प्रेम गली अति साँकरी - 126 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 126

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वह रात पहली रात से भी अधिक दम घोंटने वाली थी | कुछ समझने जैसा था ही नहीं, किसी के साथ कुछ साझा करना भी खुद मेरे जैसी स्वाभिमानी, प्रौढ़ा, अपने निर्णय की स्वयं निर्णायक के लिए अपना स्वयं का मज़ाक बनाने वाली बात थी | न जाने मैंने कितनी झपकी ली होंगी लेकिन रबर के आदमी का हाथ मेरी ओर बढ़ते देख मैंने फिर से मोटे तकिए घसीटकर बीच में एक पुल खींच लिया | डिम रोशनी अब भी कमरे में थी | मैंने करवट ली और देखा कि प्रमेश की बेशर्म दीदी की आँखें मसहरी की जाली में से पटबीजने सी चमक रही थीं | एक बात और भी थी कि ऐसे आधुनिक बैडरूम में मसहरी की ज़रूरत क्या और क्यों होनी चाहिए थी? यहाँ क्यों? कैसे? किसलिए? सब बेकार था | जो हो रहा था वह अजीब सनसना देने वाला था और कई ऐसे प्रश्नों को बार-बार कुरेदने वाला कि दिमाग की बत्ती ने जलने से इनकार कर दिया था | 

उस रात बहुत-बहुत मुश्किल समय था ! अकेला समय!एकाकी समय! मेरे पास केवल एक ही नाम था उत्पल !जिसने मुझे कितने इशारे दिए थे लेकिन, मैं या कोई भी क्यों समझ नहीं पाया था ? काश ! उस दिन मैं प्रमेश के ज़रा सा कहने पर उसके घर उसकी इस रहस्यमई बहन से मिलने न जाती!लेकिन कैसे न जाती? भाग्य में तो मेरे पहले से ही ये सब मंडरा रहे थे | कैसी पागल थी मैं? खुद के जीवन के साथ कितने जीवन घसीट लिए थे मैंने अपनी ज़िद में और ऐसी जमीन पर आ खड़ी हुई थी जिस पर न जाने कितने बॉम्ब लगे थे और उनके फटते ही सबके चिथड़े उड़ जाने बहुत स्वाभाविक थे | क्या करूँ? मैंने अपने सिर के बालों को पकड़कर खींच लिया, मेरी आँखों से झर-झर आँसु बहने लगे और मैं अपनी आवाज़ भींचकर अपने पेट में घुटने सिकोड़े पड़ी रही | अब मैं वहाँ एक और दिन किसी भी तरह नहीं रुक सकती थी | मेरा मन न जाने क्या क्या बुनने लगा था और मुझे कोई आधार नज़र नहीं आ रहा था | 

सुबह जल्दी ही मैंने संस्थान जाने की तैयारी कर ली | मैंने किसी से कुछ कहने, पूछने की ज़रूरत नहीं समझी | प्रमेश कब जाने वाला था, वह हमेशा अपनी कक्षाओं के समय ही जाता था लेकिन मैं वहाँ जब तक रहने जाने वाली थी जब तक अम्मा-पापा भाई के साथ न चले जाते | उसके बाद भी वहीं तो रहती, वह बात अलग थी कि मैंने किसी से यह बात कही नहीं थी क्योंकि कुछ न कुछ व्यवधान पड़ने की आशंका तो थी ही | मैंअपने मस्तिष्क को शांत रखकर ही कुछ सोच सकती थी | 

मैंने मंगला से कहकर अपनी पैकिंग करवा ली थी | वैसे भी एक ही बैग था मेरा जिसमें से नाम मात्र की दो/चार चीजें ज़रूरत के मुताबिक निकाली गईं थीं | सब ज़ेवर मैंने पहली रात ही पलंग पर उतारे थे जो वहाँ से उठा ही लिए गए होंगे | न मैंने पूछा, न ही किसी और ने!

दोनों भाई-बहन को पता तो था ही कि हमारा क्या प्रोग्राम बना था | इससे अधिक बात करने का मेरा मन नहीं हुआ और शायद उनका मुझसे पूछने का साहस भी नहीं | दरसल, चोर की दाढ़ी में तिनका होता है, वह कहीं इनके मन में ऐसा था कि मुझसे छिपाने की चेष्टा में कहीं न कहीं से झिर्री से झाँक ही जाता और जैसे मुझे त्रिशूल सा चुभने लगता | ऐसा विशालकाय व बड़ा ही था जो लाख कोशिश के दौरान भी चुगली खा ही जाता | चोर भी तो भयंकर वाला था जो किसी की नज़र में आसानी से आने वाला नहीं था क्योंकि उसकी तो पहले से ही कोई प्लानिंग रही होगी लेकिन क्या? यह तलाशना था मुझे और वह भी चुपके से!अगर किसी से पूछती तो सब कुछ अटक जाने वाला था | अब? 

“क्या तुम अबी जाता अमी ? इतनी जल्दी? ” मुझे तैयार होते देखकर उनसे शायद रहा नहीं गया | 

“प्रोमेश का कक्षा तो देरी में होता है न? ”

“नाश्ता तो करके जाओ, मैं कुक से बनवा देती हूँ जो खाना हो---”वह कुछ न कुछ बोलती जा रही थीं जैसे बहुत बहुत असहज थीं | 

“नहीं, अभी कुछ नहीं | मैं घर ही तो जा रही हूँ----”जब वे कुछ न कुछ बोलती रहीं मुझे कहना पड़ा | 

“हाँ, अम्मा बोलीं थीं न, कोई बात नहीं तुमको और प्रोमेश को ही तो सब संभालना है | ”मुझे धूर्तता की दुर्गंध पहले से आ रही थी | अब इसमें संशय रखने का कोई कारण नज़र नहीं आ रहा था | मैं भीतर से काँप भी रही थी और मुझे अपने को संयमित भी रखना था | 

क्या बोलती इस सबमें? हमारे यहाँ से ही तो यह सब उनके दिमागों में भरा गया था | मुझे न जाने क्यों महसूस हो रहा था कि हो न हो इन बहन-भाई के दिमाग में यह सब प्रॉपर्टी का चक्कर कुछ प्लानिंग के साथ चल रहा था | लेकिन कैसे? किस प्रकार? ये क्या सबके जाने के बाद मेरे साथ कुछ ऐसा करने वाले थे जो मैं अकेली न संभाल पाती | मुझे इसके लिए संभलकर रहना था और अपने कान, आँख, दिमाग खोलकर रखने थे | एक ही इस समय मेरा सहारा बन सकता था जिसका दूर-दूर तक कोई पता न था | 

सच ही तो था, बात चाहे प्रेम-संबंधों की संवेदना की हो अथवा किसी भी रिश्ते की ईमानदारी की, उनको चुनना, संभालना बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी होती है | हम किसी भी संबंध के साथ बेईमान रिश्ता रखकर चैन से नहीं बैठ सकते | आखिर उत्पल का स्वाभिमान आहत कैसे न होता? मुझे लगता था कि उसका प्रेम उसे तोड़ रहा था लेकिन क्या मैं नहीं टूट रही थी? बात एक ही थी, दो परिवेशों में मन के अँधेरे कूएँ में एक मकड़ी के लंबे-चौड़े जाल सी पसरती और हम उस मकड़ी के बीहड़ जाल को किसी भी कोशिश से हटाने में समर्थ नहीं हो रहे थे | अपने-अपने बीहड़ों में खुदे हुए शिलालेख की भाँति अधलटके से चमगादड़ की भाँति थे | नहीं, तुम नहीं—मैं उत्पल!जो अपने आपको कभी स्पष्ट ही नहीं कर पाई थी | तुम्हें कोई तो उजाले की लकीर मिली ही होगी, मैं ऐसा सोचती और तुम्हारे लिए प्रार्थना कर रही थी और एक तड़प के तहत तुम्हें देखने को व्याकुल हो रही थी | 

मेरी गाड़ी आ खड़ी हुई, मैं पहले से ही बरामदे में आकर बिराज गई थी, मंगला मेरे पास ही सामान लिए खड़ी थी | दीदी महोदया भी आकर मेरे पास वाली कुर्सी पर बैठ गईं थीं | न जाने बिना रीढ़ वाला रबर का आदमी कहाँ था? संस्थान तो उसे भी जाना ही था | 

“अबी कबी आएगा अमी ? ”जैसे ही मैं खड़ी हुई मैंने अपने शोफ़र को अपना सामान ले जाकर रखने का इशारा किया | उसने आकर दीदी को गुड मॉर्निंग कहा जिसका उन्होंने बड़े प्यार और सहजता से उत्तर भी दिया | 

“ठीक है, अम्मा-बाबा के जाने तक तुमको वहीं रहना ठीक होगा | हम मिलनेको आएगा---”अपने प्रश्न का स्वयं ही

उत्तर देकर शायद उन्हें कुछ तसल्ली हुई या नहीं, नही जानती, जानना भी नहीं चाहती थी | 

“यहाँ आओ मंगला---”मेरे शोफ़र के सामान ले जाने के लिए आने के बाद वह दो कदम दूरी पर एक ओर को जा खड़ी हुई थी | 

मैंने बुलाया तब वह धीमे कदमों से मेरे पास चली आई | 

“लो---”मैंने पहले ही से अपने पर्स में 5 हज़ार रुपए निकालकर रख लिए थे जो उसके लिए थे | दो/दो हज़ार और भी थे जो मैंने कुक, घर के हैल्पर और माली के लिए निकाले थे | 

रुपए देते हुए मैंने उसे समझाया कि पाँच हज़ार उसके हैं, बाकी सबको दे देना | मैं जानती थी कि दीदी के मन में साँप लॉट रहे होंगे लेकिन मुझे कहाँ किसी की परवाह थी अब? इस कठिन परिस्थिति में भी मैंने अपनी ओर से जी-तोड़ कोशिश कर ही ली थी | अब बस---

वह हिचक रही थी। मैंने उसको गले से लगा लिया | एक भीगी बिल्ली की तरह उसने अपनी मालकिन यानि दीदी की ओर देखा;

“बाऊदी है न, ले लो---” उन्होंने अपना बड़प्पन दिखाने की चेष्टा की, शायद मुझ पर इसका कोई प्रभाव पड़ सके लेकिन मुझ पर क्या प्रभाव पड़ने वाला था!!

मैंने मंगला को गले लगाकर कहा कि वह मुझसे मिलने आए | उसकी आँखों से दो बूँद टपककर मेरी साड़ी में समा गए | मेरा सामान रखा जा चुका था, शोफ़र के दरवाज़ा खोलते ही मैं अपनी गाड़ी में समा गई | यह मेरी दोनों ओर की बिदाई थी |