पहली आस्की - भाग 2 SR Daily द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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पहली आस्की - भाग 2

घर पर 4 मार्, 2006" हमने फैसला किया।
आखिरकार, उस निर्धारित तारीख को मैं हैप्पी के घर की सीढ़ियाँ तेज़ी से चढ़ कर ऊपर गया।
दोपहर के 12.30 बजे मैंने उसके दरवाज़े को खटखटाया। उसकी माँ ने दरवाजा खोला और मुझे अंदर
बुलाया। चूँकि मैं उसके घर कई बार जा च्का था। वो मुझे अच्छी तरह जानती थीं। हैप्पी के घर में
बहुत अधिक औपचारिकताएँ नहीं होती थीं। मैं जब पानी पी रहा था उन्होंने मुझे बताया कि हैप्पी
घर में नहीं था और उसका सेल फोन स्विच ऑफ था।
'खु्ब! और उसने मुझसे कहा था कि देर मत करना, मैं अपने आपसे बुदबुदाया।
कुछ देर बाद फिर दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ आई। दरवाज़ा खोलने के लिए मैं अपनी कुर्सी से
उठा, क्योंकि हैप्पी की माँ किचेन में थीं । मैंने दरवाज़ा खोला तो कुछ इस तरह का शोर- शराबा होने
लगा, "ओह...ब्र्राह...हैंडसम.हा हा हा...ओहहा हा.!' नहीं, यह हैप्पी नहीं था। एमपी और
अमरदीप अये थे।
तीन सालों बाद कॉलेज के अपने दोस्तों से मिलना ऐसा उत्तेजक और पागलपन भरा होता है कि
आपको इसका अंदाज़ भी नहीं रहता कि आप किसी और घर में हैं जहाँ आपको कुछ शिष्टाचार दिखाना
चाहिए और शांत रहना चाहिए। लेकिन फिर इस पुनर्मिलन का सारा कारण ही यही था कि कॉलेज
के दिनों को याद किया जाए और वह उसकी बेहतर शुरुआत थी। जब ड्राइंग रूम में हम सोफे पर बैठ
गए तब एमपी ने हैप्पी के बारे में पूछा
'वह अपने घर में भी समय पर नहीं है', मैंने एमपी की ओर देखते हुए कहा और हम फिर से हँसने
लगे। अगले करीव आधे घंटे तक हम तीनों बातें करते रहे, एक दूसरे का मजाक उड़ाते रहे और हैप्पी
की माँ का बनाया हुआ लंच उड़ाते रहे। हाँ, हमने हैप्पी के बगैर ही खाना शुरू कर दिया था। यह
सुनने में तो अच्छा नहीं लगता-लेकिन हमारे पास इसका ठोस कारण था-उसके बारे में यह कोई नहीं
बता सकता था कि वह कब आएगा, इसलिए इंतज़ार करने का कोई मतलब नहीं था। कुछ देर बाद
फिर दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ आई। दरवाज़ा हैप्पी की माँ ने खोला।
हैप्पी वीर!' एमपी डाईनिंग टेवल से उठते हुए चिल्लाया।
अमनदीप और मैंने एक-दूसरे को देखा क्योंकि जब एमपी हैप्पी के गले लगा तो ऐसा लगा जैसे
उसकी ऑँखों से ऑसू निकल आएँगे। हमें याद आया कि जब वे पहरों वैठकर शराव पीते थे तो कैसे
रोने लगते थे, जब उनके दिमाग की बत्ती ग्ल हो जाती थी और दिल बातें करने लगता था।
अमनदीप और मैं अपना कोक पीते हुए उनकी भाव्कता के मज़े लिया करते थे।
हम सब खड़े हरुए, बारी-बारी से उसके गले लगे और फिर खाने में लग गए! उस दिन खाना बहुत
स्वादिष्ट बना था। या शायद इसलिए कि हम लोग बहुत दिनों बाद साथ-साथ खाना खा रहे थे,
जिसने उसे खास बना दिया था।
खाने के बाद हम दूसरे फ़्लैट में चले गए। यह उसी बिल्डिंग में कुछ माले ऊपर था, यह हैप्पी के
परिवार का दूसरा फ़्लैट था जो रिश्तेदारों और हम जैसे दोस्तों के लिए था। अंदर जाते हुए हम
एमपी के एक च्टकुले पर हैँस रहे थे और शायद उस समय भी हँस रहे थे जब हम ड्राईग रूम में बड़े
से काऊच पर धैँसे हुए थे। बॉहें फैलाए छत की दीवार की ओर देखते हुए हम खुला-खुला महसूस कर
रहे थे।
कुछ देर तक तो कोई भी नहीं बोला। और फिर हैप्पी के ठहाके के साथ बातचीत फिर शुरू हुई।
मेरे ख्याल से उसे रामजी से जुड़ा कोई प्रसंग याद आ गया था।
उस शाम हम चारों ने उस फ़्लैट में ज़बरदस्त समय बिताया। हम आगले पिछ्ले जीवन के बारे में
बातें करते रहे। कॉलेज की उन खूबसूरत नहीं दिखने वाली लड़कियों के बारे में, कंप्यूटर पर देखी गई
अश्वील फिल्मों के बारे में, विदेशों के अपने-आपने अनुभवों के बारे में और भी बहुत सारी बातें।
'तो तुमको यूरोप अधिक अच्छा लगा या अमेरिका?" हैप्पी ने उठते हुए मुझसे पूछा।
'यूरोप, मैंने लेटे-लेटे छत की ओर देखते हुए जवाब दिया।
'क्यों?' अमरदीप ने पूछा। वह अक्सर हर बात के पीछे के कारण को जानने में दिलचस्पी रखता
था (लेकिन उसने हमें यह नहीं बताया कि होस्टल के दिनों में वह हर इतवार को कहाँ जाता था)।
यूरोप का अपना इतिहास है। जब आप देश बदलते हैं तो भाषा बदल जाती है खाने की कला और
स्थापत्य कला, सफ़र के बेहतरीन साधन, दिलकश नज़ारे, यूरोप में सब कुछर शानदार है, मैंने बताने
की कोशिश की।

To be continued.. in next part 3