मेरी चुनिंदा लघुकथाएँ - 14 राज कुमार कांदु द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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मेरी चुनिंदा लघुकथाएँ - 14

लघुकथा क्रमांक : 37
नेतागिरी
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अपने सैकड़ों समर्थकों के साथ वह छुटभैया नेता भगवान श्री गणेशजी की शरण में जा पहुँचा।
कैमरे और उनकी फ़्लैश लाइटें चमकने लगीं।
अपने चरणों में झुके नेता को देखकर भगवान विघ्नविनाशक रहस्यमयी हास्य के साथ बोले, "वत्स ! अपनी पार्टी के नेता की गिरफ्तारी से दुःखी होकर उसे छुड़ाने की आस लिए हुए तुम मेरे पास आए हो।"
उनके चरणों में नतमस्तक वह नेता बोला, "क्षमा करें प्रभु ! आप तो अंतर्यामी हैं। आपसे क्या छिपाना ? दुनिया चाहे जो समझे, मैं तो आपका शुक्रिया अदा करने आया हूँ भगवन ! आपसे प्रार्थना है, इसी तरह एक एक कर मेरी राह के काँटे हटाते जाइये।"


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लघुकथा क्रमांक : 38
इंसान
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कोरोना के कहर से बचने की जद्दोजहद में मजदूरों से खचाखच भरी ट्रक सूरत से निकल कर मध्यप्रदेश से गुजर रही थी।

ट्रक में भेड़ बकरियों की तरह ठूँसे हुए ये मजदूर भीषण गर्मी का प्रकोप भी झेल रहे थे। कोरोना जैसी भयानक महामारी के साथ ही भूख की दोहरी मार सहते मजदूरों के चेहरे पर मार्मिक पीड़ा के साथ ही अपने गाँव, अपने लोगों के पास पहुँचने की खुशी भी झलक रही थी।

सफर का आज दूसरा दिन था।

ट्रक में बैठे दिहाड़ी मजदूर अमृत की तबियत अचानक खराब होने लगी। खाँसी के साथ ही उसे तेज बुखार भी हो गया था।
कोरोना का खौफ इंसानों से उनकी इंसानियत छीन ले गया। इंसान कहे जानेवाले उस ट्रक के मुसाफिरों ने नवयुवक अमृत की मदद करने की बजाय हैवानों को भी शर्मसार करते हुए जबरन उसे ट्रक से नीचे उतार दिया।

इससे पहले कि ट्रक उसे छोड़कर आगे बढ़ता, एक मजदूर ट्रक से नीचे कूद पड़ा। लगभग बेसुध पड़े अमृत ने बड़ी मुश्किल से आँखें खोलते हुए उस मजदूर की तरफ देखा। उसने उसके नजदीक आकर बड़े स्नेह से उसके सिर को अपनी गोद में रख लिया और अपने हाथ में थमी बोतल का पानी उसे पिलाते हुए नजदीक से गुजर रहे लोगों से मदद की गुहार लगाने लगा।
अमृत ने उसे पहचान लिया। वह उसका पुराना मित्र 'याकूब' था जिससे उसने पिछले कुछ महीनों से बातचीत लगभग बंद कर दिया था।
उसके मनोमस्तिष्क में सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे वीडियो एक बार फिर घूमने लगे जिनमें कहा जा रहा था 'मुस्लिमों का पूर्ण बहिष्कार करो.....!'


( एक सत्य घटना से प्रेरित )

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लघुकथा क्रमांक :39

संतोष
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"अजी सुन रहे हो कलुआ के बाबू ? लाक डाउन का आज पाँचवाँ ही दिन है और घर में अनाज का एक दाना भी नहीं है। अभी तो और सोलह दिन हमें बिताने हैं इसी झुग्गी में।" परबतिया के स्वर से वेदना झलक रही थी।
"मुझे भी इसकी चिंता है कलुआ की माँ...लेकिन तुम्हीं बताओ क्या करूँ मैं ? इस मुई महामारी की वजह से पहले ही कई दिन बेकार रहा हूँ और अब तो दुबारा लगाए गए इस लॉकडाउन में दिहाड़ी मिलने की कोई उम्मीद ही नहीं बची है। बड़ी मुश्किल से बनिये से राशन उधार लाया था जो कि अब खत्म हो गया है। कुछ समझ नहीं आ रहा। पिछला उधार चुकाए बिना वह और राशन तो देने से रहा।" हरिया ने अपना दर्द व्यक्त किया।
"तो क्या करें हम ? तुम चाहते हो कि हम अपने बच्चे सहित यहीं घर में पड़े पड़े मर जाएं ?" परबतिया रुआँसी हो गई।
"अब भगवान जैसे भी रखे, लेकिन मैं किसी भी सूरत में घर से बाहर नहीं जाऊँगा। अगर हम घर में भूख से मर गए तो कोई बड़ा नुकसान नहीं होगा, लेकिन सरकार की बात न मानकर अगर हम बाहर गए और बिमारी की चपेट में आ गए तो न जाने कितनों की जान हम लेकर जाएंगे ! क्या तुम यह चाहोगी कि मैं अपनी जान बचाने के लिए लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ कर लूँ और सरकार के प्रयासों पर पानी फेर दूँ ? " हरिया ने विवशता से कहा।

...और फिर ये भी तो हो सकता है कि सरकार हम गरीबों की भी कोई सुधि ले !" परबतिया की बात सुनकर हरिया के चेहरे पर संतोष झलकने लगा था।
" नहीं कलुआ के बाबू ! नहीं ! भगवान हमें जिस हाल में भी रखेगा रह लेंगे, जीना होगा तो जी लेंगे लेकिन अपने स्वार्थ के लिए दूसरों की जान खतरे में नहीं डालेंगे।