पर-कटी पाखी - 10. पर-कटी फुर्र. Anand Vishvas द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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पर-कटी पाखी - 10. पर-कटी फुर्र.

10. पर-कटी फुर्र.

*पर-कटी चिड़िया* से चिरौंटे के मिलने का सिलसिला आज भी बन्द नहीं हुआ था। हाँ, इतना तो जरूर था कि कभी कभार चिरौंटे की जगह *पर-कटी* के बेटा-बेटी आ जाया करते थे। शायद उम्र का तकाज़ा रहा हो या फिर कुछ अधिक व्यस्तता। पर सिलसिला तो आज भी जारी था।

*पर-कटी चिड़िया* की देखभाल और सेवा-सुश्रुषा में कभी भी कोई कमी नहीं आई। न तो पाखी और पलक की ओर से ही और ना ही चिरौंटे और उसके बेटा-बेटी की ओर से ही। इतना ही नहीं पाखी और पलक के साथ-साथ गोलू, श्रेया और परी का योगदान भी कभी कम नहीं हुआ।

*पर-कटी* की देखभाल और सहेजने के कार्य में गोलू के विशेष योगदान और सहयोग को नकारा नहीं जा सकता था। साथ ही *पाखी हित-रक्षक समिति* आज एक सेवाभावी संस्था के रूप में अपना एक विशिष्ट स्थान बना चुकी थी।

पक्षियों के हित में किये जाने वाले उसके सभी कार्यों को सराहा भी जा रहा था और उनके कार्यों को अपार जन-सहयोग भी मिल रहा था। जन-सहयोग के परिणाम स्वरूप ही तो इस संस्था की अनेकों शाखायें देश के भिन्न-भिन्न शहरों और कस्बों में बड़ी सफलता के साथ काम कर रहीं हैं।

और एक दिन सुबह-सुबह, रोज की तरह ही जब पाखी पक्षियों के लिये दाना डालने और पानी की व्यवस्था के लिये कम्पाउण्ड में थी और पलक *पर-कटी चिड़िया* को दाना डालने और पानी बदलने के लिये उसके पिंजरे के पास पहुँची तो *पर-कटी* को देखकर तो वह सन्न ही रह गई। *पर-कटी* कोई हिलन-चलन नहीं कर रही थी और निःढाल होकर पड़ी हुई थी।

अपनी शंका को दूर करने के लिये उसने पिंजरे को हिला कर देखा। पर *पर-कटी* में कोई भी हिलन-चलन नहीं हुआ। उसका अनुमान सही निकला। उसके मुँह से एक जोरदार चींख-सी निकल पड़ी, ‘पाखी ..ई...ई...ई...।’

‘पाखी, जल्दी आ, देख तो सही अपनी *पर-कटी* को क्या हुआ है।’ पलक ने भड़भड़ाते हुये पाखी को आवाज लगाई। 

‘क्या हुआ, पलक। अपनी *पर-कटी* को क्या हुआ।’ और ऐसाकहते-कहते पाखी *पर-कटी* के पिंजरे की ओर दौड़ पड़ी।

‘पाखी, *पर-कटी* तो बिलकुल भी हिल-डुल नहीं रही है। और गिरी पड़ी है, देख तो सही पाखी, क्या हुआ है अपनी *पर-कटी* को।’ पलक के मन में एक डर सा समा गया।

‘हाँ, पलक, ये तो सांस भी नहीं ले रही है। देख तो सही।’पाखी ने पिंजरे के दरवाजे को खोलकर उसे छूकर देखते हुये कहा।

‘हाँ, सच में पाखी, ये तो सांस भी नहीं ले रही है।’ पलक ने भी उसे छूकर देखा और फिर कहा।

पाखी भी *पर-कटी* की हालत को देख कर स्तब्ध-सी रह गई। कुछ भी तो समझ में नहीं आ रहा था दोनों को।

पाखी और पलक दोनों ने *पर-कटी* को हिलाने-डुलाने के प्रयास किये। पर *पर-कटी* में कोई भी हलन-चलन नहीं हुआ।

नर्स को बुलाया और फिर डॉक्टर अंकल को। और तब तक तो शीतल आन्टी भी ऊपर से उतर कर नीचे, अस्पताल में आ चुकीं थीं। खबर मिलते ही साक्षी आन्टी, गोलू, श्रेया और परी भी वहाँ दौड़ पड़े थे। जिसे भी खबर मिली, वही तुरन्त दौड़ पड़ा था, पर-कटी के विषय में जानने के लिये। सभी की आत्मीयता जो जुड़ी हुई थी पर-कटी से। एक विशेष लगाव जो था *पर-कटी* से सभी को। 

वस्तु-स्थिति को देख कर डॉक्टर अंकल की आँखें नम हो गईं। वे जानते थे कि उनके मुँह से निकला हुआ एक-एक शब्द कोमल बाल-मन पर आघात तो पहुँचायेगा ही और उन्हें विचलित भी करेगा। पर सत्य को नकारा भी तो नहीं जा सकता था।

उन्होने पाखी, पलक,श्रेया और गोलू को ही समझाते हुये और धैर्य बँधाते हुये कहा, ‘बच्चो, हमें सत्य को तो स्वीकार करना ही होगा और सत्ययह है कि अपनी *पर-कटी* अब अपने बीच में नहीं रही है। वह भगवान को प्यारी हो गई है।’ और इतना कहते-कहते डॉक्टर गौरांग पटेल, बच्चों के डॉक्टर अंकल की आँखों से आँसू ढुलक पड़े।

बज्र-हृदय डॉक्टर पटेल की आँखों से आँसुओं को ढुलकते हुये पहली बार देखा गया। वे पाखी, पलक और बच्चों को और कुछ भी न बोल सके। उनकी आँखें भर आईं। बच्चों के मन को समझाने वाले डॉक्टर अंकल, खुद अपने मन को नहीं समझा पा रहे थे।

बाल-मन कोमल और भावुक होता है। बालक तो निश्छल और निःस्वार्थ प्रेम करते हैं और प्रेम ही तो मोह-माया का मूल कारण होता है। बन्धन में बाँध लेता है भावुक भोले-मन को।

 बालकों की निःस्वार्थ भाव से की गई *पर-कटी* की सेवा के आगे राजा दिलीप की नन्दिनी की गौ-सेवा बहुत बौनी लग रही थी। राजा दिलीप का तो स्वार्थ था, पर बालकों का क्या स्वार्थ। उन्हें तो बस, सेवा करनी है और बस निःस्वार्थ भाव से।

बालकों का प्रेम तो निश्छल और निःस्वार्थ होता है। छल और कपट की भावना से परे, भगवान का वास होता है उनके पावन मन-मन्दिर में। 

जो आया है उसे एक न एक दिन जाना ही होता है। जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित ही है। यह बात कोमल बाल-मन को समझाना कितना मुश्किल होता है और सत्य तो यह है कि एक दिन हम सबको ही फुर्र होकर अनन्त आकाश में विलीन हो जाना है। और इस नश्वर पिंजरे को यहीं पर छोड़ जाना है। तो फिर कैसा मोह, कैसा प्रेम और कैसी आत्मीयता। पर मोह तो फिर भी होता ही है। आँखें तो फिर भी भर ही आती हैं।

और इतनी सी बात को बालक क्या, हम भी नहीं समझ पाते हैं और *चिड़िया* के फुर्र होने पर, आँखों से सागर छलक जाते हैं और मन भारी हो जाता है।

पाखी की बेचारी *पर-कटी चिड़िया* आज अपने संसार के सारे बन्धनों को तोड़कर अनन्त आकाश में विलीन हो गई।

पलक की जैड प्लस श्रेणी की सुरक्षा वाले, लोहे के सरियों के बने अभेद्य किले, *पर-कटी चिड़िया* के प्राण-पखेरू को उड़ने से नहीं रोक सके। बौने पड़ गये थे संसार के सारे के सारे बन्धन। पाखी और पलक की आत्मीयता भी, स्नेह भी और सेवा भी।  

पलक-सरकार की जैड प्लस श्रेणी की स्पेशल वीवीआईपी सुरक्षा और सुरक्षा-व्यवस्था धरी की धरी रह गई। कुछ काम न आ सका पलक का लोहे के सरियों का बना अभेद्य किला।

और छलकते आँसुओं से डबडबाई हुई पाखी की आँखें जैसे पलक से बार-बार पूछ रहीं थी, ‘क्या हुआ पलक, तेरी जैड प्लस श्रेणी की स्पेशल वीवीआईपी सुरक्षा का और सुरक्षा-व्यवस्था का। क्या हुआ तेरे लोहे के सरियों के बने उस अभेद्य किले का। जिन पर तू बड़ा नाज़ करती थी और कॉलर ऊँचा करके, बड़े गर्व के साथ इतराते हुये, उनकी प्रशंसा करते हुये अघाती नहीं थी।

वे सब के सब, मेरी छोटी-सी, *पर-कटी* के प्राणों को न रोक सके। और मेरी *पर-कटी* के प्राण-पखेरू उड़ ही गये। तेरा ये लोहे की सरियों से बना हुआ अभेद्य किला, ताश के पत्तों सा ढ़ह कर रह गया।’

पाखी तो पलक से अक्सर कहा भी करती थी कि देख पलक, ये तोते जिस दिन उड़ेंगे, उस दिन तेरी ये सारी की सारी व्यवस्था काम न आ सकेगी। तू इन्हें उड़ने से रोक न सकेगी।

और आज हुआ भी कुछ ऐसा ही। संसार का कोई भी बन्धन, कोई भी दीवार, कोई भी अभेद्य किला और कौई भी सुरक्षा व्यवस्था, *पर-कटी चिड़िया* की *चिड़िया* को उड़ने से न रोक सकी।

पलक तो जैसे बोलने का साहस ही नहीं कर पा रही थी। उसे दुःख भी था और अफसोस भी। दुःख इस बात का था कि वह, उसकी सारी सुरक्षा-व्यवस्था, उसके पापा का अस्पताल और उस अस्पताल की सभी प्रकार की दवा-दारू, अपनी सबसे पक्की सहेली पाखी की अमानत को अपने पास सहेज कर न रख सकी और *पर-कटी चिड़िया* की *चिड़िया* को उड़ने से न रोक सकी। ताले और पहरेदार कुछ काम न आ सके और *चिड़िया* फुर्र से उड़ ही गई। कोई देख तक न सका।

और सच में तो पाखी ने ही अपनी *पर-कटी चिड़िया* की सुरक्षा के लिये सर्वोत्तम स्थान के रूप में पिंजरे का ही चयन किया था। और उस व्यवस्था से उसको भी सन्तोष था।

दो दिन तक बड़ा ग़मगीन वातावरण बना रहा। पिंजरा अभी भी वहीं पर टँगा हुआ था। पर पिंजरे में *पर-कटी* नहीं थी अगर थीं तो उसकी यादें, दर्दनाक दुःखदायी यादें, आँखें नम कर देने वाली यादें। यहाँ-वहाँ सभी जगह, उसकी यादें ही यादें तो पसरी पड़ीं थीं।

यूँ तो *पर-कटी चिड़िया* के पिंजरे की साफ-सफाई भी रोज की तरह ही होती थी पर उसमें दाना-पानी नहीं रखा जाता था। आखिर क्यों और किसके लिये। दाना-पानी जिसके लिये रखा जाता था वह तो वहाँ थी ही नहीं।

आज पाखी ने न तो इस पिंजरे को तोड़ने का ही प्रयास किया और ना ही पलक ने इसे मालिये में रखने का आग्रह ही किया। पलक का विचार इस पिंजरे को इसी स्थान पर खाली टँगा रखने का था। पर पाखी का आग्रह था कि इस पिंजरे को गोलू के घर पर स्थित *पाखी हित रक्षक समिति* के कार्यालय में रखा जाय। वहाँ पर यह पिंजरा हम सबको सदैव प्रेरणा प्रदान करता रहेगा। गोलू को यह सुझाव उचित लगा।

अन्त में सर्व-सम्मति से *पर-कटी चिड़िया* के पिंजरे को *पाखी हित रक्षक समिति* के कार्यालय में उचित स्थान पर रख दिया गया। पाखी की *पर-कटी चिड़िया* का खाली पिंजरा आज भी हमारी आँखों में आँसू भरने के लिये पर्याप्त है।

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