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उजाले की ओर –संस्मरण

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नमस्कार प्रिय मित्रों

कभी ऐसा लगता है न कि अभी सब कुछ इतना अच्छा चल रहा है, चारों ओर खुशियाँ हैं, मन के द्वार पर तोरण है, मन में मधुर आस है, विश्वास है, जीवन को जीने की एक नवीन दृष्टि किसी कोने से आकर छा गई है मन-मयूर नृत्य करने के लिए उत्साहित, उत्फुल्ल है और अचानक कहीं से न जाने कैसी आँधी आ गई कि सब कुछ उलट-पुलट हो गया | सारा उत्साह, प्रफुल्लता एक ओर आंधी के साथ बह जाते है |

हम सभी यह भली प्रकार जानते, समझते हैं कि इस जीवन में इस प्रकार की घटनाएं होना कोई बड़ी बात तो है नहीं | आए दिन हम मनुष्यों के साथ यह सब घटित होता ही रहता है किन्तु सबसे बड़ी बात है उसे स्वीकार करना जो कुछ समय के लिए तो हमें उदास कर ही देती है, मन को तोड़ने लगती है और उठाने लगती है कई ऐसे प्रश्न जिनके उत्तर हमारे पास नहीं होते |

उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ | अपूर्व बड़ा खुश था|उसकी सफलता की खुमारी उसके सिर पर चढ़कर बोल रही थी |कैसा उत्साहित होकर आया था मेरे पास !

"दीदी ! देखो न मेरा रिज़ल्ट ---अब मुझे आगे जाने से कोई नहीं रोक सकता |"

उसे उस यूनिवर्सिटी में प्रवेश मिल गया था जिसके लिए वह कई सालों से जी तोड़कर मेहनत कर रहा था | उसने मेल खोलकर दिखाया और बताया कि उसे जल्दी ही अब यहाँ की भारी फीस का इंतज़ाम करके भरना है, बस !

फ़ीस का इंतज़ाम तो उसकी विधवा माँ न जाने कबसे कर चुकी थीं | उनकी इच्छा भी यही थी कि उनका पितृ-विहीन बेटा अपने जीवन में हर अरमान पूरा कर सके | उन्होंने अपने पति को वचन भी दिया था कि वे अपने एकमात्र पुत्र की सभी आशाओं को खरा उतारने में अपनी जी-जान लगा देंगी | उन्होंने यही किया और और सफ़ल भी हो गईं।

मेरे लिए छोटे भाई सा अपूर्व बहुत मायने रखता था और मैंने तो उसको बचपन में एक शिक्षिका की हैसियत से पढ़ाया भी था | इसलिए मेरे लिए उसको विशेष सम्मान व स्नेह था और मुझे उसके लिए विशेष प्रेम व स्नेहाशीष !

"बहुत ही खुश हूँ मैं --"मैंने उसे गले लगा लिया था और हम दोनों की आँखों में आँसू भर आए थे |

"बस, दीदी ! मेरे यहाँ से जाने के बाद आपकी ज़िम्मेदारी बढ़ जाएगी |" उसने मुझसे कहा तो मैंने उसे लाड़ में आकर झिड़क दिया |

"पागल है क्या ? तू आराम से जाना और चाची कहाँ हमसे दूर है?"दो घर दूर उनका अपना छोटा सा मकान था जो उन्होंने अपने पति के सामने ही बनवा लिया था | वे बहुत पढ़ी-लिखी नहीं थीं लेकिन वास्तविकता में शिक्षित थीं और उन्होंने लोगों के लिए सिलाई करके, स्वेटर बुनकर अपूर्व को अच्छे से अच्छे स्कूल में शिक्षा दी थी | उनके संघर्ष से हम सब परिचित थे और उनका मुहल्ले में सभी बहुत सम्मान करते थे | उनका ज्ञान देखते हुए उनसे अच्छे -खासे लोग अपनी परेशानियों की चर्चा कर लेते और उनकी बताई हुई बातों को स्वीकार करते |

हर व्यक्ति जीवन में सफल होना चाहता है, रोशनी चाहता है, शिखर चाहता है, लेकिन प्रश्न सफलता और रोशनी का नहीं, विवेक का है। विवेक है इसलिए रोशनी है, रोशनी है इसलिए जिजीविषा है। जीवन को सफल बनाने की तमाम परिस्थितियों के बावजूद विवेक न होने पर व्यक्ति रोशनी के बीच भी अंधेरों से घिरा रहता है।

अपूर्व के इस समय में जब वह अपने जीवन के लक्ष्य को पूरा करने के लिए जा ही रहा था, अचानक माँ को बेहोश देखकर उसके पाँवों के नीचे की ज़मीन खिसक गई और वह लड़खड़ा गया। समझ ही नहीं पा रहा था कि क्या व कैसे करे?

स्वाभाविक था कि वह माँ को छोड़कर नहीं जा सकता था। उसने वही किया जो उचित था। अपनी फ़ीस जमा न करके माँ की सही सार संभाल में स्वयं को लगा दिया। विवेकी बना रहा और उस समय टूटने की स्थिति को किसी प्रकार अपने मन पर हावी नहीं होने दिया।

इसका परिणाम स्वाभाविक था कि अब उसे वहाँ प्रवेश नहीं मिलना था जहाँ उसकी इच्छा थी।

संभवतः उसके मन में कुछ संवेदना तो चलती ही रही होगी लेकिन वह तटस्थ बना रहा।

लगभग एक वर्ष वह माँ की सार संभाल करते हुए प्राइवेट कंपनी के लिए काम करता रहा। परिणाम स्वरूप उसके कार्य को देखते हुए उसे बहुत अच्छी आफ़र मिली । उसकी आवश्यकताएँ पूरी होने लगीं।

दो ही वर्षों में उसे उसी स्थान से काम करने के लिए बुला लिया गया। उसके काम करने की प्रतिबद्धता और समर्पण ने उसे उसके अपने स्थान से ही काम करने का अवसर दे दिया और वह माँ के साथ रहकर अपने काम को अंजाम देने लगा।

आज वह खुश है, माँ स्वस्थ वआनंदित हैं और अपूर्व संतुष्टि के साथ अपने कार्य को आगे बढ़ाने के लिए तत्पर है।

यदि वह उस समय विवेक न रख पाता तो परिस्थितियाँ उल्टी भी हो सकती थीं।

 

इंसान आज अभाव, निराशा और हताशा को जीता है। यही निराशा और हताशा हमारे मनोबल को कमजोर कर देती है। हम जो कर भी सकते हैं, वह भी निराशा के कारण नहीं कर पाते। इसीलिए अपनी बुद्धि का सही इस्तेमाल करके विवेकवान बनना आवश्यक है ।

सोचें, विवेक से कितनी समस्याएं हल हो सकती हैं।

 

आप सबकी मित्र

डॉ प्रणव भारती

 

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