मजबूर जज़... Saroj Verma द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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मजबूर जज़...

गाँव की चौपाल पर कुछ व्यक्ति झुण्ड लगाकर बैठें हैं,कोई किसी से बात कर रहा था तो कोई हुक्का गुड़गुड़ा रहा है,सब अपनी अपनी बातों में मग्न हैं,सबकी अपनी अपनी अलग अलग बातें हैं,कोई ये कह रहा है कि गाँव के सरपंच ने इस बार गाँव का कितना विकास किया तो कोई ये कह रहा है कि इस बार गाँव का सरपंच बदल जाना चाहिए,कोई इस बार फसल अच्छी ना होने का रोना रो रहा था तो किसी का ये रोना है कि उसकी बेटी के लिए कोई काबिल वर नहीं मिल रहा है,किसी को पोता होने की खुशी है तो किसी को अपने बूढ़े माँ बाप को खोने का ग़म है और इसी दौरान उस चौपाल पर एक बड़ी सी मोटरकार आकर रुकी और उसमें से एक सज्जन उतरकर बाहर आए और उन्होंने अपने हाथों में फूलों की माला उठाई और ठाकुर साहब की उजाड़ हवेली के पास वाले खेत की ओर चल पड़े,जहाँ ठाकुर साहब की समाधि थी.....
चौपाल पर बैठे सभी व्यक्ति उस सज्जन को देख रहे थे,तभी उस गाँव के नए डाकिया बाबू वहाँ से गुजरे तो सभी ने उनसे अपनी अपनी डाक के बारें में पूछा और ये भी कहा कि अगर हम में से किसी की डाक आई है तो यहीं दे दीजिए,नहीं तो खामख्वाह आपको हम लोगों के घर जाने की तकलीफ़ उठानी पड़ेगी,फिर क्या था नए डाकिया बाबू ने उन सभी की डाक वहीं दे दी और अपनी साइकिल पर सवार होकर वो वापस जाने लगे तो उन्होंने जब वो बड़ी सी मोटरकार देखी तो वहाँ मौजूद लोगों से पूछा....
"इतनी बड़ी मोटरकार! वो भी इस गाँव में,ये है किसकी",
तब वहाँ मौजूद जो उन सभी में सबसे ज्यादा बुजुर्ग थे उनका नाम घनश्याम दास था तो वे बोलें....
"जज़ साहब की है",
"पहले तो कभी नहीं देखा इस मोटरकार को",डाकिया बाबू बोले....
"जी! वे साल में एक बार इसी दिन यहाँ आते हैं इसलिए शायद आपने नहीं देखी होगी उनकी मोटरकार" घनश्याम दास जी बोले....
"मैं कुछ समझा नहीं,साल में एक बार आते हैं,इसका क्या मतलब हुआ भला",डाकिया बाबू बोले....
"हाँ! उन्होंने कुछ ऐसा किया था जिसका वे पश्चाताप करने यहाँ आते हैं",घनश्यामदास जी बोले....
"अरे! बाबा! आप तो पहेली को सुलझाने के वजाय और ज्यादा उलझाते जा रहे हैं,पूरी बात विस्तार से समझाइए ना!",डाकिया बाबू बोले...
"ये बहुत सालों की बात है,उनके हाथों कुछ ऐसा हो गया था जो उनके मन को आज तक टीसता रहता है,जज़ होने के नाते उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था,लेकिन मजबूरीवश उन्हें ऐसा करना पड़ा,ठकुराइन के खूनी को सजा देकर उन्हें आत्मग्लानि का एहसास हुआ था" घनश्यामदास जी बोले....
"कौन ठकुराइन! क्या वो इसी गाँव में रहतीं थीं"?,डाकिया बाबू ने पूछा....
"हाँ! वो इसी गाँव में रहतीं थीं,उनका नाम मणिरत्ना था",घनश्यामदास जी बोलें...
"फिर क्या हुआ उनके साथ"डाकिया बाबू ने पूछा...
"ये जानने के लिए तो आपको अपनी साइकिल साइड में खड़ी करके यहाँ चौपाल के चबूतरे पर बैठना होगा,तब इत्मीनान से मैं आपको उनकी कहानी सुनाऊँगा",घनश्यामदास जी बोले....
"जी! अभी लीजिए",
और ऐसा कहकर डाकिया बाबू ने अपनी साइकिल उस चौपाल के बगल में खड़ी कर दी और आ बैठे चबूतरे में,इसके बाद घनश्यामदास जी ने डाकिया बाबू को कहानी सुनानी शुरु की....
बहुत साल पहले इस गाँव में एक ठाकुर रहा करते थे,जिनका नाम स्वराज सिंह था, उनके माता पिता कह कहकर हार गए लेकिन उन्होंने शादी नहीं की,क्योंकि वे विलायत से पढ़कर आए थे इसलिए वे अपने लिए एक पढ़ी लिखी ,सुन्दर और सुशील पत्नी चाहते थे,दिनबदिन उनकी उम्र बढ़ती जा रही थी और साथ साथ उनके प्रति उनके माता पिता की चिन्ता भी....
स्वराज अपनी ही दुनिया में खोए रहते या तो किताबें पढ़कर अपना दिन बहलाते या तो गाँव की सैर करने निकल जाते और फिर एक दिन जब वे गाँव की सैर पर निकले तो चलते चलते वे गाँव से बाहर किसी दूसरे गाँव पहुँच गए और जब उन्हें सुध आई तो वे गाँव का रास्ता भूल चुके थे,इस दौरान उन्हें प्यास लगी, लेकिन उन्हें वहाँ आस पास कोई कुआँ या बावड़ी नज़र नहीं आई,फिर उन्होंने सोचा ऐसे तो काम नहीं चलेगा,गाँव तो ढूढ़ना ही पड़ेगा और उन्होंने फिर से चलना शुरु किया,तब उन्हें कुछ दूरी पर कुछ झोपड़ियाँ दिखाई दीं और वे वहाँ पहुँच गए,वे कुछ देर इधर उधर देखते रहे लेकिन उन्हें वहाँ कोई नज़र नहीं आया, फिर थक हारकर वे एक पेड़ की छाँव तले जा बैठे और तभी एक सोलह सत्रह साल की सुकुमारी मटके में पानी लेकर उस ओर आई और अपनी झोपड़ी के भीतर जाने लगी,तब स्वराज सिंह उसके पास जाकर बोले....
"थोड़ा पानी मिलेगा,बहुत प्यास लगी",
"हाँ...हाँ....क्यों नहीं,अभी भीतर से लोटा भरकर लाती हूँ",
और ऐसा कहकर वो लड़की झोपड़ी के भीतर गई और जल भरे लोटे के साथ थोड़ा सा गुड़ भी एक पत्ते पर ले आई और स्वराज से बोली....
"खाली पेट पानी नहीं पिया जाता",
इसके बाद स्वराज सिंह ने गुड़ खाकर पानी पिया और उस लड़की से उसका नाम पूछा तो उसने अपना नाम मणिरत्ना बताया,उसने ये भी बताया कि बस्ती के सभी लोग खेतों में काम करने गए हैं,बस आते ही होगें,तब स्वराज ने मणिरत्ना को अपने गाँव का नाम बताकर उससे कहा कि ....
"मैं रास्ता भटक गया हूँ,अगर तुम मुझे मेरे गाँव का रास्ता बता देती तो अच्छा रहता",
तब मणिरत्ना बोली....
"बाबू! साँझ हो गई,वो रास्ता बड़ा ही खतरनाक है,वहाँ बाघ और भालूओं का बड़ा खतरा रहता है,आज रात आप यही रुक जाते तो अच्छा रहता,अभी कुछ देर में माँ,बापू भी आए जाते हैं"
और फिर उस रात मणिरत्ना की बात सुनकर स्वराज उसकी झोपड़ी पर ही रुक गया,रात को उसने उसके यहाँ ज्वार की रोटी और प्याज की चटनी खाकर अपनी भूख मिटाई और दूसरे दिन जब वो घर लौटा तो उसके माँ बाप ने चिन्ता व्यक्त करते हुए,उसके घर ना आने कारण पूछा,तब स्वराज ने पूरी कहानी कह सुनाई और ये भी बोला कि वो मणिरत्ना से शादी करना चाहता है,स्वराज को ना तो अब मणिरत्ना के गरीब होने का अफसोस था और ना ही उसके अनपढ़ होने का,बस वो तो उसे जैसी थी वैसी ही भा गई थी, स्वराज के माँ बाप अब ये बात सुनकर बहुत खुश थे ,उनकी तो जैसे मनचाही मुराद पूरी हो गई थी और बड़े ही धूमधाम से उन्होंने मणिरत्ना की शादी स्वराज से करवा दी.....
स्वराज मणिरत्ना से अत्यधिक प्रेम करता था और उसे कभी भी अपनी आँखों से ओझल ही नहीं होने देता था,हालांकि कि मणिरत्ना स्वराज से दस बारह साल छोटी थी,लेकिन उम्र का ये अन्तर भी दोनों के प्रेम के बीच दरार ना बन सका था,दिन यूँ ही बीत रहे थे,दोनों पति पत्नी दिनरात एक दूसरे के प्रेम में डूबे रहते,उन्हें दुनियादारी की कोई परवाह ना थी और इसी दौरान खुशखबरी आई कि मणिरत्ना माँ बनने वाली है,फिर क्या था पूरा परिवार खुशियों में डूब गया और कुछ महीनों बाद मणिरत्ना की गोद भराई की रस्म करवाई गई ,गोद भराई के बाद मणिरत्ना अपने कमरे में आराम कर रही थी ,क्योंकि रस्में निभाते निभाते वो काफी थक चुकी थी,पूरी हवेली मेहमानों से खचाखच भरी थी,इसलिए मणिरत्ना की सास ने उससे कहा कि वो अपने कमरे में जाकर आराम करे,मणिरत्ना अपने कमरे में आराम कर रही थी और उसकी आँख लग गई,लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था,
मणिरत्ना की सास ने पूजा का दीपक उसके कमरे में किसी नौकरानी से रखने को कहा,जो कि वो रखना शुभ माना जाता था,नौकरानी दीपक द्वार के कोने पर रखकर चली गई,उसने सोचा शायद बहूरानी सो रही है,उन्हें इस वक्त जगाना ठीक नहीं है,उसे क्या मालूम था जो दीपक वो शुभ मानकर मणिरत्ना के कमरे के द्वार पर रखकर गई है,उस दीपक की लौ द्वार पर टँगे परदे को छूकर आग की लपटों में बदल जाएगी,परदे ने आग पकड़ी तो फिर दरवाजा भी धू धूकर जलने लगा,आग जलने की बू इसलिए किसी को नहीं आई क्योंकि कुछ देर पहले घर में हवन हुआ था तो सबने सोचा ये उसी की बू होगी और कुछ ही देर में आग दरवाजे से होती पूरे कमरें में फैलने लगी,इसी दौरान धुएँ की बू से मणिरत्ना का गला रूँधने लगा और उस की आँख खुल गई,कमरे में आग देखकर उसने चीखना शुरु कर दिया,
जब लोगों ने उसकी आवाज़ सुनी तो भागकर वहाँ आए,लेकिन तब तक आग मणिरत्ना के बिस्तर तक पहुँच चुकी थी और अब आग ने उसकी साड़ी को भी पकड़ लिया था,अब मणिरत्ना आग में झुलसने लगी,सब पहुँचे और सब पानी डालकर आग बुझाने की कोशिश करने लगे,लेकिन स्वराज अपनी मणिरत्ना को झुलसते हुए नहीं देख सकता था,इसलिए वो अपने ऊपर चादर डालकर कमरे के भीतर घुस गया और झुलसी हुई रत्ना को बाहर ले आया,लेकिन स्वराज की सब मेहनत अब बेकार थी,क्योंकि मणिरत्ना बुरी तरह से जल चुकी थी,उसकी बनारसी साड़ी पिघलकर उसकी त्वचा पर बुरी तरह से चिपक चुकी थी,उसके बाल जल चुके थे,उसे अस्पताल भी ले जाया गया और डाक्टरों ने उसका इलाज शुरु कर दिया,वो बच तो गई लेकिन बच्चा नहीं बचा था और मणिरत्ना इतनी कुरुप हो चुकी थी कि जो भी उसे देखता तो उसके मुँह से हाय निकल जाती....
स्वराज भी मणिरत्ना को बचाने में झुलस गया था लेकिन इतना नहीं सुलझा था,उसे तो मामूली से घाव आए थे,वो मणिरत्ना से मिलने पहुँचा तो उसकी रुह काँप उठी और वो वहीं खड़ा खड़ा बेहोश होकर गिर पड़ा,लोगों ने उसे सम्भाला और मणिरत्ना से दूर ले गए,ऐसे ही एक महीना होने को आया और मणिरत्ना अभी भी अस्पताल में ही रोते तड़पते अपने दिन गुजार रही थी,स्वराज उसके सामने जाता तो वो बिलख पड़ती,सिर पर बाल नहीं,पिघली त्वचा,एक कनपटी गरदन से चिपकी हुई ,उसकी हालत देखकर स्वराज तड़प जाता....
और एक रात उसने अपनी माँ से कहा कि आज वो मणिरत्ना के कमरे में रहेगा और वो रात को वहाँ रुक गया,जब उसे लगा कि सब सो चुके हैं और वहाँ कोई नहीं है तो उसने अपनी मणिरत्ना को आखिरी बार देखा और उसकी गरदन पर अपनी दोनों हथेलियाँ रखकर उसका गला दबाने लगा,लेकिन उसी समय वहाँ डाक्टर एक नर्स के साथ मणिरत्ना को देखने आए जो कि हर रात आते थे,ये उनकी ड्यूटी थी,उन्होंने स्वराज को ऐसा करते देख लिया और डाक्टर ने स्वराज को रोकने की बहुत कोशिश की,डाक्टर ने स्वराज को बहुत हटाया, लेकिन स्वराज ने मणिरत्ना का गला घोटकर ही दम लिया....
इसके बाद डाक्टर और नर्स की गवाही पर स्वराज को गिरफ्तार कर लिया गया और उस पर केस चला,इसके बाद उसको सजा सुनाने का दिन भी आ गया,लोगों ने समझा कि जज़ साहब शायद स्वराज पर रहम करेगें,उसे मणिरत्ना के खून के जुर्म में शायद कड़ी सजा ना दें क्योंकि स्वराज ने ये सब तो अपनी पत्नी की भलाई के लिए ही किया था,वो उसे तड़प तड़प जीते हुए नहीं देख सकता था,लेकिन जज़ साहब के लिए ये बात मायने नहीं रखती थी कि स्वराज ने मणिरत्ना का खून किन कारणों से किया,जज़ साहब के लिए ये बात ज्यादा मायने रखती थी कि स्वराज ने खून किया है और उसे उसके इस जुर्म की सजा मिलनी ही चाहिए और जज़ साहब ने स्वराज को फाँसी की सजा सुनाई और इस बात का जज़ साहब को भी बहुत मलाल था,लेकिन वो अपने फर्ज के आगे मजबूर थे,इसलिए उन्होंने ऐसा किया,स्वराज की फाँसी के बाद उसके माँ बाप भी बस कुछ सालों तक ही जिन्दा रहे,शायद वे दोनों अपने जवान बेटे की मौत बरदाश्त नहीं कर पाएं,जज़ साहब उसी बात का पश्चाताप करने हर साल स्वराज की समाधि पर फूल माला चढ़ाने आते हैं,इसी दिन उन्होंने स्वराज को फाँसी की सजा सुनाई थी...
और कहानी सुनाते सुनाते घनश्यामदास जी शान्त हो गए,तब डाकिया बाबू बोले....
"ओह...तो ये थी एक मजबूर जज़ की कहानी",
"जी! यही कहानी थी उनकी",घनश्यामदास जी बोले....
और फिर मजबूर जज़ की कहानी सुनकर डाकिया बाबू अपनी साइकिल पर सवार होकर अपने रास्ते चले गए....

समाप्त....
सरोज वर्मा....