गर्मियों की छुट्टियों में जब मैं अक्सर मेरे घर पर होता था रात्रि भोजन के पश्चात करीब 8:00 बजे टहलने एक पार्क को निकल जाता था, जो मेरे घर से करीब एक किमी की दूरी पर था इस बीच मुझे एक बस्ती इंदिरा कॉलोनी से गुजरना होता था, जिसमें अधिकतर निम्न आय वर्ग वाले लोग रहते थे , कुछ निम्न मध्यम वर्गीय परिवार भी थे । इस बस्ती के एक ऐसे घर के सामने से गुजरना पड़ता जहां हर दूसरे तीसरे दिन शायद पति-पत्नी की कलह सुनाई पड़ती थी, कभी-कभी पति के तेज आवाज में गाली - गलौज, कभी-कभी औरत के सिसकने की आहे, छोटे से घर की बाहर वाली चार दिवारी कुछ नीची कुछ खंडहर सी थी, जिससे घर के अंदर का सारा मंजर दिखाई देता था दो छोटी-छोटी कोठारीनुमा कमरे, एक कमरे के साथ लगी टपरी जैसी एक पल्ला टीन शेड , जो दो तरफ से गारे- मिट्टी की दीवार खड़ी कर रसोई घर का रूप देने का प्रयास किया गया था, इसमें कोई खिड़की दरवाजा नहीं था, बाहरी दीवार का मुख्य दरवाजा और दोनों कोठरियों के दरवाजे भी लोहे की चद्दर की एक पल्ला आड़ थी, जो नीचे से बिल्कुल गले हुए जंग खाकर टूट रहे थे और नीचे की तरफ काफी बड़ा छिद्र हो गया था, जिसमें से कुत्ते- बिल्ली आसानी से अंदर - बाहर हो सकते थे।
कभी - कभार इक्का - दुक्का तमाशबीन पड़ोसी उस तमाशे का रसपान करता हुआ खड़ा दिखाई दे जाता था। अक्सर वहां उनकी लड़ाई के दौरान कभी आजकल के हितेषी पड़ोसियों की भीड़ दिखाई नहीं देती, शायद रात्रि का समय होता था इसलिए अथवा वे उस कलह के अभ्यस्त हो चुके थे, अन्यथा आज का आदमी पड़ोसी के परिवार में आपसी जिरह को देखकर बड़ा आनंदित होता है, ऊपरी हितेषी बनकर सलाह देता हुआ परपीड़ा का रसास्वादन करता है । मैं भी इस आम आदमी की तरह रोज उसे दृश्य को दरकिनार करते हुए अपनी मंजिल की ओर बढ़ जाता और पार्क में दो चक्कर लगाने के बाद उस बात को भूल जाता । रात्रि करीब 9:00 -9.30बजे वापस जब लौटता, वह घर सुनसान से अंधेरे में डूबा निर्जनता का सा प्रतीक दिखाई पड़ता, जहां मानो भयानक नीरवता अपने पैर पसारे डरावने स्वप्न जैसी दिखाई देती और मैं कदम बढ़ाते हुए अपने घर पहुंच जाता।
किंतु आज इस तमाशा ने शायद रोद्र रूप ले लिया था । दो-चार महिलाएं और पुरुष भी बाहर खड़े हुए थे । मुझे भी मानवीय उत्सुकता वश रहा नहीं गया और रुक गया । वह आदमी गुस्से में, शराबी की सी लड़खड़ाती जबान में बोल रहा था,-" साली, हरामजादी, रोज तुझे रुपए चाहिए, दिन-रात चैन नहीं लेने देती, खाना भी ढंग का बनाकर खिला नहीं सकती ।"
"मैं क्या मेरे हाड़ खिलाऊं, घर में आटा- दाल, नमक- मिर्च, तेल कुछ भी नहीं है, हफ्ते में मुझे मुश्किल से दो-तीन रोज कोई मजदूरी मिलती है , उससे तुझे क्या पता रोटियों का जो कैसे जुगाड़ होता है, इन तीन बच्चों का कैसे पेट भरती हूं, कभी दो रुपए भी साग-सब्जी के लिए लाकर भी देता है। "
" कल ही तो 50 रुपए दिए थे, पैसे की मेरे पास खान है क्या ?"
"तुझे दारू की थैली डाकोचने के लिए कहां से आते हैं पैसे ? रिक्शे चलाने वाले भी 100-200 तो रोज कमाते ही है?"
" रिक्शा क्या तेरे बाप का है? उसका किराया नहीं देना पड़ता है क्या ? और फिर सारे दिन थका हारा आराम के लिए दो घूट पी लेता हूं तो उसमें कौन सा बुरा करता हूं , तेरे हमेशा मेरी आग लगी रहती है ?"
"तो मेरा गला घोट दे या इन बच्चों को जहर दे दे , फिर रहना आराम से , कोई कहने -सुनने, रोने वाला ही नहीं रहेगा ?"
"कर दूंगा साली, एक दिन ऐसा ही करना पड़ेगा ......!"
"तो देर क्यों करता है, आज ही काम तमाम कर दे , जिंदगी की फांस कट जाएगी, कमाया खाया तो जाता नहीं, तुझे इन बच्चों का भी ख्याल नहीं आता ?"
"साली तू ही कमा कर देती है और फिर मैंने किए हैं यह बच्चे पैदा...?"
" नहीं इनको तो मैं मेरे बाप के घर से उठाकर लाइ थी, तूने क्यों पैदा किए हैं ?"
"साली मैंने कही थी, तीन-तीन छोरियां पैदा करने की, तूने बड़ा नंदलाल पैदा किया है ?"
"यह क्या मेरे हाथ में है, भगवान की ऐसी मर्जी ..?"
और उनके तीन बच्चे जिनकी उम्र तकरीबन 4-6-8 वर्ष रही होगी, इस तमाशा के मूक दर्शक बनकर, दोनों के चेहरों को टुकर- टुकर कर देखते रहे थे, शायद अपनी बेबशी पर मन ही मन रो रहे थे । बाल बुद्धि यह नहीं समझ पा रही थी कि वह उनके जन्म को कोस रहे थे या अपनी जिंदगी को या अपने भाग्य को ...?
मैंने फटे में पर उलझने की आदत और बिना मांगे सलाह देने की भारतीय परंपरा का अनुसरण करते हुए, अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन किया और कहा,- " अरे भाई ऐसे लड़ने से क्या होगा, तुम्हारी समस्या हल होगी क्या?"।
लेकिन उन्होंने मेरी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया । अपितु पड़ोसी जो मेरे पास खड़ा उस नाटक का दर्शन था, -" बोला साहब, इनका यह रोज का झंझट है, कई बार दोनों को समझाया है, पर कुछ बात ही नहीं बनती, औरत तो बेचारी करें क्या ? यह साला रोज दारू पीकर आता है, कभी बीवी को मारता है, कभी बच्चों को, कभी-कभी तो दिन में दारू पी के पड़ा रहता है, किराए पर रिक्शा लेकर चलाता है, वह भी रोजाना नहीं, दो-तीन दिन चला लेता है और फिर तीन दिन पी लेता है, तीन लड़कियां हैं, कभी कहते हैं तो कहता है, 'किसके लिए कमाऊं, कौन है जो मुझे रोएगा, बेटियों के तो फेरे पड़ ही जाएंगे ।' औरत है बेचारी कहीं काम मिल जाता है, तो मजदूरी कर कुछ मिल जाती है, जिससे इनका पेट भर लेती है, तो भी साला उसको चैन से रहने नहीं देता। "
फिर जैसे - तैसे शांत हो गए, मैं पार्क की ओर बढ़ गया। किंतु आज मेरा मन बहुत खिन्न था, मैं सोच रहा था कि ईश्वर जीवन में कितने तरह के रंग दिखाता है, यह कैसा दांपत्य जीवन है, जिनकी उम्र एक दूसरे से कलह करने और कोसने में ही बही जाती है, सुना है कि विधाता पति-पत्नी के जोड़े पहले ही तय कर देता है, मानव मात्र तो उसकी बनाई लकीरों पर चलता है, फिर वह ऐसे जोड़े ही क्यों तय करता है, जो एक- दूसरे का साथ नहीं दे सकते, साथ जीने का अर्थ ही नहीं जानते, वह ईश्वर तो सबसे बड़ा ज्ञानी है, फिर ऐसी भूल कैसे कर सकता है या फिर यह पूर्व जन्मों के कर्मों की सजा है, जिसे भोगने के लिए उसने उनको ऐसा बनाया है । कभी-कभी लगता है कि यह सब हमारे कर्मों का ही फल है, कर्म ही नियति तय करते हैं, यहीं उनका सुफल और कुफल भोगने को मिलता है, शायद यहीं स्वर्ग- नरक है, व्यक्ति जब सन्मार्ग से भटक कर कुपथ पर चलने लगता है, तो उसके जीवन में ऐसे ही दृश्य पथ के कंटकों की तरह पग -पग पर दिखाई पड़ने लगते हैं और ऐसे कंटक पूर्ण पथ पर चलकर वह लहु-लुहान होता रहता है, दूर-दूर तक कोई शांति का आश्रय स्थल नजर नहीं आता है , वरना सात फेरे अग्नि को साक्षी मानकर तो हर कोई लेता है , विभिन्न वचन- वादे भी किए जाते हैं, लेकिन उन सबको दरकिनार करके विद्वेष और दुर्भावनाए दिल में घर बना लेते हैं ।
उस दिन पार्क में बनी पत्थर की कुर्सी पर बैठा हुआ मैं बहुत समय तक यूं ही सोचता रहा फिर देर रात्रि में घर पहुंचा तो पत्नी बोली,-" अजी आज घर आना याद नहीं रहा क्या या कोई मिल गई थी, जिससे बतियाने में इतनी रात निकल गई ।10:30 बज गए हैं कब से रहा देख रही हूं ।"
अन्यमनस्क भाव से मैंने उसकी बात सुनी, मुझे समझ नहीं आया कि वह मुझे उलहाना दे रही थी या व्यंग्य कर रही थी या इंतजार करने की खीझ मिटा रही थी। मेरी मानसिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि मैं दिमाग पर जोर डालता या कुछ जवाब देता इसलिए चुपचाप अपने कमरे में जाकर सो गया।
फिर आज कई दिनों बाद घूमने के लिए रात्रि उस घर की गली से गुजर रहा था तो कुछ लात- थप्पड़ या किसी अन्य चीज से मारने की आवाज़ आ रही थी और उस औरत के चीखने- पुकारने की, दुर्बल व्यक्ति और कर भी क्या सकता है ? वह औरत रोती हुई कह रही थी,- " नाशपीटे, ऐसे पीटने से क्या होगा मिट्टी तेल छिड़क कर आग लगा दे या हम सबको जहर दे दे, जिससे हमारी जिंदगी और तेरी भी किनारे लग जाए, वैसे भी तो हर रोज थोड़ा-थोड़ा मर ही रहे हैं, क्यों ना फांस काट देता है, अरे कमाने खाने की तो दूर तुझसे तो रोजाना घर आकर मरा भी नहीं जाता, पड़ा रहता है कहीं नाली में, रात को यह भी नहीं सोचता है कि हमारी अकेली औरत -जात रात को घर में छोटे-छोटे बच्चों को लेकर कैसे रहेगी ? हे भगवान तूने मेरे भाग में ऐसे क्यों फोड़े है, उठा ले तू मुझको ....!"
ऐसी ही उक्तियों को कहकर उसकी हृदयगत भावनाओं उद्वेलित हो फूटकर बाहर निकल रही थी और वह आए बहार रही थी । आज मारपीट होने के बावजूद भी कोई पड़ोसी वहां दिखाई नहीं दिया । शायद वह पुरुष भी पीट- पीट कर थक गया था और अब सिर्फ रोने की आवाज़ ही थी । मैं भी सांसारिक मानव की तरह बिना कुछ बोले पार्क की ओर चला गया। जब लौटा तो रात की नीरवता में अभी भी सिसकियां की गूंज सुनाई दे रही थी, मानो वह दयनीय औरत आज ही शेष जीवन के आंसू बहा लेना चाहती थी। तभी तो अभी तक भी वह हिचकी ले -लेकर रो रही थी । वाह रे ईश्वर ! तेरी लीला निराली है, तूने इस संसार रूपी रंगमंच पर सांसारिक जीवन रूपी नाटक के निर्वाह हेतु कैसे-कैसे पात्र बनाए हैं अथवा तू सभी मनुष्यों की यथा समय जीवन में परीक्षाएं लेता रहता है, जो व्यक्ति अपने धैर्य, समझ या सत्कर्म से उत्तीर्ण हो जाता है , थोड़ा शकून से जीवनयापन कर लेता है जो टूट जाता है धैर्य जवाब दे जाता है, उसका जीवन दुखी पात्रों के रूप में कठिनता से व्यतीत होता है।
एक दिन मैं बाथरूम में फिसल कर गिर गया, मेरे पैर में फ्रेक्चर हो गया, जिसको सही होने में डेढ- दो महीना बीत गया । फिर दो महीने बाद, जब मैं आज वहां से निकला तो उस घर पर एक बहुत ही विद्रूप दृश्य उपस्थित था । अच्छी खासी तमाशबीन पड़ोसियों की भीड़ वहां उपस्थित थी , किंतु नाटक का अहम पात्र उसका पति, दृश्य गायब था, कुछ उतावले पड़ोसी गुस्से में आग बबूला हो रहे थे, अनगिनत मुंह जहरीले नागो की तरह फुफकार कर रहे थे और अनगिनत डंक मार रहे थे । कोई बोला, -" अरे साली को खींचकर घर से और मोहल्ले से बाहर कर दो, नहीं तो यह कुलटा रहना मुश्किल कर देगी, खसम तो पड़ा रहता है नालियों में और यह नित-रोज एक नया खसम बुलाती है, कुलटा, हमारे बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ेगा ।"
एक अन्य बोला, -" अरे साली जिंदगी के मजे ले रही है, इसे अपने बच्चों और पति की क्या चिंता है, इसकी लड़कियां भी क्या करेंगी बड़ी होकर, भगवान जाने, मोहल्ले का बच्चा-बच्चा इसके चाल- चलन से तंग आ गया है ।"
एक कह रहा था, -" अरे औरत- जात की शर्म तो इसकी आंखों में रही नहीं, हमको भी बेशर्म बना रही है, सारी गली के लोगों का जीना हराम कर दिया है, हमारी भी बच्चियों सयानी हो रही है , क्या सीखेंगी, कोयले की कोठरी के पास रहेगी तो कभी ना कभी तो काला लगेगा ही, इसको धक्के देकर निकालो, यहां से, बे हया कहीं की। "
एक हितैषी बोला, -" अरे इसी वजह से तो बेचारा पति रोता पड़ता है, नशा पता करता है, ऐसी औरत को कौन बर्दाश्त करेगा , चरित्रहीन कहीं की।"
और वह विवश औरत घर के दरवाजे से चिपटी बैठी है और तीनों बेटियां उसके आंचल में लिपटी हुई, भयभीत प्राणी की तरह उन डरावने राक्षसों को कातर नजरों से ताक रही हैं, उस महिला के नेत्रों से अविरल धाराएं बिना कुछ बोले, किसी नदी प्रवाह की तरह बहे जा रही है, जैसे किसी किसान या बागबान की फसल या चमन को बिन मौसम की बरसात और ओलावृष्टि उजाड़ रही है और वह निरीह प्राणी केवल उसको उजड़ता हुआ देखकर अफसोस में हृदय को विदीर्ण कर रहा है, उसके हाथ में कुछ नहीं है। वह क्या करें? कहां जाए ? कुछ समझ नहीं आ रहा सिर्फ रो सकती है, अपनी दयनीयता पर, वह ऐसी तो नहीं थी, वह जीवन के किस मोड़ पर पहुंच गई है, यहां से आगे की कोई राह दिखाई नहीं देती है। यह समाज, यह सांसारिक चरित्र और उसके पात्र भी ईश्वर ने कितने स्वार्थी, बेरहम, बड़बोले और बाहरी भद्र प्राणी बनाए हैं, जो अक्सर दोहरा चरित्र जीते हैं। जब संकट में उसको, उन पड़ोसियों, रिश्तेदारों के सहारे की आवश्यकता थी, कि कोई उसके जीवन को पटरी पर लाने में मदद करें । तब कोई महापुरुष, सज्जन आगे नहीं आया, जो उसके पति को समझा सके, उसको संभाल दे सके, किंतु आज अनायास ही बिन मौसम के काले बादलों की तरह उमड़-उमड़ कर घिरे आए थे । वैसे तो वर्तमान की स्वार्थी- पापी दुनिया में दुष्कर्मों का साम्राज्य है, कोई भी शख्स पाप करने से नहीं हिचकिचाता है, यदि उसकी क्षणिक भी स्वार्थ सिद्धी हो, फिर यह कहावत तो पुरातन काल से ही यथार्थ है कि, "बुभूक्षितम किम न करोति पापम् ।" किंतु इन तथ्यों को समझने वाला इस समय वहां कोई न था । मैं उसके कर्मों को सही नीति पूर्ण सिद्ध करने का प्रयास नहीं कर रहा हूं, किंतु यथा स्थिति की औचित्यता या अनोचित्तता की समीक्षा करने वाला वहां कोई नहीं था। माना कि ईश्वर हर आदमी के जीवन में कठिन स्थितियां पैदा करता है, इसका मतलब यह कतई नहीं है की आदमी सन्मार्ग छोड़कर भटक जाए, किंतु हर व्यक्ति में इतना धैर्य और अआत्मबल भी कहां देता है, कि जीवन के भयंकर थपेड़ों से टकराकर भी वह किसी अचल पर्वत की तरह खड़ा रह सके, झुके नहीं, चाहे टूट कर अपना अस्तित्व ही मिटा दे।
इतने में एक भद्रपुरुष बोला, -" अरे ऐसे जीने से तो मरना भला है, लेकिन इस कुलटा में हया बची ही कहां है ...?"
वह बेचारी औरत क्या करती, शायद उसके मन में कई बार अपने जीवन लीला को समाप्त करने का ख्याल भी आया होगा, किंतु तीन बेटियों को मारने की हिम्मत जुटा नहीं सकी और वैसे भी वह कौन सा जी ही रही थी। रोजाना शायद किस्तों में मरती होगी, यह बात उसके सूने नेत्रों की गहराई से निकलकर अश्रु धाराएं बयां कर रही थी । उसकी स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार था ? वह स्वयं, उसका पति या यह दकियानूसी समाज.......?" ऐसे ही न जाने इस देश में कितनी औरतें रोजाना यतीम बनती हैं, कलंकनी और चरित्रहीन का खिताब अर्जित करती हैं, हमारे समाज में ऐसी परिस्थितियों पैदा ही क्यों होती हैं, समाज के कथित बुद्धिजीवियों को इस तथ्य की समीक्षा करनी चाहिए ।
तीसरे दिन जब सुबह जगा और अखबार उठाकर देखा तो दिल धक से रह गया अखबार की एक मुख्य समाचार पंक्ति थी, -" इंदिरा कॉलोनी में एक मां ने तीन बेटियों सहित आत्महत्या की ।"। तिलमिलाहट भरी आह,अनायास ही निकल गई , मेरा मन मुझे बार-बार धिक्कार रहा था ........ ।