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निरुत्तर - भाग 3

वंदना के मायके में इस तरह का गंभीर माहौल देखकर राकेश को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। इस समय वहाँ पर अपनी उपस्थिति से वह बहुत असहज महसूस कर रहा था।

दर्द से भरे शब्दों में वंदना ने कहा, “भैया अभी तो केवल एक ही वर्ष हुआ है तुम्हारा विवाह को। इस एक वर्ष में तुमने अपनी माँ के 26 वर्ष कैसे भुला दिए? उनके लाड़ दुलार, उनके तुम्हारे पीछे भागते रहने के सारे लम्हे तुम्हारी आँखों से कैसे ओझल हो गए? काश तुमने पहले ही बार में विशाखा का मुँह बंद कर दिया होता तो यह नौबत नहीं आती।”  

कामिनी ने कहा, “छोड़ दे बेटा, रहने दे। जब लोगों को पता चलेगा तो वह क्या कहेंगे। बेटी के जाकर घर जाकर रहना अच्छा नहीं लगता। नहीं-नहीं वंदना यह ग़लत है बेटा।”  

“क्या कह रही हो माँ बेटी का घर? क्या फ़र्क़ है माँ बेटी और बेटे में। आप यह क्यों भूल रही हो माँ कि इस घर में आपका अपमान हो रहा था और वह भी आपके बेटे के सामने।”  

वंदना ने फिर विशाखा की तरफ़ देखते हुए कहा, “विशाखा तुम भी तो एक बेटी ही हो ना? बस फ़र्क़ इतना है कि इनकी नहीं हो। शायद इसीलिए तुम ऐसा कर पा रही हो। अभी तक तुम माँ नहीं बनी हो इसलिए वह दर्द अभी महसूस नहीं कर सकोगी। यदि कर सकती होती तो अपने पति की माँ के साथ ऐसा व्यवहार कभी नहीं करती।”  

वंदना ने अपनी माँ का हाथ पकड़ते हुए कहा, “माँ यह बेटा और बेटी में अंतर करना छोड़ दो और माँ आप लोगों ने ही तो समाज के दायरे बनाए हैं। बेटी के घर माँ नहीं रह सकती वगैरह-वगैरह। यह अजीब से नियम हमारे ही बनाए हुए तो हैं और हम ही चाहें तो उन्हें तोड़ भी सकते हैं।”  

कुछ देर सोचने के बाद कामिनी ने पूछा, “लेकिन वंदना दामाद जी और समधी, समधन जी, वह क्या सोचेंगे भला?”  

“कुछ नहीं सोचेंगे माँ। जैसे अम्मा बाबूजी रहते हैं वैसे ही आप भी रहोगी।”  

अपनी माँ से यह कहते हुए वंदना ने राकेश की तरफ़ देखते हुए उससे पूछा, “राकेश दे पाओगे मेरी माँ को माँ का स्थान?”  

राकेश ने कहा, “वंदना तुम बिल्कुल चिंता मत करो; हमारे घर में माँ को कभी भी अपमान का सामना नहीं करना पड़ेगा। उन्हें भी उतना सम्मान मिलेगा, जितना मेरी माँ को मिलता है।”  

जाते-जाते अपने आँसू पोछते हुए कामिनी ने अपने बेटे प्रकाश से पूछा, “प्रकाश अब तू ही बता दे, यदि कोई मुझसे पूछेगा कि बेटे का घर होते हुए भी आप दामाद के साथ क्यों रह रही हो, तो मैं उसे क्या जवाब दूं? तूने तो कभी विशाखा के सामने तेरी जीभ नहीं खोली कभी उसे ना रोका, ना ही कभी टोका। सब कुछ चुपचाप देखता रहा।

प्रकाश सर नीचे झुका कर सब सुनता रहा।”  

उसके बाद कामिनी ने विशाखा की तरफ़ देखते हुए कहा, “और विशाखा तुम …? क्या बिगाड़ा है मैंने तुम्हारा? बल्कि मैंने तो तुम्हें मेरे जिगर का टुकड़ा सौंप दिया है। मैंने मेरी गोद में पाल-पोसकर उसे बड़ा किया है तुम्हारे लिए। लेकिन तुम … खैर जाने दो। मैंने तुम्हें पलट कर कभी कुछ नहीं कहा। कभी तुम्हें परेशान भी नहीं किया। मैं घर में शांति चाहती थी। घर को तोड़ना नहीं जोड़कर रखना चाहती थी पर मैं हार गई। विशाखा यह समय है, यह पहिया कभी स्थिर नहीं रहता, घूमता ही रहता है। आज जो मेरे साथ तुम कर रही हो देखना कहीं कल तुम्हारे साथ भी वैसा ही ना हो।”  

वंदना ने कहा, चलो “माँ, इन्हें कुछ भी कहने सुनने का कोई फायदा नहीं है। कई बार विशाखा और प्रकाश भैया ने मेरे कार्यक्रम में मेरा भाषण सुना है और तालियाँ भी बजाई हैं लेकिन उस हॉल के बाहर निकलते ही शायद वह सब कुछ भूल जाते थे।”  

प्रकाश शांत खड़ा था क्योंकि उसके पास कहने के लिए कुछ था ही नहीं। 

इसके बाद राकेश, वंदना और कामिनी घर से बाहर निकल गए।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः

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