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लाड़ो की विदा

लाड़ो की विदा

 

                आज पंडित जी के घर में बड़े जश्न का माहौल है, पूरे परिवार में इकलौती पुत्री जो पैदा हुई है, बड़ी दावत चल रही है, बाजे भी बज रहे हैं, यार- रिश्तेदार आ- जा रहे हैं । आज पंडित जी ने छोटे बेटे के लड़की होने पर खुशी में रिश्तेदारों, पास- पड़ोस, मोहल्ले के लिए सामाजिक भोज आयोजित किया है । पंडित हरकिशन जी भोज के लिए लगाए गए, बड़े से शामियाने में मुख्य दरवाजे के पास ही मूढे पर सफेद धोती- कुर्ता पहने, सिर पर साफा बांधकर, चौड़े होकर बैठे हैं। उनकी कोई बहन नहीं थी, कोई पुत्री भी नहीं, आज पोती होने का जश्न मना रहे हैं, घर में लक्ष्मी आई है । पास ही अन्य मूढों पर कुछ रिश्तेदार पास- पड़ोस के रसूखदार लोग बैठे हैं, जिनको पंडित जी खुशी के साथ शायद यह भी जताने की कोशिश कर रहे हैं कि आज समय बदल रहा है, बेटी पैदा होने पर भी जश्न मनाया जा सकता है और उसका परिवार पढ़ा लिखा है, जागरूक है , उनके बच्चे शहर में रहने लगे हैं ।

            "पंडित जी बधाइयां, आज तो फूले नहीं समा रहे हो...!" किसी रिश्तेदार ने कहा।

            " धन्यवाद जी, क्यों ना फूलूं भाई, कई पीढ़ियां रे बाद घर में लक्ष्मी का पांव पड़या हैं....?"

            " सो तो है पंडित जी, आपने भी दिखा दिया कि पंडित हरिकिशन जी के ठाठ ही अलग हैं।"

            " अरे भाई ! आज टेम बदल ग्यो है, अब छोरा- छोरी में कांई फरक कोनी और म्हारे लिए तो म्हारी लाड़ो छोरा सूं घणी बढ़कर है, शहर में छोरा का मकान पर जाऊं तो देखूं सभी छोरा-छोरी एक तरहया का कपड़ा पहने, मोटरसाइकिल, सकूटर चलावें और देखो कोनी, आज तो घणी बीणनी नौकरी भी करें।"

           " हां सो तो है पंडित जी , आज तो महिलाएं बड़े-बड़े शहरों में पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर चलती हैं, ऊंचे- ऊंचे पदों पर काम कर रही हैं , यहां तक की कई बड़ी-बड़ी कंपनियां भी चला रही है और हवाई जहाज भी उड़ा रही है ।"

            "देखज्यो भाई, म्हारी लाड़ो कूं भी खूब पढ़ा लिखावांगा, सारा अरमान पूरा करूंगा और आछी बड़ी अफसर बनाकर डोली में विदा करूंगो।"

            "पंडित जी साठी से ऊपर पहुंच ग्या हो , कांई ऊपर जाबा को विचार कोनी के?" एक अन्य रिश्तेदार बोला ।

            "अरे वहां तो सबने ही जाणो है भजन्या, पर झांक, म्हारो यो अरमाण तो पूरा करके ही जास्यां।"

            " देखस्यां पंडित जी। "

            जी हां पंडित हरकिशन जी का मध्यम वर्गीय परिवार अलवर शहर के पास ही एक कस्बे में रहता था। पंडित जी बड़े ही धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। घर की गुजर- बसर ठीक होती थी, कुछ पंण्डताई से, कुछ जमीन- जायदाद से और कस्बे के एक मंदिर के पुजारी थे, सो आमद ठीक सी हो जाती थी। उन्होंने अपने तीनों बेटों को पढ़ाया- लिखाया, बेटी कोई थी ही नहीं, तीनों बेटे पढ़- लिखकर सरकारी नौकर हो गए । बड़ा बेटा लक्ष्मीनारायण एक सरकारी विद्यालय में अध्यापक, दूसरा रामनारायण पटवारी बन गया और तीसरा हरिनारायण किसी बैंक में बाबू बन गया। तीनों ने ही शहर में अलग-अलग मकान बना लिए थे। पंडित जी अभी भी धर्मपत्नी हरप्यारी के साथ कस्बे के पुश्तैनी मकान में ही रहते थे। हफ्ते- दस दिन में शहर चले जाते थे। यद्यपि तीनों बेटों के मकान अलग थे, किंतु पास- पास ही थे। तीनों भाइयों में घना प्रेम था और चूंकि तीनों की ही नौकरी थी सरकारी , समझदारी से तीनों अलग-अलग रहने लगे थे और अपने हिसाब से अपनी गृहस्थी चलाते थे। पिता हरिकिशन को शुरू में थोड़ा सा असहज लगा, लेकिन अब सब कुछ सहज और आनंददायी था । होली- दिवाली तीनों भाइयों का परिवार एक साथ ही, मां- पिताजी के साथ पुश्तैनी मकान पर ही मनाते थे और इस तरह पंडित जी का परिवार सलीके से जीवन व्यतीत कर रहा था।

             समय गुजरता गया । तीनों ही पुत्र पंडित जी को शहर में आकर रहने के लिए बुलाते, लेकिन पंडित जी को कस्बे के पुराने लोगों के साथ बातें -किस्से करने का रस न छूटता था । पोते- पोतियो से गहरा प्रेम था , विशेषकर लाड़ो से जिसका नाम सुलोचना रखा था, लेकिन लाड़ से सब उसको लाड़ो ही पुकारते थे। वैसे भी एक देसी कहावत है कि- " ब्याज मूल से प्यारा लगता है ।" गांव में यह कहावत दादा- दादी का पोते- पोतियो के प्रति वात्सल्य के लिए चरितार्थ है । पंडित- पंडिताइन को भी पोते- पोतियो का स्नेह बार-बार से खींच लाता था। उनको पार्क में घूमाते, अम्मा कहानियां सुनाती, चौराहे पर आइसक्रीम खिलाते और दिन गुजर जाता । लाड़ो को तो कंधे से नीचे ही नहीं उतारते थे, लेकिन हफ्ते भर में कस्बे की याद आने लग जाती और लौट आते।

           "घूम आए शहर, पंडित जी ?"

           "अरे रामा भैया! भगवान की सब मौज छै  , तीनों बेटा रे ठाट- बाट छै, पण वहां की आबो-हवा म्हाने घणी रूचे कोनी ।"

           " अरे पंडित जी, अब जाना ही पड़ेगा, बुढ़ापे में कौन संभालेगा, बच्चे तो शहर छोड़कर आने से रहे, फिर भरा-पूरा परिवार है और भाग्य वाले हो जी तीनो भाई एक जगह ही रहते हैं ।"             "हां भाई, मकान ही अलग छै  बस, बाकी तो सारा टाबर एक संग ही खेलें- कूदे, खावें- पीवें हैं और जण म्हे चला जावें, तो जेठे म्हारो बसेरो, वैठे ही बालकां को डेरों।"

            "अच्छा पंडित जी, जय जय राम।"

            " जय सियाराम।"

             पंडित- पंडिताइन अब अक्सर शहर में ही रहने लग गए थे ।छोटा बेटा जो बैंक में था उसका तबादला कहीं दूर जगह हो गया था, तो उसने बहुत आग्रह किया कि पिताजी बच्चे वहां अलग-अलग विद्यालय में पढ़ते थे, उन को साथ ले जाना संभव नहीं था , पढ़ाई बाधित होगी सब कुछ बिगड़ जाएगा । वह बच्चों के साथ वहीं आकर रह ले । पंडित को शहर की जिंदगी ज्यादा रास नहीं आती थी , किंतु बेटे के आग्रह को टाल न सके और पंडिताइन तो सहज ही तैयार हो गई, बल्कि थोड़ी इच्छुक भी थी। किंतु पुश्तैनी घर का मोह अभी टूटता नहीं था , बीच-बीच में जाकर चक्कर लगाते थे, एक-दो दिन रुकते, संगी- साथियों को शहर के किस्से सुनाते और शहर में पूरी नहीं होने वाली अपनी बोलने की इच्छा को पूरा करते ताकि पेट के अंदर बातों की गैस न बन जाए । पुराने संगी- साथियों में पंडित जी का आदर भाव बरकरार था।

           बच्चे बड़े होने लगे थे । वैसे भी सभी बच्चे बराबर के से लगते थे। बड़े बेटे के संतान थोड़ा देर से पैदा हुई और दोनों छोटों रामनारायण और हरिनारायण का तो विवाह एक साथ ही किया था, कृष्णा और सुगंधा दोनों बहने थी। लक्ष्मी नारायण के दो पुत्र राकेश व नरेश, रामनारायण के भी दो बेटे- रोहित और मोहित और छोटे हरिनारायण के उदय और सुलोचना, "लाड़ो"। सबसे छोटी लाडो और सबसे बड़े राकेश में पांच वर्ष का ही अंतर था। लाड़ो सबकी दुलारी, रक्षाबंधन- भाईदूज जैसे त्योहारों पर लाड़ो की बड़ी मौज होती । सभी भाई नहा- धोकर एक साथ लाइन में बैठ जाते और लाड़ो उनके तिलक करती, राखी बांधती । वे तरह-तरह के उपहार देते, नगद रुपए भी । लाडो बहुत खुश होती और कई दिनों तक रुपियों को इधर-उधर छुपाती रहती ।

          अक्सर राकेश लाड़ो से मजाक करता,- " लाड़ो शादी के बाद तुझे ही आना पड़ेगा यहां, हम तेरे ससुराल नहीं आ सकेंगे ।"

          "क्यों बड़े भैया ....?"

          "अरे ! तेरे ससुराल वाले पांचों भाइयों को देखकर घबरा जाएंगे ।"

           " रहने दो, मैं कहीं जाने वाली नहीं।" लाड़ो शर्माकर कहती।

           वैसे तो सभी बच्चों का जन्मदिन पूरा परिवार एक साथ ही मनाता था, किंतु लाड़ो का जन्मदिन तो परिवार में किसी बड़े उत्सव की तरह होता था । ऐसे अवसरों पर दादा-दादी सबके बीच में बैठकर बड़े प्रसन्न होते । उनमें जैसे नयी ऊर्जा का संचार होता । कई ख्वाब बुनने लगते और कल्पना में उड़ने लगते। भारतीय संस्कृति के पारंपरिक परिवारों में रिश्तो के कच्चे धागों का ताना-बाना भी बहुत निराला है, जो पाश में सबको लपेटे रखता है । कई मर्यादाएं सिखाता है , जिंदगी जब बिछड़ने की कल्पना भी करने लगती है, तो उसको आगोश में ले लेता है और छोड़कर नहीं जाने देता । हमको टूटने- बिखरने नहीं देता और जब इन रिश्तो के तार, तार- तार होते हैं , कच्चे धागे टूटते हैं, तो जिंदगी छूटती- टूटती सी नजर आती है। ये रिश्ते हमें एक- दूसरे के लिए त्याग करना, समझौता करना भी सिखाते हैं। आज शायद आजादी के नाम पर , आधुनिकता के नाम पर , स्वत्व के बारे में ज्यादा चेतना या पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण, भारतीय समाज में भी यह ताना-बाना ढीला पड़ता जा रहा है, कमजोर होता जा रहा है , जिसमें परिवारों को बचाने की ताकत समाप्त सी होती जा रही है।

           सभी बच्चे कालेज जाने लगे थे। अब दादा- दादी से भी कम ही बात होती, थोड़ा पढ़ाई, थोड़ी टी. वी. और शेष समय मोबाइल में। दादीजी का समय तो सुगंधा के साथ घर के काम में हाथ बटाने में गुजर जाता, तीनों बहुवें ग्रहणी थी, दोपहर में समय मिलता तो गपशप भी हो जाती । सो पंडिताइन की ठीक कट रही थी। किंतु पंडित जी का समय बमुश्किल ही कटता था । लाड़ो का दाखला भी किसी इंजीनियरिंग कॉलेज में करवा दिया था, सो यह खबर भी गांव वालों को देने की उतावली थी दादा जी को , सो एक-दो दिन के लिए पुश्तैनी घर लौट गए ।

        "अरे जय सियाराम, भाई भजन्या कैसे हो?"

        " ठीक छै पंडित जी, बस कट रही है ,अब यहां घणा रूजगार का साधन तो छै कोनी , कुआं को पानी भी सूख ग्यो।"

        " फिर खेती-बाड़ी ......?"

        "एक बोरिंग करवाई छी पंडित जी, वा में भी दो-चार घंटा को ही पाणी आवे है, सींच ल्यां थोड़ी- बहुत, बाकी सब यूं ही छै, शहर में थांकि मौज छै पंडित जी, म्हारे भी कोई छोरो नौकरी लग जावे तो कांई चैन पड़े ।"

       " सो तो है और सुण, म्हारी लाड़ो को दाखिलो एक बड़ा इंजीनियरिंग कॉलेज  रे मायनें हो ग्यो है, कांई बड़ी परीक्षा पास करी ।"

        "थारी भगवान सुण रखी छै पंडित जी।"

          लौटकर पंडित जी फिर वही शहर की दिनचर्या में ढलने की नाकाम सी कोशिश करने लगे। समय गुजारने के लिए कई बार पास के पार्क में चले जाते। रविवार तो अच्छे से गुजरता , हरिनारायण भी नौकरी से आ जाता और दोनों बेटों को भी फुर्सत मिल जाती। वरना रोजाना पदस्थापन स्थान से दोनों बड़े बेटे अप - डाउन करते, सायं तक घर पहुंचते, फिर गृहस्थी की उधेड़-बुन में पिताजी के पास बैठने की फुर्सत ही नहीं मिलती । पोते- पोती तो तभी बोलते, जब दादाजी उन्हें किसी बात के लिए टोकते या कोई प्रश्न पूछते।

           "लाडो या कांई कपड़ा पहने छै, झांक तो थारी पेंट गोड़ा पे सू फाट री छै...?"

          "क्या दादा जी , आजकल ऐसा ही फैशन है ।"

           "या कांई फैशन छै भाई... ! थांके कानां में माइक लग्या रहवें और सकूटी चलावो हो,टक्कर ना हो जावे, थाने डर कोनी लागे ....?"

           "दादा जी अब तुम्हारे हिसाब से तो जमाना नहीं चल सकता ना, तुम क्यों परेशान होते हो? तुम पुराने हो गए हो दादा जी ।"

            दादा जी अनगिनत बार अनेक बातों पर ऐसे ही टोकते और लाड़ो उनको पुराना हो गया बताकर ऐसे ही निकल जाती। दादा जी मन- मसोसकर रह जाते। बस रात को सोते समय दादी से चर्चा करते ।

           कई दिनों से घर का मिजाज बदला हुआ है । सुगंधा कुछ तनाव में थी ।आज शनिवार को जब हरिनारायण नौकरी से आया तो उसको सुगंधा ने शायद लाड़ो के बारे में कुछ कहा । शायद उसने लाड़ो के मोबाइल में कुछ देखा था । रात्रि को दोनों ने लाड़ो को अपने कमरे में बुलाया और बहुत कुछ कहा सुना, समझाया होगा । वह जब कमरे से बाहर निकली तो उदास थी। दादा जी यह सब अपने कमरे की खिड़की से देख रहे थे ।

            सुबह हुई तो दादाजी से रहा नहीं गया,- " हरी ! कांई बात छे भाया ? लाड़ो की कांई बात हुई के...?"

           "नहीं पिताजी, कुछ खास नहीं, बस यार- दोस्तों में ही ज्यादा समय बर्बाद करती है , थोड़ा पढ़ाई को गंभीरता से लें, यही समझा रहे थे ।"

            ऐसे ही हरि ने पिताजी को टाल दिया । लेकिन उस दिन से दादाजी ने देखा कि लाड़ो के व्यवहार में कुछ बदलाव सा था, कुछ चेहरे की चुलबुलाहट गायब थी, सुगंधा भी खुश नहीं रहती थी, तो ऐसे ही पूछा, - " लाड़ो, उदास- उदास सी कयां रेहवे है.......?"

             " कुछ नहीं दादाजी।" लाडो ज्यादा बात ही नहीं करना चाहती थी।

              आज बात कुछ ज्यादा ही बढ़ गई उदय कह रहा था,- " पापा, लाड़ो उस लड़के के साथ पता नहीं कहां- कहां घूमती है ? कल मैंने इसको गोल चौराहे पर जो रेस्टोरेंट है, उसमें दोनों को देखा था और मुझे देखते ही वह लड़का भाग गया ।"

               "लड़की तू हमारी नाक कटा कर ही दम लेगी...? तुझे इतना समझाया था, लेकिन तुझे तो हम गधे लगते हैं ना, पागल लगते हैं...?" तमतमाते हरिनारायण ने कहा ।

               "पापा, इतना क्या बड़ा गुनाह कर दिया मैंने , मेरे कॉलेज का साथी है , समझदार है , मैं कोई बच्ची हूं क्या ...?"

               "हां बेटी, तू ज्यादा ही बड़ी हो गई है , तभी तो तुझे हमारी बातें नासमझी की लगती है , परिवार की इज्जत एक बार गई तो वापस ना आवे ...?" सुगंधा ने रोते हुए कहा ।

               पंडित जी ने पूछा,- " लाडो कांई हुई हो बेटा..?"

              " हुआ क्या, लाड़ली अपने कॉलेज के किसी लड़के के साथ घूमती-फिरती फिरती है।" हरिनारायण ने पहले उत्तर दिया ।

               "कोई ऐरा- गैरा लड़का नहीं दादा जी , मेरी ब्रांच में ही इंजीनियरिंग कर रहा है , उसका पढ़ा-लिखा परिवार है ।"

               "कई बिरादरी छै लाड़ो..?"

               " जाट , चौधरी है ।"

               "ना लाड़ो ना, ईयां गलती मत करज्यो, कांई कूं ऊं छोरा के संग डोले ..? बदनामी हो जावेली, तो म्हारो मरण हो जावेलो ...?" दादा जी बोले ।

              "क्या दादा जी, आप लोग क्यों नहीं समझते..?"

              "लाड़ो कयां बेशर्म हो गई है? ईंया बहस करें बड़ान सू ...?" दादी बोली ।

              "लाडो म्हारी पगड़ी को ध्यान राख ज्यों...!"

               " पिताजी, इसके पहले पांव पीले करने पड़ेंगे ।" हरी दादा जी से कहा ।

              लाड़ो पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गई। उसके व्यवहार से यह साफ झलक रहा था कि उसको घरवालों की कोई सीख मंजूर नहीं थी। उसके बाद पंडित जी का परिवार लाड़ो के रिश्ते की जुगत में लग गया ।

               लाड़ो किसी रिश्ते को स्वीकार नहीं करती,- " मम्मी मैं पूरी जिंदगी, उस आदमी के साथ कैसे काटूंगी, जिसको मैं जानती तक नहीं...?"

               " क्यों हम नहीं काट रहे हैं क्या? तूने कभी देखा है कि मैं और तेरे पापा हमारे रिश्ते से नाखुश हैं , और फिर जान लेना ना, तुझे मौका देंगे शादी से पहले बात करने का..?"

               " वह जमाना और था मम्मी..?"

               " जमाना नहीं, हम लोग बदल गए हैं, हमने अपनी शर्म, मर्यादाएं , जज्बात खो दिए हैं।"

               " तुम नहीं समझोगे मम्मी, पापा- दादाजी समझेंगे...... यह तो सोचने से भी बाहर है......?"

              " लाडो म्हारी इज़्ज़त, माटी में मत मिलावे, सारी रिश्तेदारी, समाज , गांव -कस्बा में म्हारे परिवार की साख है..!"

               " तो क्या करूं ? उस साख पर ही जिंदगी काट लूं ...? "अनमनी सी होकर लाड़ो अपने कक्ष की ओर चली गई ।

               सुगंधा ठगी सी बैठी रह गई । उसकी आंखें स्थिर सी मानो अंधेरी रात के अंधकार को चीर कर उस पार कोई रोशनी की किरण देखने को आतुर थी। जबान हलक में अटकी रह गई, मानो बाहर निकली तो घर की इज्जत ही निगल जाएगी। शरीर सुन्न, अचेतन सा हो गया। जैसे किसी ने इज्जत की चुनरी उसके तन पर से खींच ली हो और नंगा कर दिया हो। क्या कहे, किसको कहे , कुछ सूझता नहीं था।

               फिर एक दिन अचानक घर में कोलाहल मच गया। लाड़ो ने कोर्ट मैरिज कर ली और मनीष के साथ चली गई। घर में रुदन मच गया। सब कुछ अशांत, सारे इकट्ठा हो गए। किसी के क्रोध की अग्नि प्रचंड थी और मानो सब को जला देने के लिए बहुत थी। कोई अफसोस कि ग्लानी में डूबा हुआ था, तो किसी की आत्मा रो रही थी।

             उदय आवेशित था,- " पापा मैं उस लड़के को छोडूंगा नहीं, साले का मर्डर कर दूंगा।"

            " उन दोनों को ही पकड़ कर जंगल में आग लगा देते हैं ..?" राकेश बोला ।

            " चुप , उसने किया जो किया, अब तुम क्या जेल जाओगे , परिवार का नाम रोशन करोगे..?" बड़े लक्ष्मीनारायण ने उनको फटकारा।

            " नाम तो वह लड़की रोशन कर गई भैया..?" बीच वाला रामनारायण फुफकारा।

            " मैं सुगंधा से पहले ही कहती थी, इस लड़की के चाल- चलन ठीक नहीं लगते ?" तपाक से बड़ी बहू सुशीला बोली।

            मां सुगंधा सिर्फ रोए जा रही थी, पलके नीचे झुकी हुई, मानो परिवार को नीचा दिखाने वाला यह कृत्य, लाड़ो ने नहीं, उसने ही किया था । उससे उसके पालन-पोषण में कोई चूक रह गई। पापा हरिनारायण की भी आंखें नम थी किंतु दिमाग की नसें फूली हुई थी, जैसे कोई गुनाह करने की कल्पना कर रही थी। वह कुछ बोल नहीं रहे थे, लेकिन अंदर ही अंदर जैसे किसी तूफान ने बवंडर मचा रखा था। उधर दादाजी सिर झुकाए, सिर की पगड़ी हाथों में लिए चौक में मूढे पर बैठे थे, आंखें ओस की बूंदों से नम थी, बिल्कुल शांत, उनमें विरक्ति का भाव था, जैसे अब जीने की ज्यादा इच्छा नहीं थी। दिमाग में सारी घटनाएं साकार हो रही थी, जो लाड़ो के जन्म से शुरू हुई थी और आज खत्म।

          "जीणे लायक ना छोड़या भाई..! अब बुढ़ापा में मरा तो दुनिया थूंकेगी, था ने जीबा कोनी देगी, अब अपने गुस्से पर काबू रखो , थारो कांई गुनाह छै , भूल जाओ लाड़ो न, म्हे समझांगा म्हारे ललाट रे मायने भगवान ने छोरी दी ही कोनी, थां की थे जाणो।"

          अंत में यह निर्णय हुआ कि अब घर में कोई लाड़ो का नाम नहीं लेगा और उसकी चर्चा भी नहीं करेगा। लेकिन सुगंधा, हरि की वेदना कौन जानता था। मां उसको कैसे भूल सकती थी, जो उसके तन का ही एक हिस्सा था। बाप जिसने उसे पल-पल बढते देखते देखा था, स्मृति पटल कि वह पटकथा कोई ब्लैक बोर्ड पर लिखी कहानी थोड़े ही थी, एक झटके में डस्टर से मिटा दी जाती, लेकिन क्या कर सकते थे।

         कभी समझ नहीं आया कि प्यार मोहब्बत की बुनियाद क्या है ?प्यार की गर्मी का एहसास क्या है? तलब प्यार के किस आकर्षण की ज्यादा है, विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण या आत्मा के अंदर बसी कोई पुकार ...? यदि प्यार निस्वार्थ चाहने , त्याग करने और दूसरे के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर मर मिटे की भावना है, तो मैंने आज तक मां- बाप से बड़ा कोई प्यार करने वाला नहीं देखा। मां जो 9 माह तक बच्चे को गर्भ में रखकर कष्ट सहने और प्रसव पीड़ा के बाद जब बच्चे को जन्म देती है, तो उसका चेहरा देखते ही उसके सारे क्लेश- कष्ट एक पल में ही दूर हो जाते हैं । फिर पाल-पोष कर बड़ा करना और उसको बड़े होते हुए देखने में जो गर्वानुभूति, सुखानुभूति वे महसूस करते हैं, उसको शब्दों की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता है । हमने अपने मुंह का निवाला अपने बच्चों को खिलाते मां को देखा है । अपने लहू की एक-एक बूंद पसीना बनाकर अपने बच्चों की छोटी- बड़ी आवश्यकताओं को पूरा करते हुए पिता को देखा है और जब ऐसी छोटी- छोटी खुशियां प्राप्त कर संतान मुस्कुराती है , तो उस पिता के शकून की गहराई अमाप्य होती है, जिसको सिर्फ वही महसूस करता है और फिर उसके लिए सब कुछ करने की जद में अपने आप को भूल सा ही जाता है ।

            एक मां-बाप को ईश्वर ने शायद ऐसा ही बनाया है जिन्हें अपनी संतान के अपने से बड़ा होने पर गर्व होता है , सुख मिलता है, अन्यथा तो आज भाई- भाई और पति-पत्नी भी शायद इतना सुकून दूसरे के बड़े होने पर महसूस नहीं करते, जितना मां-बाप करते हैं । माता-पिता अपनी जान देकर भी अपनी संतान को जिंदा रखना चाहते हैं, वह भी बिना किसी अपेक्षा के, बिना किसी बदले के, अधिक से अधिक उनकी अपेक्षा बुढ़ापे में दो मीठे बोल बोलने की होती है, दो निवाले साथ खाने की होती है, जो कभी-कभी ही नसीब होती है। अपने बेटा- बेटी के जीवन को वह पल- पल जीते हैं क्योंकि अपना जीवन तो वह कहीं पीछे छोड़ आए हैं , सिर्फ माता-पिता ही हैं जो संतान कुछ ना भी करें तो भी उसके लिए मरने की चाह में जिंदा रहते हैं, फिर प्यार क्या है ?

          लोगों को "प्रथम दृष्टि में प्यार होना, उसका दीवाना होने" के बारे में सुना है। सच में ही ऐसा होता होगा, तभी तो इतनी सारी साहित्यिक रचनाएं भी इस तथ्य पर ही आधारित हैं, लेकिन ऐसे प्यार की सच में ही बुनियाद क्या है , शारीरिक आकर्षण, सुंदरता या कुछ और ...? फिर इस बात की क्या गारंटी है कि आज जिससे हमें प्रथम दृष्टि में प्यार हो गया , भविष्य में कभी उससे ज्यादा आकर्षक, सुंदर और मन को तरंगित करने वाला, संसार में कोई नहीं मिलेगा और हमारी दृष्टि फिर चंचल नहीं होगी और फिर चंचल हो गई तो ऐसे प्यार की उम्र क्या है , क्योंकि न जाने हमने कितने ही ऐसे जोड़े देखे हैं, जिनको प्रथम दृष्टि में प्यार हुआ, शादी की और शादी के कुछ महीने बाद ही एक दूसरे पर दृष्टि न डालने की कसमें खाते हुए देखा है, या समझोतो और शर्तों के साथ अपनी गाड़ी कुछ वर्षों तक धकियाते देखा है । अधिकांश ऐसे रिश्तो का हस्र अच्छा होते हुए नहीं देखा । यदि किसी बुद्धिमान ने प्रथम दृष्टि में दीवाना होकर विवाह करने के बाद, अपना जीवन निर्वाह पूर्ण अंजाम तक कर लिया और सुखी ग्रहस्थ जीवन जी लिया तो निसंदेह वह काबिल-ऐ- सलाम है।

           फिर प्रश्न वही उठकर आता है कि यह कैसी मोहब्बत है जो वर्षों के मां- बाप के निस्वार्थ प्रेम को एक झोंके में भुला देती है, जो कुछ लम्हों के साथ को इतनी गहराई से महसूस करती है कि मां-बाप का अथाह प्रेम- सागर उसे छिछला नजर आने लगता है ,यह कैसा आकर्षण है कि मां-बाप के सर्वस्व समर्पण की परवाह नहीं करने देता, जो यह सोचने नहीं देता कि क्या मां- बाप को कभी अपनी संतान का अहित करना अच्छा लग सकता है , हां कुछ सोच, विचार, मर्यादा हैं जो उन्होंने निभाई हैं, भिन्न हो सकती हैं, कभी विरोधी भी हो सकती हैं, किंतु बस इसके लिए उनको निर्दयता से कुचल देना या उनकी आत्मा का हनन करना उचित है, यह कैसा प्यार है जिसको महसूस करने वाले सभी कुछ दांव पर लगा दे लगा देते हैं और फिर उसकी अवधि ज्यादा लंबी नहीं होती ,यह प्रश्न आज भी मेरे मन की उलझन है। यदि मां-बाप आपके विचार से सहमत नहीं हैं, तो उनको विश्वास में लेने और समझाने की पूरी कोशिश करनी चाहिए । उनको यह भरोसा दिलाना चाहिए की वे तुम्हारी भावनाओं को समझें, तुम्हारे निर्णय में सहायक होकर तुम्हारी ताकत बने यह नहीं कि एक झटके में मां-बाप की भावनाओं को बिल्कुल दरकिनार कर दे।

            कई दिन सप्ताह महीने गुजर गए। परिवार के किसी सदस्य ने लाड़ो से बात नहीं की । उसने मां को एक दो बार फोन कर बात करने की कोशिश भी की, किंतु सुगंधा ने कलेजे पर पत्थर रखकर उसको बात करने से दो टूक मना कर दिया । उसके व हरि के चेहरे से मानो मुस्कान ही गायब हो गई थी। अब वे बहुत ही कम बोलते थे। पापा के चेहरे पर दाढ़ी बढ़ गई थी । सुगंधा ने भी शादी- समारोह में जाना छोड़ दिया था। उधर दादा जी ने खाट पकड़ ली थी । अब उन्होंने गांव जाना बिल्कुल बंद कर दिया था ।पुश्तैनी कस्बे के पुराने साथियों और उनके बीच लाडो के बारे में होने वाली चर्चाओं की कल्पना कर दिल बैठ जाता था । पैर उनका वजन झेलने में असमर्थता व्यक्त करने लगे थे।

            उधर मनीष के परिवार में, मनीष इकलौता लड़का था। पापा एक कॉलेज में प्रोफेसर थे, मां पढ़ी-लिखी ग्रहणी थी, एक छोटी बहन थी सुलेखा। बस यही परिवार यहां शहर में रहता था, बाकी लंबा- चौड़ा परिवार अलग-अलग शहरों में और शेष एक गांव में रहता था । इकलौते बेटे की जिद ने उनको थोड़ा झुका दिया था, अन्यथा उन्होंने भी लाड़ो को बहू के रूप में स्वीकार नहीं किया था । उनके भी बड़े अरमानों पर तुषारापात हुआ था। कई दिनों तक तो उन्होंने परिवार में यह बात ही नहीं बताई, किंतु ऐसी बातें हमारे समाज में आग की तरह फैलती हैं । फिर सभी को स्पष्टीकरण देने लगे, किंतु मौके-बेमौके लाड़ो पर फब्तियां कसते, ताने मारने से भी नहीं चूकते थे ।

           "भाभी तुम्हारे घर में नौकर काम करते थे क्या? तुम्हारे यहां ऐसा ही खाना बनता है ?" सुलेखा बोली ।

           "दीदी मैंने अभी खाना बनाना ज्यादा नहीं सीखा था।"

           " क्यों भाई राजकुमारी जी, तेरे पापा क्या दहेज में 10-5 दासियां भेजने वाले थे और अब तो सारा देन-दायजा भी बच गया।" सास बोली ।

           "मम्मी आप ऐसा क्यों कहते हो जब कि आप जानती हो कि मैंने शादी घर वालों के खिलाफ जाकर की है ‌‌..?"

           "क्या पता, तुम्हें कहीं समझदार बना दिया हो कि शादी का खर्च बज जाएगा ..?"

           "यह क्या कह रही हो मम्मी ? मनीष को कंपनी में जॉब मिल गया है , मेरी डिग्री में भी एक सेमेस्टर बचा है, कोई ठीक सा जॉब मिल जाएगा , नौकर भी रख लेंगे ।"

           "ऐसी जबान नहीं होती तुम्हारी , तो ऐसा कांड क्यों करती ..? मनीष को तुम दहेज में लाई है, जो इतना अधिकार जता रही है और सुन, तेरी कमाई से ही घर का खर्च लेगा क्या ? हमारे यहां नौकरी की जरूरत नहीं है और प्राइवेट कंपनी में तो बिल्कुल नहीं, मैं उस जमाने की बी.ए. हूं।"

            लाड़ो के अरमानों का एक कोना सा उजड़ गया । रात्रि में उसने मनीष से इस बारे में बात की किंतु उसने ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया, - " अरे अभी सो जाओ , धीरे-धीरे सब सामान्य हो जाएगा, मैं संभाल लूंगा।"

            किंतु सब सामान्य नहीं हुआ ससुर ने तबादला किसी दूसरे शहर में करा लिया। परिवार उनके साथ रहने चला गया। सास- ससुर ने लाड़ो का कॉलेज जाना बंद कर दिया । बमुश्किल इस बात के लिए तैयार हुए की अंतिम सेमेस्टर की परीक्षा दे लेगी। डिग्री मिलने के बाद किसी प्राइवेट कंपनी में जॉब नहीं करेगी , ज्यादा से ज्यादा घर में रहकर ही सरकारी नौकरी हेतु तैयारी करेगी। अंतर्मन से मनीष भी नहीं चाहता था कि वह किसी प्राइवेट कंपनी में जॉब करें । जो इतने खुले विचार होने का दावा करते हैं और अंतरजातीय विवाह जैसे कदम भी उठा लेते हैं, उनके विचार कभी-कभी वास्तव में कितने संकीर्ण होते हैं, सोच कितनी छोटी है, यह वक्त आने पर छुपा नहीं रह सकता ।

            लाड़ो के अरमान जैसे टुकड़ों में दम तोड़ रहे थे । उसके ख्वाबों की दुनिया हकीकत की तपती जमीन पर उतरते ही जलने लगी थी। दिन वर्ष में बदलते गए। मनीष के इश्क का खुमार भी उतरने लगा। अब वह भी लाड़ो का ज्यादा पक्ष नहीं लेता था। उसकी डिग्री तो जैसे- तैसे घिस-पिट कर हो गई, पर किस काम की ? वह जॉब नहीं कर सकती थी और घर का सारा काम सास- ननंद उससे करवाने की कोशिश करती । ऊपर से मानसिक प्रताड़ना और झेलती। सरकारी नौकरी की प्रतियोगिता की तैयारी करें भी तो कैसे , वास्तव में घरवालों को उसकी नौकरी में कोई रुचि थी ही नहीं, बल्कि वे तो उस से पीछा छुड़ाना चाहते थे और सास के अंतर्मन में तो अभी भी मनीष की शादी दोबारा अपनी मर्जी से करने की इच्छा बलवती थी।

         लाड़ो टूटने लगी, करें तो क्या करें? जाए तो कहां जाए ? मानो सारे संसार ने उसके लिए रास्ते बंद कर दिए थे। अपनी वेदना किसको कहे ? कई बार मम्मी- पापा- भैया- दादा से बात करने की कोशिश की । कोई उससे बात ही नहीं करना चाहता था, बल्कि सब ने उसका नंबर ब्लॉक कर दिया था । मनीष तो जैसे उसकी सुनता ही नहीं था। उसका मन मर रहा था, दिल किस्तों में टूट रहा था। कुछ समझ नहीं आता था वह किस भंवर में फंस गई थी। ऊपर से सास- ननंद ने उसका जीना हराम कर दिया था ।उसकी हालत केवल निशुल्क काम करने वाली नौकरानी की तरह बना दी थी। आखिर उसने मम्मी- पापा को पत्र लिखा।

     "आदरणीय मम्मी पापा,।

       आज मुझे ज्ञान हुआ है कि मैंने वास्तव में बहुत बड़ी गलती की। आपने मुझे पैदा किया, जो असीम प्यार दुलार दिया, मुझे पाल-पोष कर बड़ा किया, उसको मैं इस जन्म में कभी जरा सा भी नहीं चुका पाऊंगी और इस जीवन में क्या शायद किसी जीवन में नहीं, हो सके तो अपनी खुदगर्ज ना समझ बेटी को माफ कर देना, अन्यथा मेरी आत्मा मर कर भी चैन से नहीं रह पाएगी। मैं आपसे मिलना चाहती हूं , बस एक बार , यहां से अपना शहर 250 किलोमीटर दूर है, मैं निकल नहीं पाऊंगी पापा , आप आ जाओ अपनी लाड़ो से मिलने सिर्फ एक बार, दादा जी को मैं मना लूंगी, भैया से कहना मै हर राखी, भैयादूज के दिन भूखी रहकर ही उसकी राह देखती हूं। मुझे मम्मा के गले से लगकर बहुत रोना है पापा, मेरी यह अंतिम इच्छा पूरी कर दो पापा......!

आपकी नालायक बेटी।

लाडो।"

        दो-तीन दिन बाद जब पत्र घर पहुंचा, तो सुगंधा पढने लगी और रोने लगी, आंखें रोके नहीं रुक रही थी , मन उद्विग्न था, हाथ कांप रहे थे, ह्रदय विदीर्ण हो रहा था । पति हरि जब घर आया, पत्र उसके हाथ में थमा दिया, तो उसका दिल फट पड़ा, घुटनों के बल बैठ गया। आज उसको भी एहसास हुआ कि कैसे उसने अपने कलेजे के टुकड़े को टूटने के लिए छोड़ दिया , क्यों वह समाज और खुद से लड़ नहीं सका ? तुरंत लाड़ो के नंबर लेकर बात करना चाहा, किंतु संदेश आया कि " यह नंबर अस्तित्व में नहीं है।"

        "सुगंधा हमने बहुत बड़ी गलती कर दी, लाड़ो से बात करनी चाहिए थी, उसको मिलते रहना चाहिए था।"

         "मैं ना कहती थी आपको, एक बार उसके ससुराल जाकर तो आओ, मोबाइल पर बात करने में क्या हर्ज है ।"

         "अच्छा अब देर हो चुकी है, मैं सुबह गाड़ी लेकर जा रहा हूं और लाड़ो को लेकर आऊंगा, फिर देखेंगे हैं जो भी कुछ होगा ।"

       रात्रि दोनों सोए नहीं, बस उसकी याद में उसकी अठखेलियों को स्मृति पटल पर देखते रहे, पलकों में जैसे पूरी पटकथा सजीव होकर चल रही थी । सुबह हुई उदय ने पत्र पढ़ा। वह भी पापा के साथ जाने को तैयार हुआ । तभी अचानक हरिनारायण के मोबाइल फोन पर किसी अज्ञात नंबर से कॉल आई,- ' मैं धीरेंद्र बोल रहा हूं , मनीष का पापा लाड़ो नहीं रही, रात्रि गले में फंदा लगा लिया था, सुबह कमरे से लाश मिली है, आप आ जाएं। "

          हरि की आंखों के सामने अंधेरा छा गया । जमीन पर गिर पड़ा। पास खड़ी सुगंधा अनहोनी को भांप गई। अनायास ही उसके गले से तेज चीख निकल गई और सब कुछ चीरती हुई दूर तक चली गई। सारा परिवार इकट्ठा हो गया, हतप्रभ, कुछ के चेहरों पर ग्लानी। तय हुआ पहले लाड़ो का शव लेकर आओ, बाद में सोचेंगे क्या करना है। लाडो का शव आ गया, बिल्कुल नीला पड़ा चेहरा, आंखें बाहर निकल आई थी, जैसे इस धूर्त संसार की वास्तविकता को अच्छे से समझना, देखना चाहती थी और सबसे प्रश्न कर रही थी कि "मेरा कसूर क्या है....?"

           आज पूरा परिवार लाड़ो को अश्रुपूरित विदाई दे रहा था । एक ऐसी विदा, जहां से लौटकर लाड़ो फिर नहीं आएगी । विदाई जहां लाड़ो का महकता बदन फेरों की गुलाबी साड़ी में नहीं, अपितु मृत देह जनाजे के कफन में लिपटी थी। डोली कहारों द्वारा ससुराल जाने के लिए नहीं, अपितु चार कंधो पर जनाजे के रूप में थी। उनके अरमान तो लाड़ो के शादी करने पर ही मर गए थे, लेकिन आज जैसे सभी के सभी अरमानों का एक साथ जनाजा निकल रहा था । मां सुगंधा का हृदय- विदारक करुण क्रंदन माहौल को गमगीन बना रहा था । सभी को शोक समुद्र में डूबा रहा था, सब के नेत्रों से निकलने वाली धाराएं मानो शोक- समुद्र के जलस्तर को बढ़ा रही थी। यह कैसी विदाई थी जो सबकी कल्पना से परे थी।

           इस नियति नियामक कौन था, ईश्वर या उन सब के कर्म ....? लाड़ो जिसने परिवार की मर्यादाओं - संस्कारों को तार-तार करते हुए, मां-बाप के असीम प्रेम भावनाओं को दरकिनार करते हुए, अपने उस कथित प्रेम को प्राप्त करने के लिए सारे बंधनों को एक झटके में तोड़ दिया ? पंडित जी का परिवार, मां -बाप, दादा- दादी सभी जिन्होंने उस रिश्ते को नहीं अपनाया और लाड़ो का मन से भविष्य में कभी उसका सहारा बनने या दुख तकलीफ बांटने का विचार ही निकाल दिया, उसकी भावनाओं को समझने की कोशिश ही नहीं की ? मनीष का परिवार जिन्होंने भी मन से लाड़ो को अपनी बहू के रूप में स्वीकार नहीं किया और उसको प्रताड़ित करने का कोई मौका नहीं छोड़ा या फिर खुद मनीष जिसने अपने परिवार और अपनी घर की दहलीज को सिर्फ उसके भरोसे लांघ कर आने वाली लाड़ो की भावनाओं की कोई कद्रर नहीं की , वह शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना के झंझावातों में अकेली पड़ गई और टूट गई या फिर यह दकियानूसी पुरातन रूढ़िवादी समाज...? प्रश्न एक नश्तर की तरह आज भी मेरे दिमाग को साल रहा है।

         उस कोहरे की सर्द सुबह में कुछ साये लाड़ो की देह को अग्नि देने के लिए शमशान की ओर बढ़े जा रहे थे । दादाजी बिलख रहे थे,- " अब म्हाने पुराणों होग्यो है, कुण कहेगी ...? कुण कहेगी....?"

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