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कोई तुमसा नहीं

1.
इस सम्पूर्ण सृष्टि के
समस्त अनुबंधों से परे
मेरे प्रेम की पराकाष्ठा
सिर्फ तुम हो ,सिर्फ तुम ।

लिप्त रही मैं सदा ही
बेबस मर्यादा की बुझती ज्योति में,
भस्म होती मेरी हर कामना,
अंतर्मन की आत्मदीप्ति में,
मेरी अंतहीन लालसाओं से परे,
मेरी उत्कंठाओं की पराकाष्ठा
सिर्फ तुम हो ,सिर्फ तुम ।

तलाशती रही मैं हर खुशी,
गूंगे बहरे इन चेहरों में,
जकड़ लिया मेरी हर प्रीति को,
तृष्णा के भयानक अंधेरों ने,
मेरी खुशियों की अनबुझी तिषा से परे
मेरी आत्मतृप्ति की पराकाष्ठा,
सिर्फ तुम हो ,सिर्फ तुम।

क्या होता है पाप -पुण्य
और सही गलत क्या होता है ?
कोई स्वार्थ नहीं ,ना कोई व्यसन है 'ये'
फिर प्रेम ही अक्सर क्यों रोता है ?
जनम जनम के अस्थिबंधनों से परे
मेरे अस्तित्व की पराकाष्ठा
सिर्फ तुम हो ,सिर्फ तुम।।

2.
एक बन्द कमरे में
मैं और मेरी तन्हाई
और उस पर हावी होता
मेरा अकेलापन
असंख्य विचारों से जूझती
मेरी अभिव्यक्ति
और अनकहे प्रश्नों से
परेशान मेरा मन
तभी ना जाने कौन खोलता है
मेरे कमरे की बन्द खिड़की
और मेरे अकेलेपन को
ले जाता है
दूर ,बहुत दूर
कमरे में रह जाते हैं
सिर्फ मैं और वो
मिलकर करते हैं झंकृत
समृति वीना के तारों को
और एक नए संगीत का
होता है पदार्पण
जो सजा होता है
प्यार के शब्दों
चाहत के सुरों
और यादों की सरगम से
जो जगाकर जाता है
मेरे मन मे
एक अद्भुत चेतना
और संचार करता है
एक नई उमंग का
स्वयं को पाती हूं
प्रेम के एक अद्भुत संसार मे
जिसमे हूं सिर्फ मैं और वो
इसलिए प्रिय है मुझे वो.......
क्योंकि...
उसने ही खोली थी
मेरे कमरे की बन्द खिड़की।

3.
कैसा मौसम
आया है जीवन में
ना धूप छांव
आया ये दबे पांव
ठंडी सी रातें
ना ही ओस सी बातें
हल्की फुहारें
ना खुशी की बौछारें
है पतझड़
ना लू सी घड़घड़
ना है उमंग
ना फूलों सा ये रंग
है अजीब सी
ये बारिश की बूंदे
भीग जाती हूं
पलकों को यूं मूंदें
तन से भी मैं
मन के अंदर भी
सूख जाते हैं
सारे गम व दर्द
और साथ में
सूख जाती हैं मेरी
इच्छाएं सारी
महत्वकांक्षाएं भी
वक्त की धूप
में जल जाती हैं ये
झड़ जाती हैं
सारी खुशियां मेरी
उम्र के पत्तों
सी बिखर जाती हैं
जाने कैसा ये
मौसम आया है ये
फिर भी मुझे
आस है जाने कैसी
लहलहाने,
यूं खिलखिलाने की
खुशियां फिर
से संजोने की और
मुस्कुराने की
खुद ही खुद में यूं
फिर टूट जाने की।

4.
आस्था...
आस्था ,उस परम शक्ति पर
जो देती है विश्वास
हर रात सोने से पहले
वापस फिर सुबह उठने का
जो देती है विश्वास
घर से निकलने से पहले
वापस फिर घर आने का
आस्था.....
आस्था, उस प्रेम भाव पर
जो बांधे रखता है
दो प्राणियों को एक संबंध में
जो बांधे रखता है
संपूर्ण सृष्टि को एक अनुबंध में
आस्था.......
आस्था का कोई रंग रूप नहीं होता
आस्था तो भाव है इसका स्वरूप नहीं होता
आस्था और प्रेम से ही हम सब पूरे हैं
इसके बिना तो हम इंसान अधूरे हैं।।

5.
तमाम आरजुएं लिए
ढेरो हसरतों के साथ
शिकायतों की एक
लंबी फेहरिस्त लिए
आज भी खड़े है हम
उसी मोड़ पर...
जहां से....तुम
मुड़ गए थे कभी।

चलो बना लो तुम
एक फेहरिस्त शिकायतों की
और मैं भी इकठ्ठा कर लेती हूं
तमाम उम्मीदें..जो बिखर गई थी
तुमसे बिछड़ने के बाद।
फिर मिलते है हम
उसी मोड़ पर...जहां से
अलग हो गए थे..रास्ते हमारे।

उस मोड़ की..
कहानी भी अजीब है ना
जाते हैं जहां से रास्ते कई...
पर मोड़ वही रह जाता है
खड़ा देखता रहता है
वक़्त की रफ़्तार को
रंग बदलते संसार को
पल पल होते बदलाव को
और जीवन की धूप छांव को
बस..वो देखता रहता है।

याद है मुझे
वो मोड़....आज भी
जहां से गुजरते
रास्तों पर जी थी मैंने
बचपन की शरारतें
दोस्तों की हंसी-ठिठोली
उस उम्र का अल्हड़पन
और जवानी की शोखियाँ
आज भी..मुस्कुराता है
वो मोड़...देखकर मुझे
और मैं...जी लेती हूं
संग उसके...
उम्र का ये पड़ाव भी।

कुछ मोड़ होते हैं जो...
भुलाये भूले नही जाते
बस जाते हैं ज़हन में
सदा के लिए...
फिर वो मोड़ हो चाहे
हमारी उम्र के
या मोड़ हों रास्तों को,
जिनसे मुड़कर
बदल जाता है
जीवन सारा..
दुःख में या फिर सुख में।

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