1. असर उत्सव का
अगस्त महीने की पन्द्रह तारीख थी। पूरे देश में स्वतन्त्रता दिवस का उत्सव लगभग एक सप्ताह से चल रहा था। विद्यालय तथा ग्राम सभा से निकलने वाली रैलियाँ सबको आकर्षित कर रही थीं। हर घर तिरंगा लहरा रहा था। सभी देशप्रेम में सराबोर हो रहे थे।
लगभग बेजुबान हो चुकी निरमा नाम की एक लड़की थी। जो स्वतन्त्रता दिवस के सभी उत्सव दृश्यों को देखकर बहुत खुश हो रही थी। निरमा जन्म से बेजुबान नहीं थी, बल्कि हालातों ने उसे ऐसा कर दिया था।
एक बार उसके पिताजी दशहरे का मेला देखने उसकी माँ और उसके साथ बाइक से शहर जा रहे थे। एक ट्राली की जोरदार टक्कर से वह माँ की गोदी से उछलकर दूर जा गिरी थी तथा उसके माता - पिता सड़क पर गिरे थे, जिन्हें पीछे से आ रही बेकाबू ट्रक रौंदकर चली गयी। लहूलुहान उन दोनों ने वहीं दम तोड़ दिया। इस दुर्घटना का उसके मन पर बहुत बुरा असर हुआ, जिससे उसकी आवाज गायब सी हो गयी। डर के मारे वह तबसे कहीं बाहर निकलना भी पसन्द नहीं करती, लेकिन आज वह खुशी - खुशी तैयार होकर अपनी दादी से स्कूल के लिए चलने का आग्रह करने लगी। उसका आग्रह उसकी दादी टाल न सकी और उसे गाँव के स्कूल में 'स्वतन्त्रता दिवस' का कार्यक्रम दिखाने ले गयी। झण्डारोहण के बाद अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम हुए, जिसमें एक कार्यक्रम था, 'मेरी माटी मेरा देश'। जिसमें सभी बच्चे हाथ में मिट्टी और पौधा लेकर खड़े थे और बोल रहे थे-,
"मेरी माटी मेरा देश।
हमें बनाना इसे विशेष।।"
प्राँगण में उपस्थित सभी लोग इसे दोहराने लगे। अचानक सबके साथ निरमा भी देश - प्रेम के इस नारे को बड़े ही जोश और उमंग के साथ बोलने लगी। यह देखकर उसकी दादी के साथ - साथ अन्य सभी लोग बहुत खुश हुए और कहने लगे-, "अरे! सलोनी की आवाज वापस आ गयी। उसकी दादी का दामन आँसूओं से भीग रहा था। वे भी हाथ में मिट्टी लेकर बोलने लगी-,
"देश की माटी बड़ी महान।
अपना भारत अपनी जान।।"
संस्कार सन्देश :- उत्सव तथा समूह में होने वाले प्रेरणादायी प्रयास इंसान को बड़ी से बड़ी कठिनाई से बाहर निकालने की क्षमता रखते हैं।
2. भरत का विलाप
भरत और शत्रुघ्न दोनों अपने ननिहाल गए हुए थे। अचानक अयोध्या के दूत वहाँ पहुँच गये और भरत को सन्देश दिया कि-, "गुरु वशिष्ठ ने शीघ्र ही आपको अयोध्या बुलाया है।" भरत ने दूत से पूछा कि-, "उनके माता-पिता एवं भाई, अयोध्यावासी सब सकुशल तो हैं न?" परन्तु गुरु के आदेश को मानते हुए दूत ने सत्य छिपा लिया और कहा कि-, "सब कुछ सकुशल है। उन्होंने शत्रुघ्न सहित तत्काल अपने मामा से विदा होने की आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर प्रस्थान किया। सात दिन की यात्रा के पश्चात भरत अयोध्या में प्रवेश कर गये।
कैकेयी भरत के आने का समाचार पाकर पुत्र का स्वागत करने के लिए आयी। उसने प्रसन्नता से भरत का मस्तिष्क चूमकर उसे आशीष दिया।
भरत ने अपनी माँ से पूछा-, "माँ! पिताजी, राम-लक्ष्मण एवं माताएँ आदि सब कहाँ हैं, क्या उन्हें मालूम नहीं चला की भरत आ गया है?"
कैकेयी ने संयत स्वर में भरत को महाराज दशरथ की मृत्यु का समाचार सुनाया।
इस दु:खद समाचार को सुनते ही भरत अपने आप को संभाल नहीं पाये और मूर्छित होकर गिर पड़े।
कैकेयी ने किसी प्रकार भरत को संभाला। कैकेयी ने सब बात भरत को बतायी कि, "महाराज ने मुझे दो वर माँगने का वचन दिया था। महाराज राम का राज अभिषेक करने जा रहे थे, इसीलिए मैंने महाराज से अपने दोनों वर माँगे। महाराज से पहले वचन में तुम्हारे लिए अवध का राज्य माँगा । दूसरे वचन में राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास माँगा। महाराज पहले वचन के लिए मान गए, परन्तु पुत्र- प्रेम के कारण दूसरा वचन सुनते ही उनकी चेतना खो गयी। जब यह बात राम को पता चली तो उसने पिता के वचन को सत्य करने के लिए लक्ष्मण और सीता सहित वन गमन किया। महाराज यह सहन नहीं कर सके और स्वर्ग सिधार गये।"
भरत यह सब सुनकर अत्यन्त विलाप करने लगे।
तभी कौशल्या और सुमित्रा भी भरत के अयोध्या आने की सूचना सुनकर वहाँ आती हैं। वे भरत को गले लगाकर विलाप करने लगीं। माता की ऐसी दशा देखकर भरत स्वयं को धिक्कारने लगा।
भरत माता कैकेयी के प्रति घृणा से उन पर क्रोधित हो उठते हैं। भरत को माताएँ समझती हैं। भरत अपने पिता राजा दशरथ का अन्तिम संस्कार करने के लिए चल देते हैं और पिता का मृत शरीर देखकर भरत विलाप करने लगते हैं।
गुरु वशिष्ठ उन्हें समझाते हैं कि-, "जन्म और मृत्यु जीवन के अंग है। इस संसार में जन्म - मरण और नाश निर्माण साथ - साथ चलते हैं। हे! भरत तुम जैसा महान व्यक्ति को इस प्रकार विलाप करना उचित नहीं है।
अपने पिता का अन्तिम संस्कार करो और अपने पुत्र होने का कर्तव्य निभाओ।"
भरत अपने पिता के मृत्यु शरीर का अन्तिम संस्कार करते हैं।
संस्कार सन्देश :- हमें स्वार्थवश किसी का अधिकार नहीं छीनना चाहिए, अन्यथा महान अनर्थ होता है।