द्वारावती - 7 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • ऋषि की शक्ति

    ऋषि की शक्ति एक बार एक ऋषि जंगल में रहते थे। वह बहुत शक्तिशा...

  • बुजुर्गो का आशिष - 9

    पटारा खुलते ही नसीब खुल गया... जब पटारे मैं रखी गई हर कहानी...

  • इश्क दा मारा - 24

    राजीव के भागने की खबर सुन कर यूवी परेशान हो जाता है और सोचने...

  • द्वारावती - 70

    70लौटकर दोनों समुद्र तट पर आ गए। समुद्र का बर्ताव कुछ भिन्न...

  • Venom Mafiya - 7

    अब आगे दीवाली के बाद की सुबह अंश के लिए नई मुश्किलें लेकर आई...

श्रेणी
शेयर करे

द्वारावती - 7




7

गुल समुद्र को देख रह थी। समुद्र की ध्वनि के उपरांत समग्र तट की रात्री नीरव शांति से ग्रस्त थी। किन्तु गुल का मन अशांत था। वह विचारों में मग्न थी।
‘वह रात्री भोजन के लिए भी नहीं आया। समुद्र के तट पर सोते हुए महादेव के मंदिर तक गया, आरती के लिए घंट बजाया और चल दिया। मैंने उसे पुकारा भी था पर वह नहीं रुका। एक बार पीछे मुड़कर भी नहीं देखा।’
‘हो सकता है उसने तुम्हारे शब्द सुने ही ना हो।’
‘तो क्या? यदि उसे मुझ से काम था, मेरा नाम लेकर आया था तो मुझ से मिलकर जाता, अपना काम बता देता तो...।’
‘तुम उसके काम में इतनी रुचि क्यूँ प्रकट कर रही हो?’
‘यदि मैं उसके कुछ काम आ सकती तो ...।’
‘यदि मैं यह कहूँ कि तुम उसके काम में नहीं अपितु उसमें रुचि ले रही हो तो?’
‘ऐसा नहीं है। तुम्हें ऐसा क्यूँ लग रहा है?’
‘जब से वह दुबारा तुम्हारे पास आया था तब से तुम उसके ही विचारों में व्यस्त हो। आज तक मैंने तुम्हें इस प्रकार किसी के भी विषय में इतना चिंतित होते हुए नहीं देखा। उस समय भी नहीं जब ‘वह’ तुम्हें तथा इस नगरी को सदा के लिए छोड़ चला गया था।’
‘‘वह’? तुम मुझे पुन: उसका स्मरण करा रहे हो। तुमने वचन दिया था कि तुम कभी भी उसका स्मरण नहीं कराओगे।’
‘तो?’
‘मेरी भांति तुम भी स्वीकार क्यूँ नहीं कर लेते कि ‘वह’ हमें छोडकर सदा के लिए चला गया है। एक युग बीत चुका है उसके जाने के पश्चात। वह भी हमें भूल गया है, मैं भी उसे। तुम भी उसे भूल जाओ।’ ‘यही सत्य है। यही हमारे लिए उपयुक्त है।’
‘तुम उस व्यक्ति को भुला सकती हो जो तुम्हारे साथ कई वर्षों तक रहा। तो तुम इस व्यक्ति को क्यूँ याद कर रही हो जो आज ही तुम से मिला है। क्यूँ इस प्रवासी के लिए इतनी चिंतित हो?’
‘इन बातों का मेरे पास कोई उत्तर नहीं है। किन्तु यह सत्य है कि इस नवागंतुक प्रवासी के लिए मेरा मन चिंता कर रहा है, उसका विचार कर रहा है।’
‘क्यूँ कर रही हो ऐसा?’
‘मैं अनभिज्ञ हूँ इस विषय में।’
‘तो इस प्रवासी को भी भूल जाओ।’
‘मैं प्रयास करूंगी।’
गुल प्रयास करती रही, विफल होती रही, जागती रही। रात्रि अपनी गति से यात्रा करती रही। प्रभात के प्रथम प्रहर तक आ गई। द्वारका नगरी की घड़ी ने चार बार शंख बजाया और गुल को सूचित कर दिया कि प्रात: काल के चार बज चुके हैं।
गुल ने अपने विचारों को समेटा। वह चल पड़ी समुद्र की तरफ, प्रति दिन की भांति प्रात: स्नान करने के लिए। वह पानी में उतरी, इधर उधर देखने लगी।
‘कल तो एक आकृति को देखा था, यहीं, कुछ दूरी पर। क्या वह आकृति आज भी यहीं कहीं होगी? मुझे देख रही होगी?’
इस विचार ने गुल को सजग कर दिया। स्त्री सहज लज्जा से उसने स्वयं को संकोरा और स्नान कर लौट आई। अपने कार्यों में जुड़ गई। आज भी पर्यटकों का एक समूह गुल के पास आया था, गुल ने उसे वही सब बताया जो वह सब को बताती रहती है। समूह बिखर गया। सब कुछ खाली हो गया। गुल ने खाली हुए उस स्थान पर द्रष्टि डाली, जैसे वह किसी को खोज रही हो।वहाँ कोई नहीं था। वह प्रवासी भी नहीं। गुल निराश हो गई।
वह अपने कार्यों में जुड़ गई। उसने भोजन बनाया, दो व्यक्तियों के लिए। मंदिर गई, आरती की, प्रसाद लगाया और घर लौट गई। भोजन का समय हो रहा था। वह प्रतीक्षा करने लगी, किन्तु कोई नहीं आया। लंबी प्रतीक्षा के पश्चात उसने अकेले ही भोजन किया।
संध्या हो गई। गुल मंदिर गई, आरती की। लौट आई। अकेले ही भोजन किया। समुद्र को देखती रही। उसके ध्वनि को सुनती रही। कोई नहीं आया। पिछली रात्रि भी प्रतीक्षा में व्यतीत हो गई थी। वह सोई नहीं थी। वह थकी हुई थी, सो गई।
इसी क्रम में एक और दिवस व्यतीत हो गया। प्रवासी नहीं आया, किन्तु गुल के मन से प्रवासी नहीं गया। उसने गुल के मन पर प्रभुत्व कर रखा था। वह उसके मन से हटता ही नहीं था। अंतत: वह अपने ही विचारों से हार गई।
‘क्यूँ कर रही हो उसकी प्रतीक्षा?’ गुल ने स्वयं से पूछा।
‘मैं नहीं जानती।’
‘गुल, इस प्रकार तो तुम आसक्ति की तरफ आकृष्ट हो रही हो। तुमने ‘उसके’ जाने के पश्चात स्वयं के लिए स्वयं ही वैराग्य का मार्ग पसंद किया था। तुम उस मार्ग पर आज तक चलती रही हो। कभी विचलित नहीं हुई। तो अब क्या हो गया? एक अज्ञात प्रवासी तुमसे मिलता है,तुम्हारा नाम लेकर आता है, तुमसे एक टुकड़ा भोजन लेता है और तुम उस प्रवासी की तरफ आकृष्ट हो जाती हो। क्या यही है तुम्हारा वैराग्य? क्या तुम्हारा वैराग्य इतना दुर्बल है कि कोई आकर उसे भंग कर दे,छिन्न भिन्न कर दे, नष्ट कर दे? तुम्हारे यह सारे उपक्रम तुम्हें आसक्ति की तरफ ले जा रहे हैं। तुम अपने ही मार्ग से भटक रही हो। तुम्हें इसी समय स्वयं को संभालना होगा, अन्यथा तुम सदा के लिए भटक जाओगी। आज तक यही सुना था कि ऋषि मुनियों की तपस्या किसी अप्सरा के द्वारा भंग हो जाती थी। किन्तु आज प्रथम अवसर है कि किसी पुरुष के कारण एक स्त्री की, एक विदुषी की तपस्या भंग हो रही है। गुल तुम्हें अपनी तपस्या को संभालना होगा,उचित निर्णय करना होगा, अभी।’गुल कोई निर्णय नहीं कर सकी।
‘मैं स्वयं को समय को समर्पित करती हूँ। समय ही मेरे लिए उचित निर्णय करेगा।’
गुल ने अपने विचारों का शमन किया, वह शांत हो गई। समय को प्रवाहित होने दिया।