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तुलसी तेरे आंगन की

तुलसी तेरे आंगन की


शादी के लाल सुर्ख जोड़े़े में लिपटी , कुछ गहनों से लदी, मेमना सी पलंग पर बैठी तुलसी सुहागरात के दिन आने वाले समय की कल्पना कर कभी सिहर जाती थी , कभी डर जाती थी , कभी सारे शरीर पर रोए खड़े हो जाते थे , उसे एहसास होता मानो तन पर एकदम से कुछ ज्यादा ही बाल उग आए हैं, कभी भयभीत हिरनी की तरह दरवाजे को आंख फाड़़कर देखती, कभी खिड़की की तरफ , मानो उसका कक्ष भयानक जंगल की तरह हो और खतरा किधर से भी आ सकता था, यह भांपने के लिए चौककन्नी थी । उम्र ही क्या थी उसकी , अभी 13 की पूरी होकर चौदहवी में लगी थी , ‌‌अभी 3- 4 महिने पहले जब पहली बार मासिक धर्म शुरू हुआ तो बहुत घबरा गई थी ।आठवीं कक्षा में विद्यालय में पढ़ती थी, बड़ी मुश्किल सेे गिरती -पढ़ती- हड़बड़ाती सहपाठी कमली के साथ घर पहुंची थी , तो अम्मा ने संभाला था। विद्यालय में कक्षा के विद्यार्थियों ने ऐसा मजाक बनाया की फिर कई हफ्ताह तक विद्यालय नहीं गई । बड़ी मुश्किल से अम्मा ने समझाया था कि यह सब स्त्रियों में होता है और जवानी शुरू होने का संकेत है। ऊपर से पिछले साल सातवीं में साथ पढ़ने वाली सरला की शादी हुई तो ससुराल से आने के बाद सुहागरात के बारे में उसने जिस तरह पीड़ा का बयान किया सोच -सोच कर कलेजा हलक में आ रहा था , लेकिन वह जानती थी की अब हिरणी फंस चुकी है और उसको शिकारी का सामना करना पड़ेगा। इस तरह थोड़ी सतर्क ,थोड़ी भयभीत,थोड़ीआकुल होकर अपने आप को तैयार कर रही थी।

बापू ने उससे 10 -12 साल बड़े गिरीश से विवाह करवा दिया था, थोड़ा उम्र में बड़ा था तो क्या, अच्छे घर का था ।उसके पिता लक्ष्मी नारायण द्विवेदी जी 50 बीघा जमीन के जागीरदार कहलाते थे , दो भाइयों के बीच इतनी जमीन कम न थी । बापू ने सोचा बैठी राज करेगी लड़का थोड़ा बिगड़ैल है तो क्या, शादी के बाद सब सुधर जाएगा , ऊपर से गिरीश के पिता द्विवेदी जी कोई देन - दहेज की भी मांग नहीं कर रहे थे, शायद बिरादरी में लड़का थोड़ा बदनाम हो गया था, थोड़ा खाता -पीता था, एक -आधा और गलत आदतें होंगी, यही वजह थी कि खाता पीता घर होने के बावजूद 25 वर्ष का हो गया था और कोई खानदानी परिवार रिश्ता करने को तैयार न था । बापू ने सोचा ब्राह्मणों में इतनी उम्र का अंतर तो सामान्य सी बात है । परिवार तो उसका भी खानदानी ही था बस अब थोड़े दिन बदल गए थे। पहले की तरह जजमानी नहीं रही थी । जमीन पर तो बापू ने कभी ध्यान ही नहीं दिया था , इसलिए नाम मात्र की 2- 4 बीघा ही थी। ऊपर से तीन बहनों और दो भाइयों का भरा- पूरा परिवार, ऐसी तंगहाली में इतना बढ़िया परिवार मिलना बापू के लिए सौभाग्य की बात थी। कस्बे में इतना बड़ा ठिकाना मिल गया था।

उनके गांव भगवानपुरा से यह ससुराल वाला कस्बा मात्र 10 12 मील की दूरी पर था गढ़मुक्तेश्वर , जिसमें ब्राह्मण आबादी बहु संख्या में रहती थी जैसा कि नाम से ही आभास होता है हाड़ोती की गंगा चंद्रभागा नदी के किनारे बसा यह कस्बा मृत्यु के बाद पिंड दान , अस्थि विसर्जन आदि कर्मकांड की स्थली के रूप में विख्यात था । नदी पर बने दूर तक घाटों पर यहां वहां सारे देवी -देवता विराजते थे। किसी का छोटा घर, किसी का थोड़ा बड़ा , किसी का और बड़ा, दिव्य समाज में अपने स्तर के अनुरूप, लेकिन देवताओं के इस गांव में मानो दो मुखियाओ का ठिकाना था एक छोर पर बड़ा भव्य "राधेश्याम जी का मंदिर" और दूसरे छोर पर "मुक्तेश्वर महादेव जी का मंदिर " जिसको लोग मुक्तिधाम के नाम से भी जानते थे । शाम के समय जब दिया- बत्ती ,आरती होती , लाइटें जगमग करती, झालर -घंटे बजने लगते , प्रार्थनाओं की स्वर लहरियां आकाश में गुंजायमान होती हुई जैसे देवी-देवताओं के कानों तक पहुंच जाती थी और भक्तों की कर्णप्रिय हार्दिक पुकार सुनकर मानो मंदिरों की मूर्तियों में सजीव रूप से आकर श्रद्धालुओं को दर्शन देते थे और उनके दुखहरण करते थे । घाट पर बैठे हुए हैं उस समय नदी की ओर देखना , जिसमें सैकड़ों दीप टिमटिमाते हुए दिखाई देते थे , रंग -बिरंगी रोशनियो की झिलमिल लहरों के संग ऊपर नीचे होती हुई आकाशीय बिजली सी होने का भ्रम पैदा करती थी । सचमुच उस समय वह स्थान स्वर्गिक लगता था , जहां सिर्फ सुख था , सकून था ,शांति थी, मंदिरों की संख्या के अनुपात में ही संत महात्माओं की भी कमी न थी । इसलिए इस कस्बे को हाडोती की पावन नगरी कहा जाता था ।

रात चढ़ चली थी ।तुलसी उकड़ू हुए पति के इंतजार में स्थितियों से लड़ने के बारे में सोचती हुई पलंग पर ही बैठी थी। उसे रह रह कर अपने खेत -खलियान , अपना गांव ,गांव की गलियां , गलियों में अपना घर, घर का आंगन, आंगन में लगा तुलसी का पौधा, जिसे उसने ही पाल -पोषकर कर बड़ा किया था, आंगन में ही एक छोटा सा मिट्टी का थामला बनाकर लगाया था , अपना छोटा सा कमरा , कमरे में बिछे पलंग पर बहनों के साथ सोना , सब बहुत याद आ रहा था, बहुत याद आ रही थी अम्मा और बापू की भी, जो अपने सामर्थ के अनुसार बेटियों का भी पूरा ध्यान रखते थे। विदा के समय कैसे बच्चे की तरह रोने लग गए थे बापू और अम्मा का तो और भी बुरा हाल था , भाई- बहन तो एक दूसरे के गले लिपटकर ही फूट-फूटकर रो रहे थे , भाई- बहनों में तीसरा नंबर था उसका , एक बड़ी बहन और थी जिसकी शादी कर दी थी और एक बड़ा भाई था जो अभी 12वीं कक्षा में पढ़ता था, एक भाई एक बहन और छोटे थे , सभी उस समय कैसे हिचकियां ले लेकर रो रहे थे और उसका , उसका तो अब तक बुरा हाल था , रो-रो कर आंखें बाहर निकल आई थी , डोली में बिठाते समय मां का गला पकड़ लिया था बापू की बांह पकड़ ली थी " बापू मैं नहीं जाऊंगी , बापू मैं तेरे आंगन की तुलसी हूं, अम्मा मैं नहीं जाऊंगी, मैं तेरी अटारी की चिरैया हूं, अम्मा मुझे मत भेजो अम्मा, बापू मुझे मत भेजो बापू " कहकर रुदन किए जा रही थी। गांव की संस्कृति में सचमुच आज भी वह पल बहुत भावुक होते हैं , सब याद आ रहा था उसको , सास -ससुर , ननंद -जेठानी के बहुत कहने के बावजूद, दो निवाले मुश्किल से निकले निंगले गए थे और इस तरह याद करते- करते कब आधी रात हो गई, तुलसी को भान ही नहीं हुआ। आंखों में न नींद थी , न सुहाने सपने, बस बीते हुए समय की परछाइयां थी और आने वाले समय की वह भयमिश्रित व्याकुलता , तभी दीवार पर टंगी घड़ी की सुई ने हरकत सी की तो देखा घंटों और मिनटों वाली सुईयां जैसे एक हो गई थी, जान गई की 12:00 बज चुके थे , पति देवता का आगमन बाकी था , शायद दोस्तों के साथ आज शादी की खुशी में महफिल जमाल थी और फिर महफिल जमने के बाद रात्रि के पहरों का पता कहां रहता है, तभी दरवाजे पर दस्तक हुई तुलसी एकदम सिहर उठी , जैसे अब शिकारी झपट्टा मारेगा और वह कैसे सामना करेगी ।



पर यह क्या, दरवाजा खुला तो जैसे खुला ही रह गया लड़खड़ाता सा गिरीश धम से पलंग पर गिर गया और बड़बडाने लगा " रानी आज हमारी सुहागरात है..... खुशी में साले दोस्तों ने....... थोड़ी सी पिला दी...... आज हमारी सुहागरात है ना...... तुलसी.... रानी... आओ ना..... सुहागरात है..... तुलसी... मेरी रानी! " । फिर बस पलक झपकते ही नींद के आगोश में आ गया या बेहोशी ने अपने दामन में समेट लिया और सपनों में सुहागरात मना रहा होगा।


तुलसी ने थोड़ी राहत की सांस ली , लेकिन व्याकुलता समाप्त नहीं हुई थी , भय दिमाग से नहीं निकला था , कैसे निकलता , जब तक उससे सामना ना हो , फिर भी थोड़ी सी राहत के लिए आज वक्त मिल गया था । खड़ी हुई दरवाजे की कुंडी बंद की, फिर जैसे लिबास मे थी वैसे ही लेट गई , अपरिपक्व शरीर में भी दिमाग परिपक्व होने चला था । आने वाली जिंदगी के चित्र अपने दिमाग में खींचने लगी थी , जैसे बिना अनुभव वाला अनाड़ी चित्रकार कच्चे-पक्के धुंधले से चित्र बनाता है ,जो कभी अपने चित्र को ऐसा रूप दे देता है कि वह चित्र किसी और किसी का ही दिखने लगता है, बेतरतीब , अटपटा सा । ऐसे ही मस्तिष्क पटल पर एक फिल्म सी खींचती चली जा रही थी कब आंखें लगी पता नहीं , सुबह ननंद ने दरवाजा खटखटाया तो जागी। गिरीश अभी भी जैसे पड़ा था वैसे ही पड़ा हुआ था।


फिर दिन रीति-रिवाजों के कार्यक्रमों में बीत गया , लेकिन जैसे ही रात की चादर दुनिया को अपने आगोश में लेने लगी , तुलसी के दिमाग में वही भयमिश्रित बेचैनी के बादल मडराने लगे , भय ऐसे पीछा कहां छोड़ता है , जब तक आप उसका सामना नहीं करते, दिमाग में उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त करता रहता है, विकराल रूप ले लेता है , इस बात को समझती थी तुलसी , कि कल नहीं तो आज , आज नहीं तो कल , उससे रूबरू होना ही पड़ेगा ।मन को मजबूत कर लिया था और तन को अंदर ही अंदर से खींच कर कठोर , उसको याद आई वह बिल्ली वाली घटना, जब दोनों तीनों भाई -बहनों ने घर में दूध पीने और फैलाने वाली बिल्ली को एक कमरे में घोंट लिया था और छड़ी लेकर उसको मारने लगे थे तो बिल्ली कैसे गुर्राई थी और उनका मुकाबला करने के लिए तैयार हो गई थी यद्यपि वह जानती थी कि वे तनो मिलकर बिल्ली की शारीरिक क्षमता से अधिक कहीं बहुत अधिक थे लेकिन बड़े भैया को "खुरर खुरर" कर मुंह से आवाज निकालते हुए जब उसने चेहरे पर खरोचा था तो उन सब के होश पाख्ता हो गए थे और बिल्ली को चुपचाप कमरे से बाहर निकाल देने में ही उन्होंने अपनी भलाई समझी थी , लेकिन वह बिल्ली के जीवन में सिर्फ एक दिन होने वाली घटना थी , यहां बिल्ली को रोज कमरे में घुटना था इसलिए तन मन को मजबूत करके समर्पण करने में ही उसे भलाई नजर आई और अपने पति देवता को तो सब कुछ अर्पित करना हमारे पारिवारिक धार्मिक संस्कारों में रचा बसा है।


आज रात्रि उसके समर्पण की थी गिरीश कुछ नशे में था लेकिन कल की तरह बेहोश न था । कसकर तुलसी को जैसे ही बाहों में लिया कपकपी सी लगी , माथे पर पसीने की बूंदे छम छम करने लगी , सांसों का उफान हृदय से संभाले नहीं संभल रहा था और वह हांफ कर जोर-जोर से ऊपर नीचे हो रहा था , आखिरी पड़ाव पर तन की पीड़ा आंखों के जरिए चुपचाप बह कर निकल रही थी , रोम रोम चीत्कार कर उठा था लेकिन मानो उस समय सूनापन इतना ज्यादा था कि किसी ने उसकी चीख को नहीं सुना या वह चीख किसी दूसरे किस्म की थी जो बाहर वालों को सुनाई नहीं देती थी, किसी आकाश भेदी तीर की तरह सीधे गगन को भेद कर ऊपर के किसी लोक में पहुंच रही थी या घुट- घट कर कमरे की चार दीवारों से टकराकर कमरे में ही दम तोड़ रही थी।


प्रातः लड़खड़ाती सी खड़ी हुई , वस्त्र संभाले तो लगा जैसे शरीर पूरी तरह से टूट गया है , साथ नहीं दे रहा है लेकिन अब भय का रूप कल्पना में नहीं था , मन किसी अनजाने से आतंक से विचलित नहीं था , नदी का तूफान झेल चुकी धरा पर शांति का आलम था , तूफानी बाढ़ के अवशेष , इधर-उधर प्रवाह से उछाटे गए रेत -कंकड़ -पत्थरों की तरह रह गए थे ।नदी का मार्ग बन गया था और उसके प्रवाह ने जमीन पर लकीर पकड़ ली थी, अब उसे बाढ़ का स्वरूप लेने की आवश्यकता नहीं थी।



दिन गुजरते गए , तुलसी ऐसी रातों की अभ्यस्त हो गई ,पीड़ा भी जैसे उसको कोई अपनी सगी लगने लगी , शादी के कुछ दिनों बाद बापू मायके के लिए लिवाने आ गए थे। जब मायके पहुंची तो अम्मा -बहनों से लिपट -लिपट कर खूब रोई ।अम्मा ने गृहस्थी का ज्ञान धीरे-धीरे दिमाग में भरने की कोशिश की । तुलसी अपनी नियति जान गई थी कि अब उसके हरियाली खेतों में खेलने , तितलियां पकड़ने, भैंस की पूंछ पकड़ कर जोहड़ में डुबकी लगाने , पेड़ों पर बंदरों की तरह चढ़कर उछलने , "किलाय डंडा " खेल खेलने, सरसों के फूलों और बेरी के फूलों से लदकद पेड़ों से भंवरा पकड़ कर ,धागे में बांधकर घुमाने के दिन बीत गए हैं, नून -तेल -लकड़ी का नया जमाना शुरू हो गया था लेकिन मन था कि अभी वही खतों में ,नदी की वादी में कोयल की तरह कूकना चाहता था , सहेलियों के साथ चूड़ियों -कंचो -कोढियो से खेलना चाहता था , आम की बगिया से कच्ची अमिया चुराकर नमक के साथ खाना चाहता था , आंगन में लगे निमोड़ी के पेड़ में झूला डाल कर झूलना चाहता था , दादी से वही परियों की कहानी सुनना चाहता था लेकिन अब यह कहां संभव था । तुलसी सोचती थी की परियों की दुनिया कुछ अलग होती होगी, वास्तविक जगत से बिल्कुल अलग , उसकी दुनिया का यथार्थ बिल्कुल अलग था।


ससुराल वापस आई तो यथार्थ के धरातल पर कुछ और कठिनाइयों का सामना करना पड़ा रह रह कर दादी की परियों वाली कथा याद आती थी ,जो उसकी कथा से कितनी भिन्न थी , कितनी सुहानी ,सपनों की दुनिया। आज रात्रि पलंग पर पड़ी , कमरे की छत को दीदे फाड़ -फाड़ कर देख रही थी ,कोई सुराग किसी कोने में दिख जाए जिसमें से वह परियों जैसी दुनिया में झांक सके ,कुछ पल के लिए ,किंतु नहीं , कोई ऐसा कोना न था । सोच रही थी सबकी जिंदगी ऐसी ही होती है क्या जो परियों की कहानी से बिल्कुल विपरीत है।


परियों की कहानी में सफेद अश्व पर स्वर्ण आभूषण पहने कोई सुंदर सा राजकुमार परी को लेने आता था । यहां गिरीश आया था , कटार लिए बूढ़े से घोड़े पर बैठकर जो हमेशा आधे नशे में रहता था , राजकुमार परी को बाहों में लिए पवन हंस पर असीम गगन की सैर कराता था , गिरीश किसी तीतर- बटेर- कबूतर की भांति उसकी गर्दन पकड़ कर दबोच लेता था , फिर मदहोश किसी वहशी शिकारी की तरह उसे हलाल करता था, परियों की दुनिया में अप्सराएं मधुर संगीत सुना कर तन-मन में उमंग भर्ती थी , यहां सास- जेठानी ताने देकर लहूलुहान करती थी , परी राजकुमार संग विभिन्न नायाब फूलों से सुगंधित वाटिका में विचरण करती थी , वह चूल्हे में फू- फू करके जली कटी रोटियां सेकती थी, जिसे सासू जी ससुर और बेटों को दिखाती हुई ताना मारती थी कि "बड़ी रियासत की राजकुमारी घर में आई है ,इसका चूल्हा- चौके से क्या वास्ता ? इसके यहां तो सैकड़ों दासियां काम करती हैं ,अम्मा ने खाना बनाना भी तो अभी अच्छे से नहीं सिखाया था , फिर सोचती सचमुच में परियों की कोई दुनिया रहती ही नहीं होगी , यह सब कहानी किस्सों में ही होता है । वास्तविक गृहस्थी की समझ बढ़ने लगी थी , सामाजिक दुनिया के नए तौर-तरीके सिखाने के लिए सास -जेठानी के रूप में दो सख्त अध्यापिका है नियुक्त थी।



धीरे-धीरे दिन गुजरने लगे तुलसी गृहस्थ जीवन का मतलब समझने लगी , खपने लगी , झुकने लगी , ऊपर से कई प्रकार के बेतुके ताने उलाहने भी सुनने को मिलते , उसकी एक बड़ी वजह गिरीश का निखट्टू , निकम्मा और नशे का आदि होना भी था । धीरे-धीरे द्विवेदी जी की जागीरदारी और बड़े ठिकाने की पोल खुलने लगी , आधे से ज्यादा जमीन तो सेठ हरद्वारी लाल के गिरवी रखी थी , बड़े ठिकाने की जागीरदारी के अभिमान में द्विवेदी जी की जमीदारी मजदूरों के भरोसे ही चलती थी । द्विवेदी जी घाट के बड़े पंडितों में शूमार थे, जिनके जजमानों की संख्या ज्यादा थी, इसलिए प्रायः हर दिन कहीं ना कहीं से कोई जजमान टपक पड़ता था और पिंडदान के बाद जजमान के रसीले मधुर पकवानों को खाकर जब पेट पर हाथ फेरते थे तो लगता , सारा जगत तृप्त हो गया है ,उस जगत की कोठरी के एक कोने में द्विवेदी परिवार के सभी सदस्य शामिल थे, बेटे तो प्रायः बड़े पंडित जी के साथ जजमान के भोजन का आनंद ले ही लेते थे और औरतों का क्या ? दिन में जो घर के खेतों से आई भाजी बच रहती, दाल भात के साथ काम चल जाता। पूरा परिवार प्रायः शाम को ही खाना खाता था और महिलाओं की पाक कला की तभी परख होती थी , जो कुछ दान दक्षिणा मिलता, उससे कुछ ऊपरी खर्च चल जाता, कुछ थोड़ा बहुत मुनीम जी खेती -बाड़ी की कमाई के नाम पर दे देते थे, लेकिन इतना भर उनके रईसी ठाठों के लिए कम पड़ता था, ऊपर से सामाजिक दायित्व भात- पेज निभाने की बारी आती तो द्विवेदी जी का दिल शान -ओ -शौकत दिखाने का बड़ा मुरीद था , चाहे इसके लिए सेठ जी से 10 - 20 -50 हजार लेने पड़े तो मुनीमजी ले आते थे । 6 साल पहले जब बड़े बेटे हरीश की शादी की थी तो कस्बे में सभी लोग टेंट -शामियाने -दावत की व्यवस्था को देखकर दांतो तले उंगली दबाने को मजबूर हो गए थे। कोटा शहर से तो बड़ा बैंड आया था, कपड़े गहने सभी शाही अंदाज में , कस्बे में नाम हो गया था विवाह का । नाम का बोझ भी ना , कभी-कभी बहुत भारी पड़ जाता है और उसे खोखलेपन मे ढोना कभी बहुत घातक बन जाता है ,जैसे कई खोकली शान- मर्यादाओं और रुतबे का बजन ढोते-ढोते अनेक रियासत कालीन जागीरदार , जमीन बेचकर भूखों मरने पर मजबूर हो गए थे और कईयों के बच्चे तो शहर जाकर पेट भरने के लिए फैक्ट्रियों में गुमनाम दिहाड़ी मजदूरी करने लगे थे ।भाग्य का पहिया मानो वक्त के साथ बदल गया था , वक्त भी ना कमाल के अजूबे दिखाता है ,कभी घाव पर मरहम का काम करता है तो कभी नए घाव ही बना देता है, वक्त का चक्र घूमता है तो राजाओं को रंक और फकीर को अमीर बना देता है।


ज्यादा कर्ज हो गया और सेठ जी का तकादा होने लगा तो एकबारगी कर्ज मुक्त होने के लिए द्विवेदी जी को 20 बीघा जमीन सेठ जी को बेचनी पड़ी , जिस पर सेठ जी की वर्षों से नजर थी लेकिन बावजूद इसके पंडित जी के रहन-सहन में कोई ज्यादा बदलाव नहीं आया । आता भी कैसे ? इसी प्रकार नवाबी अंदाज में पूरा जीवन बिता दिया था , बूढ़े हो चले थे, अब बुढ़ापे में आदतें बदले भी तो कैसे ? अब तक की जीवन शैली में रग - रग अभ्यस्त हो गई थी ।


लोगों की जीवन शैली बदलने लगी थी , पैसे की तरलता बढ़ने लगी थी, पढ़ लिख कर जजमानों के बच्चे अच्छी नौकरियां- कारोबार करने लगे थे, आर्थिक संपन्नता आई तो अपने पूर्वजों की अस्थियां हरिद्वार , प्रयाग, गयाजी, जैसे बड धामों पर ले जाकर पिंड दान करने लगे थे, जजमानी घट रही थी और घाट पर कर्मकांडी पंडितों की संख्या बढ़ रही थी, कस्बे के पंडितों को पता नहीं कोई दैवीय शाप था या पैदा होने वाले बच्चों की परवरिश का दोष कि अधिकांश पंडितों के बच्चे घाट पर ही कोओं की तरह मंडराते रहते थे कि कब कोई जजमान आएगा और पिंडदान कर भोज खिलाएगा । बचपन से ही ऐसा देखा था, इसलिए जीवन की दूसरी दिशाओं की तरफ कभी ध्यान ही नहीं दिया, न बच्चों ने , न माता-पिता ने , उनकी पढ़ाई का उद्देश्य कोई अच्छी नौकरी प्राप्त करना कम कर्मकांड सीखना ज्यादा होता था। परिणामस्वरूप कस्बे के ब्राह्मण समाज की बदहाली का दौर शुरू हो गया था, लेकिन परंपराओं और मर्यादाओं को पुरानी पीढ़ी ऐसे झगड़े हुए थे की उनको तोड़ने की कोई सोचता नहीं था और वह जोंक की तरह अंदर ही अंदर उनका खून पीकर कमजोर किए जा रही थी।


बड़े बेटे हरीश के भी दो बच्चे हो गए थे । लड़का हुआ तो फिर से कुआं पूजन और कस्बे में वही शाही दावत का इंतजाम द्विवेदी जी के द्वारा किया गया और फिर से सेठ जी का भई -खाता शुरू हो गया, परिणाम यह निकला की द्विवेदी जी की जमीन गिरवी रखी जाने लगी आधी से ज्यादा जमीन रेहन पर रखी जाने के बाद , हरीश की आंखें खुली कि ऐसे तो एक दिन भूखों मरना पड़ेगा,अंततः उसने बची -खुची जमीन पर खुद ही खेती करने और संभालने का निर्णय कर लिया। अब वह और उसकी पत्नी गौरी मिट्टी के साथ मिट्टी बन कर मजदूरों के साथ खेती बाड़ी का काम करने लगे थे तो दो पैसे घर में आने लगे थे धीरे-धीरे गृहस्थी की बागडोर हरीश के हाथों में आ रही थी।


गिरीश घाटों पर घूमते- घूमते कथित साधु-संतों की संगत में आ गया था । जितने मंदिर थे, उससे कई गुना बाबाजी घाटों पर रहते थे ,सब तरह की गुणवत्ता वाले भंगेड़ी , सुल्फा गांजा, पियक्कड़ अफीमची और कई तो मदिरा का शौक भी फरमाते थे, या पता नहीं मदमस्त होकर जीवन के गम भुलाते थे, अधिकांशत: अपने बुरे जीवन की लड़ाई से भागे हुए प्रतीत होते थे। आरती के बाद प्रत्येक मंदिर के किसी कोने में उनकी महफिल जमती और गिरीश उनमें से ही किसी महफिल का हिस्सा होता था ।


इस तरह तुलसी के विवाह को ढ़ाई - तीन वर्ष बीत गए । धीरे-धीरे घर के चूल्हे -चौके का सारा बोझ उसके माथे आ गया, कच्चा घड़ा गृहस्थी की आग में अधपका हो गया था, कुछ पानी के थपेड़े झेलने लायक,कली फूल में बदलने से पहले ही मानो उसमें कीड़ा लग गया था और आधा अधूरा सा ही फूल खिलने की कोशिश कर रहा था । खेतों पर अभी सासू मां तुलसी को काम करने नहीं भेजती थी, सो घर का सारा काम उसके जिम्में हो गया था क्योंकि गौरी खेतों पर काम करने के बहाने प्रात: ही हरीश के साथ निकल जाती थी, बच्चे सासूजी संभालती थी और इस तरह तुलसी सुबह से शाम तक सारे घर के काम करती थी, दिन चढ़ चढ़े तीसरे पहर चूल्हा - चौका निपटा कर दो पल के लिए कमरे में घुसती तो पलंग पर ढेर हो जाती और खिड़की से बाहरी आकाश में उड़ते परिंदों को देखकर मन मसोस कर रह जाती, घड़ी भर वक्त नहीं बीतता कि सासू जी सायं के खाने की तैयारी करने में लगा देती थी। गिरीश का खयाल दिमाग में घुस आता, कैसा आदमी भाग्य में लिखा था ? बात करने, कुछ समझाने तक का अवसर नहीं मिलता था, दिन में सासु जी की नजरों की मर्यादा का पहरा रहता था, प्रातः जगने के बाद नहा -धोकर तैयार होने तक तो उससे दो अल्फाज बोलने में भी कतराता था, फिर उसको उस समय काम के आगे फुर्सत भी कहां मिलती थी कि कमरे में घुस जाए और बाहर तो सासु जी के सामने एक शब्द भी बोलने की हिमाकत नहीं कर सकता था और घर से निकलने के बाद तो देर रात ही घर में प्रवेश करता था । तब वह बात करने या समझने की क्षमता खो चुका होता था। बड़े भैया और पिताजी को भी अब उसका नकारापन अखरने लगा था ऊपर से नई गृहस्थी का बोझ और बड़े भैया के कंधों पर आ गया था। हरीश कई बार साफ-साफ पिताजी से कह चुका था -
"पिताजी सारा बोझ ढोने का मेरा ही ठेका है क्या ? गिरीश को कह दो या तो दो पैसे कमाकर लाए या मेरे साथ खेतों पर काम करें या अपनी गृहस्थी लेकर अलग हो जाए ।"

पिताजी उसको थोड़ा धैर्य रखने के लिए समझाते, लेकिन आज सुबह बात थोड़ी ज्यादा बढ़ गई जब गिरीश बाथरूम में घुसा और उसने नहाने के लिए मां से अपना अलग नया साबुन मांगा जैसा कि अब तक किया करता था -
"अम्मा मेरा साबुन खत्म हो गया है नया साबुन तो दो तो जरा । "
"बाथरूम में साबुन है तो , उसी से नहा लो नवाब को अलग साबुन चाहिए, पता भी है बाजार में रेट क्या है तुम्हारे साबुन का ? "बीच में हरीश बोला ।
" भैया जी जरा सी बात पर क्यों बिगड़ते हो साबुन ही तो मांग रहा हूं कौन सी जायदाद मांग ली ? "
"जायदाद भी मांग लो ना, कौन सी जायदाद है खेतों की तरफ मुंह करके भी देखा है कभी ? कैसे खेती होती है ? मिट्टी में मिट्टी होकर काम करना पड़ता है ।" हरीश ने गुबार निकाला, साबुन की तो बात जैसे एक बहाना थी उसके पेट में कई दिनों से गैस बनी हुई थी।
" अरे तो, क्यों करते हो मिट्टी में मिट्टी होकर काम ? मजदूर है ना , और मेरे ऊपर क्या एहसान करते हो ?"
" नहीं जी एहसान तो तुम्हारा है हमारे ऊपर , पता भी है दाल भात का जुगाड़ कैसे होता है ? गृहस्थी की क्या जरूरतें हैं ? तुलसी को कभी दो पैसे की चीज भी ला कर दी है ?"

गिरीश चुप हो गया । आज पहली बार उसके दिमाग में घुसा कि औरतों की भी छोटी-छोटी चीजों की आवश्यकता होती है , कई तो ऐसी की जिन्हें किसी से कह भी नहीं पाती होगी तुलसी , सच में तुलसी नवेली दुल्हन के सवरने -सिंगरने के दिन कब के भूल चुकी थी या कभी ढंग से सीखा ही नहीं था, छोटी- मोटी चीजें जो भाभी से मिल जाती, टीकी -बिंदी -लिपस्टिक आदि उन्हीं से औपचारिकता निभा लेती , सजाती - संवरती भी किसके लिए, गिरीश को तो रात ढले जब आता , देखने की फुर्सत ही कहां होती थी ?
"अरे क्यों बात का बतंगड़ बनाते हो ? अभी देती हूं साबुन, देखूं ज़रा , बचा भी है या नहीं ? "अम्मा बोली ।
"नहीं अम्मा यह जरा सी बात नहीं है ,तुमने इसे बिगाड़ कर रखा है ,आज फैसला हो ही जाने दो या तो यह कुछ काम धंधा संभाले या अपनी गृहस्थी लेकर अलग हो जाए , इसको भी तो आटे- दाल का भाव पता लगना चाहिए।"
"रहने भी दो हरीश , सब समझ जाएगा ।" अबकी बार पिताजी बोले ।
" नहीं पिताजी, कब समझेगा, शादी -ब्याह हो गया है , कल को बच्चे भी होंगे , कब बड़ा होगा ?"
"इतना भी गया गुजरा ना समझो भैया, मुझे तुम्हारी दया की जरूरत नहीं है ।"कहकर गिरीश बाथरूम से बिना नहाए ही कपड़े पहन कर घर से निकल गया ।
अम्मा पुकारती रह गई -"अरे यह लो साबुन, नहा धोकर तो निकलो, अरे गिरीश ! रुक जाओ ,कहां जाते हो ? बड़े भैया ने कुछ कह दिया तो क्या हो गया ? क्या गलत कहा उसने ?" पिताजी बोले ।
"कुछ नहीं पिताजी, कुछ गलत नहीं कहा , सच में गलती मेरी ही है ।"कहता हुआ निकल गया और पिताजी ,अम्मा, हरीश एक दूसरे की ओर ताकते रह गए ।
अम्मा बोली -" हरीश आराम से भी समझा सकते थे , जवान लड़का है ऐसा वैसा कुछ कर बैठा तो ?" हरीश चुप हो गया। पिताजी नहा धो लिए थे ,कपड़े पहन कर जाने लगे-" मैं देखता हूं ,इधर- उधर कहीं घाट पर ही होगा।"


आज गिरीश के दिमाग में एक बात बहुत ज्यादा दस्तक कर गई वह थी तुलसी , जिसके बारे में उसने कभी दिमाग पर जोर देकर सोचा ही नहीं था कि उसकी भी कुछ इच्छाएं होंगी , पीछे अपना सारा घर बार छोड़ कर आई थी, अभी तो ढंग से औरत भी नहीं बन पाई थी , क्या सोचती होगी वह उसके बारे में ? शायद भाभी के उल्हाने भी झेलती होगी , दूर घाट पर बैठा हुआ गिरीश नदी की लहरों को देखता जा रहा था जो अपने ही अंदाज में ऊपर नीचे होती हुई बहती जा रही थी , दुनिया के तनाव से बिल्कुल अनजान सी , चाहे कोई उसमें अपनी अस्थियां विसर्जित करें या डुबकी लगाये या डूब ही जाए, मानो उसको कोई फर्क नहीं पड़ता , वह भी तो उस धार की तरह की अब तक दुनियादारी से अनजान अपने ही प्रवाह में जिए जा रहा था किंतु वह तो नदी की धार नहीं था , उसके साथ तो दुनियादारी समाज में पैदा होते ही शरीर पर रोओं की तरह जुड़ गई थी , तुलसी की दुनिया उसकी दुनिया में अंतरंग रूप से समा गई थी , उसने ठान लिया , अब वह ऐसा नहीं रहेगा, दिनभर यहां -वहां कुछ काम तलाशने के चक्कर में डोलता रहा , आखिर में कस्बे में ही सोयाबीन तेल की एक बड़ी मील थीं, वहां पर मुनीम के रूप में काम मिल गया ।शुरू में तनख्वाह थोड़ी कम देना तय हुई , किंतु उसको जीवन की दिशा बदलने की एक राह दिखाई दी । शाम को थका हारा घर पहुंचा तो आज वह किसी नशे में नहीं था, हाथ मुंह धो कर चुपचाप कमरे में घुस गया थोड़ी देर में मां ने आवाज दी -"गिरीश खाना खा लो बेटा , कहां थे आज पूरा दिन ? पिताजी को भी कहीं घाट पर दिखाई नहीं दिए ,
हमारा भी कुछ खयाल है कि नहीं ? कितनी चिंता हो गई थी, तुलसी ने तो सुबह से खाना भी नहीं खाया ।"
"अरे क्यों मां ? कुछ नहीं कुछ काम के जुगाड़ में निकल गया था , अपने वह बड़ी तेल मिल है ना "गोयल ऑयल मिल " उसमें नौकरी लग गई है।


रोटी सेकती तुलसी के कानों में शब्द पड़े तो दिल में ठंडक सी उतर गई, रोम-रोम पुलकित हो गया , बड़े चाव से रोटी सेकने लगी । गिरीश ने खाना खाया, फिर किसी से ज्यादा बात नहीं की , कमरे में चला गया । आज बड़ी बेसब्री से तुलसी का इंतजार कर रहा था, खाना खाने के बाद काम निपटा कर जब तुलसी ने कमरे में प्रवेश किया तो आज शरीर बहुत हल्का महसूस हो रहा था , थकान मानो दो जादुई शब्दों से कहीं उड़ गई थी । गिरीश ने हाथ पकड़कर आज बड़े प्यार से अपने पास बैठाया ,बोला - "तुलसी, तुम सच में बड़ी अच्छी हो , मेरा जैसा दुष्ट तुम्हारी तकदीर में विधाता ने लिख दिया है ।"
" ऐसा क्यों कहते हो जी , आदमी कोई बुरा नहीं होता, बस कभी राहे भटक जाता है जब जागो तभी सवेरा । "
"हां तुलसी , तुम्हारी चिंता कभी दिमाग में आई ही नहीं लेकिन अब जितना मुझसे बन पड़ेगा तुम्हारा खयाल रखूंगा।"
"एक बात और बताने की कई दिन से कोशिश कर रही थी तुमको, अवसर ही नहीं देते थे ,।"
"क्या .....?"
"सोचो, जरा दिमाग पर जोर डालो ....?"
"मुझे कैसे पता लगेगा , तुलसी बता भी दो ना ..?"
'अरे बुद्धू, मैं पेट से हूं ।"
" क्या...? कब ..? बताया क्यों नहीं अब तक ?"
"ज्यादा दिन नहीं हुए, पिछले ही महीने शायद ..! अभी तक किसी को नहीं बताया, सोचा सबसे पहले तुम्हें ही बताऊंगी ।" और गिरीश ने तुलसी को बाहों में भर लिया ,उसे यहां -वहां चूमने लगा । आज तुलसी को पहली बार सुहानी सी सुहागरात का एहसास हो रहा था।


तुलसी के दिन बदलने लगे थे, जिस उम्र में लड़कियां ग्रहस्थ जीवन के अरमानों के ताने भी बुनना भी शुरू नहीं करती , तुलसी मां बनने की तैयारी कर चुकी थी । शायद उसके दिमाग में अभी इतनी कच्ची उम्र में मां नहीं बनने, कुछ साधन अपनाने का विचार ही नहीं था, बस सब कुछ जैसे नियति ने तय किया हुआ था । मां ने भी कभी इस बारे में कुछ नहीं बताया था । अतः सब कुछ उसकी जिंदगी में मानो अपने आप ही घटित हो रहा था । सासू जी को खबर लगी तो खुशी से फूली नहीं समा रही थी, एक तो गिरीश ने नौकरी कर ली, ऊपर से यह शुभ समाचार , एकदम से तुलसी के प्रति उनका नजरिया बदल गया । उसका विशेष खयाल रखने लगी, काम में भी हाथ बटाने लगी । इस बात से गौरी को कुढन हुई ,तो उसने चिढ़कर , खेत पर जाकर काम करना बंद कर दिया । यह अप्रत्यक्ष रूप से तुलसी के लिए और अच्छा हो गया । सासु मां ने दोनों में बांट दिया और तुलसी का ध्यान रखा ऊपर से , उसे भी बच्चों की देखभाल में थोड़ी फुर्सत मिलने लगी और वह तुलसी की पूरी मदद करने लगी । अपनी आवश्यकतानुसार पैसे रखकर महीने की तनख्वाह गिरीश मां के हाथ में लाकर देने लगा तो मानो छाती फूल जाती थी और उसको लगता कि इसमें भी तुलसी का ही बड़ा योगदान है।


लेकिन खुशियों के पल बड़ी शीघ्रता से बीत जाते हैं, पलक झपकते ही वर्ष महीनों में , महीने दिनों में और दिन लम्हों में बदल जाते हैं । कोई भी नशे की लत इतनी आसानी से कहां छूटती है , शाम को कंपनी से लौटते समय जब गिरीश घाट के पास से गुजरता था तो कदम डगमगाने लगते थे, दिल में बेचैनी सी पैदा हो जाती थी , मन कहीं किसी महफ़िल में जाकर हिलोरे लेने लगता था , कई बार अपनी इच्छा शक्ति को मजबूत करने का प्रयास किया , तुलसी और होने वाले बच्चे का ख्याल भी दिमाग में आया , लेकिन किसी अदृश्य अंदर के ही गिरीश ने सांत्वना देकर समझाया - "अरे थोड़ा बहुत यदा- कदा शोक करने में , आनंद लेने में, क्या हर्ज है? इसमें कोई पैसे थोड़े ही बर्बाद कर रहा हूं , समय भी नहीं , घंटे -आधे घंटे में थकान दूर हो जाए तो उसमें बुरा क्या है ? नौकरी तो दिन में कर ही रहा हूं और वह फिर से किसी -किसी महफ़िल में शरीक होने लगा। किंतु पहले की तरह नशे में बेहोश नहीं होता था, रात्रि को ज्यादा देरी भी नहीं करता था, तुलसी कई बार रोकती, टोकती तो समझा देता कि अब वह पहले की तरह नशा नहीं करता है , बस यदा-कदा यूं ही घाट पर घूमने चला जाता है । इधर तुलसी अब रोज सुबह पूजा पाठ करती थी, सासु मां सुबह जल्दी नहा धोकर तैयार हो राधे श्याम जी के मंदिर में आरती के समय तुलसी को साथ ले जाती , उम्र के साथ और माकूल परिस्थितियों से अब उसके तन-मन में भी निखार आ रहा था , मां जी खानपन का भी ध्यान रखती थी, उसके निखरते रंग रूप को देखकर पास पड़ोस मोहल्ले वाली मां जी से कई बार तारीफ करती- " पंडिताइन तेरी छोटी बहू बहुत सुंदर है !" तो माजी को अंदर से थोड़ी सी खुशी महसूस होती लेकिन अगले ही पल किसी शंका से बेचैन सी हो जाती । समाज में यह परंपरा या विचार या मान्यता कहें प्रचलित था कि यदि गर्भवती स्त्री के रूप में निखार आता है तो उसको लड़की ही पैदा होती है जबकि वह तो पोते का मुंह देखने के लिए लालायित थी।
आखिर वह दिन आ गया और तुलसी की डिलीवरी थोड़ी क्रिटिकल हो गई या पता नहीं प्राइवेट हॉस्पिटल के डॉक्टर ने बना दी, उनको बताया गया कि बच्चे का नाल फंस गया है, ऑपरेशन करना पड़ेगा और सर्जिकल डिलीवरी से तुलसी ने जब लड़के को जन्म दिया तो मां जी की बांछें खिल गई पंडित जी की खुशी का ठिकाना नहीं था। सारे मोहल्ले में मिठाई बटवा दी थी। हरीश को भी जैसे पंख लग गए थे, सभी साथी कर्मचारियों को मंगू हलवाई के प्रसिद्ध पेड़े खिलाए थे कुआं- पूजन और दावत का कार्यक्रम तय हुआ तो बड़े बेटे गिरीश ने खर्चे पर नियंत्रण की बात कहकर टांग अड़ाई, किंतु पंडित जी ने और साथ में गिरीश ने पैसे लाकर देने की बात कह कर उसको नजरअंदाज कर दिया और वह मन मसोसकर रह गया। गिरीश कंपनी से कुछ अग्रिम लेकर आ गया था और धूमधाम से उत्सव संपन्न हुआ। किंतु पता नहीं तुलसी की भाग्य रेखा में राहु -केतु मानो कुंडली मारकर बैठे थे, उसकी खुशियों को ग्रहण लगा हुआ था, आज दोस्तों की बहुत मनुहार पर, जिसको गिरीश कई दिनों से दरकिनार कर रहा था, महफिल जमा ली । उसने मन को समझाया- " आखिर एक दिन की ही तो बात है, कुछ खर्च हो भी जाएगा तो क्या ? आखिर दोस्तों का भी हक है, उस रात देर तक महफिल चलती रही । जब गिरीश घाट से घर की ओर चलने लगा तो कदम डगमग होने लगे, दिमाग घूमने लगा, आंखें चकराने लगी, शायद कुछ ज्यादा ही पी ली थी, एक तो खुशी का मौका, दूसरे कई दिनों की प्यास, एक साथ बुझाने की तमन्ना रही होगी, उसे लगा जैसे घाट की सीढ़ियां नहीं नदी की उफनती लहरें हैं और नदी की धार में टिम-टिमाते चांद -तारे आकाश है, पैर पानी में छप -छप करने लगे तो लगा, जैसे नदी ने रास्ता बदल लिया है, सीढ़ियों पर पानी का प्रवाह और धार की जगह खाली स्थान बन गया है, वह खाली स्थान की तरफ बढ़ता हुआ पानी से बाहर निकलने की कोशिश करने लगा और धार के आगोश में समाता चला गया, पता नहीं चंद्रभागा ने कब उसे अपने गर्भ में समेट लिया, जीते जी अस्थियां विसर्जित हो गई । अर्ध रात्रि तक जब घर नहीं पहुंचा तो घर में बेचैनी हो गई, पंडिताइन ने पंडित जी से ढूंढने को कहा, बड़े बेटे हरीश को भी जगाया तो उसने कह दिया- " मां बहुत ठंड है, पी के कहीं पड़ गया होगा, सुबह आ जाएगा ।" पंडित जी हाथ में लकड़ी लेकर घाट की तरफ देखने निकले, लेकिन घाट बिल्कुल सुना था, सारे देवी देवताओं के घरों में शांति का आलम था, मानो घरों में रहने वाले साधु- संतों के साथ देवी- देवता भी गहरी नींद सो रहे थे, वहां सिर्फ प्रवाह से बहती हुई धार की हल्की सी कल -कल सुनाई देती थी । पंडित जी थक- हार कर, यह सोच कर लौट गए कि सभी साधु-संतों को जगाना ठीक नहीं है, कहीं किसी मंदिर में ही गिरीश हो गया होगा, प्रातः देखेंगे। प्रातः गिरीश दिखाई दिया, दूर धार के किनारे कोई बाबाजी शौच करने गया तो पड़ा हुआ दिखा, छूकर देखा तो होश उड़ गए, यह गिरीश का मृत शरीर था जो रात उसके साथ ही महफिल में बैठा था, शोर मच गया, द्विवेदी जी के घर में मातम ही मातम । वह सर्द अंधेरी रात तुलसी की तकदीर पर कालिख सी पोत गई, कोई भी भाग्य- रेखा मानो दिखाई नहीं देती थी, जैसे सब को मिटा दिया था और अपने कालेपन में छुपा लिया था । रो-रोकर तुलसी की आंखें पथरा गई थी, बिल्कुल सूनी, मानो आंसुओं के साथ सारे अरमान भी बह गए थे, अभी तो जवान होने का मतलब सीखा था, आगे अंधकारमय में उजाड़, बीहड़ सी जिंदगी और राहे बिल्कुल सूनी, डरावनी, कैसे पार करेगी अबला सी नाजुक हिरनी, चारों तरफ वहशी सियार, भेड़ियों और शिकारियों का डर, कुछ सूझता नहीं था । क्रिया -कर्म पूरे होने के बाद परंपरा के तौर पर वह मायके चूड़ियां- वस्त्र बदलने गई, तो मां के गले से लिपट कर गला फाड़ कर रोने लगी, मां की भी सिसकियां न रुकती थी, गोद में अबोधबालक भी मां के रोने के साथ-साथ किसी अनजाने से भय से रोने लगा था। " अम्मा अब मैं ससुराल नहीं जाऊंगी, वैसे भी क्या बचा है वहां मेरा ।" "बावली मत बन लाड़ो, विवाह के बाद ससुराल ही घर होता है लड़की का।"। " विवाह का क्या मतलब रह गया?"। " मां यहीं मेहनत -मजदूरी कर अपना पेट भर लूंगी, इस जीव को पाल पोष कर बड़ा कर लूंगी ।" " नहीं लाडो, अपने घर में क्या है खाने को खप्पर नहीं, सोने को छप्पर नहीं, वहां तो जायदाद में बराबर की हकदार है, यहां रहेगी तो तुझे या तेरे बच्चे को फूटी कौड़ी नहीं मिलने का।" " कौनसी जायदाद अम्मा? डेढ़ आदमियों का पेट भारी है क्या? अपने घर में ?" "बात पेट भरने की नहीं है बेटी, वहां रहेगी तो तेरा बेटा बराबर का हकदार रहेगा, तेरा भगवान ने ध्यान रखा है, तभी तो अनहोनी होंने से पहले तुझे जीवन का सहारा दे दिया, यहां रहेगी तो तेरा बेटा सब हिस्सेदारी से वंचित हो जाएगा, दुनिया नाम धरेगी सो अलग, एक जवान विधवा बेटी मायके में रहेगी तो लोग तरह-तरह की बातें बनाने लगेंगे, हमारे समाज में विधवा को दूसरी शादी करने की भी तो अनुमति नहीं है।" बापू ने समझाते हुए अपना निर्णय सुना दिया और तुलसी ससुराल लौट गई। लेकिन अब उसकी ससुराल में दशा बदल गई थी,सासु जी के लिए अभागी - अशुभ बन गई थी, तो पंडित जी के लिए उसकी सतीत्व की रक्षा करने की चिंता, और जेठ -जेठानी के लिए मजबूरन उठाए जाने वाला बोझ, अब जेठानी उसकी मालकिन बन गई थी और सारे काम हुकम देकर करवाने लगी थी, जिसमें सासूजी भी कम ही हस्तक्षेप करती थी, आखिर कमाने वाला एक हरीश ही था जो डावांडोल गृहस्थी की गाड़ी को खींच रहा था । तुलसी घर के सारे कामकाज करती और सुबह शाम पंडित जी के बताए अनुसार विधवा आचरण उचित धार्मिक पाठ- पूजा , राधेश्याम जी के मंदिर की आरती में शामिल होना भी उसके कर्तव्यों का एक हिस्सा था । तुलसी से अपनी छाती पर जवानी की हिलोरे ले रहे हैं भारों का भार संभालते नहीं बन रहा था, अभी तो जवान होने लगी थी, भरपूर सौंदर्य के गुणों से लदकद रह- रहकर अरमान मचलते थे, उसकी हालत उस भूखे प्राणी की तरह थी जिसके सामने लजीज पकवानों से सजी थाली रखी हो और हाथ बंधे हो, पकवानों को देखकर रुका नहीं जाता था और उसका स्वाद लेने की बंदिशे लगी थी । कस्बे के ब्राह्मण समाज में विधवा -विवाह अभिशाप माना जाता था और सतीत्व की निगरानी करने वाली हजारों आंखें, उन आंखों में कई आंखें लालची भेड़ियों जैसी भी होती थी जो मौका लगे तो झट से उसके लजीज गोश्त को खा जाएं, ऐसी ही आंखों में तुलसी को कभी-कभी जेठ हरीश भी दिखाई देता था किंतु जेठानी व सास की उपस्थिति, उसकी नजरों में अवरोध बनती थी, अवसर पाने पर जब वह तुलसी को ताड़ता तो वह अंदर ही अंदर कांप जाती थी, एक स्त्री पुरुष की नजरों को शिद्दत से बखूबी पहचानती है । आज करवा चौथ का व्रत का त्यौहार था, मोहल्ले की सारी सुहागिनों ने व्रत रखा था, पंडिताइन से कथा सुनने आई तो तुलसी को सजी -संवरी गणगौर की भांति दिखाई दे रही थी, उसका दिल भी हिचकोले ले रहा था, उसको सजने -संवरने का मौका कुछ दिनों के लिए ही तो मिला था किंतु अब उसके लिए यह सब निषेध था, बंद कमरे में अपना रूप सौंदर्य देखना चाहती थी कि वह कैसी लगती है, किंतु सासूजी से डरती थी, कहीं देख लिया तो क्या सोचेगी? ऊपर से जेठानी ताने मार -मार कर अधमरा कर देगी । पिछले ही दिनों की तो बात है जब वह मां जी के साथ पड़ोस की शादी में संगीत समारोह में गई थी । वैसे तो ऐसे समारोह में विधवा के लिए जाना शुभ नहीं माना जाता था, किंतु उसके साथ प्रीतिभोज का कार्यक्रम भी था, इसलिए मां जी ने उसके इच्छा का लिहाज करते हुए उसको साथ आने की अनुमति दे दी थी । डीजे पर नाचती हुई मधुमाती लड़कियों और महिलाओं को देखकर उसका मन भी हो रहा था, वह भी विद्यालय के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में नृत्य -मंडली की दल-नायिका हुआ करती थी, एक युवती ने उसे हाथ पकड़कर नचाना चाहा तो पैरों में तरंग सी पैदा होने लगी, किंतु मां जी ने तुरंत हाथ पकड़ कर संभाल लिया, वरना उस दिन सामाजिक अनर्थ ही हो जाता । घर आने के बाद भी कितना डांटा था मां जी ने, लेकिन क्या करें ? उसने आखिर अभी तो युवा अवस्था का अर्थ जाना था, कैसे मन को रोकती, दिल में बार-बार सज कर देखने की हूक सी उठती जा रही थी, अपने बंद कमरे में अपना लावण्य देखने में हर्ज क्या है ? और उसके हाथ अनायास ही केशों पर कंघी के साथ फिसलने लगे, शादी का जोड़ा जो एकमात्र रंगीन सुहागन का जोड़ा बचा था, उसको सलीके से पहन कर जब अपने आपको आईने में देखने लगी तो आह! निकल गई । काश! अब होती उसकी शादी, कितना रंगीन जीवन होता, दर्पण के आगे से हटने का जी नहीं कर रहा था, तभी अचानक हल्ला सा हुआ, किसी के गिरने जैसी आवाज से ध्यान भंग हुआ, घबराहट में वस्त्र बदलने की कोशिश कर रही थी कि जेठानी जोर-जोर से दरवाजा थपथपाने लगी,- "तुलसी शाम पड़े ही सो गई क्या ? मां जी फिसल कर गिर पड़ी है और हताशा में कब उसके सजे संवरे हाथों ने दरवाजे की कुंडी खोल दी, ध्यान ही नहीं रहा, फिर जो तांडव हुआ उसका एक-एक शब्द तुलसी के दिल में कोई घाव सा करता चला गया । जेठानी ने तो धरती -आकाश एक ही कर दिया- " मैं मा जी से पहले ही कहती थी, इसका ध्यान रखो जवानी सर चढ़कर नाच रही है, भाग जाएगी किसी के साथ, नाक कटा देगी, बिरादरी में जीने लायक नहीं छोड़ेगी ।" माझी ने भी खूब फटकारा था और रात्रि में ससुर जी ने भी लंबा- चौड़ा भाषण पुराणों के उद्धरणों के साथ देते हुए समझाया था । लेकिन हरीश इस समय कुछ नहीं बोला, शायद वे उसकी सहानुभूति बटोरना चाहता था। तुलसी अपनी इच्छाएं, मन - मारकर दिन काटने की कोशिश करने लगी, यदा-कदा गिरीश ने उसे जो मोबाइल ला कर दिया था रिचार्ज करवा लेती थी तो अम्मा- बापू से बात हो जाती थी । उसके पास तो रिचार्ज करवाने को भी पैसे नहीं होते थे, बेटे की किसी चीज के बहाने सासूजी से कभी कुछ रुपए मांगती और उसमें से ही बचाकर शाम को मंदिर की आरती से आते वक्त मोंटी मोबाइल दुकान वाले से दस-बीस रुपए का रिचार्ज करा लेती थी जो उम्र में उससे चार-पांच वर्ष बड़ा ही होगा किंतु उसको " तुलसी भाभी " कहता था । शायद गिरीश से छोटा था इसलिए । तुलसी के लिए वक्त कठिन हो रहा था, गुजरता ही न था, लम्हे पहरों में, पहर दिनों में, दिन महीनों में और महीने जैसे वर्षों में बदल गए थे, बीतते ही ना थे । दिन में कामकाज पाठ -पूजा में अपने को पूरी तरह खफा कर व्यस्त रखने की कोशिश करती, लेकिन रात थी कि सरकती ही न थी , सूरज मानो उदय होना भूल जाता था, करवटें बदलते -बदलते थक जाती थी, फिर भी नींदें बस छू कर चली जाती थी । एक दिन ऐसे ही जब मोंटी की दुकान पर रिचार्ज करा रही थी तो वह अकेला था । नीचे की ओर गर्दन किए बोला-" तुलसी भाभी," "जी " "एक बात कहूं बुरा ना मानो तो" "कहो " "तुम बहुत खूबसूरत हो।" " पता है, क्या करूं ? भगवान ने ऐसा ही बनाया है ।"कहते हुए तुलसी ने यह दिखाने का प्रयास किया कि उसकी तारीफ का उस पर कोई असर नहीं हुआ , लेकिन अंत दिल में कहीं कोई गुदगुदी सी हरकत कर गई । मोंटी चुप हो गया और तुलसी घर लौट गई। किंतु उस रात तुलसी के कानों में मोंटी के शब्द गूंजतेत रहे "तुम बहुत खूबसूरत हो "और वह बार-बार अपने को आईने में देखती हुई उसकी बात का अलग-अलग अर्थ निकालती रही। क्या पता मोंटी उसको चाहता था या यूं ही मन रखने के लिए कह दिया होगा या उसको फुसलाने के लिए कहा हो ताकि मौका लगे तो कुछ फायदा उठा ले, लेकिन उसकी नजरों में तुलसी को वहशीपन नहीं दिखाई देता था । फिर अपनी सुंदरता के बारे में सोचने लगी, क्या वह सचमुच लोगों को बहुत सुंदर दिखती है, क्यों ना दिखे, उसमें कमी क्या है? गोरा रंग, अच्छी लंबाई, इकहरा बदन, लंबी सुराई जैसी गर्दन, कटारी जैसी नाक, नशीले बड़े-बड़े नयन, पतले होठ, लंबे केश, कमी क्या है? लेकिन इन सब का क्या फायदा ? फिर एक झटके से इन सब विचारों को छोड़ना चाहा , वह क्या सोच रही है ,ऐसा विचार करना भी पाप है, यह उसका धर्म नहीं है, विधाता ने उसकी तकदीर में यह सब नहीं लिखा है , लेकिन दिल में उतरे विचार इतनी आसानी से कहां भुलाए जा सकते हैं, इसी उहापोह में पूरी रात बीत गई। तुलसी मंदिर आते जाते एक नजर मोंटी की ओर जरूर देखती , सफेद साड़ी भी बड़े सलीके से बांधकर निकलती, घूंघट की आड़ से भी जैसे चौदहवीं के चांद की झलक दिखाई दे जाती थी, नहाने के बाद कई बार जानबूझकर खुले छोड़े गए केश बलखाती नागिनों की तरह छाती पर लपेटे मारने लगते थे और जैसे ही तुलसी मोंटी की तरफ देखती वह मुस्कुरा जाता, शायद वह पहले से ही टकटकी लगाए तुलसी की ओर देख रहा होता था । तुलसी मोबाइल सही कराने के बहाने या कभी रिचार्ज कराने के बहाने मोंटी की दुकान पर जाने के अवसर नहीं चाहते हुए भी स्वत: ढूंढती ,। ऐसे और कई हफ्ते गुजर गए और पता नहीं कोई अनजाना सा रिश्ता दोनों के बीच पनपने लगा । आज शाम जब तुलसी मोंटी की दुकान पर पहुंची तो बोली- " मोंटी यह देख तो जरा, मोबाइल से बात करते समय ठीक से आवाज नहीं आती।" "क्या भाभी जी, आपका मोबाइल भी पुरानी कंपनी का डिब्बा है, नया फोन ले लो ।" "अरे इसको ही देखना, बाद में पैसे आएंगे तो नया ले लूंगी ।" "अरे पैसे की चिंता ना करो, मेरी तरफ से गिफ्ट समझकर ही ले लो ,एक बात और कहें?"। "कह दो मन में क्यों रखते हो!" "आरती में लोगों की नजर भगवान से ज्यादा आप पर रहती होगी ।" "क्यों ?" "बेचारे कृपा करने, प्रसाद पाने की अरदास करते होंगे।"। " तुम भी करते हो अरदास ?" "मां कसम भगवान की ढोडी पर मत्था टेक कर यही मांगता हूं ।" "अच्छा जी ! तो फिर शादी कर लो मुझसे?"। एकदम ऐसा जवाब सुनकर मोंटी की जबान हलक में अटकी रह गई, क्या उत्तर दे कुछ सूझते नहीं बन रहा था। " क्यों फट गई ना, ऐसे ही भगवान के यहां भी प्रार्थनाएं पूरी नहीं होती, वरना संसार के प्राणियों के सारे दुःख मिट गए होते और भगवान के मंदिर सूनें हो गए होते।"। " फटती नहीं है हमारी भाभी जी, लेकिन आपके ससुराल वाले हमें जिंदा काट देंगे , हम आपकी बिरादरी के भी तो नहीं है ना।" "अरे छोड़ो, यूं ही मजाक कर रही थी, तुम मोबाइल सही करो।" "इसमें समय लगेगा जी, एक काम करो, मैं तुम्हारी सिम दूसरे मोबाइल में डाल कर देता हूं, इसे दे जाना और अपना ले जाना।" तुलसी दूसरा मोबाइल लेकर घर आ गई और मोंटी उसकी बातों का अर्थ निकलता रहा । वह सचमुच तुलसी को पसंद करने लगा था, वह दिखाई देती तो उसके दिल में अजीब सी हलचल हो जाती थी जो सामान थे कई जवान लड़कियों को देखने से भी नहीं होती थी, 23-24 साल का अभी तक कुंवारा था रिश्तो की चर्चा शुरू होने लगी थी , आज रात्रि तुलसी दिमाग से नहीं निकल रही थी, बार-बार मन उसके शब्दों को आधार बनाकर ताने-बाने बुनने लगता, - "क्या सचमुच तुलसी मुझसेसे शादी करना चाहती है या यूं ही मजाक कर रही थी , नहीं उसका रोज मेरी तरफ प्यार भरी नजर से देखने का कोई तो मतलब है और सोच भी क्यों नहीं सकती, अभी उम्र ही क्या है उसकी, आगे पहाड़ जैसी जिंदगी, शायद मैं भी उसको अच्छा लगने लगा हूं ,लेकिन मैं शादी कैसे करुंगा, पापा -मम्मी कहां मानेंगे और कहीं भाग कर शादी कर ली और वे मान भी गए तो कस्बे के पंडित जिंदा नहीं छोड़ेंगे , तो क्या कस्बे में ही रहना जरूरी है कहीं शहर जाकर कोई छोटा -मोटा काम कर लूंगा, बी.कॉम. किया है, कुछ रोजगार तो मिल ही जाएगा, वरना अपनी जमा पूंजी से कोई छोटा- मोटा धंधा कर लूंगा , आखिर तीन -चार साल से दुकान चला रहा हूं , डेढ़- दो लाख तो होंगे खाते में, सचमुच ही तुलसी का प्यार पाकर में स्वर्गीय का आनंद लूंगा ,लेकिन तुलसी ने यूं ही मेरा साहस देखने के लिए कह दिया हो तो क्या पता? कल फिर से बात करेंगे।" इस तरह मंथन करते हुए मोंटी की आंख लग गई। दूसरे दिन तुलसी नहीं आई , तीसरे दिन भी नहीं , अगले दिन जेठानी के मायके में उसका दादा गुजर गया था, इसलिए जेठानी, मां जी, हरीश के साथ शौक में गए थे, तो पूरे दिन घर पर ही रहना पड़ा । प्रातः ही निकल गए थे, बच्चा और घर को सूना कैसे छोड़ती, शाम ढले हरीश जेठानी और माजी को वहीं छोड़ कर आ गया था कि रात भर रुक कर दूसरे दिन आ जाएंगे शायद जेठानी की इच्छा रही होगी कि सभी परिवार वालों से मिलेगी या हरीश के दिमाग में कोई योजना रही होगी पता नहीं । रात्रि जब सारा चूल्हे -चौके का काम निपटा कर तुलसी कमरे में गई तो आज उस अंधेरी ठंडी रात में उसे कंपकंपी सी लगने लगी, घर सूना- सूना उजाड़ सा महसूस होने लगा, ससुर जी बाहर बैठक के कक्ष में सोते थे, कोई अनजाना सा भय पता नहीं दिमाग में हरकत सी करने लगा था, बिस्तर पर लेटे हुए नींद नहीं आ रही थी, जरा सी हवा से बाहर किसी खिड़की के पल्ले बजते तो भी कान खड़े हो जाते थे, किसी चूहे ने रसोई में कोई बर्तन गिरा दिया तो रोंगटे खड़े हो गए, दो बार बिस्तर से खड़े होकर दरवाजे की कुंडी लगी हुई देख ली थी, लेकिन डर था कि कुछ दिमाग से निकल ही नहीं रहा था, दीवार पर टंगी घड़ी ने 12:00 बजा दिए थे, ठंड कुछ ज्यादा ही थी जैसे सारी दुनिया अपने बिलों की गहराई में घुसकर ठंड के प्रकोप से बचना चाह रही थी । अचानक उसके दरवाजे पर हल्की सी दस्तक हुई। "तुलसी, तुलसी! मेरे पेट में बहुत दर्द हो रहा है जरा मेथी की फांकी देना।" हरीश की आवाज थी ।अंदर बिस्तर पर जागती हुई तुलसी ने सोने का ढोंग किया। आवाज फिर आई-" तुलसी, सुनती हो, मरा जा रहा हूं ,पेट दर्द है मेथी की फांकी दो ना ...?" "क्या पता सचमुच ही दर्द हो" सोचते हुए तुलसी ने अंदर से ही जवाब दिया,-" रसोई में रखी है, मसालों के पास, पीले डिब्बे में, बच्चा जाग जाएगा, ले लो जरा,।" रसोई में कुछ बर्तनों की आवाज के बाद फिर दस्तक हुई,-" तुलसी हमें नहीं मिल रही है, मरा जा रहा हूं " और जैसे जमीन पर आदमी के गिरने की आवाज धम से हुई। अचानक तुलसी ने दरवाजा खोला तो हरीश ने तुरंत उसे बाहों में भर कर बिस्तर पर पटक दिया । "यह क्या कर रहे हो आप? यह पाप है, मैं चिल्लाऊंगी," लेकिन उसके बाद हरीश के खेतीहर बलिष्ठ हाथों ने उस को बोलने या चिल्लाने का मौका नहीं दिया और यह अंधेरी रात फिर से उसके मुंह पर कालिख पोत गई। उसकी घुटी घुटी " घूं ...घूं.." की आवाज और सिसकियों की आह ! कक्ष की दीवार से टकराकर दम तोड़ती रही, अपनी जोर आजमाइश करने के बाद जब हरीश कमरे से बाहर निकला तो रात भर बैठी विलखती रही । सुबह ससुर जी आए तो भी कमरे से बाहर नहीं निकली , सिर्फ आंखों से बूंदे टपकती रही थी ,एक- दो बार उन्होंने आवाज भी दी थी लेकिन वह बोल नहीं पाई। हरीश ने कह दिया कि उसकी तबीयत खराब है और उनको चाय बना कर दे दी। किसी अनहोनी की आशंका लिए हुए पंडित जी नहा धोकर घाट की ओर निकल गए और हरीश खेतों की ओर। दिन चढ़े जब सासूजी और जेठानी आई तो तुलसी का हाल देख कर भांप गई "क्या हुआ तुलसी? "हड़बड़ाई सी मां बोली। तुलसी ने रोते हुए रात के हादसे को बताया तो मां जी बोली - "तुलसी बहू, अच्छा नहीं हुआ, हरीश को आने दो , मैं बात करूंगी ,लेकिन बहू घर की बात घर में ही रहे तो अच्छा है ,बाहर पता नहीं लगना चाहिए ।" जेठानी तमक कर बोली -"यही बन ठनकर रहती है, अपने पति को तो खा गई, मेरे को और खाएगी, देखती नहीं मा जी, इसका अंग अंग फड़कता है।" लेकिन अंदर ही अंदर वह यथास्थिति को समझ रही थी हरीश पर गुस्सा आ रहा था और अपने भाग्य को कोस रही थी। शाम को ससुर जी आए तो उनको पूरी बात पता चली, तो उन्होंने भी तुलसी को ही समझाया- " बहू हमारी इज्जत का खयाल रखना, बात घर की दीवारों से बाहर ना जाए, वरना मुंह दिखाने लायक नहीं बचेंगे।" हरीश आया तो उसको भी बैठक के कक्ष में मां -पिताजी ने धीमे-धीमे आवाज में फुसफुसाते हुए कुछ समझाया होगा जिसका तुलसी को भान नहीं हुआ, लेकिन एक बात उसको पूरी तरह समझ में आ गई। इस तरह पूरा जीवन कांटा नहीं जाएगा, वह पल- पल मरेगी। गमगीन आंखों से तुलसी खिड़की के बाहर असीम आकाश को देख रही थी, जिसका कहीं छोर दिखाई नहीं देता था, कितना बड़ा आकाश है कितनी विस्तृत धरा है, लेकिन उसके हिस्से में एक मुट्ठी भर भी नहीं, जिसमें वह चैन की सांस ले सके, मन के विचार कहीं भविष्य की गणना कर रहे थे और वह हृदय को मजबूत करने का प्रयास कर रही थी, कोई विचार दिल में बवंडर सा बनाते जाते थे और उसको सहने की क्षमताएं टटोल रही थी, आखिर उसने अपने दिल- दिमाग दृद कर लिया, शायद कुछ निष्कर्ष निकाल दिया था। अगले दिन मोंटी की दुकान पर मंदिर के बहाने पहुंची तो उसकी सूरत देखकर मोंटी के मन में बेचैनी सी हुई-। " क्या बात है भाभी जी 3-५ दिन से तुम्हारी राह देख रहा हूं ,क्या हो गया?"। " कुछ नहीं, बस थोड़ा तबीयत नासाज हो गई थी ।" "अरे यह क्या, अपना भी ध्यान रखा करो।"। अचानक बदलते हुए तुलसी सीधी बात पर आ गई -"मोंटी क्या तुम सचमुच हमसे प्यार करते हो?"। मोंटी आवाज से जैसे तुलसी की गंभीरता को भांप गया- "हां सच में दिल से "। "शादी कर सकते हो मुझसे " "हां कर लूंगा फिर देखा जाएगा" "फिर क्या देखा जाएगा ?" "अरे हम यहां से दूर चले जाएंगे किसी शहर में ,मेरे पास रकम का इंतजाम है। "और दोनों ने उसकी योजना बना ली। कई दिनों तक टुकड़ों में योजना के पहलुओं पर चर्चा की और तुलसी धीरे-धीरे अपनी आवश्यक चीजें थोड़े -बहुत गहने ,मोंटी की दुकान पर पहुंचाती रही, फिर तय कार्यक्रम के अनुसार शाम ढले आरती के समय ही बच्चे को लेकर स्टेशन पहुंच गई, जहां मोंटी दो भारी बैग साथ लिए इंतजार में पहले ही बैठा था और दिल्ली की रेल गाड़ी पकड़ ली । तुलसी चलती हुई गाड़ी की खिड़की से बाहर देख रही थी, कितनी ठंडी सी खुशबू लिए बयार बह रही थी, बिल्कुल मस्त करने वाली, बंदिशों को तार-तार करते हुए, मर्यादाओं की बेड़ियों को तोड़ते हुए, पिंजरे की खिड़की को खोलते हुए मदहोश कर रही थी, दिल को ,दिमाग को ,बेपरवाह बनाती हुई ससुराल से, मायके से, बिरादरी से, समाज से और सारी दुनिया से उड़ी जा रही थी, बेखबर हवा के साथ, इन सब की परवाह करना पीछे वालों का काम था, अंधेरे में भी आकाश कितना खुला खुला लग रहा था, बिल्कुल स्वप्निल, आवारा टिम- टिमाते तारे मानो अचानक रंगीन हो गए थे, खुशियां बिखेरते हुए, दूर कहीं एक तरफ उनको देखकर दूज का चांद मुस्कुरा रहा था, अंधेरे में भी उसे प्रतीत हुआ मानो कोई पक्षियों का झुंड गगन में कलरव करता हुआ उड़ रहा था, मोंटी उसके चेहरे के शकून को बस देखे जा रहा था और मुस्कुरा रहा था।

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