द्वारावती - 6 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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द्वारावती - 6


6


गुल ने उसे जाते देखा। वह सो गया था। शांत हो गया था। सोते हुए उत्सव के मुख पर कोई भाव नहीं थे। कोई चिंता नहीं थी। पूर्ण रूप से सौम्यता थी।
‘कितना अशांत था, व्याकुल था यह युवक! और अब निंद्रा के अधीन कितना शांत!’
‘क्या कारण होगा उसकी अशांति का? क्यों वह मुझसे मिलना चाहता था?’
‘चाहता था? था नहीं, है। वह तुम्हें मिला ही कहाँ है? बस आया, भोजन किया और सो गया।
वह अभी भी तुम्हें मिलना चाहता है, गुल।’
‘संभव है कि पेट की भूख शांत होने के पश्चात वह तुम्हें मिले ही नहीं। तुम्हें ही भूल जाय अथवा तुम्हें मिले किन्तु मिलने का प्रयोजन ही भूल जाय। यह भी संभव है कि निंद्रा से जागते ही वह किसी अन्य मार्ग पर चल पड़े।’
‘ऐसा नहीं हो सकता। वह मुझे मिलने आया था। एक बार नहीं दो बार आया है। वह मुझसे मिले बिना जा नहीं सकता।’
‘इतना विश्वास है?’
‘हाँ।’
‘क्यों?’
‘क्यों कि यह प्रवासी है जो कहीं से आया है और मेरा नाम लेकर आया है। कोई इतनी दूरी तय करते हुए बिना कारण ही नहीं चला आता। मुझसे मिलना ही उसका लक्ष्य होगा।’
‘कोई लक्ष्य तक आकर भी लौट सकता है।’
‘ऐसा कैसे हो सकता है?’
‘ऐसा इसलिए हो सकता है कि लक्ष्य के लिए जब मनुष्य अपनी यात्रा प्रारम्भ करता है तब उसके मन में उस लक्ष्य का एक चित्र होता है, एक कल्पना होती है। और उसी कल्पना को लेकर वह मार्ग पर चलता रहता है। किन्तु जब उसी लक्ष्य को सम्मुख पाता है तब...।’
‘तब क्या?’
‘गुल धैर्य रखो। तुम इतनी विचलित क्यों हो? आज से पहले तो कभी इतनी विचलित नहीं हुई हो।उस समय पर भी नहीं जब तुम्हें छोडकर वह चला गया था। तो आज यह क्या हो रहा है?’
‘मेरे पास अभी इस विषय में कहने को कुछ नहीं है। तुम मुझे उसका कभी भी स्मरण नहीं कराओगे, तुमने मुझे यह वचन दिया था। तुम्हें उस वचन का पालन करना होगा।’
‘हाँ उस वचन का पालन तो करना ही होगा।’
‘तो तुम कुछ लक्ष्य की बात कर रहे थे। क्या कह रहे थे?’
‘तो बात यह थी कि जब मनुष्य उसी लक्ष्य को सम्मुख पाता है तब लक्ष्य को देखकर उसका मोह भंग हो जाता है। मन में रची छवि टूट जाती है, बिखर जाती है। उसके सम्मुख जो होता है वह उसकी कल्पना से विपरीत अथवा भिन्न होता है जिसे वह स्वीकार नहीं कर सकता।’
‘तो क्या होता है?’
‘तो वह उस लक्ष्य से मिले बिना ही अपने मार्ग पर लौट जाता है।’
‘किन्तु यह युवक ऐसा एक बार तो कर चुका है। प्रात: वह इसी कारण मुझे देखकर लौट गया था। तुमने देखा ही था ना कि वह कैसे भाग गया था।’
‘हाँ देखा था। तभी तो मेरा मानना है कि वह तुम्हें नहीं मिलेगा।’
‘किन्तु कुछ ही समय पश्चात वह लौट आया है। मुझ से मिला है। मेरे हाथों से भोजन लिया है और अब वह समंदर की रेत पर निश्चिंत होकर निंद्राधीन पड़ा है। देखो वह वहाँ सो रहा है।’
गुल के हाथ अनायास ही समंदर के तट की तरफ बढ़ गए, जहां उत्सव लेटा हुआ था, द्रष्टि भी। वह चौंक गई। वहाँ कोई नहीं था। वह युवक भी नहीं। गुल ने सारे तट पर द्रष्टि डाली। कहीं कोई नहीं था। सारा तट निर्जन सा था, सदैव की भांति।
‘कहाँ चला गया? अभी तो यहीं था।’
‘गुल, प्रवासी था वह। प्रवासी तो आते जाते रहते हैं। वह आया था, चला गया। पुन: आएगा भी।’
‘यदि नहीं आया तो?’
‘तो क्या? नहीं आया तो नहीं सही।’
‘किन्तु ...।’
‘तुम क्यूँ इतनी व्याकुल हो रही हो? क्या कारण है?’
‘कुछ भी तो नहीं।’
गुल मौन हो गई। गुल ने अपने विचारों को भी मौन कर दिया। वह समुद्र के तट को तथा तट पर आकर शांत हो जाती लहरों को देखती रही। सूरज गति करता रहा, पश्चिम की तरफ ढलता रहा। गुल अभी भी समुद्र की तरफ द्रष्टि किए खड़ी थी। समय बहता रहा। सूरज ढलता रहा। संध्या होने का समय हो गया किन्तु गुल अभी भी मूर्ति की भांति स्थिर थी। उसका मन स्थिर था, विचार भी स्थिर थे। वह शांत थी।
घंटनाद हुआ। गुल के कानों ने उसे सुना। वह चलित हो गई। दूर महादेव के मंदिर को देखा जहां से संध्या आरती का घंटनाद हो रहा था। वह दौड़ी, महादेव के मंदिर की तरफ। जब तक वह मंदिर पहोंचती, आरती सम्पन्न हो गई।
“कहाँ रह गई थी गुल?” पुजारी जी ने प्रसाद देते हुए गुल से पूछा।
“कुछ नहीं बाबा, बस यूं ही विलंब हो गया।” गुल ने स्मित के साथ उत्तर दिया।
कुछ क्षण वह सोचती रही फिर बोली,“बाबा, आप तो आरती उतार रहे थे। मैं समय पर ना आ सकी। दूसरा तो कोई यहाँ होता नहीं है। मैं ही सदैव घंट बजाती हूँ तो आज यह घंटनाद किसने किया?”
पुजारी जी हंस दिये।
“आपने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया, बाबा।”
“आज एक कोई अज्ञात प्रवासी ने यह काम कर दिया।”
“कौन है वह? कहाँ है वह?” गुल उत्साहित थी।
“यहीं तो था वह।” पुजारी ने इधर उधर देखा। वह वहाँ नहीं मिला। उसने दूर देखा, “देखो, दूर किनारे के मार्ग पर वह जा रहा है।” पुजारी ने दूर हाथ बढ़ा दिया। गुल ने उसे देखा।
“वही तो है वह।” गुल मन ही मन बोली।
“सुनो, रुक जाओ।” गुल ने उस जाते हुए प्रवासी को पुकारा। किन्तु वह नहीं रुका। कदाचित उसने गुल की ध्वनि नहीं सुनी अथवा लहरों से उठती ध्वनि में गुल की ध्वनि उसे सुनानी नहीं दी। वह चलता गया, दूर तक चला गया। जाते हुए प्रवसी को गुल देखती रही।
“बेटा, क्या बात है?” पुजारी के प्रश्न ने गुल का ध्यान भंग किया।
गुल ने पुजारी को देखा।
“कौन था वह? कोई परिचित था क्या?” पुजारी ने पूछा।
“नहीं बाबा, अपरिचित ही था वह। वह कौन है यह भी मेरे संज्ञान में नहीं।”
“तो उसके लिए चिंतित क्यूँ हो, बेटा?”
गुल ने प्रवासी के साथ घटी सभी घटना पुजारी जी को बता दी।
“बेटा, तुम उसकी चिंता छोड़ो। यात्री है वह। अपना ध्यान स्वयं रख लेगा वह। तुम निश्चिंत होकर तुम्हारा काम करती रहो।” पुजारी ने उसे आस्वासन दिया।
गुल अपने घर लौट आई।
संध्या ढल चुकी थी। सूरज अस्त हो गया था। अंधकार पृथ्वी के इस भूभाग पर प्रवेश करने की चेष्टा कर रहा था। समुद्र की तरफ एक द्रष्टि डालकर गुल अपने नित्य क्रम में व्यस्त हो गई।