Niruttar - Part 5 books and stories free download online pdf in Hindi

निरुत्तर - भाग 5

विशाखा के माता पिता की प्रकाश के घर आकर रहने की ख़बर दो-तीन दिन के अंदर ही वंदना और राकेश के पूरे परिवार तक भी पहुँच गई। यह ख़बर सुनने के बाद कि विशाखा के माता-पिता वृद्धाश्रम में थे और वह वहाँ से उन्हें अपने साथ ले आई है; वंदना का मन मान ही नहीं रहा था, उसे लग रहा था कि अब एक बार उसे विशाखा और प्रकाश से मिलना चाहिए।

उसने राकेश से अपने मन की बात कही तो राकेश ने कहा, “क्या करना है वंदना, अब रहने दो।”

कामिनी ने सुना तो उन्होंने कहा, “वंदना जाने दे बेटा। हमें उनके बीच में नहीं पड़ना बात को बढ़ाने से रिश्ते और बिगड़ेंगे।”

वंदना ने कहा, “माँ रिश्ता बचा ही कहाँ है जो बिगड़ेगा, वो तो उसी दिन ख़त्म हो गया था।”

लेकिन तब ही राकेश की माँ सरिता ने कहा, “वंदना ठीक कह रही है राकेश, उसे जाने दे। कभी-कभी चुप्पी तोड़ देना ही सही निर्णय होता है। इंसान को उसकी गलतियों का एहसास दिलाना भी बहुत ज़रूरी होता है।”

अपनी माँ की बात सुनकर राकेश ने कहा, “तो फिर ठीक है वंदना चलो चलते हैं। जो भी तुम्हारे मन के अंदर खिचड़ी चढ़ी हुई है उसे पूरा पका कर परोस ही दो।”

वंदना राकेश के साथ अपने भाई भाभी के घर पहुँची। दरवाजे पर बेल बजाई तो विशाखा की मम्मा उर्वशी ने दरवाज़ा खोला।

उन्हें देखकर वंदना ने बहुत ही आदर के साथ नमस्ते करते हुए पूछा, “आंटी आप कैसी हैं?”

विशाखा की मम्मा वंदना से नज़रें मिलाकर बात नहीं कर पा रही थीं। इसका कारण थी उनकी अपनी बेटी जिसने अपनी विधवा सास को घर से बाहर निकालने की गलती की थी। वह ख़ुद भी अब उस गलती की भागीदार बन चुकी थीं।

वंदना ने विशाखा के पापा को भी देखते से पूछा, “अंकल कैसे हैं आप?”

विशाखा के माता-पिता बिना कोई जवाब दिए एक दूसरे की तरफ़ देख रहे थे। उन्हें कुछ भी ठीक नहीं लग रहा था।

वंदना अपनी माँ के कमरे में गई। कमरे को देखते ही वंदना को ज़ोर का झटका लगा। जहाँ उसके माँ बाबूजी की तस्वीर लगी थी, वह हट चुकी थी। विशाखा के माता-पिता की तस्वीर ने वह स्थान ले लिया था। पूरा सामान विशाखा ने उसके हिसाब से जमा दिया था। कामिनी का सामान तो शायद उठाकर किसी पुरानी पेटी में भरकर घर के किसी कोने में पड़ा होगा ऐसा लग रहा था।

विशाखा भी वंदना को देखकर घबरा गई थी। वंदना का गुस्सा अब अनियंत्रित हो रहा था।

राकेश ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा, “वंदना चलो यहाँ से इस समय तुम बहुत गुस्से में हो ।”

वंदना का संयम टूट रहा था। उसने राकेश के हाथ से अपना हाथ छुड़ाते हुए विशाखा की मम्मा से कहा, “आंटी जी आपकी बेटी ने मेरी माँ को इस घर से निकाल दिया है और यह तो अब आप भी जानती ही होंगी। विशाखा को सही रास्ता दिखाने के बदले आप लोगों ने तो ख़ुद भी मेरी माँ का कमरा आपका बना लिया। लेकिन इसमें शायद आपकी कोई गलती नहीं है। हो सकता है विशाखा की ही तरह आपको भी आपके बेटे बहू ने घर से निकाल दिया हो। काश आपने अपनी बेटी को समझाया होता। आप भी तो एक माँ हैं ना आंटी, बुज़ुर्ग भी हैं। आप एक दूसरी माँ की तकलीफ़ को क्यों नहीं समझ पाईं? ”

वंदना गुस्से में पसीना - पसीना हो रही थी। यह देखकर राकेश ने कहा, “वंदना संभालो अपने आपको, संयम से काम लो।”

“आज मुझे बोल लेने दो राकेश, मेरी माँ के साथ यहाँ अत्याचार होता रहा। वह सब सहन करती रहीं। वह तो उस दिन अचानक हमारे यहाँ आने से हमें सब मालूम पड़ गया। विशाखा उन्हें कितना भला बुरा कह रही थी। आंटी शायद यह सब आपको पता ही नहीं होगा। हम तो बेटियों की कितनी प्रशंसा करते हैं लेकिन समझ नहीं आता बहू बनकर वह क्यों बदल जाती हैं? और बेटे … शादी के बाद वे माता-पिता का किया धरा सब कैसे भूल जाते हैं? धीरे-धीरे समय बदल रहा है। बेटे बहू दोनों मिलकर माँ-बाप को घर से निकल रहे हैं तथा बेटी और दामाद उन्हें अपने घर में स्थान दे रहे हैं। समझ नहीं आता आंटी जी किसका दोष है; बेटों का जो जोरू के गुलाम बन जाते हैं या बेटियों का जो विवाह होते से बहू बन जाती हैं और सास ससुर बहू की आँखों में चुभने वाले कंकर बन जाते हैं। शायद गलती माँ-बाप की भी होती है, जो विवाह के समय अपनी बेटी को यह समझाना भूल जाते हैं कि तुम्हारा विवाह तो तुम्हारे पति के साथ ही हो रहा है लेकिन उसका पूरा परिवार भी अब तुम्हारी जिम्मेदारी है।”

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः

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