ही पक्षियों के कलरव से घर, अस्पताल और आस-पास का वातावरण बड़ा ही रोमांचक, मन-भावन और आनन्द-मयी हो जाता था।

उस दिन रविवार का दिन था। पलक और पाखी दोनों ही *पर-कटी चिड़िया* के दाना-पानी आदि की सम्पूर्ण व्यवस्था कर, बाहर पक्षियों को दाना डाल चुके थे। हर रोज़ की तरह आज भी कुछ पक्षी, चिड़ियाँ और कबूतर आदि दाना चुँग रहे थे तो कुछ पक्षी पानी पीकर अपनी प्यास बुझा रहे थे। तो कुछ पक्षी दाना अपनी चौंच में दबाकर अपने-अपने नीड़ की ओर ले भी जा रहे थे। शायद अपने बच्चों के लिये या फिर अपने अपनों के लिये।

 घर ले जाने की कोई मनाही थोड़े ना है। जिसको जितना चुँगना है चुँगो और घर ले जाना है तो घर ले जाओ। अपने लिये, अपने बाल-बच्चों के लिये और अपने अड़ोस-पड़ोस के लिये भी। कोई रोक-टोक थोड़े ना है किसी को। आखिरकार, पाखी और पलक का भण्डारा जो ठहरा।

राम जी की चिड़िया, राम जी का खेत।

खा लो चिड़िया, भर-भर पेट।

सभी व्यवस्था विधिवत् करने के बाद, पाखी अपने घर जाने को तैयार ही थी कि तभी अचानक उसे अपनी *पर-कटी चिड़िया* की चीं-चीं, चीं-चीं की आवाज सुनाई दी। आवाज, और वह भी लगातार, बिना रुके ही और जोर-जोर से। जैसे वह किसी को अपने पास बुलाना चाहती हो।

शान्त, मौन, उदास और ग़मगीन रहने वाली *पर-कटी चिड़िया* को इतना आक्रामक होकर चीं-चीं, चीं-चीं की आवाज करते हुये, पहले कभी भी नहीं देखा गया था। अतः सभी लोग आश्चर्यचकित भी हुये और चिन्तित भी हुये कि आखिर क्या हुआ, पर-कटी चिड़िया को, क्या बात हुई। और सभी का ध्यान उसकी ओर केन्द्रित हो जाना स्वाभाविक ही था।

तभी लोगों ने देखा कि एक चिड़िया बरामदे के बाहर भी लगातार बिना रुके ही जोर-जोर से चीं-चीं, चीं-चीं की आवाज किये जा रही थी। दोनों ओर से चीं-चीं, चीं-चीं की आवाज़ों का आदान-प्रदान होता रहा और काफी देर तक।

शायद दोनों ही एक दूसरे से परिचित हों और दोनों ने एक-दूसरे को देख भी लिया हो। अन्दर वाली चिड़िया बाहर वाली चिड़िया को अपने पास बुलाना चाहती थी और शायद इसीलिये वह जोर-जोर से चीं-चीं, चीं-चीं की आवाज कर रही थी। दोनों चिड़िया एक दूसरे से मिलने के लिये व्याकुल थीं।

तभी कुछ पल के अन्दर ही, बिना विलम्ब किये ही, बाहर वाली चिड़िया, बिलकुल निडर और निर्भीक होकर, अपने पकड़े जाने की चिन्ता किये बगैर ही, वह बरामदे में घुसकर अन्दर वाली *पर-कटी चिड़िया* के पिंजरे के ऊपर जा बैठी।

बेहद व्याकुल, क्रोधित और आक्रोश-युक्त, वह बाहर वाली चिड़िया बार-बार अपनी चौंच से पिंजरे पर बार-बार लगातार प्रहार करने लगी। शायद वह पिंजरे को तोड़कर ही उसके अन्दर प्रवेश करना चाहती हो और अन्दर वाली *पर-कटी चिड़िया* को पिंजरे से बाहर निकाल लेना चाहती हो। जैसे उसे इस कैद-खाने से आजाद करना ही चाहती हो।

पर लोहे के बने पिंजरे को तोड़ पाना, चिड़िया के वश की बात ही कहाँ थी। उसके सारे प्रयास और पिंजरे के ऊपर किये गये बार-बार लगातार सारे प्रहार काम न आ सके।

आखिरकार ये पिंजरे भी कोई सामान्य कक्षा के पिंजरे तो थे नहीं, ये तो स्पेशल वीवीआईपी जैड-प्लस श्रेणी की सुरक्षा वाले लोहे के सरिये से बने, पलक-सरकार के स्पेशल अभेद्य किले जो ठहरे। जिनमें सैंध लगा पाना मुश्किल ही नहीं असम्भव ही था, किसी सामान्य चिड़िया के लिये।

और इधर, पिंजरे के अन्दर *पर-कटी* की व्याकुलता और चीं-चीं, चीं-चीं की आवाज भी कम होने का नाम ही न ले रही थी। ऐसा लग रहा था कि शायद दोनों चिड़ियाँ, एक दूसरे से परिचित हों। एक-दूसरे से मिलने की व्याकुलता स्पष्ट देखी जा सकती थी। बेचैनी दोनों ओर से अपने चरम पर थी।

तभी किसी वयोवृद्ध व्यक्ति ने पाखी और पलक को पिंजरे के दरवाजे को खोल देने का परामर्श दिया। उसने अपने अनुभव के आधार पर बताया कि यह *पर-कटी चिड़िया* का चिरोंटा होना चाहिये। वयोबृद्ध सज्जन का यह प्रस्ताव पाखी और पलक दोनों को ही उचित लगा और उनके आदेश का तुरन्त ही पालन किया गया और पिंजरे के दरवाजे को खोल दिया गया।

पर पाखी और पलक को एक शंका यह भी थी कि कहीं बाहर वाली चिड़िया, अन्दर घुस कर बेचारी घायल *पर-कटी चिड़िया* को जान से ही न मार डाले। अतः वह सावधान भी थी उस परिस्थिति के लिये भी। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। शंका निर्मूल निकली और वयोवृद्ध सज्जन का अनुमान सही निकला। वह चिरोंटा ही था।

पाखी ने जैसे ही पिंजरे का दरवाजा खोला, झट से वह चिरोंटा, अपनी जान की चिन्ता किये बिना ही, तुरन्त पिंजरे के अन्दर घुस गया। पिंजरे में घुसते ही उस चिरौंटे ने चिड़िया की चौंच में अपनी चौंच मारी। शायद पक्षियों के चिड़िया-समाज में अपने आत्मीय-जनों से मिलने की कोई भाषा हो या फिर शिष्टाचार या फिर प्रेम-प्रदर्शन। क्या था, ये तो वे ही जानें।

पर ये क्या, *पर-कटी चिड़िया* के घाव और बिना पंख के अपनी चिड़िया की दयनीय दशा को देखकर वह ठिठक कर रह गया। एक पल के लिये तो वह खड़ा का खड़ा ही रह गया। उसके चीं-चीं, चीं-चीं के उत्साह-युक्त शब्द, पल भर में ही मौन के सन्नाटे में बदल गये। शायद अपनी चिड़िया की दयनीय दशा को देख कर। उसके कटे हुये पंख को देख कर।

धरती ही खिसक कर रह गई थी उसके पैरों तले की। धड़ाम से गिर गया था वह अपने आकाश से। अनन्त आकाश ही अर्थ-हीन हो गया था उसके लिये, उसकी चिड़िया के लिये।

उसकी चिड़िया तो अब कभी भी आकाश में उड़ ही नहीं सकेगी। आकाश का होना या ना होना अर्थहीन ही तो हो गया था अब उसके लिये। ठगा-सा रह गया था एक छोटा-सा अदना प्राणी। नियति ने कैसा भद्दा मज़ाक कर दिया था उसके साथ।

एक निस्तब्धता-सी छा गई थी पूरे वातावरण में, एक सन्नाटा-सा पसर गया था, पूरे पिंजरे के अन्दर। मिलने की खुशी, ग़म और आँसुओं में बदल चुकी थी।

चिड़िया और चिरौंटा दोनों ही मौन थे। और मौन रहने के सिवाय और चारा भी क्या था उनके पास। नियति के आगे चलती ही किसकी है। वैसे भी कहने को और सुनने को बचा ही क्या था अब उनके लिये।

काफी देर तक अपलक वे एक दूसरे को निहारते रहे। दो बिछुड़े हुये प्राणों का मिलन हो रहा था, वह भी इस तरह से और इस परिस्थिति में। किसी ने कभी ऐसा सोचा भी न होगा। न तो चिड़िया ने ही, न चिरोंटे ने ही, न पाखी ने ही, न पलक ने ही और ना ही अस्पताल के लोगों ने ही। यह संयोग ही तो है और यही तो है लीला, उस लीलाधर की। उसकी लीला वो ही जाने। 

चिड़िया और चिरोंटे के इस मिलन को देख कर पाखी और पलक की आँखों से आँसू छलक ही पड़े। पता नहीं ये आँसू खुशी के थे या फिर दुःख के, पर वातावरण तो ग़मगीन ही था। मन तो भर ही आया था सभी लोगों का। आँखों में तो खारा सागर ही छलक गया था। शायद ऐसी खुशी के आँसू थे जब कि कोई पत्थर-दिल भी हँस नही सकता था।

और पिंजरे के बाहर भी कुछ ऐसा ही वातावरण था। लोगों की आँखों में आँसू थे। एक गुनहगार-सा महशूस कर रहे थे, वहाँ पर उपस्थित सभी लोग अपने आप को।

क्योंकि जिस समाज के वे लोग सदस्य हैं उसी समाज के किसी *जहरीले-इंसान* ने, अच्छी-भली भोली-भाली फुदक-फुदक कर अठखेलियाँ करने वाली एक निर्दोष चिड़िया के पंख को काट कर उसे पर-कटी चिड़िया बना दिया था। एक मुस्कुराते, हँसते-खेलते जीवन को एक ऐसी जिन्दा लाश बना दिया था जो साँस तो ले सकती थी पर चलने और उड़ने से लाचार थी।

सुना हैं कि एक मछली सारे के सारे तालाब को ही गंदा कर देती है। ठीक उसी तरह, आज एक वहशी *जहरीले-इन्सान* ने पूरे मानव-समाज की सौम्य छवि को ही धूल-धूसरित कर दिया था। और इसीलिये आज यहाँ उपस्थित सभी लोग अपने आप को गुनाहित न होते हुये भी गुनहगार-सा महसूस कर रहे थे। इन अबोले, भोले, निर्दोष पक्षियों के सामने।

तभी अचानक *पर-कटी चिड़िया* ने अपने पूरे साहस को समेंट कर, अपनी पूरी शक्ति लगाकर उड़ने का प्रयास किया। पर वह उड़ न सकी और फड़फड़ा कर गिर पड़ी।

घायल *पर-कटी चिड़िया* इस बार दूसरी करवट की ओर गिर पड़ी थी जिस ओर कि उसका घाव था। घाव पर शायद कुछ चोट लग गई होगी, उसकी चींख ही निकल पड़ी और वह तिलमिला कर रह गई।

उठने के लाख प्रयास के बाबजूद भी पर-कटी अपने आप करवट नहीं बदल पा रही थी।

*पर-कटी चिड़िया* की असहनीय वेदना को पाखी सहन न कर सकी और उसने कुछ भी चिन्ता किये बगैर ही झटपट पिंजरे के अन्दर अपना हाथ डाल दिया।

और फिर *पर-कटी चिड़िया* को अपने हाथों से उठाकर, बड़ी सावधानी पूर्वक उसे दूसरी करवट से लिटा दिया। साथ ही स्टाफ-नर्स को बुलाकर घाव पर स्प्रे और मरहम लगवाया। तब कहीं जाकर *पर-कटी चिड़िया* को आराम मिला। और तब कहीं जाकर पाखी ने चैन की साँस ली।

चिरोंटा पिंजरे के अन्दर एक ओर ही बैठा रहा और सब कुछ देखता रहा। बिलकुल निडर, शान्त, मौन और गमगीन रह कर। उसने कोई भी विरोध या शोर नहीं किया और ना ही पिंजरे से बाहर निकलने का प्रयास ही किया।

शायद वह आस्वस्त था अपनी चिड़िया की देख-भाल से, अस्पताल में हो रही अपनी चिड़िया की सेवा-सुश्रुषा से और पाखी-पलक के विश्वस्यनीय और कुशल संरक्षण से।

अपनेपन की पहचान तो पशु-पक्षियों को भी होती है। कुत्ता भौंकता भी है, काटता भी है और पूँछ भी हिलाता है। भले ही उसने मनोविज्ञान की मोटी-मोटी किताबें न पढ़ीं हों फिर भी मन की भाषा को समझने की समझ तो होती ही है उसमें भी।

ये तो हम ही हैं जो समझदार होते हुये भी, समझकर भी समझना नहीं चाहते और मानवीय भावनाओं को दरकिनार कर देते हैं।

कुछ देर के बाद चिरोंटा पिंजरे से बाहर उड़कर आ गया और पाखी के कन्धे पर आकर बैठ गया, बिलकुल निर्भय होकर, आत्मीयता के साथ, अधिकार के साथ।

शायद सब कुछ समझ चुका था वह या फिर हो सकता है कि *पर-कटी चिड़िया* ने सब कुछ समझा दिया था उसको, उसने अपनी भाषा में। कुछ भी हो पर, पाखी के प्रति आत्मीयता और कृतज्ञता की भावना थी उसके मन में, उसकी आँखों में और उसके आचरण में।

इस घटना ने वहाँ पर उपस्थित सभी लोगों को अचम्भित कर दिया था और यह दृश्य पाषाण-हृदय मानव-मन की आँखों में आँसू भर आने के लिये पर्याप्त था।

ये भी कैसा आत्मीय-स्पर्श था, सम्वेदनाओं का मार्मिक स्पर्श, चिरोंटा तो ग़मगीन था ही पर पाखी भी अपने आँसुओं को न रोक सकी। गंगा-जमुना ही बह निकलीं थीं पाखी की आँखों से, पलक की आँखों से और वहाँ उपस्थित सभी लोगों की आँखों से। पड़ौसी तोते भी मौन थे। दुःखी हो रहे थे या नहीं ये तो पता नहीं। पर हाँ, वे राम-बोलो, राम-बोलो तो नहीं ही बोल रहे थे। उनकी आँखें गीली और ग़मगीन थीं।

कुछ ही समय के बाद चिरोंटा उड़ा और उड़ कर बाहर चला गया, आकाश की ओर। पिंजरे का दरवाजा अब भी खुला ही हुआ था।

*पर-कटीचिड़िया* पिंजरे के अन्दर ही थी। वह बाहर नहीं निकल रही थी, ना ही निकल पा रही थी और ना ही निकलने का प्रयास ही कर रही थी।

उसकी आँखें पाखी की ओर देख रहीं थीं और शायद कह रहीं थीं कि पाखी बहना, इस पिंजरे के दरवाजे को जल्दी से बन्द कर दो। कहीं से कोई भूखा भेड़िया ही अन्दर न आ जाये और मेरा जीवन संकट में पड़ जाये।

मेरी देख-भाल और मेरे प्राणों की रक्षा की जबावदारी तो अब तुम पर ही तो है। तुम्हारे और केवल तुम्हारे सहारे ही तो हूँ अब मैं इस संसार में, पाखी बहना।

*पर-कटी चिड़िया* से मिलने के बाद चिरोंटा तीब्र गति से आकाश में उड़कर चला गया था, शायद अपने घौंसले की ओर, अपने बच्चों के पास।

उनको, उनकी माँ के बारे में सब कुछ बताने के लिये, उनकी माँ की दयनीय दशा की जानकारी उन्हें देने के लिये।

शायद वह अपने बच्चों को शीघ्र से शीघ्र यह सब कुछ बता देना चाहता हो कि बच्चो अब तुम्हारी माँ तो मिल गई है पर अब वह पहले जैसी नहीं रह गई है। अब तो वह अपनी जिन्दगी में कभी भी उड़ ही नही सकेगी। शायद चल भी न सके। अब तो वह, अपने माँ होने के कर्तव्य का निर्वहन भी नहीं कर सकेगी।

माँ तो वह होती है जो अपने छोटे-छोटे बच्चों के लिये दाना लाकर खिलाये, उनका पालन-पोषण करे और उनकी हर प्रकार की सुख-सुविधा का ध्यान रखे।

बच्चो, अब तो तुम्हें ही बड़े होकर अपनी माँ के लिये दाना-पानी लाना होगा। उसकी हर सुख-सुविधा का ख्याल रखना होगा। बड़ा सहेज कर रखना होगा तुम्हें, अपनी माँ को। और तम्हें ही अपनी माँ की पूरी तरह से देख-भाल भी करनी होगी।

और बच्चो, अब वह तुमको उड़ता हुआ तो देख सकेगी पर तुम्हें उड़ना नहीं सिखा सकेगी और ना ही वह अपनी जिन्दगी में कभी भी उड़ ही सकेगी और उड़ना तो दूर, अब तो वह ठीक ढ़ंग से चल भी नहीं सकेगी।

और उस दिन के बाद से तो चिरोंटे का प्रति-दिन अस्पताल में आना तय ही था। ऐसा कोई भी दिन नहीं आया जिस दिन चिरोंटा, अपनी चिड़िया से मिलने के लिये अस्पताल में न आया हो। अब तो उसका नित्य का नियम ही बन गया था कि वह अस्पताल आता और आकर अपनी *पर-कटी चिड़िया* के पिंजरे के ऊपर बैठ जाया करता। 

और बड़ी आतुरता के साथ पाखी, पलक या अन्य किसी नर्स-स्टाफ के आने का इन्तज़ार करता। प्रतीक्षा इस बात की कि कोई आकर पिंजरे का गेट खोल दे और वह अपनी चिड़िया से दुःख-सुख की दो-चार बातें कर सके, उसके हाल-चाल जान सके।

पाखी और पलक ने नर्स-स्टाफ से यह कहा हुआ था कि चिरोंटे के आने पर वे पिंजरे का दरवाजे खोल दिया करें और उसके जाने के बाद बन्द कर दिया करें।

अस्पताल में मरीज़ो से मिलने का समय भले ही दोपहर को होता हो, पर चिरोंटा तो अपने मरीज़ से मिलने सुबह-सुबह ही आ जाया करता। मिलता, हाल-चाल पूछता, थोड़ी बहुत देर रुकता और फिर अपने छोटे-छोटे बच्चों के लिये बाहर से दाना ले कर चला जाता, पूर्ण शिष्टाचार और सभ्यता के साथ।

वह कभी भी अधिक समय नहीं रुकता था अस्पताल में। शायद अस्पताल की व्यवस्था के कारण या फिर समयाभाव के कारण। अब तो दो-दो स्थान के देखभाल की जबावदारी जो उसके ऊपर थी। बच्चों की और बच्चों की माँ की।

और यह सिलसिला चलता रहा दिनों दिन काफी दिनों तक। नियमित रूप से और बिना नागा किये ही। 

कुछ समय और बीता होगा इस घटना को। और आज, आज चिरोंटा अकेले नहीं था अस्पताल में। उसके साथ थीं, छोटी-छोटी दो चिड़ियाँ भी। शायद उसके बच्चे ही थे। अब तो वे चलना भी सीख गये थे और उड़ना भी। आकाश में तरह-तरह की कला-बाज़ी करना तो अब उनके बाँये हाथ का खेल ही हो गया था।

आज बहुत दिनों के बाद वे अपने सशक्त युवा-पंखों से उड़ कर, अपनी माँ से मिलने आये थे। माँ से मिलने की खुशी तो उन्हें थी ही पर इस तरह से, इस परिस्थिति में मिलने का दुःख भी था, अफसोस भी था और मलाल भी था।

माँ, अपने बच्चों को देखकर फूली नहीं समा रही थी। अपने सारे ग़म, कष्टों और दर्दनाक हादसे को तो,पल भर के लिये भूल ही गई थी वह, अपने बेटा-बेटी से मिलने की खुशी में।

माँ, तो आखिर माँ ही होती है। अपने बच्चों की खुशी के सामने वह अपने सारे ग़म और आँसुओं को भूल जाती है। जरा-सी भी शिकन नहीं आने देती है वह अपने चहरे पर, अपने बच्चों के सामने।

पर आज, अपने हँसते, खेलते और खिलखिलाते बालक के चेहरे पर जरा-सी भी उदासी या शिकन देख कर तिलमिला जाने वाली ममता-मयी *माँ* के स्वयं के चहरे पर, मिथ्या मुस्कान को देखकर, फूल से कोमल बच्चों का बाल-मन तिलमिला कर रह गया।

ममता-मयी *माँ* की बनावटी हँसी और मिथ्या मुस्कान बालकों की आँखों से निकलते आँसुओं को न रोक सकी।

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