बात उन दिनों की है जब मैं गांव के पास के कस्बे खेड़ली से सीनियर सेकेंडरी (इंटरमीडिएट) परीक्षा पास कर जिला मुख्यालय अलवर शहर के कॉलेज में प्रवेश लिया था। पहली बार इतने बड़े शहर में रहने, तसल्ली से देखने का अवसर मिला था । कॉलेज का छात्र बनते ही हमारे पंख निकल आए थे । खुली हवा के झोंके, कॉलेज आने- जाने, न आने की स्वच्छंदता, यूनिफॉर्म की छूट, खाली पीरियड में कॉलेज के मुख्य दरवाजे पर स्थित चाय की थड़ी, जिसको अनौपचारिक कैंटीन कह सकते थे, उस पर चाय पीना, दूर-दूर तक घरवालों के नियंत्रण का अभाव, शहर की रंगीन तितलियां से खुश्बूदार हुई हवा, आधुनिक दुनियां के नजारे और बाजार में दिखने वाली मदमाती लड़कियों के लिबास, सब कुछ जैसे एक ही झोंके में हमें बहा कर ले जाने की साजिश रच रहा था । पिताजी ने पहली बार नई हीरो कंपनी की साइकिल कसवा कर दी थी, उस पर बैठकर, दो किताब -कॉपी पीछे के करियर पर लगाकर, कमीज के दो बटन खोलकर, जब नई साइकिल दौड़ाते थे, तो वायुयान में सफर करने वाले यात्री हमें छोटे नजर आते थे, जैसे वह उनकी सामूहिक किराए की सवारी थी और हम हमारे स्वयं के हेलीकॉप्टर पर उड़ान भर रहे थे।
लेकिन इन सब के बावजूद,सनातनी परंपराओं से जकड़े ब्राह्मण परिवार में हमारा जन्म लेना और खेतीहर मेहनतकश मां-बाप की शक्ल, हमें बीच-बीच में दिखाई दे जाती थी, जो सर्दी- गर्मी- बरसात की पीड़ा को अनदेखा कर खेतों में काम करते हुए दिखाई दे जाते थे, तीन छोटे भाइयों का भी खेलते- कूदता सा चेहरा, जो गांव के ही स्कूल में पढ़ते थे, दृष्टि-पथ में आ जाता था। महीने का खर्च लेने जब गांव जाता था तो, कई बार घर में पैसे नहीं होने के कारण पिताजी को नरेश मास्टर जी से उधर लाकर देना होता था या मां के द्वारा दूध- घी बेचकर, जिस पर छोटे भाइयों का हक होता था, उसे छीन कर मेरे मद खर्च हेतु एकत्रित करना पड़ता था। ये बातें अनायास ही दिमाग में अनचाहे मेहमान की तरह दस्तक करने लगती थी। मां- पिताजी के छोटे- बड़े अरमान, छोटे भाइयों की छोटी-छोटी आंखों के छोटे-छोटे सपनों का बोझ, उसे समय हमें बहुत भारी लगता था, बड़े अरमान यथा- मैं शीघ्रता से कोई सरकारी नौकर लग जाऊं और परिवार को पलक झपकते ही दरिद्रता के दलदल से बाहर ले आऊं, पटवारी, ग्राम सेवक या कचहरी में बाबू या फिर नरेश मास्टर जी की तरह मास्टर ही बन जाऊं, धोलागढ़ देवी, डंडे वाले हनुमान जी, गोलवाड़ी वाले महादेव जी और कुटी वाले बाबा की विशेष कृपा हो जाए तो हमारे गांव के छोटे से ग्रामीण बैंक का नोट गिनने वाला कैशियर या उसके बगल में बैठा दूसरा फाइल पलटता हुआ उसका मैनेजर ही बन जाऊं, तो सारे सपने पूरे हो जाए, कैसे पूरे दिन नोटों में हाथ रहता है, हजारों- लाखों रोज हाथ से निकलते होंगे इतने नोटों को हाथ में लेकर कितना सुकून मिलता होगा, उनको तो कभी 100 की गाड़ी हाथ लगाए ही वर्षों हो गए होंगे, दो बड़ी बहनों की शादी में जब दो बीघा जमीन बेची थी, तब खरीददार करण सिंह सरपंच साहब ने 100 की गाड़ी हाथों में थमाई थी और कुछ शादी का सामान कस्बे लक्ष्मणगढ़ वाले सेठ जी से दिलवाया था। विवाह की सामग्री खर्च हेतु आवश्यकता होने के बावजूद मां ने गड्डी को बक्से से बाहर नहीं निकाला था, कई दिनों तक तो उसको हाथों में लेकर देखती रही थी, पिताजी से कहती, - " देखो, इनमें गंध कितनी अच्छी आती है।" मुश्किल से एक-एक नोट निकाल कर दिया था । उसके बाद तो ऐसी गड्डी छूकर ही नहीं देखी थी, बस टुकड़ों में ही नोट दिखते थे, जैसे सभी भाइयों की किताबें- फीस वगैरह का इंतजाम करना है तो मास्टर जी से 500 ले लिए, कोई ज्यादा बीमार पड़ गया, यदि ओम बनियां की परचूनी की दुकान से खरीदी गई, हरे पत्ते- लाल पत्ते की गोली से सही नहीं होता, तो पास में कस्बे में दिखाने के लिए सेठ जी से200 ले लिए, गलती से कोई बहन बुआ जी के भात- पेज आ गया तो फिर 1000 -1500 तक सेठ जी या मास्टर जी से उधार लेकर देख लेते थे । फिर जब फसल होती तो मास्टर जी और सेठ जी खलिहान में ही पहुंच जाते थे और या तो फसल स्वयं ही क्रय कर ले जाते थे अथवा पिताजी मंडी जाते तो, साथ चले जाते थे और आड़तिये से नोट सीधे ही पिताजी से हां करवा कर ले लेते थे, पिताजी के हाथ नोटों को छूने के लिए तरसते रह जाते थे, ब्याज की पता नहीं कौन सी दर या गणित लगते थे कि पिताजी के हाथ में कोई नोट नहीं आता था या आता भी तो एक-दो 100 की पत्ती आती, जिससे सभी के साल भर में एक बार जूती- चप्पल भी नहीं आ पाते थे। फिर नए साल का खाता खुलता और फसल होने तक ऐसे ही चलता।
यह सब हमारी सरकारी नौकरी से ही बदल सकता था, जैसे सरकारी नौकरी कॉलेज के मुख्य दरवाजे के बाहर हाथों में वरमाला लिए खड़ी हुई थी और हमारा इंतजार कर रही थी कि कब मैं स्नातक परीक्षा पास करने का प्रमाण पत्र लेकर कॉलेज के दरवाजे से बाहर निकलूंगा और वह गले में वरमाला डालकर मेरा चयन कर लेगी । हमारे गांव का माध्यमिक विद्यालय, जिसे मां- पिताजी बड़ा स्कूल कहते थे, उसके अध्यापक और हमारे गुरु जी नारायण लाल जी ने तो यह कहकर कि " तुम्हारा बेटा बहुत होनहार है, एक दिन तुम्हारा नाम रोशन करेगा।" उनके अरमानों को हवा दे दी थी । जब सरकारी नौकरी लग ही जाएगी तो, कोई प्रतिष्ठित कुलश्रेष्ठ ब्राह्मण अपनी सुंदर- सुयोग कन्या का हाथ हमारे हाथों में थमा जाएगा और मां सोचती कि फिर घर का सारा कामकाज उसके हवाले कर राज करेगी और चैन से सुबह- शाम गोलवाड़ी वाले महादेव जी के मंदिर में पूजा- पाठ करेगी, जहां अब वह केवल भागती हुई सी जल चढ़ाने जाती थी। पिताजी जो 50-55 की उम्र में बहुत बुढे से दिखाई देने लगे थे, पैरों की पिंडलियों में दर्द होने लगा था, बहुत कड़ी मेहनत करते थे खेतों पर, ब्राह्मणपने में तो कोई दान- दक्षिणा मिलती नहीं थी आजकल, इसलिए थोड़ी बहुत जमीन में ही खपे रहते थे, कुछ सेठ जी की जमीन भी बांटे पर ले लेते थे और सोचते थे कि फिर तो मकान के बाहर के बैठक के कक्ष में पूरे दिन हुक्का गुड़गुड़ायेंगे और लोगों में रुतबा दिखाएंगे।
छोटे अरमान, जैसे सर्दियों में सबको पहनने के लिए अच्छी ऊनी गर्म जर्सी होगी, ओढ़ने को सबको गर्म रजाई हैं, मां की आंख का ऑपरेशन, सोने की एक-एक चूड़ी पहनने की बहुत हसरत थी, खेती-बाड़ी के काम से निजात, घर में हैंडपंप लगवाने, अभी गांव के सामूहिक कुएं से रस्सी- बाल्टी से खींच कर पानी लाना पड़ता था, रसोई के कुछ बर्तन खरीदना और एक कुकर भी लेना, जिसके बारे में मां सुन रखा था, कि उसमें दाल- सब्जी बहुत जल्दी बन जाती है और एक जर्सी गाय खरीदना, आदि -आदि । फिर छोटे भाइयों की क्या चिंता? उनको तो मैं संभाल ही लूंगा, उनकी पढ़ाई- लिखाई बगैरह- बगैरह, छोटे भाइयों को भी मेरी तरह नई साइकिल चलाने की बहुत इच्छा होती थी। यह सारे अरमान, उनके सपने हमें हमारे मार्ग में बाधक, प्रवाह में अवरोधक के रूप में उग आए कैक्टस के कांटो वाले पौधे की भांति प्रतीत होते थे, लेकिन कांटे थे कि हमारे तन की त्वचा वाली कमीज में फंसे थे, निकाले नहीं जा सकते थे और फिर उनको याद कर, मैं मेरे दिमाग में आई रंगीन शहर की दुनिया का विचार खदड़ने रहने का प्रयास करता और साजिश करती हुई मदमस्त दुनिया को एक बारगी झटक कर, परे पटक देता और आंखें बंद कर मन में मां सरस्वती की मूर्ति के सामने हाथ जोड़ते हुए कान पड़कर क्षमा याचना करता, किंतु जैसे ही बगल से फिर कोई स्कूटी या विक्की पर सुगंध बिखेरती हुई, दुपट्टा लहराती हुई लड़की निकलती तो हवा के झोंके से हमारे दिमाग में आए सद् विचारों को फिर से उड़ा ले जाती और हम बिना पलक झपकाए, दीदे फाड़ कर उसकी तरफ देखते रह जाते, आखिर हममें भी तो जवानी के अंकुर फूट रहे थे। इस तरह कुछ बहकते, कुछ संभलते, डगमगाते से कदमों के साथ मेरे महाविद्यालय अध्ययन के सफर का श्री गणेश हुआ ।
मैंने जिस मकान में किराए पर कमरा लिया, वह उसकी ऊपरी मंजिल पर था, जमीनी तल पर मकान मालिक का परिवार रहता था और प्रथम तल पर मेरे कक्षा के अलावा दो कक्ष और बने थे, जिनमें से एक मेरे सहपाठी मेरे ही ताऊ जी के लड़के ने ले लिया था और तीसरे कक्ष में एक अन्य कॉलेज में ही पढ़ने वाला लड़का रहता था, जो हमसे 2 वर्ष सीनियर था और हमारे ही महाविद्यालय में बी ए फाइनल का विद्यार्थी था और वह हमारा कॉलेज गाइडर बन गया, यथा हमें समझाता था कि कॉलेज में कैसे रहना चाहिए, सीनियर्स को दुआ सलाम कर बचकर ही रहना चाहिए, लड़कियों के झमेले में ज्यादा नहीं पढ़ना चाहिए, फलां प्रोफेसर का व्यवहार कैसा है, फलां प्रोफेसर को छात्र कैसे चिढ़ाते हैं, फलां मैडम के छात्र कैसे दीवाने हैं, आदि आदि। लेकिन वह सब सीनियर्स का काम है हमें फिलहाल पढ़ाई पर ही ध्यान देना है, कभी-कभी किसी छात्र-छात्रा के प्रेम प्रसंग भी सुनाता, साथ ही यह भी बताता की उस प्रसंग का क्या हस्र हुआ? कैसे एक लड़की को लेकर कॉलेज में दो गुटों में झगड़ा हो गया था और कईयों के सिर फूट गए थे, कैसे एक दिन एक लड़की के भाई बगैरह कॉलेज के मुख्य दरवाजे पर आकर एक विद्यार्थी को पीटने लगे थे, फिर निष्कर्ष निकालकर कहता ,- "खैर अभी तुम्हें ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है, वैसे भी फिलहाल तुम्हारे नसीब में हरियाली नहीं है, बस ट्यूशन वगैराह जाओ तो बचकर रहना।" "नसीब में हरियाली नहीं है मतलब भाई साहब.....?"- मैंने कुछ बेचैन सा होकर पूछा ।
"अरे पागल, हरियाली मतलब तितलियां, मतलब लड़कियां, क्योंकि हमारे आर्ट्स कॉलेज में स्नातक तक इक्का-दुक्का लड़की ही पढ़ने आती है, जिनके विषय लड़कियों के लिए अलग से संचालित जी डी कॉलेज में नहीं पढ़ाये जाते है, जैसे दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान आदि और अंग्रेजी साहित्य भी जी डी कॉलेज में संचालित तो है, लेकिन कम ही छात्राएं होने के कारण वहां ज्यादा अच्छी फैकल्टी नहीं बताते हैं, तो कई छात्राएं हमारे कॉलेज में भी प्रवेश ले लेती हैं, वरना ट्यूशन से ही काम चलाती हैं और एम ए करने के लिए हमारे कॉलेज में छात्राएं आती हैं।"
मेरे मन में थोड़ा सुकून पैदा हुआ क्योंकि मैंने भी अंग्रेजी साहित्य विषय लिया था । हम भाई साहब के द्वारा बताई गई कहानियों और निर्देशों को हमारे गांव के ही एक- आधा पूर्व कॉलेज विद्यार्थी जो गांव में युवाओं के बीच शाम को विद्यालय के मैदान पर शहर के, कॉलेज के किस्से सुनाते थे, उनसे जोड़ने का प्रयास करते,उदाहरणों का मिलान करते और महाविद्यालयी शहरी जीवन के बारे में अपनी अवधारणा विकसित कर रहे थे । उससे सामाजस्य बैठाने की जुगत में लगे थे।
एक दिन मुझे ताऊजी का लड़का जो रिश्ते में बड़ा भाई हुआ, मुझसे साल भर बड़ा होगा, लेकिन ताऊजी का परिवार बहुत वर्षों से, शायद मेरे जन्म के भी बहुत पहले, गांव में दूसरे घर में अलग रहता था और वह सहपाठी था इसलिए उसको नाम से ही पुकारता था 'सत्तू' जो सत्यनारायण का हमने व घरवालों ने संक्षिप्त रूप बना लिया था, के बारे में एक राज की बात पता चल गई। उस दिन जब मैं साइकिल से कोई पुस्तक लेने मनी का बड़ पुस्तक बाजार में जा रहा था तो पास ही स्थित कंपनी गार्डन के कोने पर लगी अंडे की ठेली पर सत्तू प्लेट में कई अंडों के दो-दो टुकड़े रखकर खा रहा था, उस समय यह हमारे गांव की संस्कृति में घोर अपराध था और बदनामी का बहुत बड़ा कारण, यदि गांव में पता चल गया तो क्या पता ताऊजी और उसके बड़े भाई सत्तू की पिटाई कर दें, खर्चा पानी बंद कर दें या कम कर दे और यदि हमने किसी अन्य से कह दिया तो उसकी व घरवालों की इज्जत थू-थू हो जाएगी, ब्राह्मण कुल,हिंदू धर्म और यह कर्म, बहुत हो सकता था कि ताऊजी के परिवार को सत्तू द्वारा गंगा स्नान किए जाने तक बिरादरी से बर्खास्त कर दिया जाता, शर्म की बात थी ।
जैसे ही हम दोनों की नजरे एक- दूसरे से मिली उसके हाथ का टुकड़ा छूट कर प्लेट में गिर गया और गले का गले में फंसा रह गया। प्लेट ठेली पर ही पटक कर मुझे पुकारता हुआ मेरी तरफ ऐसे लपका, मानो मैं उसकी जान छीन कर यमराज के दूतों की तरह भागा जा रहा था। किसी तरह मुझ तक पहुंचकर गिड़गिड़ाने लगा, अनगिनत सफाइयां देने लगा, मानो उसके जघन्य अपराध को सुनने वाले जज की तरह माफी का निर्णय लिखने की कलम मेरे हाथों में हो, "भाई मैं रोज नहीं खाता, डॉक्टर ने कहा था , पुलिस की भर्ती देखता हूं ना, इसमें प्रोटीन होता है डॉक्टर ने सलाह दी थी कि दौड़ करने में ताकत बढ़ानी है तो अंडे खाओ, वरना यह तो मैं भी जानता हूं कि यह हमारे धर्म के अनुसार पाप है, लेकिन नौकरी पाने और भर्ती होने के लिए दवाई की तरह खाना पड़ता है ।"
" ठीक है यार ।"
"देख, किसी से जिक्र मत करना, आखिर तू भी तो मेरा भाई है, हम दोनों की इज्जत पानी -पानी हो जाएगी और घर वाले मारेंगे सो अलग, मेरे साथ तू भी बदनाम हो जाएगा।"
"ठीक है यार, मैं किसी से नहीं कहूंगा।"
लेकिन उसको यकीन नहीं हो रहा था कि मैं सहजता से तुरंत मान गया । ऐसा उसकी दृष्टि में कहां होता था कि किसी को इतनी बड़ी चोरी करते हुए देख ले और बिना कुछ फायदा उठाएं, बस यूं ही माफ कर दे , वह स्वभाव से थोड़ा शातिर किस्म का प्राणी था और ऐसा आदमी आसानी से यकीन कहां करता है । अन्त में ,उसने थोड़ा पक्का करने के लिए हल्की सी धमकी देते हुए कहा, -" देख भाई अपनी दोनों की बात और है, किसी को भी पता नहीं चलना चाहिए, वरना मैं भी यह कह दूंगा कि मैंने भी तुझे अंडे खाते हुए देखा था।" अंत में उसकी जबान थोड़ा लड़खड़ा गई, वह कहते हैं ना, चोर के पांव कितने होते हैं। मैंने उसकी तरफ घूर कर देखा तो मेरे तेवर देखकर बात पलट दी,- " देख मैं यूं ही कह रहा हूं तेरा नाम कैसे लूंगा, लेकिन मुझ पर आंच आई तो तपिश तो तुझे भी लगेगी ना भाई, मेरे साथ ही रहता है ।"
"ठीक है यार मैं कुछ नहीं कहूंगा।" मैंने उसको सांत्वना देते हुए कहा। लेकिन उसके चेहरे से लग रहा था कि उसको मेरी बात पर अभी पूरा भरोसा नहीं हुआ था, आशंका के बादल उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ाये हुए थे। फिर चुपचाप हम मकान पर लौट गए।
आज रात्रि मैंने देखा कि वह मन ही मन उदास था, ना खाना बनाने में मन लग रहा था, ना पढ़ने में, रह -रहकर किसी बात के बहाने मेरे कक्ष में आता था, रोजाना की तरह उल्लास पूर्ण लड़कियों की बातें, या फिल्मों की या क्रिकेट की, आज ज्यादा चर्चा नहीं कर रहा था, आज उसकी बातों में बड़ी शालीनता- विनम्रता समायी हुई थी, वरना तो रोज मेरी बातों को तार्किक अंदाज में काटता था, मुझे लगा यह तो बहुत अच्छा हुआ, उसको नियंत्रण करने की दवा मानो हमारे हाथ लग गई थी, बिगड़ैल घोड़े की लगाम जैसे अनायास ही मेरे हाथों में आ गई थी और वह बड़ा सीधा सरल चलने लगा था। मुझे बचपन की वह घटना याद आ गई जब पंडित जी के बाग से चुरा कर आम तोड़ते हुए उसने और उसके बड़े भाई ने मुझको देख लिया था और फिर कई दिनों तक चोरी पकड़वाने का डर दिखा- दिखा कर मुझसे बगीचे से आमों की चोरी करवाई थी और वह खुद ही सारे आम खा जाते थे, उसको भी संभवतया वह घटना याद आई होगी, तभी तो रात भर उसके कमरे में खट-खट होती रही थी, शायद सही से नींद नहीं आई होगी।
लेकिन अगले दिन जो घटित हुआ था वह उसके स्वाभाविक चरित्र के अनुसार ही था । सायं को उसके दो दोस्त और आए थे, उनकी पूर्व योजना रही होगी । फिर वे तीनों मेरे कमरे में आ गये, उसे समय तीसरा लड़का जो हमारा सीनियर था मौजूद नहीं था, फिर क्या था, उसके दोस्तों ने मुझे पलंग पर ही दबोच लिया और सत्तू ने एक अंडे का टुकड़ा नाक पड़कर मेरे मुंह में भर दिया, मैं उसको निगल नहीं रहा था और सत्तू ने नाक बंद कर रखी थी, तो 'गुटर -गुटर, घूं- घूं' की आवाज के साथ टुकड़ा गले में फंस गया, आंखें लाल होकर बाहर आने लगी, तो बदहवासी में, उन्होंने मुझे छोड़ दिया, छोड़ते ही मुझे उल्टी हो गई, अंडे के कुछ सफेद- सफेद से टुकड़े उल्टी में दिखाई दिये, पता नहीं सारे बाहर भी आए या कुछ अंदर ही रह गए, लेकिन उनके मतानुसार अब मेरा धर्म भ्रष्ट हो गया था तथा मेरा और उसका अंतर मिट गया था। कई बार उल्टी करने, बार-बार कुल्ला करने, मुंह धोने के बाद, कुछ आराम मिला तो मैंने उसको खूब गालियां दी, खूब भला- बुरा कहा, लेकिन आज वह गुस्सा होने की बजाय मुस्कुरा रहा था, चेहरे पर से आशंकाओं के बादल हट गए थे, मानो आकाश काले बादलों की छाया से मुक्त हो गया और स्वच्छंद सा नीला नीला चमक रहा था, संतोष आंखों से टपक पड़ता था, मानो अपराध की सजा लिखने वाले जज की कलम ही टूट गई थी और अपराधी यह सोचकर मुस्कुरा रहा था कि अब जज को मुंह से ही "माफ किया" कहना पड़ेगा ।
फिर बोला,-" भाई मेरे पास कोई और रास्ता नहीं था, रात भर सो नहीं सका था, तेरे कहने का डर मन से निकल ही नहीं रहा था, अब मैं और तुम बराबर हैं।"
" नहीं सत्तू , हम बराबर नहीं है हमने अपना धर्म भ्रष्ट नहीं किया है, ऐसे जबरदस्ती से व्यक्ति अपने आचरण से गिरता है क्या? किसी को जबरदस्ती धक्का देकर नाले में पटक दिया जाए तो वह नाली का कीड़ा थोड़ी ही बन जाता है?" मैंने कुशलता से तर्क दिया और धमकाया - "अब तो मैं तेरी शिकायत जरूर करूंगा ...?"
"कर देना, मैं भी कहूंगा तूने भी खाया है, मां की, गंगा मां की कसम खवा लो ।"
और उस समय मन में मुझे मेरा तर्क कमजोर पड़ता हुआ जान पड़ा । मैंने रात्रि को खाना नहीं खाया, मुंह के अंदर कुछ जाता ही नहीं था, मानो कोई स्थाई बदबू मुंह में बस गई थी जो रह- रहकर नाक के नथुने भर देती थी । फिर से खाली उबाकी आती, हिचकी सी उठती थी । चुपचाप रात्रि को बिस्तर पर पड़े पड़े सत्तू को कोसते रहे, प्रातः रेलगाड़ी से गोवर्धन जो शहर से लगभग 100 किलोमीटर दूर था, जाकर गौरीकुंड में स्नान किया, गोवर्धन की पूजा की, क्षमा याचना की, तब जाकर सांस में सांस आई । खैर यह अंडा प्रकरण हमारे महाविद्यालयी जीवन का एक अध्याय था, जिसको मैंने भी नजरअंदाज करने में अपनी भलाई समझी, पता नहीं क्यों मैं इस प्रकरण को जानबूझकर भूल जाना चाहता था, किंतु रह -रहकर सत्तू की धूर्तता पर गुस्सा आता था, मन ही मन उसको सबक सिखाने के बारे में सोचता था, किंतु कोई योजना नही सूझती थी।
ऐसी उलझन वाले वक्त में हमें एक नई रोशनी के रूप में सामने वाले मकान की बालकनी में आज एक नई खूबसूरत, मन को तरंगित करने वाली, नई भोर की लाली के समान, उजाला सा बिखेरता, चेहरा दिखाई दिया, जिसे देखते ही आंखें टंगी रह गई, सत्तू की कहानी एक पल के लिए दिमाग के किसी अंधेरे से गुमनाम कोने में चली गई, हमउम्र सी दिखने वाली, बलखाती सी कोई बेल जैसे उसे मकान की बालकनी में झूल रही थी । फिर तो रह-रह कर नजरे उसकी तलाश में लग गई। मेरे कक्ष की खिड़की से उस मकान की बालकनी और बालकनी के साथ वाले कक्ष की खिड़की साफ दिखाई देती थी। पता नहीं उसके नूर में कैसी आभा थी, जिसने एक झलक में ही जैसे कोई जादू कर दिया था। अब तक( "लव इन फर्स्ट साइट") "प्रथम दृष्टि में प्रेम" के बारे में फिल्मों में देखा था या किताबों में पढ़ा था, पता नहीं, यह कोई प्रेम था या अनोखा आकर्षण, जब वह बालकनी में आती तो उजाला सा हो जाता था, वहां से अदृश्य होती तो कोई अंधेरा सा छाने लगता था ।
सामने वाले मकान में जो परिवार रहता था, पंजाबी संप्रदाय का था, जो बाजार में कोई कपड़ों का व्यवसाय करता था, कई दिनों की खोजी तहकीकात से हमारे मकान वाली आंटी से बातों ही बातों में उसके बारे में जानकारी जुटाना चाहा तो पता लगा कि वह सामने वाले अंकल की छोटी बेटी है, जो अब तक मामा जी के यहां पढ़ाई कर रही थी, 12वीं उत्तीर्ण कर आई है, और अब यहीं जी डी कॉलेज में स्नातक करने के लिए प्रवेश लिया है, नाम था 'रजनी कौर' जिस घरवाले 'रोजी' के नाम से पुकारते थे और सचमुच वह अपने नाम 'रोज' (गुलाब) की सार्थकता को सिद्ध करती थी, उसके होंठ तो बिल्कुल गुलाब की पंखुड़ियां की भांति थिरकते थे। मेरे साथ सत्तू और उसे सीनियर लड़के की भी बुरी निगाहें उसके चेहरे पर जा टंगी थी और चूंकि दोनों हमसे बड़े थे, इसलिए मन ही मन उसे अकूत संपदा मानते हुए, वे अपना हक उस पर मुझसे ज्यादा समझते थे, जो मुझे बहुत खलता था। किंतु सौभाग्य ने हमारा साथ दिया कि हमारे कक्ष की खिड़की से ही चांद दिखाई देता था, वे ऐसी हसरत छत पर बाहर मुंडेर पर बैठकर ही पूरी कर सकते थे , जबकि हमें तो रात्रि में भी पढ़ते हुए भी यदि उसके कक्ष की खिड़की के परदे नहीं लगे हो तो चांद का दीदार होता रहता था। उन्होंने सायं मुंडेर पर बैठकर बैठक करने का समय थोड़ा ज्यादा ही बढ़ा दिया था, बीच-बीच में उसको देखकर टिप्पणी करते, " क्या पटाखा है.... यार जन्नत की परी लगती है..!" हक्कू भाई साहब बोलते। जी हां, उस सीनियर का नाम हाकिम सिंह था जिसको हम 'हक्कू भाई साहब' कह कर पुकारते थे।
जवाब में सत्तू बोलता, - " रात को नींद नहीं आती, हक्कू भाई साहब, सपनों में उसके बगल में जाकर सो जाता हूं ।"
"छि:, कैसी बात करते हो, शर्म नहीं आती किसी लड़की के बारे में ऐसी बात करते.....?" मैं उनको दूत्कारता और मन ही मन कुढ़ता कि वे मेरी रोजी के बारे में कितनी गंदी बातें करते हैं । तो वे मुस्कुराते हुए मेरा उपहास करते, - " तू नहीं समझेगा, अभी तू बच्चा है।"
लेकिन उनकी बैठक समाप्त करने की एक युक्ति मेरे दिमाग में आ गई थी। सत्तू चाहे जितना भी धूर्त था, वह मुझसे पढ़ने की प्रतियोगिता रखता था और जब प्रत्येक परीक्षा में मुझसे उसके कम अंक आते थे, तो घरवालों की उस दिन भारी- भारी डांट खाता था, इसलिए मन ही मन में वह इस डांट के लिए मुझको जिम्मेदार मानता था और इर्ष्या रखता था । लेकिन हमेशा की तरह वह मुझसे ज्यादा पढ़ने की कोशिश करता था, परीक्षा के समय फिल्मी तरकीबों की भांति मेरा ध्यान भटकाने की कोशिश करता था, जिसको मैं बखूबी समझता था और अधिक दृढ़ निश्चय के साथ पढ़ाई में मन लगाने की कोशिश करता था। इसलिए युक्ति दिमाग में आई कि जब शाम को उनकी बाहर बैठक का समय होता था, मैं मेरे कक्ष में आकर पढ़ने लग जाता था जो सत्तू को बहुत अखरता था और वह भी ज्यादा देर बाहर टिक नहीं पाता था, किताब लेकर बैठता तो अकेले हक्कू भाई साहब क्या बैठक करते और शीघ्र ही उनकी सभा समाप्त हो जाती और मैं मन ही मन अपनी जीत का जश्न मनाते हुए प्रसन्न होता। इस सबसे बेखबर रोजी अनायास ही हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन गई और बेगानी शादी में हम तीनों अब्दुल्ला दीवाने थे। सत्तू और हक्कू भाई साहब मुझसे दो कदम आगे के लड़की विशेषज्ञ थे और उन्होंने उसके बारे में अपनी खोजी बुद्धि और सूंघने की क्षमता का प्रमाण देते हुए, रोजी के बारे में कई बातें पता कर ली थी, यथा वह साइकिल से कॉलेज कब जाती है, किस रास्ते से निकलती है, कौन सी उसकी सहेली कहां से साथ लगती है, उसके पापा की साड़ियों- सलवार- सूटों की दुकान बाजार में किस जगह है, इसका एक बड़ा भाई पापा के साथ दुकान पर काम संभालता है, दूसरा भाई राजर्षि कॉलेज में बी एस सी फाइनल का विद्यार्थी है, बड़ी बेटी की शादी कर दी, यहीं अलवर शहर में ही ससुराल है, रोजी के पास क्या-क्या विषय हैं, आदि- आदि। उनकी एकत्रित जानकारी को देखकर तो रोजी के घरवाले भी शर्मा जाए, उनको भी उसकी इतनी खबर नहीं होती होगी, वे उसके पल-पल का हिसाब रखते थे और इसमें सूंघने की क्षमता का पलोथन और लगा देते थे, यथा अब वह बाथरूम में नहा रही होगी, अब ड्रेसिंग के सामने तैयार हो रही होगी, अब किचन में मम्मी के साथ होगी या डिनर कर रही होगी, आदि- आदि।
उनकी जासूसी की किताब के एक-दो पन्ने मुझे भी पढ़ने को मिल जाते तो अंतरात्मा बहुत खुश होती और उन पन्नों के पहलुओं के साथ में, मैं अपना सामाजस्य बैठाने की जुगत में रहता, यथा मुझे पता लगा कि उसके पास संस्कृत साहित्य, अंग्रेजी साहित्य और राजनीति विज्ञान विषय हैं, मुझे सुकून मिला कि उसके विषय बिल्कुल मेरे विषयों से मिलते थे । उसके कॉलेज में अंग्रेजी साहित्य कम ही पढ़ाया जाता था, फिर भी कोई छात्रा लेना चाहे तो ले सकती थी और वह ज्यादातर ट्यूशन से ही काम चलती थी।
इस तरह कई महीने गुजर गए और रोजी को पाने या उससे संपर्क स्थापित करने की प्रतियोगिता में, मैं दोनों से पिछड़ रहा था। जैसे सत्तू और हक्कू भाई साहब कई बार साइकिल से पीछा करते हुए उसके कॉलेज के मुख्य दरवाजे तक हो आते थे, एक दिन तो सत्तू की लॉटरी लग गई । उसके कॉलेज छोड़ने के समय सत्तू पहले से ही साइकिल पर सवार होकर तैनात था और खोजी निगाहें से उसके आने का इंतजार कर रहा था। जैसे ही अपनी एक सहेली के साथ वह निकली तो पीछे-पीछे हो लिया। आज वे घूमने कंपनी गार्डन में घुसी तो सत्तू के शातिर दिमाग में खुशी की तरंगे फूटने लगी और कई योजनाएं चलायमान होने लगी । वह भी उनके पीछे घुस गया और फिर जानबूझकर दूसरी ओर से मुड़ते हुए उनके सामने आ गया तथा एकदम से बोला, - "अरे ! आप तो सुभाष नगर में रहती हो ना ..!"
"हां, क्यों. .?"
"मुझे नहीं पहचाना, मैं आपके सामने वाले मकान में ही रहता हूं, आर्ट्स कॉलेज में पढ़ता हूं।"
"अच्छा ..?" उसने अनजानापन जाहिर किया।
" हां जी, हमारा नाम सत्यनारायण है ।"
"ठीक है .." रोजी ने बात करने में अरुचि व्यक्त की ।
किंतु सत्तू इतनी आसानी से पीछा कहां छोड़ने वाला था, फिर पूछा, - " आप कहां पढ़ते हो? किस कक्षा में हो ? "
"जी डी कॉलेज, बी ए फर्स्ट ईयर.." कहते हुए उन्होंने तेजी से कदम बढ़ा दिए और सत्तू आज इतनी ही बातें करके धन्य हो गया। और उसने इस प्रसंग का सायं की छत की बैठक में जिस रोचकता, अलंकारिकता और शब्द शक्तियों का प्रयोग करते हुए वर्णन किया , उसका उत्साह देखते ही बनता था। इस प्रतियोगिता में, अपने को पिछड़ता देख हक्कू भाई साहब तो और एक कदम आगे निकल गए । सूंघते हुए बाजार में उनकी दुकान पर पहुंच गए और मम्मी के लिए दो साड़ियां खरीद ली, जिनमें से एक घरवाली आंटी को दिखाकर वापस करने की बात कह आए कि वह उनके सामने वाले घर में ही रहता है और वह घर ही दे देगा और फिर झूठ- माठ ही आंटी को दिखाकर उनके दुकान से वापस आने से पहले ही रोजी के घर पहुंच गया और सूंघने की क्षमता से यह पता लगा लिया था कि रोजी घर पर ही है। रोजी की मम्मी से बोला, - " आंटी में सामने वाले मकान में ही रहता हूं.."।
" हां जानती हूं . ..?"
"मैं आज मम्मी के लिए आपकी दुकान से दो साड़ी लेकर आया था, जिन में से एक मकान वाली आंटी को दिखाकर वापस करनी थी, एक मैंने रख ली है, दुकान पर कह कर आया था ।"
"ठीक है सामने टेबल पर रख दो।"
रोजी लॉबी में ही टेबल पर किताब से कुछ नोट्स लिख रही थी, असली लक्ष्य तक पहुंचने का आईडिया दिमाग में कोंधा,-" क्या पढ़ाई कर रही हो ? किस कॉलेज में पढ़ते हो ?"
"बी ए फर्स्ट ईयर, जीडी कॉलेज।"
" क्या विषय है..?"
" राजनीति विज्ञान, संस्कृत अंग्रेजी साहित्य ।"
"अरे! संस्कृत और राजनीति विज्ञान तो मेरे पास भी हैं, मैं फाइनल में हूं आर्ट्स कॉलेज में, कोई परेशानी हो तो बता देना, मेरे पास संस्कृत ट्यूशन के नोट्स भी मिल जाएंगे शायद .."
"जी मैं ट्यूशन ही लूंगी ।" रोजी ज्यादा रुचि नहीं ले रही थी, ऊपर से उसकी मम्मी ने हक्कू को थोड़ी तल्खी से घूरा तो वापस कदम खींच लिए।
"अच्छा आंटी नमस्ते, अंकल को बता देना कि हाकिम सिंह सामने वाला लड़का, एक साड़ी वापस देकर गया है ।" इस बहाने अपने नाम का भी ज्ञान कर दिया ।
"ठीक है ।" आंटी ने संक्षिप्त उत्तर देकर उसके वेग को अवरुद्ध कर दिया।
इस तरह हम तीनों रोजी से संबंध बनाने की अनजानी सी प्रतियोगिता को फतह करने की कोशिश में लगे थे, जिसमें मैं सबसे कमजोर खिलाड़ी प्रतीत होता था, उनको भी और मुझको भी । किंतु जितनी स्वाभाविक शिद्दत से, दिल की गहराइयों के साथ मैं रोजी को चाहता था, उनकी चाहत में उतनी ही कामुकता भरी हुई थी, वे उसके लिए , 'सेक्सी बम' 'पटाखा' 'रसीला गुलाब जामुन' 'तीखी लाल मिर्च' जैसे उपनामों से संबोधित करते थे तो, मुझे उन पर बहुत खीज होती थी, कई बार रोका- टोकी भी करता था, किंतु उन पर जैसे मेरा कोई प्रभाव नहीं पड़ता था और नौसिखिया या बालक कहकर मेरा उपहास करते हुए मेरी अपेक्षा कर देते थे।
किंतु भाग्य का सितारा शायद मेरा ही चमक रहा था। मैंने पिछले कई दिनों से अंग्रेजी साहित्य हेतु ट्यूशन लेना शुरू कर दिया था। एक नामचीन, मेरे ही कॉलेज के प्रोफेसर से, तो आज देखा कि रोजी भी मेरे ही बैच में पढ़ने आई थी ।मेरी आंखों में अनायास ही मानो चमक बढ़ गई ।अब मैं जानबूझकर साइकिल पर रोजी से आगे- आगे चलने लगा था ।मुझे अपनी योग्यता और अच्छायी दिखाने का, भगवान ने अवसर प्रदान कर दिया था। लेकिन उससे बात करने की हिम्मत नहीं होती थी, बल्कि मेरे दिमाग में एक नया विचार कौंधा, मैं प्रोफेसर साहब की कक्षा की अच्छी तैयारी करने लगा, अन्य विषयों का समय भी अंग्रेजी साहित्य पर ही खर्च करने लगा, वैसे भी हम जैसे गांव के विद्यार्थियों के लिए अंग्रेजी साहित्य कठिन विषय लगता था। परिणामत: कुछ ही दिनों में बैच में मेरी पहचान बनने लगी । रोज आता-जाता देख रोजी भी अच्छी तरह जान गई थी कि मैं उसके सामने वाले मकान में ही रहता था। मुझे बड़ा सुकून मिलता था जब प्रोफेसर साहब मुझे नाम से पुकारते हुए यदा- कदा तारीफ कर देते थे। यह तारीफ सुनने, लोगों के द्वारा अच्छा कहने का भी अपना ही नशा है, जो आपको चस्का लग गया तो फिर और अधिक उत्साह से बढ़ते रहने का ही मन करता है और कभी-कभी तो उसे नशे में आदमी अपने स्वाभाविक रूप को ही भूल जाता है ।मुझे तो जैसे रोशनी की किरण दिखाई दे गई थी जिसने मेरा रोजी तक पहुंचने का मानो मार्ग ही प्रशस्त कर दिया था । इसका एक सुखद परिणाम यह निकला कि एक दिन रोजी ने, जैसे ही हमने ट्यूशन की कक्षा छोड़ी, मुझे नाम से पुकारते हुए हम दोनों के बीच वार्तालाप का व्यवधान भी दूर कर दिया, - " अमित, आप हमारे सामने वाले मकान में ही रहते हो ना.."
" जी हां "
"सुनो, मेरी शुरू की तीन-चार दिन की कक्षाएं छूट गई थी, यदि तुम्हें कोई परेशानी ना हो तो, तुम्हारा रजिस्टर दे दो, कल रविवार है, मैं कॉपी कर लूंगी और तुम्हें घर पर ही लौटा दूंगी..?"
" मेरी तो मानो मन की मुराद ही पूरी हो गई ।"
"क्यों नहीं, यह ले लो और कुछ समझ नहीं आए तो हमें बालकनी से इशारा कर देना, बिल्कुल सामने जो खिड़की है, वह मेरे ही कक्ष की है ।"
"जी ठीक है ।"
फिर क्या था आज तो जैसे हमारे पंख ही लग गए और परिंदे बन आकाश में उड़ान भरने लगे, मन में जैसे कोई युद्ध जीते विजेता का भाव था, खाना बनाते वक्त मैं कोई गीत गुनगुना रहा था, मुझे इतना खुश देखकर सत्तू और हक्कू भाई साहब बड़ी ही शंकालु दृष्टि से देख रहे थे कि इसको क्या हो गया है,- " क्या हुआ अमित, बड़े खुश लग रहे हो ?" हक्कू भाई साहब बोले ।
"कुछ नहीं, बस आज ट्यूशन की कक्षा में प्रोफेसर साहब ने हमारी थोड़ी तारीफ कर दी ।"
"अच्छा, रोजी भी कोई ट्यूशन वगैराह जाती है शायद ।"
"हां भाई साहब, वह इसी प्रोफेसर से ट्यूशन लेती है और मेरे ही बैच में है और तुम सुनाओ, कल तुम कोई लड़की का किस्सा सुना रहे थे ना..?" मैंने बात बदल दी और उनको दूसरी ओर ले गया।
आज की रात मुझे बड़ी सुहानी लग रही थी। हल्की सर्दी होने के बावजूद मैंने खिड़की खोल रखी थी, क्या पता रोजी खिड़की की तरफ देखें तो मैं टेबल पर पढ़ता हुआ दिखाई दूं, किताब -कॉपी टेबल पर, पेन हाथ में लिए बड़े ही पढ़ाकू अंदाज में, मैं कुर्सी पर जमा था, लेकिन उस रात किताब का एक पन्ना भी समझ नहीं आया, पता नहीं मैं पढ़ कर पन्ने पलट रहा था, या यूं ही पन्ने पलटे जा रहा था, दिमाग बस कल्पनाओं के नीड बनाता हुआ बहुत दूर निकल गया था, हां, बीच-बीच में रोजी की बालकनी की तरफ निगाहें जरूर पहरा देती थी , इसकी बालकनी की लाइट भी बुझ गई थी , फिर भी मुझे लगता था कि वह अपने कमरे की खिड़की के परदे के पीछे से कभी-कभी मुझको देख रही होगी, देर रात तक यूं ही खुली आंखों के स्वप्न में कुर्सी पर बैठा अपने भविष्य में गोते लगा रहा था, नींद भी जैसे कोसों दूर चली गई थी, कभी यूं ही पलके बंद कर लेता था, कभी खोलकर अंधेरे को चीरता, लेकिन खुली और बंद आंखों में चित्र एक जैसे ही दिखाई दे रहे थे । इस तरह कब मेरी आंख लगी और कब उषा की किरणों ने मेरे कमरे में प्रवेश किया बोध ही नहीं हुआ। सुबह सत्तू ने दरवाजा खटखटाया तो आंखें खुली,- " अमित कॉलेज नहीं है तो जागेगा नहीं क्या?"
" हां यार ,आज देर से सोया था। "
मैं अपनी दिनचर्या के काम से निवृत्त होकर, वहीं कमरे में खिड़की खोलकर टेबल पर जम गया, मानो कब खिड़की से इशारा कर कर रोजी मुझे बुलाएगी, दिन का तीसरा पहर आ गया, मुझे लग रहा था कि आज दिन बहुत बड़ा हो गया था, इंतजार की घड़ियां भी ना बहुत लंबी हो जाती हैं, फिर मुश्किल से दिमाग को झटक कर कि यूं ही बेवजह इंतजार कर रहा था, उसको कोई परेशानी होगी तो ही तो बुलाएगी, उसको भी संकोच होगा, मम्मी की शंका का डर भी हो सकता है। उन दिनों लड़की- लड़का की दोस्ती भी तो आम बात नहीं थी, गांव में तो किसी लड़की को हाथ से छूं भी लिया तो, बड़ा हंगामा हो सकता था, लेकिन तभी मेरा सितारा फिर चमका, रोजी बालकनी में आई और मेरी खिड़की की तरफ देखने लगी, मैंने तो जैसे गर्दन कुछ देखने के बहाने खिड़की के बाहर ही निकाल दी थी, तभी उसने हाथ से आने का इशारा किया और मैं अपनी साफ- सुथरी पसंदीदा पोशाक पहनकर उसके मकान पर जा धमका । मेरी आहट से ही उसने दरवाजा खोल दिया और बलात ही दिमाग में ख्याल आ गया मानो वह अर्धांगिनी बन इंतजार में घड़ियां बिताती हुई आने की आहट सुनने को बेताब थी। शायद अपनी मम्मी को मेरी तारीफ करते हुए उसने पहले ही विश्वास में ले लिया था । उसके कक्ष में काफी देर तक बैठकर हम बातें करते रहे, जिसमें पढ़ाई की, कॉलेज की, बातें ही ज्यादा थी उसको कुछ नोट्स भी समझाएं। आंटी हमको चाय बना कर भी ले आई ।बड़ा सुकून मिल रहा था।
फिर मैं अपना रजिस्टर लेकर लोटा तो दिन ढल चुका था, सत्तू और हक्कू भाई साहब की खोजी नजरों ने मुझे पहले ही ताड़ लिया था । मैं छत पर पहुंचा तो उनके चेहरों पर गजब की मायूसी थी। "देख अमित, तुम पढ़ाई पर ही अपना फोकस करो, यह लड़की- वड़की के चक्कर में मत पड़ जाना, तुम पढ़ने वाले विद्यार्थी हो, ऐसे यूं ही जिंदगी खराब हो जाती है ।"हक्कू भाई साहब बोले तो उनके अंदाज में समझाना कम जलन सी ज्यादा महसूस हो रही थी ।
"कुछ नहीं भाई साहब, उसने मेरे नोट्स लिए थे, उसकी कई कक्षाएं छूट गई थी, बस रजिस्टर लेने ही गया था।"
"तो इतनी देर से क्या रजिस्टर ही ले रहा था ?" सत्तू बोला ।
"अरे नहीं, कुछ समझ नहीं आ रहा था तो समझाने लग गया।" आंटी चाय बनाकर भी ले आई। उनके कटे पर जैसे नमक का छिड़काव हो गया, जैसे दौड़ में मानो मैं बहुत आगे निकल गया था और अपने को तीसमारखां मानने वाले बहुत पीछे रह गए थे। आज उनकी बातों में लड़कियों की चर्चा का जोश नहीं था। रोजी के बारे में तो बिल्कुल भी नहीं, जैसे उनकी हार तय हो चुकी थी। हक्कू भाई साहब ने एक दो दुखांत प्रेम प्रसंग भी सुना दिए थे, जिसमें मुझे कोई रुचि नहीं हो रही थी। धीरे-धीरे मैं जैसे इश्क की नांव में बैठ गया था और नीले समुद्र में आराम से लहरों के संग अपनी नाव खेता हुआ जा रहा था, अब मैं और रोजी लगभग साथ-साथ ही साइकिल से ट्यूशन जाते थे, धीरे-धीरे आंटी भी मुझे अच्छा लड़का समझने लगी, कई बार मैं रोजी के घर चला जाता था और यदा- कदा वह भी आ जाती थी। अन्य विषयों में भी कई बार वह मेरी मदद लेती थी और शायद अपनी मम्मी से मेरी तारीफ भी करती होगी, तभी तो उसको भी मेरा रोजी के साथ आने-जाने में कोई आपत्ति नहीं रही होगी , मेरा मन कई बार चलायमान होता कि रोजी से प्यार की दो बात करूं, कह दूं कि मुझे वह बहुत अच्छी लगती है, शायद इश्क हो गया है, किंतु हिम्मत ही नहीं हुई , यह सोचकर भी डर जाता था कि वह मुझे भी अन्य लड़कों की तरह लफंगा समझी तो, कल्पना करके ही कंपकंपी लग जाती थी, अच्छा बनने का नशा जो चढ़ गया था और इश्क जुबान पर ही नहीं आया । लोग कहते हैं कि इश्क करने से पढ़ाई से मन उचट जाता है, जिंदगी खराब हो जाती है, लेकिन शुरू में मन कल्पनाओं की उड़ान भरने के बावजूद एक बात मेरे दिमाग में हमेशा रहती थी कि यदि परीक्षा में मेरे अच्छे अंक आएंगे तो रोजी प्रभावित होगी और मां- पिताजी व छोटे भाइयों की आशा भरी शक्ल और उम्मीदों के महल हमें खड़े दिखाई दे जाते थे। इसलिए मैं उसका इस तरह साथ पाकर ही बहुत खुश था ।मेरा इश्क बेजुबा ही रहा।
धीरे-धीरे दिन गुजरते जा रहे थे हम नांव में बैठे बेफिक्री से तैरते जा रहे थे, मौजों के संग, लहरों से बात करते हुए, कभी नील असीम सागर में, कभी सुहाने आसमान में, लगा जीवन में बस आनंद ही आनंद है, जबकि नाव में बैठा हमसफर शायद हमारे मंसूबों से अनजान था, सचमुच वह दुनिया कितनी खयाली, कितनी हसीन, कितनी खुशनुमा थी, आज भी उन पलों को याद कर मुस्कुरा जाता हूं और पहुंच जाता हूं कुछ पल के लिए उसी दुनिया में ।
सत्रांत परीक्षाएं हुई और मैं बहुत अच्छे अंकों के साथ उत्तीर्ण हुआ। मेरे कॉलेज में मेरे विषय वाले छात्रों में शायद मेरे सबसे ज्यादा अंक थे ।परीक्षा परिणाम का दिन सत्तू के लिए फिर एक बार दुखद साबित हुआ । इसलिए नहीं की वह अच्छे अंकों से उत्तीर्ण नहीं हुआ था बल्कि इसलिए कि उसके मुझसे काफी कम अंक थे। उसके घर वालों ने मेरी तुलना कर उसको खूब डांटा और मुझसे चिढ़ने, ईर्ष्या करने की उसको एक वजह और दे दी थी, एक वजह तो पहले ही रोजी बन चुकी थी, जिसको पाने की दौड़ में अब हक्कू भाई साहब और सत्तू पहले ही मुझसे हार मान चुके थे और हारे हुए पहलवान की भांति मन में कोई टीस सी लिए मैदान छोड़ने जा रहे थे । इधर मेरे हौसले उन मैदान छोड़ते हुए पहलवानों को देखकर विजयी भाव से बुलंद हो रहे थे। मेरा परीक्षा परिणाम ने मेरे घर वालों के साथ शायद रोजी और उसकी मम्मी को भी प्रभावित किया था। उसकी मम्मी ने मुझको रोजी के साथ घंटा- दो घंटा पढ़ने की इजाजत दे दी थी, बल्कि रोजी की समझाइश के अनुसार उन्होंने खुद ही मुझे साथ पढ़ने को कहा था। मेरी तो जैसे लॉटरी लग गई थी। हसीन रंगों के साथ हसीन दुनिया की चाह में अच्छे अंक लाने का भी अपना ही मजा है। उस समय सारा आसमान मेरी मुट्ठी में सिमटा हुआ प्रतीत होता था , कई बार ख्वाबों की दुनिया में बहुत आगे निकल जाता था तो, रोजी से शादी करने के लिए मन ही मन मां -पिताजी से विद्रोह करने के लिए तैयार होकर अपने तरकश में तर्कों के तीर भरने लगता था, फिर मुश्किल से चैतन्य अवस्था में आने पर ऐसे विचारों को बुद्धि और जिम्मेदारी की झाड़ू से दिमाग से साफ करता था।
इन इस सबसे त्रस्त होकर शायद सत्तू ने मकान बदलने की बात कहकर हमारी रंगीन दुनिया उजाड़ने की योजना बना ली थी। लेकिन उसको मेरी हालत का सही अंदाजा कहां था आज तो कोई माना हुआ सिद्ध पुरुष भी हमारे लिए उस मकान को अशुभ बताता तो मैं उसकी नहीं मानता। भगवान भी आकर उस मकान में रहने के लिए मना करता तो एकबारगी शायद उसको भी दरकिनार कर देता, फिर सत्तू क्या चीज था और वह अकेला भी उस मकान को छोड़कर जाने के लिए तैयार न था । प्रतिद्वंदी चाहे जितना ही पीछे रह जाए खेल को अंतिम अंजाम तक देखना और प्रयास करने की चाहत उसकी बनी रहती है। इस तरह स्नातक परीक्षा के शेष दो वर्ष पलक झपकते ही वायुयान की गति से किस तरह निकल गए, पता ही नहीं चला। मेरी और रोजी की अच्छी सी दोस्ती हो गई थी जिसको मैं अपने अंतर मन में दोस्ती से कहीं बहुत ज्यादा मान रहा था । कई बार मुझे रोजी के घर चाय- नाश्ता करने का सौभाग्य मिल चुका था, उसकी मम्मी की आंखों में भी शायद मैं एक अच्छा विद्यार्थी बन गया था, उन दिनों मोबाइल का प्रचलन नहीं था, इसलिए यदा- कदा रोजी हमारे मकान मालिक के लैंड-लाइन फोन पर बात करती थी, तो कई बार मकान वाली आंटी मुझे शंका की दृष्टि से देखती थी, इसलिए बहुत संक्षिप्त ही बात होती थी, कोई ट्यूशन या पढ़ाई संबंधी सूचना संप्रेषण जैसी। हमारा उल्लासित मन, तरंगित हृदय बड़ा ही आनंदमय होकर अपने भविष्य के अरमानों की दुनिया का महल एक-एक ईंट जोड़कर बनाता जा रहा था।
सत्तू और हक्क भाई साहब अब मैदान से ही अपने आप को बिल्कुल आउट मान चुके थे और अब उनकी प्रतियोगिता में प्रतिद्वंदी रहने की कोई हरकत दिखाई नहीं देती थी। अब वह रोजी से मेरा संबंध जोड़कर मुझसे ही मजाक करते रहते थे , - "और छोटे मियां, कहां तक पहुंची तुम्हारी प्रेम कहानी..?" हक्कू भैया कई बार पूछते।
" क्या भैया, आप भी यूं ही, हमारी सिर्फ दोस्ती है मैं मुस्कुराकर जवाब देता ।" तो वह भी हंस जाता ।
सत्तू कहता,- " हां, तेरी प्रेम कहानी में, मैं भी एक पात्र हूं, ध्यान रखना कुछ किया है कि नहीं, अब तक ?"
"क्या सत्तू भाई, अभी हम सिर्फ दोस्त हैं।"
" अरे दोस्ती को थोड़ा और परवान चढ़ाओ, कहीं ऐसा ना हो कि तुम दोस्त- दोस्त करते रहो और चिड़िया किसी दूसरी डाल पर जाकर बैठ जाए ।" हक्कू भाई साहब अपना अनुभवी ज्ञान उड़ेल देते और मेरे मन में एक अनजानी सी घबराहट पैदा कर देते।
हमारी स्नातक की अंतिम परीक्षा का परिणाम आ चुका था जिसे मैं बहुत अच्छे अंकों के साथ उत्तीर्ण हुआ था, सत्तू और रोजी भी। हक्कू भाई साहब स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण हो गया था और उन्होंने किसी बी एड कॉलेज में दाखिला ले लिया था । सत्तू ने राजनीति विज्ञान विषय की स्नातकोत्तर कक्षा में प्रवेश ले लिया था। मैं अंग्रेजी या संस्कृत विषय की दुविधा में था, मुझे दोनों ही अच्छे लगते थे, लेकिन संस्कृत ज्यादा रोचक लगता था अंग्रेजी साहित्य के साथ रोजगार की ज्यादा गारंटी थी पूर्व विद्यार्थी बताते थे ऐसे बराबर झूलती तराजू में रोजी ने संस्कृत वाले पड़ले का वजन बढ़ा दिया। उसने भी हमारे कॉलेज में ही संस्कृत विषय में एम ए हेतु प्रवेश का निर्णय लिया था और आवेदन जमा कर दिया था तो मैंने भी संस्कृत विषय में ही एम ए करने का निर्णय ले लिया था।
अब तो मैं और रोजी जैसे हमजोली बन गए थे । पूरा दिन साथ-साथ कक्षा, पुस्तकालय, कॉलेज के घास परिसर में भी साथ-साथ चहकते देखे जा सकते थे, अब तो जिस दिन रोजी कॉलेज नहीं जाती, मेरा भी वहां मन नहीं लगता था और मैं बीच में ही कक्षाएं छोड़कर आ जाता था, कक्षा के अन्य साथियों को भी लगता था कि मेरे और रोजी के बीच कुछ चल रहा था । कक्षा में अन्य भी 10- 12 लड़कियां होंगी, रोजी की भी एक- दो दोस्त बन गई थी, जिनके साथ वह अक्सर कॉलेज भवन के सामने वाले घास मैदान में लंच बॉक्स खोलकर खाना खाती थी। मेरा भी एक नया दोस्त बन गया था, सुनील। हम लंच बॉक्स नहीं ले जाते थे, कौन तैयार करता ,जो भी बन पड़ता कमरे पर ही खाकर आते थे और लंच समय या खाली पीरियड में कैंटीन पर चाय पीते थे। आज सुनील नहीं आया था और मैं लंच समय पर लोन में ही बैठा किसी पुस्तक के पन्ने यूं ही पलट रहा था कि मुझे अकेला देख रोजी अपना लंच बॉक्स लेकर आ गई, - "लो अमित, थोड़ा लंच कर लो ।"
"अरे नहीं, तुम करो ना, मैं सुबह कर आता हूं ।"
"ले भी लो थोड़ा, सुबह का कब का पच गया होगा ।"और उसने अपना टिफिन खोल दिया, मैं पता नहीं किसी सपने की दुनिया में चला गया, मानो मेरी पत्नी मुझे खाने का आग्रह कर रही थी, यह सोचकर ही दिल कितना गदगद हो गया था, रोजी ने उंगली से छूकर खाना शुरू करने को कहा तो जैसे नींद से जगा।
" शुरू करो ना या किसी देवता को याद कर रहे हो।"
" हां " कह कर जब मैं लंच बॉक्स की तरफ ध्यान आकर्षित किया तो देखा की एक खाने में चार छोटे-छोटे पराठे. एक में थोड़ा आम का अचार और एक में कोई तरीदार अंडे की सब्जी थी, जिसको एक बार की देखते ही जी उथल-पुथल सा होने लगा। मैंने पूछा, - " यह क्या है ?"
"अंडा करी, क्यों तुम नहीं खाते, यह कोई नॉनवेज नहीं है, फार्मी अंडे होते हैं ।"
" अच्छा..?"
" हां जी, इसमें कोई चूजे नहीं बनते, तुम अचार से खा लो, वैसे एक बार टेस्ट करके तो देखो।"
" नहीं ऐसे तो हमने एक- आध बार खाया है, कभी-कभी खा लेते हैं, मैंने यूं ही कह दिया ।"और मैं छूकर अंडा करी से ग्रास खाने लगा, कभी अचार, तो कभी एक छोटा सा अंडे का टुकड़ा भी खा कर देखा, शुरू में थोड़ी बेचैनी सी लगी, लेकिन दो-तीन ग्रास खाने के बाद मैंने अपने को संभाल लिया था। वास्तव में अंडा करी का स्वाद इतना बुरा भी नहीं था, बिल्कुल सामान्य सब्जी की तरह, फिर पंजाबी मिर्च मसाला, मुझे ठीक लगने लगा, आज मेरे दिल में धर्म भ्रष्ट होने की बिल्कुल चिंता नहीं थी, बल्कि मन ही मन कल्पना की दुनिया साकार होती सी लग रही थी । दिल रोजी के द्वारा खाना खिलाने को उसकी चाहत का प्रमाण मानने लगा था, कालिदास जी ने कहा है ना, - "अहो ! कामी स्वतां पश्यति।" कामी का मन अपनी स्वेच्छा अनुसार तथ्यों को मानने लगता है, अंडा करी बहुत स्वादिष्ट व्यंजन लग रही थी, अंडे से परहेज करना पुराने विचार की रूढ़ी की जकड़न सा लगने लगा था, उस दिन रोजी के साथ खाया लंच जीवन का सबसे स्वादिष्ट भोजन प्रतीत हुआ ।
आज शाम को घर पर मैंने सत्तू से कहा, - " सत्तू ,तुमने कभी अंडा करी खाई है,?"
सत्तू ने मेरी ओर ऐसे देखा मानो वह संसार का आठवां आश्चर्य देख रहा हो , उसकी आंखें फटी रह गई, मुंह खुला रह गया, खुले मुंह से अनायास ही एक-एक शब्द निकला, - " क्या...क्या...?"
" ऐसे क्यों देख रहे हो, सीधा सा सवाल है, बड़ी स्वादिष्ट डिश होती है , आज रोजी ने खिलाई थी।"
" हूं..... तभी तो......?"
"अरे नहीं मैं सोच रहा था कि तेरी इच्छा हो तो हम घर पर ही बनाने की कोशिश करते हैं किसी और को पता भी नहीं चलेगा ।"
"क्यों नहीं ।" आज सत्तू की तो जैसे लॉटरी निकल गई थी। फिर उसे शाम हमने मकान वाली आंटी से छुपकर अंडा करी बनाई ।शुरू में थोड़ी खाई फिर यह सिलसिला शुरू हो गया और हम सप्ताह में कई बार अंडा करी - आमलेट बनाने लगे। मैं भी कॉलेज लंच बॉक्स ले जाने लगा और सत्तू भी यदा-कदा ले जाता था। फिर कई बार मैं, सत्तू, रोजी और उसकी एक- दो सहेली साथ लंच करने लगे और मैं मेरे हाथों से बनी अंडा करी या आमलेट रोजी को खिलाकर स्वर्गिक आनंद महसूस करने लगा। मैं हमारे ब्राह्मण कुल के सभी आचरण की दीवारों को रोजी की गंध से सुवासित एक मंदिम हवा के झोंके से ध्वस्त कर चुका था। हमारी दोस्ती कॉलेज में जानी पहचानी सी हो चली थी। इसके दुष्परिणामों की मुझे फिक्र नहीं थी । रोजी का नशा सर चढ़कर बोल रहा था और रोजी शायद उन परिणाम से बेखबर थी। उसके मन में शायद प्रेम की वैसी कल्पना नहीं थी जो मुझसे मेल खाती थी और मैं था कि प्यार की वैतरणी में बैठा उसको काल्पनिक हमसफर बना कर अकेले ही चप्पू चलाते हुए नांव खेते जा रहा था, सचमुच वे पल तन को कितना रोमांचित कर देते थे, सारी दुनिया की फिजा बदली- बदली सी लगती थी ,कॉलेज के परिसर में बैठे अचानक सा लगने लगता जैसे पेड़ों पर बैठे पक्षी कोई मधुर सा गीत गा रहे हैं, जैसे बहती हुई हवा में कोई नशा सा हो, जैसे स्वच्छ आकाश में मन कहीं उड़ा जा रहा हो, रोजी के साथ सारे जीवन का सफर ख्वाबों में कई बार हमने जी लिया था, उसकी एक-एक अदा मुझे बहुत लुभाती थी, एक-एक ड्रेस याद हो गई थी उसकी, कि किस सूट पर दुपट्टा कैसा है, उसके साथ जूते- चप्पल कैसे पहनती है, जैकेट कैसी पहनती है, आदि- आदि। लेकिन जैसा आज बोध हो रहा है, रोजी शायद इस सबसे वाकिफ नहीं थी।
अगले दिन मैंने मेरे कक्ष की खिड़की से देखा की रोजी के घर कई सारे मेहमान आए हुए थे, बहुत चहल-पहल सी थी उस दिन, रविवार था, शाम को वे सब मेहमान लौट गए थे, मेरा मन बड़ा जिज्ञासु हो रहा था, फिर सोचा कोई रिश्तेदार आए होंगे, कल कॉलेज में रोजी से बात कर लेंगे। सोमवार को रोजी जब कॉलेज में मिला तो लगा जैसे आज वह बहुत खुश थी। जैसे किसी नवयोवना के चेहरे की लाली अचानक ही कुछ बढ़ गई थी। हाय हेलो के बाद कक्षा में भी अध्यापन के दौरान वह कई बार मेरी ओर मुस्कुराई थी । मेरे दिल में कुछ गुदगुदी, कुछ उथल-पुथल सी बढ़ती जाती थी। मैं भी तो आज उससे दिल की बात कहने वाला था ।
जैसे ही लंच में हम बाहर निकले तो उसकी खुशी जैसे फूट पड़ी थी, - " अच्छा, आज मैं तुमको एक सरप्राइज दूंगी ।"
"अच्छा...!" परिसर में बैठकर लंच बॉक्स का डिब्बा खोलते हुए बोली, - " लो मुंह मीठा करो पहले, "।
डिब्बे में से एक मोतीचूर का लड्डू उठाते हुए मैं बोला, - " बता भी दो, बड़ी खुश लग रही हो,...!"
"हां जी, बात यह ऐसी है, कल मेरा रिश्ता तय हो गया है, लड़का बहुत ही स्मार्ट है और गवर्नमेंट कॉलेज में लेक्चर है कोटा में ।"
"क्या .......?" उसने सचमुच ही मुझे बहुत आश्चर्यचकित कर दिया था और मैं भावविह्वल सा पखेरु, जिसके एकदम से किसी ने सारे पंख काट दिए थे, मेरा आधा लड्डू हाथ में और आधा गले में फंसा रह गया और घुटी-घुटी सी आवाज निकली, मेरी तो जैसे सांस ही अटक गई थी, कोई शब्द बोलने को नहीं सूझ रहा था, मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं मेरे शहीद हुए प्यार का मातम मनाऊं या उसकी खुशी में शरीक होने का झूठा दिखावा करूं, आज मोतीचूर का मीठा लड्डू मुझे बहुत कड़वा लग रहा था, संवेदनाएं आंखों के जरिए बाहर निकलने को बेताब होने लगी थी, मुश्किल से जबान संभालने की नाकाम सी कोशिश करने लगा, कुछ हकलाने वाले से अंदाज में बोला, - " क्या......... अचानक से....... इतनी जल्दी .... .....तुमने लड़का देखा है......... ?"
" हां रे! बुद्धू, पिछले दिनों एक शादी में गए थे, वहीं लड़के व उसके घरवालों से मुलाकात हुई थी, लड़का स्वभाव और सूरत दोनों से मुझे पसंद था, पिछले वर्ष से ही हमारी फोन पर बात होती रही थी, मैं उसको अच्छी तरह जानने लग गई हूं।"
"जी ... बधाई हो... पहले कभी जिक्र नहीं किया...?" मेरा गला अवरूद्ध सा होने लगा था ।
बगल में बैठा सत्तू मेरी ओर देख रहा था और मुस्कुरा रहा था। उसके चेहरे पर जैसे बड़ा सुकून झलक रहा था, बोला,- " बधाई हो जी, सचमुच दिल से "
उस दिन को शायद ही जिंदगी में मैं कभी भूला पाऊंगा, वह मातम की रात मेरी खुली आंखों में से बड़ी कठिन गुजरी, जीवन का एक बहुत बड़ा पाठ सिखा गई, मेरा इश्क बेजुबा ही रह गया। कुछ दिनों बाद आज हम रोजी की शादी में शरीक थे। एक मैरिज गार्डन में दावत चल रही थी, शानदार इंतजामात किए गए थे, नॉनवेज खाने वालों के लिए अलग एक तरफ व्यवस्था थी, मन बहुत बेचैन हो रहा था, कि सत्तू प्लेट में खाना डालकर ले आया वह बहुत खुश था, खाते हुए बोला,- " अमित, यार जबरदस्त खाना है, खा कर देख क्या मस्त अंडा करी बनी है।"। अनिच्छा से मैंने एक निवाला अंडाकारी के साथ लगाकर निगला, बिल्कुल अच्छा नहीं लगा, आज फिर उबाकी सी होने लगी थी, उल्टी करने को जी मचल रहा था।