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गुलाबो - भाग 20

भाग 20


पिछले भाग में आपने पढ़ा की जय, रतन की बताता है की अम्मा उसकी दूसरी शादी करवाना चाहती है। पर उसने इनकार कर दिया। जय अम्मा के तानों से रज्जो को बचाने के लिए छुट्टी बाकी खत्म होने के पहले ही चला जाता है। विश्वनाथ जी। घर बनवाने के लिए कुछ दिन और रुक जाते है। अब आगे पढ़े।

जैसे जैसे समय बीत रहा था रज्जो की गोद भरने में देरी हो रही थी। उसकी ईश्वर के प्रति आस्था बढ़ती जा रही थी। सुबह शाम उसकी आराधना का समय बढ़ने लगा। वो हर वक्त करुण स्वर में मां विंध्यवासिनी की यही प्रार्थना करती,"मोही पुकारत देर भाई… जगदंबा विलंब कहां करती हो..?"

रज्जो की पूरी आस्था थी देवी मईया पर। वो देर भले ही करें पर अंधेर कभी नही करेंगी। पर ये देर कितनी होगी इसका कोई अंदाजा नहीं था रज्जो को। जीवन का ये सूनापन कब खिलखिलाहट में बदलेगा कुछ अंदाजा नहीं था। कब घर आंगन में नन्हे नन्हे पांव ठुमुक ठुमुक कर चलेंगे .? कब उसके घर में चिराग जलेगा..? कुछ पता नहीं था। बस एक अटूट विश्वास था। हां मेरा घर आंगन भी जरूर आबाद होगा एक दिन।

इधर गुलाबो का बेटा सात वर्ष का हो गया। वो अब पढ़ने स्कूल भी जाने लगा। साथ छोटी बहन निभा और विभा भी जाती। गुलाबो की चंचलता अब समाप्त हो गई थी। अब उसकी चंचलता और भोलापन की ईर्ष्या और जलन ने ले लिया था।

अब घर पूरा बन गया था। पर जैसे जैसे घर बनता गया वैसे वैसे विश्वनाथ जी की सारी जमा पूंजी खत्म होती है। अब जब घर बनाना शुरू किया था तो उसे पूरा भी करना था। चाहे हाथ में कुछ भी रकम न बचे।

जगत रानी की राय पर जय और विजय की गृहस्ती अलग कर दी थी विश्वनाथ जी ने। आधा घर विजय का और आधा जय का। अब विश्वनाथ जी सेवा निवृत हो गए थे।

जय के हिस्से का घर खाली ही रहता। जगत रानी खुद भी विजय के हिस्से वाले घर में ही रहती। कभी जय और रज्जो आते तो जगत रानी उन्हे अपने घर में रहने को बोलती। वो कहती, "अब तुम सब अपनी अपनी गृहस्ती संभालो। मैने बहुत संभाला। अब मुझसे नही होगा। उनके हिस्से का अनाज जो पैदा होता उनके घर में रखवा देती। जय को तो बाहर ही बुला कर जगत रानी खिला पिला देती। पर रज्जो को कुछ भी ना पूछती।

इधर गुलाबो का परिवार बड़ा हो गया था खर्चे बढ़ गए थे। बाहर से कोई आमदनी नही थी। जय परेशान देखता तो कुछ मदद भाई की कर देता।

ये बात जब गुलाबो को पता चली की विजय जय से पैसे लेता है तो बहुत खफा हुई। वो कहती, "ये सब दीदी के कारण है। अगर दीदी की जगह मैं जाती तो तुम भी आज नौकरी कर रहे होते। तुम्हे किसी की भीख की जरूरत नहीं पड़ती। पर दीदी तो चाहती ही थी की हम उनके सामने झुक कर रहें। देखो जी मैं जो कुछ हमारा है उसी में खुश रहना चाहती हूं।"

विजय गुलाबो को समझाने की कोशिश करता की, "गुलाबो…! तू ऐसा क्यों सोचती है..? आखिर वो मेरे बड़े भाई है। अगर वो कुछ करते है तो हमे अपना छोटा, प्यारा भाई समझ कर। अब इसमें भीख वाली बात कहां से आ गई..?"

गुलाबो गुस्से से झल्लाते हुए सास की ही जबान बोलती, "अब रहने दो हमको ना समझाओ..। तुम्हारे भाई है तो तुम लो उनसे रुपए, पैसे पर मुझे और मेरे बच्चों को इससे दूर ही रक्खो। नही चाहिए हमको किसी बांझ ठांठ का पैसा। मुझे और मेरे बच्चे को इनकी परछाई से भी दूर रखो।"

विजय ने चुप रहने में और आगे से चाहे जैसी भी परिस्थितियां हो, भाई से मदद ना ले कर दूर रहने में हीं भलाई समझी। अब एक अनजानी दीवार दोनो भाईयो के बीच खींच गई। जिसे पार करना उनके वश में नहीं थी।

इधर कुछ दिनों से रज्जो को अपने भीतर कुछ अजीब सा परिवर्तन महसूस हो रहा था। जो आज तक कभी नहीं हुआ था। कभी सर भारी हो जाता। कभी कुछ भी खाया पिया पचता नहीं था। उसे लगता शायद कुछ गलत खा लिया होगा। पर जब उसने पड़ोसन से इस बारे में बात की उसने जो कहा उसपे रज्जो को भरोसा नहीं हुआ।

पर जब उसने पड़ोसन की बात पर रज्जो ने गौर किया। और जब उसे इस बदलाव का कारण समझ में आया तो उसकी खुशी का ठिकाना ना रहा।

आखिर मां अम्बे कब तक उसकी करुण पुकार ना सुनती....? एक दिन तो दया दृष्टि अपनी इस भक्तन पर डालनी ही थी। वो तुरंत ही अम्बे मां के मंदिर नंगे पांव गई प्रसाद चढ़ा कर धन्यवाद अर्पित करने।

शाम को जय फैक्ट्री से घर आया तो रज्जो ने उसे पानी के साथ प्रसाद भी दिया। रज्जो से जय ने प्रश्न किया, "ये कहां का प्रसाद है. ? कौन दे गया..?"

रज्जो अपनी नजरे झुकाए जय से बोली, "वो…वो…. मैं ही गई थी।"

जय बोला, "तुम अकेली क्यों चली गई..? जाना था तो मुझे बताती, मैं ले चलता तुम्हे।"

रज्जो बोली, "पर मैं इंतजार नहीं कर सकती थी। मैने देवी मां से मन्नत किया था की जैसे ही मेरी विनती सुनेंगी… मैं तुरंत नंगे पांव मंदिर आऊंगी।"

जय रज्जो की बातों पर ध्यान ना देते हुए मजाकिया अंदाज में बोला, "अब माता रानी ने तेरी कौन सी इच्छा पूरी कर दी। जो तू मेरे आने तक सब्र नही कर सकी।"

अब रज्जो की निगाहें नीचे झुकी हुई थीं। होठ खामोश थे।

जय जिसके मुंह में मिठाई था और हाथ में पानी का गिलास था। वो अविश्वास से भौचक्का रज्जो को देखने लगा। रज्जो की भाव भंगिमा उसे कुछ अप्राप्य को पाने की ओर इशारा कर रही थीं।

वो अब रज्जो को चिढ़ाते हुए बोला, भला मैं भी तो जानूं तुम्हारी कौन सी मन्नत देवी मां ने पूरी कर दी है…? अब बता भी दो। कह कर जय उसके पास आ गया। नीचे सर झुका कर रज्जो की झुकी हुई आंखों में झांकने लगा।

रज्जो शर्मा गई और बोली, "अब ज्यादा बनो मत..? क्या तुम्हें नही पता की देवी मईया से कौन सी मन्नत मैने मांगी थी….?"

जय अब आश्वस्त हो गया की रज्जो और उसके जीवन में एक नया दौर जिम्मेदारियों का शुरू होने वाला है। और ये जिम्मेदारियां ऐसी होंगी जो उनके तन मन को प्रफुल्लित कर देंगी। जय ने भावा तिरेक रज्जो को गले से लगा लिया। दोनो की आंखों से आंसू बह रहे थे। पर से आंसू दुख और अपमान के नहीं थे बल्कि खुशी और उल्लास के थे।


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