खरगोश और कछुआ की दोस्ती DINESH KUMAR KEER द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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खरगोश और कछुआ की दोस्ती

दोस्ती

एक समय की बात है। बीहड़ में खरगोश और कछुआ रहते थे। दोनों में दोस्ताना थी। दोनों सुन्दर से बीहड़ में दूर - दूर तक सैर करते। दोनों में से कोई भी अगर समय पर एक निश्चित स्थान पर न पहुँचता तो दूसरा उसे जगाने के लिए पहुँच जाता। कभी डाईनदी किनारे खरगोश हाँक लगाता - "अरे कछुआ भाई! आज पानी में हो रहोगे... सैर पर नहीं चलोगे?" फिर कछुआ अलसाया हुआ पानी से निकलता और दोनों दोस्त सैर को चल पड़ते। कभी खरगोश झाड़ियों में सोता रहता तो कछुआ उसे आलसी, कामचोर न जाने क्या -क्या कहता? खरगोश उसके बाद भी हँसते हुए उठता और अपने प्यारे दोस्त के साथ बातों में खो जाता। इसी प्रकार दोनों दोस्तों के दिन सुख से बीत रहे थे।
एक दिन घूमते - घूमते दोनों की भेंट गीदड़ से हो गयी। गीदड़ अच्छी-भली दोस्ती में आग लगने के लिए विख्यात था। ये बात खरगोश और कछुआ भी भली - भाँति जानते थे, इसलिए दोनों बचकर निकल रहे थे। कछुआ थोड़ा पीछे रह गया। बस! गीदड़ को मौका मिल गया - "अरे कछुआ भाई! कहाँ उस खरगोश के पीछे - पीछे घूमते हो? मेरे साथ चलो।" कछुए ने कहा - "अरे! वह मेरा दोस्त है।" भाई गीदड़ कहाँ पीछा छोड़ने वाला था - "दोस्त! काहे का दोस्त? वह तो तुम्हें सुस्त, कामचोर और पिछलग्गू कहता है क्योंकि तुम धीमे चलते हो।" इस बार कछुआ को थोड़ा सा बुरा लगा, पर उसने बड़े धैर्य से जवाब दिया - "अरे! वह मेरा दोस्त है और मैं उसका पिछलग्गू नहीं हूँ।" गीदड़ ने कहा - "हाँ, बिलकुल! अरे! तुम्हारे बाप - दादा ने इन खरगोशों को हराकर जंगल में एक मिसाल कायम की थी।"
इधर खरगोश को लगा कि दोस्त तो काफी पीछे छूट गया। वह उछलते कूदते वापस आया तो उसने गीदड़ को जाते हुए देखा। आदतन उसने कछुआ से कहा - "सुस्त कहीं के... कहाँ रह गए थे?" वैसे कछुआ को बुरा न लगता, पर गीदड़ के भड़काने के कारण उसको बात बुरी लग गयी। उसने कहा - "खरगोश भाई! हमारे ही बाप - दादाओं ने तुम्हारे जैसे खरगोशों को हराया था। आज तुम मुझे सुस्त कह रहे हो?" खरगोश हतप्रभ रह गया। इतनी सी बात कछुआ को बुरी लग गयी। फिर भी वह समझाने के स्वर में बोला - "अरे! आज तुम कैसी बात कर रहे हो? पहले क्या हुआ... क्या नहीं, उसे दोस्ती के मध्य क्यों ला रहे हो?" कछुआ की बुद्धि पलट चुकी थी। उसने कहा - "खरगोश भाई! दुबारा प्रतियोगिता होगी मेरे और तुम्हारे मध्य। मेरे जीतने के बाद ही तुम मुझे सुस्त कहना भूल जाओगे।" खरगोश के समझाने का प्रभाव कछुए पर नहीं पड़ा। बात बीहड़ के राजा शेर के समक्ष पहुँची। खरगोश आपनी बात रख ही रहा था कि गीदड़ बीच में बोल पड़ा - "महाराज! प्रतियोगिता करने में हानि ही क्या है? बीहड़ वासियों का मनोरंजन ही होगा व कछुआ का खोया आत्मसम्मान भी लौट आएगा।" खरगोश के न चाहते हुए भी दौड़ आरम्भ हुई। खरगोश भरे गले से दौड़ने लगा। कछुआ आश्वस्त था कि खरगोश अभी झाड़ियों के पीछे अपने पूर्वजों की भाँति सो जायेगा और वो स्वयं दौड़ जीत जायेगा। कछुआ इस उहापोह में झाड़ियों झुरमुट भी झाँकता चल रहा था और धीरे - धीरे पिछड़ता जा रहा था। खरगोश दौड़ समाप्ति के स्थान पर पहुँच गया, जबकि कछुआ अभी आधा रास्ता भी पार नहीं कर पाया था। बीहड़ के राजा शेर ने खरगोश की विजय की घोषणा की। खरगोश फिर भी उदास रहा! उसे अपनी दोस्ती टूटने का बहुत दुख था। तालियों की गड़गड़ाहट के मध्य खरगोश को विजय पदक दिया गया। कछुआ दु:ख से भरा हुआ यह सोच रहा था कि अब खरगोश उसका उपहास उड़ाएगा, पर यह क्या खरगोश? उसे मंच पर बोला रहा था। कछुआ के मंच पर पहुँचते ही खरगोश ने उसे अपना मेडल पहना दिया। कछुआ कुछ समझता इससे पहले खरगोश ने कहा - "इस हार - जीत का महत्व हमारी दोस्ती के आगे कुछ नहीं है। हम दोनों ने अपने जीवन के सारे सुख - दु:ख साथ - साथ बाँटे है तो आज मैं अकेले विजेता कैसे? ईश्वर ने हर जीव को अलग - अलग गुण दिया है और वह उन्हीं गुण के साथ अच्छा लगता है। मेरा दोस्त धरती और जल दोनों में रह सकता है, जबकि मैं केवल धरती पर। यदि यही प्रतियोगिता जल में हुई होती तो मैं एक कदम भी न चल पाता।" कछुआ तब तक संभल चुका था। उसने खरगोश से क्षमा प्रार्थना की और दोनों दोस्त एक - दूसरे के गले लग गये। राजा शेर ने एक और पुरस्कार की घोषणा की जो दोनों दोस्तों की न टूटने वाली दोस्ती को जाता था।

संस्कार सन्देश :- दोस्ती की नींव विश्वास पर आधारित होती है।